दीर्घोपयोगी कृषि की संकल्पना

Agriculture
Agriculture
कृषि वह प्रक्रिया है जो कुछ पौधों की खेती तथा पालतू पशुओं के पालन द्वारा भोजन, चारा, रेशे तथा अन्य मनचाहे पदार्थों को उत्पन्न करती है। दूसरे विश्व युद्ध के उपरांत कृषि का स्वरूप ही बदल गया है। नई तकनीकों के प्रयोगों में मशीनों के प्रयोग द्वारा, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग और सिंचाई की प्रणालियों के विस्तार इत्यादि के अधिक प्रयोग के माध्यम से खाद्यान्न व रेशों का उत्पाद कई गुना बढ़ गया है। इन परिवर्तनों के कारण किसान अब कम मेहनत के बावजूद अधिकांश खाद्यान्न व रेशे की मांग को पूरा करने लगे। यद्यपि इन नई तकनीकों का बहुत लाभ हुआ है, परन्तु इन्हीं के कुछ हानिकारक परिणाम भी हुए हैं- भूमि की ऊपरी परत के स्तर में गिरावट व भूमिगत जल के प्रदूषण के कारण कुछ गंभीर सामाजिक व पर्यावरण-संबंधी समस्याएँ पैदा हो गई हैं। इसके अतिरिक्त नई मशीनों व उपकरणों के प्रयोग से खेतों पर काम करने वाले मजदूरों में बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है।

पिछले दो दशकों में कृषि विशेषज्ञों की भूमिका की आलोचना हुई है, जिनके द्वारा ये सामाजिक समस्याएँ बढ़ी हैं। आधुनिक कृषि की विधियों का नकारात्मक परिणाम देखकर, अब ‘दीर्घोपयोगी कृषि’ की मांग उठ रही है। दीर्घोपयोगी कृषि-प्रणाली (sustainable agro system) पर्यावरण को संरक्षित करने की प्रणालियों के साथ-साथ कृषकों, मजदूरों, उपभोक्ताओं आदि, नीति निर्णायकों व अन्य लोगों के लिये सम्पूर्ण खाद्य तंत्र के लिये नवनीकृत व आर्थिक रूप से अच्छे स्तर के सुअवसरों को प्रदान करने का प्रयास कर रही है।

21.1 मानवीय आवश्यकताएँ और पर्यावरण का अत्यधिक दोहन
दुनिया भर में निरंतर बढ़ती शहरी जनसंख्या से, विकासशील देशों के कई नगर गरीबी के केन्द्र बन गए हैं। अब संसार की लगभग आधी जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहती है। नौकरियों, भोजन, निवास-स्थल, मनोरंजन व एक बेहतर जीवन शैली की खोज में ग्रामीण लोग लगातार शहरी क्षेत्रों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। दूसरे लोगों का शहरों की ओर प्रस्थान निर्धनता, कृषि के लिये भूमि का अभाव तथा कृषि संबंधित रोजगारों के अवसरों में होने वाली कमी है। दुनिया भर के शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में लगातार वृद्धि हो रही है तथा विकासशील देशों में यह वृद्धि तीव्र रूप से हो रही है। शहरी क्षेत्रों में निर्धनता (गरीबी) एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई है। इसका सबसे बड़ा कारण है काफी बड़ी संख्या में गरीब लोग गाँवों से शहरों की तरफ आ गये हैं। सबसे बड़ी मानवीय जरूरत, अपनी उत्तरजीविता की आवश्यकता है।

21.2 पर्यावरण की गुणवत्ता को उत्तम बनाने की आवश्यकता
उपलब्ध संसाधनों पर हमारी विशाल जनसंख्या का बड़ा दबाव पड़ता है। संसाधनों को उच्च दर पर उपभोग करने से बड़ी मात्र में अपशिष्ट निकलते हैं। शहरी नागरिकों को घर, भोजन, पानी, यातायात संबंधी ऊर्जा, खनिज तथा अन्य साधनों को प्रदान करने की होड़ में वनों और कृषि-भूमि के बड़े हिस्सों का जरूरत से ज्यादा दोहन एवं अपक्षीर्णन होता है। शहरों को विकसित करने के उद्देश्य से ग्रामीण उपजाऊ भूमि, वन संपदा व वन्य जीवन के पर्यावासों का विनाश होता है। उसी समय वे बहुत कम मात्रा में खाद्य वस्तुएँ उनके प्रयोग के लिये प्रदान कर पाते हैं। पर्यावरण की दृष्टि से, हमारे नगर उन विशाल ‘वैक्यूम क्लीनरों के समान हैं, जो न केवल सारी प्राकृतिक संपदा को निगल जाते हैं, बल्कि बदले में प्रदूषण, अपशिष्ट और गर्मी के अलावा कुछ नहीं देते।

स्थिति को सुधारने की अत्यंत आवश्यकता है जिससे मानव-जाति एक अच्छी गुणवत्ता वाले पर्यावरण में रह सके। हमारे स्वयं के संरक्षण व एक सुखद जीवन को जीने के लिये हमें एक स्वस्थ पर्यावरण की अत्यंत आवश्यकता है।

21.3 दीर्घोपयोगी कृषि
दीर्घोपयोगी कृषि (Sustainable Agriculture) एक प्रकार की कृषि प्रणाली है, जो बिना भूमि की उत्पादकता का विनाश किये या पर्यावरण को भारी हानि पहुँचाए बिना वर्तमान काल की जनसंख्या को पर्याप्त खाद्यान्न एवं लाभ प्रदान कर सकती है। दीर्घोपयोगी कृषि प्रणालियाँ वे हैं जो कम से कम विषैली हैं, जो ऊर्जा का उचित संचालन करती हैं और इसके बावजूद निर्यात व लाभ के स्तर को बनाए रखती हैं अर्थात कम ऊर्जा की कृषि या जैविक कृषि। अतः दीर्घोपयोगी कृषि वह है, जो:-

- लाभकारी उत्पादकता का समर्थन करती है।
- पर्यावरण गुणवत्ता का संरक्षण करती है।
- प्राकृतिक संपदा का कुशलतापूर्वक प्रयोग करती है।
- उपभोक्ताओं को सही दाम वाले, अच्छे स्तर के उत्पादों को प्रदान करती है।
- अनवीनीकृत होने वाली संपदा पर कम आश्रित होती हैं।
- कृषकों व ग्रामीण समाजों के जीवन स्तर में सुधार लाती है।
- एवं सम्पोषित कृषि का सुप्रभाव आगामी पीढ़ियों के लिये भी होगा।

21.4 दीर्घोपयोगी कृषि की विधियाँ
दीर्घोपयोगी उत्पादन की विधियों में विभिन्न प्रकार की पद्धतियाँ शामिल हैं। इसकी योजना के स्तर पर यह जरूरी है कि हम स्थानीय भौगोलिक स्थलाकृति, मृदा की दशा और प्रकृति, स्थानीय मौसम, पीड़कों, स्थानीय निवेश तथा किसानों के लक्ष्यों को अपने ध्यान में रखें। दीर्घोपयोगी कृषि (संपोषित कृषि) के लिये उपयुक्त विधियों का चयन करने में किसान (फसल उगाने वाला) को अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करना होगा। दीर्घोपयोगी कृषि में कुछ निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है-

- जुताई की विधियों का चयन, जो कि जैविक व आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देती हो।
- आवश्यकतानुसार सुधारित किस्मों का चयन करना।
- सिंचाई की उचित विधियों द्वारा मृदा का सही प्रबंधन व प्रयोग करना।

भारत एवं दूसरे विकासशील देशों के बहुत से किसान इस मामले में कुछ पारंपरिक पद्धतियों का प्रयोग करते आए हैं। इनमें सम्मिश्रित पौधों को उगाना, विभिन्न पौधों को एक साथ उगाना व भिन्न-भिन्न फसलों का चक्रीकरण शामिल है।

(क) मिश्रित फसल उगाना या दि्ग-परिवर्तित कृषि
हमारे देश में यह कृषि की एक पुरानी प्रथा है। एक ही खेत में एक ही समय में, दो या दो से अधिक प्रकार के पौधों की किस्में उगाई जाती हैं। अगर किसी कारण से एक किस्म की फसल ठीक ढंग से तैयार नहीं कर पाती हैं, तब दूसरी किस्म की फसल संपूर्ण विफलता के जोखिम को बचा लेती है। प्रायः एक लम्बे दीर्घकाल के पौधे को छोटी आयु के पौधे के साथ उगाया जाता है, ताकि परिपक्व होने के समय तक दोनों को पर्याप्त मात्रा में पोषण मिल सके। यहाँ पर पानी और पोषण की मात्रा अलग-अलग हैं।

प्रायः एक फलीदार किस्म के खाद्यान्न को मुख्य पौधे की किस्म के साथ उगाया जाता है। फलीदार पौधे वायुमंडलीय ‘नाइट्रोजन’ का स्थिरीकरण करके भूमि के उपजाऊपन को बढ़ाते हैं। इससे रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्चे की बचत होती है।

मिश्रित फसल उगाना या दि्ग परिवर्तित कृषि पद्धति से फसल उपजाने में कई योजनाओं का प्रयोग होता हैः

‘पॉलीवैराइटल’ (polyvarietal बहु-किस्मों) प्रकार की कृषिः जिसमें एक ही प्रकार के पौध की कई विभिन्न किस्मों की फसलें उगाई जाती हैं।

‘इन्टरक्रॉपिंग’ (Intercropping) विधिः जिसमें एक प्लॉट पर एक ही समय पर दो या दो से अधिक किस्म के पौधे उगाए जाते हैं। उदाहरण के लिये कार्बोहाइड्रेट तत्वयुक्त अनाज जो मृदा की नाइट्रोजन का प्रयोग करते हैं और नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले फलीदार पौधे (लैग्यूम) उसे वापस मृदा में भेज देते हैं।

बहुशस्यन (Poly culture) : इस प्रणाली में विभिन्न समय कालों में परिपक्व होने वाले विभिन्न प्रकार के पौधों की एक साथ बुआई की जाती है। इस विधि का मुख्य लाभ यह है कि विभिन्न पौधों की पानी व खाद की जरूरतें भिन्न-भिन्न होती हैं। इसी कारणवश इन निवेशों की कम आवश्यकता होती है। इस प्रणाली के अंतर्गत पीड़कों का नियंत्रण प्राकृतिक रूप से सफलतापूर्वक हो जाता है क्योंकि उनके परभक्षियों को निवास के लिये कई निवास-स्थल मिल जाते हैं। ऐसा पाया गया है कि मोनोकल्चर (एकल कृषि) के मुकाबले में यह प्रणाली प्रति हेक्टेयर कहीं अधिक उत्पाद देती है।

बड़े पैमाने पर यांत्रिकीकरण करने से एकल कृषि को बढ़ावा मिलता है। अर्थात इस प्रणाली के अंतर्गत कृषि योग्य भूमि के विस्तृत क्षेत्र में केवल एक ही किस्म का पौधा उगाया जाता है। इस प्रणाली में उर्वरक, पीड़क व पानी का बहुत अधिक प्रयोग होता है। यह विधि भले ही थोड़े समय की अवधि के लिये उपयोगी हो, परन्तु लम्बी अवधि में यह आर्थिक और पर्यावरण-संबंधी समस्याओं का कारण होती है।

(ख) फसलों का चक्रीकरण (Crop Rotation)
इस प्रणाली में एक ही खेत में अलग-अलग प्रकार के पौधे एक के बाद एक उगाए जाते हैं। इस प्रणाली से कीटों और बीमारियों पर नियंत्रण हो जाता है, भूमि के उपजाऊपन में वृद्धि होती है तथा मृदा अपरदन में कमी होती है। प्रायः मृदा एक उच्च पैदावार के एकमात्र पौधे की लगातार पैदावार का भार इसलिये नहीं उठा सकती क्योंकि इस प्रक्रिया से जहाँ एक ओर कुछ पोषक तत्व पूर्ण रूप से खत्म हो जाते हैं, बल्कि दूसरी ओर कुछ अन्य पोषक तत्वों का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं होता। इससे भूमि में पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है और कई प्रकार के रोगों एवं पीड़कों का भी विकास होता है।

लैग्यूमिनेसी कुल की फसल (उदाहरण हरा चना) उगाने से जैसे फसल का चक्रीकरण बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि लैग्यूम (फलीदार पौधे) नाइट्रोजन के स्तर को मृदा में बढ़ा देते हैं इसके कारण वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करने की क्षमता बढ़ जाती है, रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरक की कम जरूरत पड़ती है, इससे धन की बचत भी हो सकती है और बहुशस्यात्पादन का एक वर्ष के अंतराल में एक ही खेत में दो या दो से अधिक प्रकार के फसलों को एक के बाद एक उगाने के रूप में बहुशस्य उत्पादन के रूप में समझा जा सकता है। इससे उच्च उत्पादकता के पौधों की किस्मों को अत्यधिक मात्रा में खाद एवं पानी कीटाणुनाशक के साथ उगाने के हानिकारक प्रभावों से बचा जा सकता है। यह प्रणाली कुछ सीमित अवधि के लिये उपयुक्त है, परन्तु दीर्घ अवधि में भूमि उच्च उत्पाद का भार नहीं उठा पाएगी।

फसलों का चक्रीकरण निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखता है:

(i) फलीदार फसलों को गैर-फलीदार फसलों के बाद में ही बोना चाहिए।
(ii) जिन पौधों की किस्मों को कम पानी (सिंचाई) की आवश्यकता है, उन्हें अधिक सिंचाई (पानी) की जरूरत वाले पौधों के बाद बोना चाहिए।
(iii) अधिक खाद की मांग वाले पौधों की किस्मों को कम खाद की आवश्यकता वाली फसलों से पहले बोना चाहिए।

पौधों के आवर्तनों के मुख्य प्रतिरूप
1. हरा चना - गेहूँ - मूंग
2. मूंगफली - गेहूँ - मूंग
3. अरहर - गन्ना - गेहूँ - मूंग
4. धान - गेहूँ - मूंग

एक ही कृषि प्रक्रिया में पौधों व मवेशी, दोनों के सम्मिश्रण द्वारा अधिकतम विविधता को प्राप्त किया जा सकता है। मिश्रित कृषि के साथ-साथ मवेशियों के पालने के कई लाभ हैं। सर्वप्रथम, पौधों को समतल भूमि, चारागाहों या पर्वतों की ढलानों पर उगाकर मृदा का अपरदन कम किया जा सकता है। दूसरे, चारागाहों और फलीदार (लैग्यूमिनस) चारा फसलों का चक्रीकरण भी मृदा की गुणवत्ता का विकास करता है और अपरदन की दर में कमी लाता है, इसके अलावा मवेशी की खाद, आदि भूमि के उपजाऊपन को बढ़ाती है। तीसरे, कम वर्षा के स्तर के दौरान, मवेशी पौधों के अवशेष रहे भागों का सेवन करके फसल की पूर्ण विफलता के प्रकोप से बचाव करते हैं। अंत में पशुओं की उत्पादन प्रणालियों में खाद्य एवं व्यवसाय, आदि में लचीलापन है। इससे किसानों को मूल्यों के उतार-चढ़ाव में संरक्षण मिलता है और खेती कर रहे मजदूरों का पूरा उपयोग होता है।

मृदा प्रबंधन (Soil Management) :
एक स्वस्थ मृदा, दीर्घोपयोगी कृषि का एक मुख्य घटक है अर्थात जब किसी साफ-सुथरी भूमि (मृदा) को पर्याप्त मात्रा में पानी व पोषक तत्व पाये जाते हैं, तब उसका परिणाम स्वरूप ऐसे पौधे उत्पन्न होते हैं, जो स्वयं को काफी हद तक पीड़कों व बीमारियों से बचा सकते हैं। अतः दीर्घ अवधि की उत्पादकता व स्थिरता को पाने के लिये, भूमि का संरक्षण एवं पोषित करना आवश्यक है। भूमि के संरक्षण की कुछ निम्नलिखित विधियाँ हैं जिनमें आवरण फसलों (कवर क्रॉप्स) का प्रयोग, खाद का प्रयोग, जुताई करने में कमी करना, मृदा में पाए गए जलवाष्प का संरक्षण, मृत मल्च (Dead Mulches) इन सब विधियों द्वारा भूमि की जल धारण करने की क्षमता में वृद्धि होती है।

हालाँकि हमारे पास किस्मों में सुधार हेतु कृषि के लिये उपलब्ध भूमि सीमित है, फिर भी हमें इसी भूमि में खाद्यान्न, चारे, चीनी, तेल, रेशों, फलों व सब्जियों का अधिक उत्पादन करना है। ऐसा करने की एक महत्त्वपूर्ण विधि आनुवंशिकी एवं पौधे में जनन संबंधित विज्ञानों का सशक्त लागू करण है। इससे विद्यमान पौधों की किस्मों के स्तर में वृद्धि लाई जा सकती है। सही चयनित विधियाँ एवं पौधों में प्रजनन जैसी पारंपरिक विधियों के प्रयोग द्वारा ही फसलों के उत्पादन में वृद्धि देखी जा चुकी है।

फसलों की किस्मों में विकास लाने के कुछ उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

(i) उच्च उत्पादकता वाले पौधों की किस्मों का विकास।
(ii) खाद्य फसलों (खाद्यान्नों) का बेहतर पोषक तत्वों के लिये विकास जैसे दालों में प्रोटीन, गेहूँ में अधिक सेकन (Baking) क्षमता, फलों और सब्जियों का संरक्षण स्तर एवं तेल की बीजों का निर्माण करने वाले पौधों में तेल के गुणवत्ता का संरक्षण, इत्यादि।
(iii) ऐसे पौधों की किस्मों का विकास, जो रोगों एवं पीड़कों से बचने में अधिक सक्षम हों।
(iv) गर्मी, सर्दी, पाला, सूखा, पानी के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता, आदि से लड़ने वाली बेहतर किस्मों का विकास।

21.5 जैविक खादें और उनका कृषि में उपयोग
एक संपोषित कृषि प्रणाली के लिये, नवीनीकृत निवेशों (खाद, कीटाणुनाशक, जल इत्यादि) का प्रयोग करना अति आवश्यक है, शामिल हैं जो पर्यावरण का बिना विनाश किए या अल्पतम हानि पहुँचाये बिना ही पौधे को लाभ पहुँचाते हैं। रासायनिक खाद और पीड़कनाशकों दवाइयों का न्यूनतम प्रयोग इस लक्ष्य की प्राप्ति का एक संभावित तरीका है।

यह ऊर्जा के सही संचालन व प्रदूषण रहित एक विधि है जोकि बैक्टीरिया, शैवाल (एल्गी) तथा कवक जैसे कुछ सूक्ष्मजीवों की क्षमताओं का उपयोग वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण, मृदा में, फास्फोरस को विलेयशील बनाना, जैविक पदार्थों का विघटन या सल्फर को ऑक्सीकृत करने के रूप में है। जब इनको भूमि में डाला जाता है, तब वे फसल (पौधों) की उत्पादकता को बढ़ाते हैं, भूमि के उपजाऊपन में वृद्धि लाते हैं और प्रदूषण के स्तर में भी कमी लाते हैं। इनको बायो-फर्टीलाइजर (जैविक खाद) के नाम से जानते हैं। ये ‘बायो-फर्टीलाइजर (Bio fertilizer) वे जैविक या सक्रिय पदार्थ हैं जो अति सूक्ष्म आकार के बैक्टीरिया, शैवाल व कवक जैसे सूक्ष्मजीवों के टीकों (अकेले में या मिले-जुले रूप में) का इस्तेमाल कर भूमि को नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, कार्बनिक पदार्थों अदि से समृद्ध करते हैं।

21.5.1 महत्त्वपूर्ण जैविक खादें (बायो-फर्टीलाइजर)
कृषि आधारित (प्रधान) उद्योगों में काम में आने वाली कुछ जैविक खादों की मुख्य किस्में निम्नलिखित हैं:

राइजोबियम जैव उर्वरकः राइजोबियम (Rhizobium) फलीदार पौधों की जड़ों (ग्रंथिकाओं) में पाया जाने वाला यह एक प्रकार का सहजीवी जीवाणु है। ये ग्रंथिकाएँ खेतों में बहुत छोटे आकार की नाइट्रोजन उत्पादन की फैक्ट्रियों के रूप में कार्य करती हैं। जितनी जरूरत फलीदार पौधों को नाइट्रोजन की होती है, ये जीवाणु उससे अधिक नाइट्रोजन का इस्तेमाल करते हैं। अतिरिक्त स्थिर नाइट्रोजन का प्रयोग भूमि को खाद आदि प्रदान करने में किया जाता है। राइजोबियम अन्य प्रकार के स्वतंत्रजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणुओं से अधिक सक्षम है और प्रतिवर्ष यह 200 kg N/ha/yr को स्थिर कर सकते हैं।

ऐजोटोबैक्टर जैव उर्वरकः ऐजोटोबेक्टर (Azato bacter) हवा में वास करते हुए स्वतंत्र जीवी के नाइट्रोजन जीवाणु हैं। वे राइजोस्फीयर जड़ के चारों तरफ वृद्धि करते हैं एवं वायुमंडलीय नाइट्रोजन को असहजीवी रूप से स्थिर बनाते हैं एवं ये विशेष अनाजों में उपस्थित होते हैं। ये जीवाणु वृद्धि करने वाले हार्मोनों का उत्पादन करते हैं जो पौधों की वृद्धि एवं उनकी उपज बढ़ाने में सहायता करते हैं।

ऐजास्पाइरिलियम जैव उर्वरकः ये वायवीय स्वतंत्रजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणु हैं जो एक दूसरे के संग सहजीवी के रूप में रहते हैं। इस प्रकार के संबंध में ये जीवाणु पौधे की जड़ों में रहते हैं एवं कोई ग्रंथिकाएँ नहीं बनाते हैं। ये पौधों की पैदावार को बढ़ाते हैं और इसके टीके फसलों को लाभ पहुँचाते हैं। ये पोषी पौधों के विकास करने वाले हॉर्मोनों और विटामिनों को भी प्रदान करते हैं। इन जीवाणुओं का साधारणतः इस्तेमाल व्यवसायी टीकों की तैयारी में किया जाता है।

नीले-हरे शैवाल: नीले हरे शैवाल (Blue Green Algal, BGA अथवा साइनोबैक्टीरिया) जैसे कि ‘नोस्टॉक’ और ‘ऐनाबीना’ (Anabaena) स्वतंत्रजीवी प्रकाशसंश्लेषित जीव हैं जो कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं। पानी से भरे हुए धान के खेतों में, ये नीले हरे शैवाल नाइट्रोजन जैव उर्वरक का कार्य करते हैं।

एजोला जैव उर्वरकः एजोला (Azolla) एक जलीय फर्न है जिसके भीतर नीला हरा शैवाल एनाबीना वृद्धि करता है। इसमें 2-3% नाइट्रोजन नम स्थिति में विद्यमान होती है और यह भूमि में जैविक तत्वों का भी निर्माण करती है। इस एजोला-ऐनाबीना संयुक्त प्रकार की जैव उर्वरक का दुनिया भर में प्रयोग होता है। इसको ठंडे क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। परन्तु इसकी एक ऐसी किस्म के विकास की भी आवश्यकता है जो कि उच्च तापमान, खारेपन और पीड़कों एवं बीमारियों के विरुद्ध विकसित हो सके। इसके उत्पादन की तकनीक बहुत सरल है और आसानी से धान उगाने वाले कृषकों द्वारा प्रयोग में लाई जा सकती है। इसमें एक मुश्किल यही है कि एक जलीय पौधा होने के कारण ऐजोला विशेषकर गर्मियों में अधिक उग नहीं सकता और पानी की मात्रा एक सीमित कारक होता है।

फॉस्फोरस विलेयित जैव उर्वरकः एक पौधे के विकास में फॉस्फोरस नामक तत्व की मुख्य भूमिका है। राइजोबियम द्वारा ग्रन्थीकरण में भी इस तत्व की आवश्यकता रहती है। कुछ सूक्ष्मजीवी इस तत्व पर कार्य करके उनको पौधों को अवशोषित करने के लिये उपलब्ध करते हैं।

माइकोराइजल कवक (Mycorrhizal fungi) : एक जैविक खाद के रूप में काम करती है जो वनों के पेड़ों की एवं फसली पौधों की जड़ों पर स्वाभाविक रूप में पायी जाती है। जिस मृदा में पोषक तत्वों की कमी होती है, वहाँ पर इस माइकोराइज़ा से प्रभावित पौधों की पोषक तत्वों को सोख लेने की क्षमता अधिक बढ़ जाती हैं। इन कवकों में घुलित तत्वों को अवशोषित करने की क्षमता होती है। जिससे ये कवक पौधों की जड़ो से फॉस्फोरस को आसानी से सोख नहीं सकतीं।

रासायनिक उर्वरकों व जैव उर्वरकों के समागम से उत्पन्न हुई एक समाग्रित पोषक तत्वों की आपूर्ति प्रणाली के विकास में ही बुद्धिमता है।

21.6 जैविक कृषि व उसके लाभ
जैव कृषि (Organic farming) एक ऐसे प्रकार की कृषि है जो संश्लेषित उर्वरकों, पीड़कनाशकों, वृद्धि-नियंत्रकों एवं मवेशियों के भोजन उत्पादों इत्यादि के प्रयोग से बचती है। जैव कृषि पूर्ण रूप से फसलों के चक्रीकरण, पौधों के बचे-अवशेष, पशुओं द्वारा प्रदत्त खाद, फलीदार पौधों, हरी खाद, फार्म के जैविक अपशिष्ट पदार्थ एवं जैव उर्वरकों यांत्रिक खेती, खनिज प्रदान करने वाली चट्टानें इन सभी पर निर्भर हैं। मृदा की उत्पादकता को बनाये रखने के लिये पौधों को पोषक तत्वों एवं जैविक पीड़क नियंत्रक, खरपतवारों का नियंत्रण, कीटों एवं अन्य पीड़कों को नियंत्रित करना पड़ता है। सभी प्रकार के कृषि उत्पादों जैसे अनाज, मांस, दुग्ध पदार्थ, अण्डे, रेशे जैसे कॉटन, जूट, फूल, इत्यादि इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। इस प्रकार जैव कृषि आगामी कई पीढ़ियों के लिये एक दीर्घोपयोगी जीवन शैली को तैयार करने में सहयोग देती है।

जैव कृषि मृदा के जीवित घटकों की सही देख-रेख कर स्वस्थ मृदा को तैयार करता है, इस कार्य में खेतों में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वे पोषक तत्वों के परिवर्तन व अन्तरण में सहायक हैं। इस प्रणाली के प्रयोग से न केवल भूमि की रचना सशक्त होती है, बल्कि उसकी पानी को रोकने की क्षमता में भी विकास होता है। ऐसे कृषक कुछ खास किस्म की फसलें, खाद व जैव पदार्थों के हस्तक्षेप द्वारा भूमि की उपजाऊता को बनाये रखते हैं। इस प्रणाली से ऐसे स्वस्थ पौधों की पैदावार होती है, जो पीड़कों व कीटाणुओं के प्रहार से अधिक सुरक्षित हैं। जैव कृषकों की पहली नीति पौधों को पीड़कों और बीमारियों के नियंत्रण से बचाव द्वारा अच्छे पोषण व संचालन के माध्यम से प्राप्त करने की है। जैव कृषक कवर क्रॉप (Cover Crop) का प्रयोग एवं पौधों के चक्रीकरण का ऐसी बुद्धिमता से प्रयोग करते हैं कि खेत की पारिस्थितिकी बदल जाती है, उनके पर्यावास से खरपतवारों, कीटों एवं बीमारी फैलाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं।

अपतृणों का नियंत्रण फसल के चक्रीकरण, तकनीकी जुताई, हाथों में अपतृणों को निकाल उखाड़ने जैसे संचारण के तरीकों के साथ-साथ आवरण फसल, मल्च, खरपतवारों के जलाने एवं अन्य प्रबंधन तरीकों द्वारा किया जाता है। पौधों पर प्रहार करने वाले जीवाणुओं को नियंत्रित करने के लिये ये जैव कृषक भूमि में ही पाए जाने वाले जीवाणुओं, लाभदायक कीटों व पक्षियों का प्रयोग करते हैं। जैव कृषक मृदा जीवों की विविध समृष्टि, लाभदायक कीटों एवं पीड़कों की संख्या पर रोक लगाने वाले पक्षियों पर भरोसा करते हैं। जब पीड़क समष्टियों की संख्या अत्यधिक बढ़ जाती है, तब किसान विभिन्न प्रकार की विधियों जैसे कीटों का शिकार करने वाले पक्षियों, प्रजनन प्रणाली में बाधा करके, जाल एवं अवरोधकों का उपयोग करके फसलों की रक्षा करते हैं।

जैव कृषि और जैव खाद्य पदार्थों के कुछ महत्त्वपूर्ण लाभ इस प्रकार हैं :

- जैव कृषि स्वयं में एक विज्ञान है जिसे कोई भी पारम्परिक (साधारण) किसान आसानी से सीख सकता है।

- यह पाया गया है कि यदि पारम्परिक किसान साधारण प्रणाली की कृषि की बजाय जैविक कृषि का प्रयोग करता है, तो वह पारम्परिक कृषि में 25% से अधिक उत्पादन की दर में कमी ला सकता है। इस प्रणाली के प्रयोग से महँगे कृत्रिम उर्वरकों व पीड़कनाशकों का उपयोग लगभग न के बराबर होना है, भूमि की सतह का अपरदन 50% तक कम हो जाता है। यही नहीं, फसल का उत्पादन पाँच-गुना बढ़ जाता है।

यदि प्रयोजन की प्रक्रिया सुनियोजित हो, तो एक पारम्परिक किसान बहुत आसानी से जैव कृषि के नये तरीके अपनाकर प्रभावपूर्ण ढंग से उनका प्रयोग कर सकता है।

- जैव फार्म उच्च स्तर के वन्यजीवन को विशेष रूप से निचले इलाकों में सहयोग देती है एवं विशेष कर ये समतल में हो सकते हैं या जहाँ पशु चारागाहों में भ्रमण करते हों या घास के मैदानों में चरते हों। इससे न केवल वन्य जीवन को लाभ पहुँचता है, बल्कि सम्पूर्ण पारितंत्र व्यवस्था और भूमिगत जल जैव कृषि के उपयोग से सुधार होता है।

- जैव कृषि की प्रणालियाँ केवल कृषकों और उपभोक्ताओं को ही लाभ नहीं पहुँचाती, बल्कि दूध की डेरियों को भी लाभ पहुँचाती है। जब डेरियाँ अपने गायों-भैंसों को बिना रसायनों से प्रदूषित चारा या जैव भोजन एवं जैव खेतों में चराते हैं, तब न केवल इन गायों-भैंसों का स्वास्थ्य बेहतर होता है, कम बीमार पड़ती हैं और रोग नहीं पनपते हैं। अंततः उपभोक्ताओं को स्वादिष्ट दूध भी प्राप्त होता है।

- जैव कृषि मृदा को बढ़ावा देती है जिसमें जीवन होता है एवं जो सूक्ष्म तत्वों से भरपूर, स्वस्थ होती है एवं जिसका फसल के लिये कई दशकों तक बगैर दोहन के प्रयोग किया जा सकता है।

- उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे गये जैव खाद्य पदार्थ काफी स्वादिष्ट होते हैं। कीमतों में मामूली अंतर के कारण उपभोक्ता जैविक रूप से उगे खाद्य पदार्थों को गंध, स्वाद चख सकते हैं एवं जैविक रूप से उगाये गये खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता में अंतर देखकर पता लगा सकते हैं।

- जैविक रूप से उगे हुए उत्पाद हानिकारक रसायनों, कृत्रिम सुगंध एवं परिरक्षकों से रहित होते हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को गैर-जैविक रीति से उगे पदार्थों की तुलना में अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है। आप हमेशा जैविक रूप से उत्पादित एवं पारम्परिक ढंग से उगाये पदार्थों के स्वाद में अंतर कर सकते हैं।

21.7 वर्मीकम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost या कृमि खाद) पशुओं के अपशिष्ट पदार्थ (मल-मूत्र), फसलों के अवशेषों एवं कृषि-औद्योगिक कूड़े के कुशल चक्रीकरण की एक तकनीक है। जैविक पदार्थों को खाद में परिवर्तित करने की प्रक्रिया मुख्य रूप से सूक्ष्म जैविक स्तर की है। जैविक अपशिष्टों से वर्मीकम्पोस्ट (कृमि खाद) में परिवर्तित करने में केंचुओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

वर्मीकम्पोट (कृमि खाद) को हर प्रकार के जैविक अवशेषों से तैयार किया जा सकता है। उदाहरणः

कृषि अवशेष (Agricultural residues)
- सूखा जैविक अपशिष्ट (जैसे सोरघम का भूसा, मवेशी को चारा खिलाने के बाद जो धान का भूसा बचता है, सूखे पत्ते, अरहर का अवशेष, मूंगफली का छिलका और गेहूँ के दानों के छिलके या भूसी।)
- सब्जियों का कूड़ा-करकट
- सोयाबीन के अवशेष
- अपतृण (विशेषकर पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस, जिसे व्याआरीभामा या पैण्डरफुल या कांग्रेस अपतृण (फूल आने से पहले की अवस्था में) के नाम से भी जाना जाता है
- गन्ने का रेशा उत्पादन के अपशिष्ट

रेशम के उत्पादन की प्रक्रिया से निकला कूड़ा-करकट
- पशुओं की खाद।
- डेयरी (दुग्ध पदार्थों) और मुर्गी द्वारा निकला कूड़ा-करकट।
- खाद्य-उद्योगों द्वारा छोड़ा गया अवशेष।
- म्यूनिसिपल (नगर निगम) के ठोस रूप में छोड़े गए अपशिष्ट।
- बायोगैस (जैविक तत्वों से उत्पन्न गैस) का कूड़ा।
- गन्ने की फैक्ट्रियों से निकला कूड़ा।

21.7.1 वर्मीकम्पोस्ट को बनाने की प्रक्रिया के चरण

चरण 1 :

सीमेन्ट की रिंग के निचले हिस्से को एक पॉलीथीन शीट द्वारा ढक दीजिए। (अथवा शीट का प्रयोग उस भाग को ढकने के लिये करें जो आप इस्तेमाल कर रहे हैं)

चरण 2 :

शीट के ऊपर (15-20 सेमी.) की जैविक अपशिष्टों की एक तह बिछा दीजिए।

चरण 3 :

जैविक तत्वों (2 किग्रा) के ऊपर फॉस्फेट तत्व के पत्थर (चट्टानों) को छिड़क दीजिए।

चरण 4 :

गाय के गोबर (15 किलो) के घोल को तैयार करें तथा इस मिश्रण के ऊपर तक तह के रूप में डालिये।

चरण 5 :

रिंग को इन तहों की सामग्री से पूरी तरह, समरूप ढंग से भर दें।

चरण 6 :

इस सामग्री की तह के ऊपर गाय के गोबर या मिट्टी का लेप लगा दें।

चरण 7 :

इस सामग्री को 20 दिनों तक सड़ने दें। इस अवधि के बीतने के बाद

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