यूएनआईएसडीआर ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में चेताया है कि दुनिया में आपदाओं से होने वाला औसत सालाना नुकसान 2015 में 260 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। हमारा अनुमान है कि ये 2030 तक नुकसान बढ़कर 414 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है। पिछले 20 वर्षों में जलवायु परिवर्तन से तूफान और बाढ़ जैसी आपदाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। अगर इस खतरे को कम नहीं किया गया तो इससे भविष्य में होने वाले नुकसान की वजह से विकास पर बुरा असर पड़ेगा
प्राकृतिक आपदाएँ न केवल जान-माल का तात्कालिक नुकसान करती हैं बल्कि विकास की सतत प्रक्रिया को दीर्घकालिक रूप से बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है। प्रस्तुत आलेख में हम हाल की प्राकृतिक आपदाओं में हुई आर्थिक व संरचनात्मक क्षति के आकलन के जरिए यह समझने की कोशिश करेंगे कि ये आपदाएँ किस तरह विकास की सतत प्रक्रिया में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। हाल में चेन्नई में आए तूफान, गत वर्ष की बाढ़, जम्मू-कश्मीर की बाढ़ आदि हाल की कुछ घटनाएँ हैं जिन्होंने हमारे संसाधनों को अचानक ही एक नई दिशा में विचलित कर दिया। इस आलेख में हम एक-एक कर इन पर विचार करते हैं।वरदा : बेहिसाब नुकसान
चेन्नई में वरदा चक्रवाती तूफान ने कुछ ही घंटों में भयंकर कहर बरपाया। मौसम विभाग ने अपनी फाइनल रिपोर्ट में कहा कि तूफान जब तटीय इलाकों से टकराया तो उस वक्त हवाएँ 120 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ्तार से चलीं। इसका असर कई घंटों तक रहा। उद्योग संगठन एसोचैम ने इस तूफान से हुए नुकसान का जायजा लेने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा कि कुल नुकसान एक बिलियन डॉलर (6749 करोड़) हुआ है। एक साल पहले आई भयंकर बाढ़ के बाद ये दूसरी प्राकृतिक आपदा थी। जिससे स्थानीय लोगों को निपटना पड़ा। एसोचैम ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “तूफान में कृषि क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ है। सबसे ज्यादा नुकसान केले और पपीता के बागानों और धान की फसलों को हुआ है जिससे एक बिलियन डॉलर तक का नुकसान हुआ है।” मछली पालन से लेकर पशुपालन, ट्रेन से लेकर हवाई सेवाएँ प्रभावित हुईं, जिससे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा असर पड़ा है। पर्यटन उद्योग पर भी कुछ दिन तक असर रहेगा।
जम्मू-कश्मीर बाढ़ : अब तक की सबसे महँगी प्राकृतिक आपदा
सितम्बर 2014 के विध्वंसकारी बाढ़ को एनडीटीवी इंडिया के लिये कवर करने जब यह लेखक श्रीनगर वायुसेना बेस पहुँचा तो वहाँ तस्वीर भयावह थी। सैकड़ों छोटे-छोटे बच्चे और महिलाएँ लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े थे। इनमें ज्यादातर पर्यटक या मजदूर थे जो जल्दी से जल्दी बाढ़ में डूबे श्रीनगर से किसी सुरक्षित जगह के लिये निकलना चाहते थे। श्रीनगर और आस-पास के इलाकों का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ में पूरी तरह से डूबा हुआ था। श्रीनगर में सचिवालय, सभी बड़े अस्पताल, संचार व्यवस्था और मोबाइल टावर्स सब ठप्प पड़े थे। राजमार्ग से लेकर बिजली और गैस स्टेशन, टूरिज्म इंफ्रास्ट्रक्चर, हजारों दुकानें और व्यापारिक उद्यम बाढ़ की चपेट में थे। हजारों एकड़ की खेतिहर जमीन पानी में डूब चुकी थी। दरअसल बाढ़ ने जो कहर बरपाया उसने जम्मू और कश्मीर की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन दी एपिडेमियोलॉजी ऑफ डिजास्टर्स, इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड सोसाइटी और यूनिवर्सिटी द लॉवियान, ब्रशेल्स द्वारा तैयार एनुअल डिजास्टर स्टैटिस्टिकल रिव्यू 2014 के मुताबिक, साल 2014 की सबसे महँगी प्राकृतिक आपदा जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में आया बाढ़ था, जिसमें 16 बिलियन डॉलर्स का नुकसान हुआ। तत्कालीन राज्य सरकार ने भी माना था कि नुकसान एक लाख करोड़ से ज्यादा हुआ था। उस वक्त के मुख्य सचिव रहे मुहम्मद इकबाल खांडे ने 29 सितम्बर, 2014 को एक मीडिया ब्रीफिंग में कहा, कि हाउसिंग सेक्टर में अनुमानित नुकसान 30,000 करोड़ का हुआ है जबकि व्यावसायिक और सार्वजनिक क्षेत्र में कुल नुकसान करीब 70000 करोड़ का है। बाढ़ ने जम्मू और कश्मीर की अर्थव्यवस्था (विशेषकर इनकम जनरेशन) को बुरी तरह से प्रभावित किया। राज्य के वित्त मंत्री हसीब द्राबु ने 22 मार्च, 2015 को विधानसभा में अपने बजट भाषण में कहा था कि राज्य की कुल आय 2014-15 में 1.5 प्रतिशत घटकर 88000 से भी थोड़ी कम हो गई। इसकी वजह से प्रति व्यक्ति आय 59,279 से घटकर 58,888 रह गई।
राज्य सरकार ने यह भी बताया कि 4207 पावर सब स्टेशन बाढ़ में बुरी तरह से प्रभावित हुए। हॉर्टिकल्चर सेक्टर में नुकसान 1568 करोड़ हुआ जबकि फसलों का कुल नुकसान 5611 आँका गया। 11,000 किलोमीटर तारों को क्षति पहुँची। उद्योग संघ एसोचैम ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि रेलवे और संचार क्षेत्रों में 2700 से 3000 करोड़ का नुकसान हुआ, 700 करोड़ की केसर की फसल और 1000 करोड़ की सेब की फसल खराब हुई। पर्यटन में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ जो राज्य की अर्थव्यवस्था में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। जब लेखक पहली बार श्रीनगर एयर फोर्स बेस पर पहुँचा वहाँ हजारों पर्यटक और मजदूर फँसे हुए थे और किसी तरह श्रीनगर से निकलने की जद्दोजहद कर रहे थे। व्यावसायिक उड़ानें बुरी तरह से प्रभावित थीं। इस प्राकृतिक आपदा से निपटने की मौजूदा नीति और रणनीति पर कई सवाल खड़े किए। ये बात सामने आई कि राज्य सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून के कई प्रावधानों को गम्भीरता से लागू ही नहीं किया था।
चेन्नई बाढ़ :
राजस्व नुकसान का एक और इतिहास
चौदह महीने के बाद ऐसी ही तस्वीर चेन्नई और उसके आस-पास के इलाकों में दिखाई दी। बेनफिल्ड एनालिटिक्स बीमा कम्पनी ने अपनी रिपोर्ट ग्लोबल कैटास्ट्रोफे रिकैप, नवम्बर, 2015 में कहा कि चेन्नई मेट्रोपोलिटन क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ। इसकी वजह से भारत में आर्थिक नुकसान बढ़कर 3 बिलियन डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। एसोचैम ने भी बाढ़ से हुई तबाही का आकलन करने के बाद कहा, “हमारे रिसर्च ब्यूरो का अनुमान है कि चेन्नई और आस-पास के इलाके में रिकॉर्ड बारिश की वजह से नुकसान 5,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो सकता है। व्यापार व उद्योगों के अलावा छोटे और मध्यम उद्यम को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।” क्रेडिट रेटिंग एजेंसी एसएमईआरए रेटिंग्स लिमिटेड ने अनुमान लगाया कि चेन्नई क्षेत्र के सूक्ष्म और लघु उद्यम को बाढ़ आने के बाद पहले हफ्ते में करीब 840 करोड़ का नुकसान हुआ।
इंडियन एक्सप्रेस में 8 दिसम्बर, 2015 को छपी रिपोर्ट के अनुसार करीब 165 बीएसई पर लिस्टेड कम्पनियाँ बाढ़ में प्रभावित हुईं। इसी रिपोर्ट में इंडस्ट्री सूत्रों के मुताबिक हुंडई, फोर्ड, बीएमडब्ल्यू, निसान, टीवीएस, रीनॉल्ट-निसान और अशोक लिलैंड को भारी बारिश की वजह से अपना प्रोडक्शन रोकना पड़ा। बाढ़ की वजह से प्रभावित होने वाले उद्योगों में एन्नोर में अशोक लिलैंड प्लान्ट, जिसकी कम्पनी के कुल प्रोडक्शन में 40 फीसदी हिस्सेदारी है। श्रीपेरुम्बुदुर में 6,80,000 इकाई उत्पादन करने वाले हुंडई मोटर इंडिया लिमिटेड के दो प्लान्ट्स और फोर्ड इंडिया का प्लान्ट, जिसकी वार्षिक क्षमता 3.4 लाख इंजन और 2 लाख वाहन बनाने की है, प्रभावित हुए।
आपदा जोखिम प्रबंधन :
संस्थागत मजबूती की सरकार
उपरोक्त दोनों प्राकृतिक आपदाओं ने ये साबित किया कि इस तरह की त्रासदियों से लड़ने की भारत की क्षमता कमजोर है और उसे इनसे निपटने के लिये भारत सरकार को नए सिरे से तैयारी करनी होगी, एक संस्थागत हल ढूँढना पड़ेगा। इन दोनों आपदाओं ने ये उजागर किया कि मौजूदा परिस्थिति में भारत को अपने व्यापार और विकास की परियोजनाओं के साथ-साथ योजना की प्रक्रियाओं में डिजास्टर रिस्क रिडक्शन से जुड़े प्रावधान शामिल करने होंगे। ये महत्त्वपूर्ण है कि प्राकृतिक आपदा से निपटने की मौजूद व्यवस्था में ज्यादा ध्यान फिलहाल आपदा पीड़ितों के पुनर्वास, टूटे घरों के पुनर्निर्माण और आजीविका के अवसर पैदा करने पर दिया गया है।
बीमा उदासीनता :
आर्थिक नुकसान को बढ़ावा
ये भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत में प्राकृतिक आपदा से होने वाले खतरे से बचने के लिये बीमा कराने की परम्परा कमजोर है। जम्मू और कश्मीर बाढ़ के 9 महीने बाद वित्त मंत्रालय ने जो आँकड़े जारी किए वो इसकी तस्दीक करते हैं। वित्त मंत्रालय ने कहा, “सितम्बर 2014 के बाढ़ के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियों के पास कुल 13,909 दावे जमा किए गए, जिसमें से 729.75 करोड़ के 13,612 दावों का निपटारा हुआ। जबकि प्राइवेट सेक्टर की बीमा कम्पनियों के पास कुल 34,163 दावे जमा किए गए जिसमें से 1076.12 करोड़ के 31,195 दावों का निपटारा हुआ।” जिस राज्य में बाढ़ की वजह से लाखों लोग बेघर हुए, लाखों घर टूटे और अरबों रुपये का नुकसान हुआ, वहाँ के लिये सिर्फ 2000 करोड़ से भी कम की बीमा राशि दर्शाती है कि कितनी बड़ी संख्या में लोगों ने कोई बीमा नहीं करवाया था। लेखक खुद बड़ी संख्या में बाढ़ पीड़ितों से मिला, जिनके घर टूट गए थे, लेकिन उन्होंने किसी तरह का बीमा कवर नहीं लिया था। सरकार में कैटस्ट्रोफी बीमा पर चर्चा हुई है। गैर-लाइफ बीमा कम्पनियों ने इस बारे में एक अवधारणा पत्र भी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को सौंपा था। लेकिन इसकी फंडिंग को लेकर आम राय नहीं बन पाई है।
प्राकृतिक आपदाएँ व विकास :
वैश्विक चिंतन
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में प्राकृतिक आपदाओं से विकास और बिज़नेस प्रोजेक्ट्स को बढ़ते खतरे पर वैश्विक स्तर पर चर्चा तेज हो रही है। पिछले साल लेखक जापान के सेंदई शहर में संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑन डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में भाग लिया जहाँ इस विषय पर राष्ट्राध्यक्षों, बड़े मंत्रियों और आपदा विशेषज्ञों ने तीन दिन तक गहन चर्चा की। सम्मेलन के बाद 18 मार्च, 2015 को द सेंदई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन 2015-30 स्वीकृत किया गया। इसे बाद में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने अनुमोदित किया। इस फ्रेमवर्क के तहत डिजास्टर रिस्क रिडक्शन को दीर्घकालिक विकास के पहल के साथ जोड़ने पर बल दिया गया है। इसके जरिए एक मजबूत दीर्घकालिक विकास का वैश्विक एजेंडा तैयार करने की कोशिश की गई है। सेंदई फ्रेमवर्क की धारा 36 (सी) में कहा गया है कि हर राज्य की ये जिम्मेदारी है कि वो, “व्यापार, व्यावसायिक संघों और निजी क्षेत्र के वित्तीय संस्थाओं, जिसमें वित्तीय विनियम, एकाउंटिंग से जुड़े निकाय और लोकहितैषी काम से जुड़ी संस्थाएँ शामिल हों, उन्हें प्रेरित करें कि वो विशेषकर अपने सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्यमों में विशेष निवेश के जरिए डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट को व्यापार प्रारूप का हिस्सा बनाएँ, अपने कर्मचारियों और उपभोक्ताओं में जागरूकता और ट्रेनिंग के साथ-साथ शोध और नवरचना को बढ़ावा दें। डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट के लिये प्रौद्योगिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करें, आपस में जरूरी डाटा और इस विषय से जुड़ी जानकारियाँ साझा करें और सक्रियता से पब्लिक सेक्टर के साथ भागीदारी कर ऐसा निर्देशात्मक ढाँचा तैयार करें जिसमें डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट शामिल हो।”
सेंदई फ्रेमवर्क की धारा 30 (ओ) में कहा गया है कि सभी उद्यमों को अपने-अपने आपूर्ति श्रृंखला में पूँजी, सम्पत्ति और जीविका के अवसर सुरक्षित रखने के लिये डिजास्टर रिस्क रिडक्शन को अपने व्यापार प्रारूप और प्रबंधन के तौर तरीके में शामिल करना चाहिए। साथ ही ये भी महत्त्वपूर्ण होगा कि कम्पनियाँ और व्यापारिक उद्यम डिजास्टर रिस्क रिडक्शन से जुड़ी गतिविधियों पर ज्यादा निवेश करें। ये विशेषकर छोटे और मध्यम उद्योगों के लिये ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्राकृतिक आपदा के दौरान सबसे ज्यादा नुकसान इनको उठाना होता है। उन्हें ये समझना जरूरी है, दीर्घकालिक विकास के लिये ये जरूरी है। दरअसल निजी और सरकारी संस्थानों, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में सक्रिय उद्यमों को प्रोजेक्ट लोकेशन से लेकर प्रोजेक्ट डिजाइन तैयार करने तक प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले सम्भावित खतरे का ध्यान रखना होगा। उन्हें इसका वैज्ञानिक तरीके से आकलन करना होगा और खतरे की सम्भावना के आधार पर अपनी रणनीति बनानी होगी। अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संस्थाओं को इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी, क्योंकि दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं से विकास की परियोजनाओं को खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रयास: मॉडल बिल्डिंग बायलॉज, 2016 |
शहरी विकास मंत्रालय ने नया मॉडल बिल्डिंग बायलॉज, 2016 तैयार किया है। डिजास्टर रिस्क रिडक्शन से जुड़े नए प्रावधान शामिल किए गए हैं। सेक्शन 3: किसी आपदा की स्थिति में प्रभावित लोगों को निकालने के लिये विशेष इमरजेंसी व्यवस्था। अध्याय 6 में नए बिल्डिंग्स के निर्माण की सेफ्टी और सिक्योरिटी और अध्याय 5 में एडॉप्शन फॉर मॉडर्न कंस्ट्रक्शन टेक्नोलॉजी के संदर्भ में इन ने प्रावधानों को शामिल किया गया है। आपदा प्रबंधन की मौजूद व्यवस्था को और मजबूत करने के संदर्भ में ये पहल की गई है। |
तालिका 1: प्राकृतिक आपदाओं के लिये विशिष्ट उपबंध (मॉडल बिल्डिंग बायलॉज) | ||
चक्रवात भूकम्प, भूस्खलन हेतु विशेष प्रावधान | ||
प्रविष्टि | मानक | विवरण |
चक्रवात/तूफान से सुरक्षा | ||
12. | आईएस 875 (3): 1987 | वीन्ड लॉड, भाग 3 में इमारतों और अन्य ढाँचों के लिये (भूकम्प के अलावा) नियम संहिताएँ डिजाइन लॉड के लिये नियम एवं संहिताएँ |
13. | (आईएस 875 (3) 1987 पर आधारित) दिशा निर्देश | ‘कम ऊँचाई वाले मकानों एवं मकानों की चक्रवात प्रतिरोध को बेहतर करने के लिये।’ |
भूकम्प से सुरक्षा | ||
14. | आईएस : 1893 (भाग 1) : 2002 | ‘ढाँचों का भूकम्प प्रतिरोधक डिजाइन के लिये मानक (पाँचवाँ संशोधन)’ |
15. | आईएस : 13920-1993 | ‘भूकम्पीय बल पर केन्द्रित पुनर्निर्मित कंक्रीट संरचनाओं की डक्टाइल डिटेलिंग : आचार संहिता।’ |
16. | आईएस : 4326-2013 | ‘इमारतों का निर्माण और भूकम्प प्रतिरोधक डिजाइन’ आचार संहिता (दूसरा संसोधन) |
17. | आईएस : 13828-1993 | ‘कमजोर आलीशान इमारतों की भूकम्प प्रतिरोधकता को बेहतर करने के दिशा-निर्देश’ |
18. | आईएस : 13827-1993 | ‘कच्चे मकानों, इमारतों की भूकम्प प्रतिरोधकता को बेहतर करने के लिये दिशा-निर्देश’ |
19. | आईएस : 13935-2009 | भवनों का भूकम्प मूल्यांकन, मरम्मत तथा सुदृढ़ीकरण दिशा-निर्देश |
भूस्खलन आपदा से सुरक्षा | ||
20. | आईएस 14458 (भाग 1) : 1998 | पहाड़ी क्षेत्रों की प्राचीर सुरक्षा के लिये 1998 के दिशा-निर्देश |
21. | आईएस 14458 (भाग 2) : 1997 | पहाड़ी क्षेत्रों की प्राचीन सुरक्षा के लिये 1997 के दिशा-निर्देश |
22. | आईएस 14458 (भाग 3) : 1998 | पहाड़ी क्षेत्रों की प्राचीर सुरक्षा के लिये 1998 के दिशा-निर्देश |
23. | आईएस 14458 (भाग 4) : 1998 | पहाड़ी इलाके में भूस्खलन आपदा का क्षेत्रीय मानचित्र तैयार करने के लिये 1998 के दिशा-निर्देश |
स्रोत : http://moud.gov.in/sites/upload_files/moud/files/pdf/MBBL.pdf |
यूएनआईएसडीआर ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में चेताया है कि, दुनिया में आपदाओं से होने वाला औसत सालाना नुकसान 2015 में 260 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। हमारा अनुमान है कि ये 2030 तक नुकसान बढ़कर 414 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है। पिछले 20 वर्षों में जलवायु परिवर्तन से तूफान और बाढ़ जैसी आपदाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। अगर इस खतरे को कम नहीं किया गया तो इससे भविष्य में होने वाले नुकसान की वजह से विकास पर बुरा असर पड़ेगा। जब जोखिम वाले इलाके में पूँजी का निवेश किया जाता है तो इससे आर्थिक सम्पत्ति को होने वाला खतरा बढ़ता है और इससे दीर्घकालिक विकास पर असर पड़ता है।
सतत विकास लक्ष्य 2030 पर प्रभाव
थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष 48 लाख भारतीय आपदा से प्रभावित होते हैं, जो कि 2030 तक 1.9 करोड़ तक पहुँच जाएँगे। वर्ष 2030 संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के लक्ष्यों की पूर्ति का वर्ष है, आज भारत पूरे विश्व के साथ सतत विकास लक्ष्य 2030 को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर है, जो देश की नीति निर्धारण में भी झलकता है। अगर हम सतत विकास को आपदा तथा सेंदई फ्रेमवर्क के चश्मे से देखें तो आपदा को सीधे-सीधे विकास लक्ष्यों से जोड़कर देखता है और यह निर्धारित करता है कि आपदा को न्यूनतम कर हम लक्ष्य 2030 को हासिल कर सकते हैं। सेंदई फ्रेमवर्क संयुक्त राष्ट्र के तृतीय विश्व स्तरीय सम्मेलन की उपज है जो लक्ष्य 2030 की प्राप्ति के तहत आपदा की पहचान करने तथा उसके तुरंत निवारण की बात करता है जिससे लक्ष्य मार्ग सुगम हो (संयुक्त राष्ट, 2015)।
आपदा न्यूनीकरण लक्ष्य 2030 के हर क्षेत्र और पहलू को अमलीजामा पहनने में कारगर साबित होगा। एसडीजी के 17 गोल और 169 टारगेट हैं, ये सारे लक्ष्य आपदा से सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। एसडीजी-1 गरीबी के सभी रूपों की पूरे विश्व से समाप्ति की बात करता है, आपदा से उत्पन्न तबाही गरीबी उन्मूलन में बाधक सिद्ध होती है, इससे आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का खतरा भी पैदा हो जाता है, फसलों के विनाश के साथ ही खाद्य सामग्रियों का संकट बढ़ जाता है जो एसडीजी-2 के भूख की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण के लक्ष्यों को बाधित करता है, प्राकृतिक आपदा से वैश्विक खाद्य असुरक्षा और भूख के आँकड़ों में बढ़ोत्तरी होती है। आर्थिक असुरक्षा के साथ स्थिति और भयावह हो जाती है।
आपदा अपने साथ बीमारियाँ भी लाती हैं जो मूलभूत सुविधाओं की कमी में महामारी का रूप धारण कर लेती है, जिससे नागरिकों के स्वास्थ्य पर खासा असर होता है। एसडीजी-3 जो सभी आयु के लोगों में स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा प्रदान करने का लक्ष्य है, को अवरोधित करता है। शिक्षा समाज में असुरक्षा की भावना को कम करती है साथ ही आपदा के साथ सामुदायिक तन्मयता भी बनती है, परन्तु आपदा में इसके संस्थान के नष्ट होने से शिक्षा व शिक्षक जीवन के साथ-साथ सामाजिक संरचना के निवेश का भी ह्रास होता है जिसका सीधा असर एसडीजी-4 और एसडीजी-5 के तहत लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही महिलाओं और लड़कियों का सशक्तीकरण दिखता है। एसडीजी-6 जल की उपलब्धता तथा सतत जल प्रबंधन की बात करता है जो एक गम्भीर विषय है, समूचे विश्व में 90 प्रतिशत आपदा जल सम्बन्धित होते हैं जैसे कि बाढ़, सूखा, तूफानी चक्रवात और भूस्खलन इनकी सही समय पर जानकारी ही इनसे बचाव का मार्ग दे सकती है।
एसडीजी-8 सभी के लिये निरन्तर समावेशी और सतत आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार और बेहतर कार्य को बढ़ावा देने की वकालत करता है जिसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि आपदा प्रबन्धन में निवेश के द्वारा ही सतत विकास दर को सुरक्षित किया जा सकता है, जिसे 2011 में पूर्वी जापान के भूकम्प और भारत की सुनामी की घटना से समझा जा सकता है जिसकी वजह से अगले कई महीनों तक वैश्विक स्तर पर ऑटो उद्योग उबर नहीं पाया था (यूएनडीपी, 2011)। वैसे ही आपदा का प्रभाव एसडीजी के बाकी लक्ष्यों पर भी देखा जा सकता है। एसडीजी-11 सुरक्षित, लचीले, टिकाऊ शहर और मानव बस्तियों का निर्माण की बात करता है, आज समूचा विश्व शहरीकरण के दौर से गुजर रहा है, शहरों में बढ़ता जनसंख्या घनत्व आपदा को निमन्त्रण देता है वहीं आपदा से बचाव के तरीकों में निवेश की उसी रफ्तार में बढ़ोत्तरी की माँग को दर्शाता है।
एसडीजी-17 सतत विकास के लिये वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत बनाना है, जिसके तहत तकनीक की मदद से बिना कागज के उपयोग किए सरकारी सेवाएँ आम नागरिकों तक ले जाने की बात है। भारत में कैश-लेस अर्थव्यवस्था को बढ़ावा भी इन्हीं उद्देश्यों के तहत दिया जा रहा है। आपदा से सबसे ज्यादा प्रभाव इसके सन्दर्भ में देखने को मिला जब हाल में भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में आये वरदा तूफान ने दोनों राज्यों को पारम्परिक फोन के युग की याद दिला दी। तूफान ने राज्य के जीपीआरएस प्रसार को अवरुद्ध किया। परिणामस्वरूप विमुद्रीकरण के बाद आये डिजिटल लेन-देन को भी दो दिनों तक अस्त-व्यस्त रखा।
संदर्भ
1. संयुक्त राष्ट्र महासभा, आपदा जोखिम नियंत्रण हेतु सेंदई फ्रेमवर्क 2015&2030] A/RES/69/283] ¼ 23 June 2015 ½ Available at: www-un-org
2. http://www-undp-org/content/dam/undp/library/crisis%20prevention/DisasterConflict72p-pdf
3. http://economictimes-indiatimes-com/news/politics&and&nation/cyclone&-vardah&pulls&the&plug&on&digital&transactions&in&tamil&nadu/article-show/55969540-cms
4. http://www-aon-com/risk&services/thoughtleadership/propertyrisknewsletter/Q4&2015/attatchments/Impact&Forecasting&November&2015&global&recap-pdf
5. http://www-smera-in/pdf/Assessment%20of%20Chennai%20floods%20&%20Impact%20on%20MSMEs%20-pdf
6. http://indianeUpress-com/article/india/india&news&india/chennai&floods&industries&crippled&suffer&huge&revenue&loss/
7. http://164-100-47-5/newcommittee/reports/EnglishCommittees/Committee%20on%20Home%20Affairs/198-pdf
8. http://documents-worldbank-org/curated/en/141231468182936346/pdf/PAD1405&PAD&P154990&IDA&R2015&0136&1&BoU391446B&OUO&9-pdf
9. http://www-preventionweb-net/files/43291_sendaiframeworkfordrren-pdf
10. http://www-thehindubusinessline-com/money&and&banking/property&and&-catastrophe&insurance&premiums&-likely&to&shoot&up&in&2016/article7997036-ece
लेखक परिचय
लेखक समाचार चैनल एनडीटीवी में सम्पादक (सरकारी मामले) हैं। सरकार राजनीति और अन्तरराष्ट्रीय मामलों के अलावा वह आपदा सम्बन्धी घटनाओं की कवरेज में व्यापक अनुभव रखते हैं। वह जापान के सेंदई में आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में आपदा कानूनों में मुआवजा का अधिकार विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर चुके हैं। इसके अलावा इस विषय पर राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उपस्थित रहते हैं। ईमेल: h_mishra@yahoo.com
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