डीपीआर बनवाया उससे जिसको अनुभव नहीं

Flood
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बागमती बहुत ही छिछली नदी है। उसके राह बदलने, नई-नई धाराओं के फूटने का यही कारण है। ढेंग में भारतीय सीमा में प्रवेश के थोड़ी दूरी बाद नदी तल का ढाल 53 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर रहता है, हायाघाट पहुँचते-पहुँचते मात्र 14 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर रह जाता है। फुहिया में तो यह ढलान मात्र 4 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर हो जाता है। इतने ढलान पर पानी केवल सरक सकता है, बह नहीं सकता। इस तरह के पानी के रास्ते में एक छोटा सा अवरोध उसके प्रवाह को रोक देने या पीछे ठेल देने के लिये पर्याप्त होता है। बिहार की नदियों में बाढ़ की खबरें बागमती से शुरू होती है और कभी-कभी तो ऐन गरमी के समय मई के महीने में ही नदी में बाढ़ आ जाती है। धारा का बदलना, किनारों का कटाव, कगारों को तोड़ते हुए नदी के पानी का बड़े इलाके में फैल जाना और इन सारी घटनाओं की एक ही साल में सहज पुनरावृत्ति नदी का स्वाभाविक गुण रहा है जिससे एक ओर तबाहियों की दास्तान लिखी जाती रही तो दूसरी ओर नदी के पानी की उर्वरक क्षमता पर गर्व भी किया जाता रहा।

बाढ़ के पानी से सिर्फ नुकसान ही होता है ऐसा सोचना भी गलत है। बाढ़ के एक बड़े इलाके में फैलने के कारण जमीन पर नई मिट्टी पड़ती है जिससे उसकी उर्वराशक्ति बढ़ती है और भूजल की सतह अपनी जगह बनी रहती है। ऐसी जमीन पर आने वाले कृषि मौसम में बीज डालने से बिना मेहनत के अच्छी पैदावार हो जाती है। बाढ़ों से परेशानी तो जरूर होती है और वह इसलिये होती है कि मनुष्यों ने नदी के उन हिस्सों पर कब्जा जमा लिया है जो पारम्परिक रूप से उसका क्रीड़ा क्षेत्र होता है।

सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर जिले के जिस हिस्से से बागमती नदी गुजरती है वह उसकी बाढ़ के पानी में आई हुई गाद के कारण बहुत ही उपजाऊ जमीन का क्षेत्र है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि बागमती के मैदानी क्षेत्र जैसा उर्वर इलाका दुनिया में दूसरा कहीं नहीं। जहाँ भी बाढ़ के मौसम में बागमती नदी का पानी किसी कारणवश जाना बन्द हुआ वहाँ की जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है। वह पूरा इलाका बाढ़ के अभाव में रेगिस्तान की शक्ल अख्तियार कर लेता है।

बागमती नदी घाटी में जहाँ एक ओर वर्षापात प्रचूर मात्रा में होता है वहीं बरसात के मौसम में नदी अपने साथ खासी मात्रा में गाद भी लाती है। नदी के प्रवाह में स्थिरता के नाम पर खोरीपाकर/अदौरी में बागमती और लालबकेया का संगम स्थल प्रायः स्थिर है और हायाघाट से लेकर बदलाघाट तक नदी की धारा में परिवर्तन के संकेत भी कम मिलते हैं। बिहार में नदी का बाकी 203 किलोमीटर लम्बाई में अस्थिरता का ही राजत्व चलता है। इसके कई कारण हैं। पहला और प्रमुख कारण इस नदी का ढलान मैदान में उतरने पर एकाएक कम हो जाता है और कोसी से अपने संगम तक नदी प्रायः सपाट भूमि पर चलती है।

बागमती बहुत ही छिछली नदी है। उसके राह बदलने, नई-नई धाराओं के फूटने का यही कारण है। ढेंग में भारतीय सीमा में प्रवेश के थोड़ी दूरी बाद नदी तल का ढाल 53 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर रहता है, हायाघाट पहुँचते-पहुँचते मात्र 14 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर रह जाता है। फुहिया में तो यह ढलान मात्र 4 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर हो जाता है। इतने ढलान पर पानी केवल सरक सकता है, बह नहीं सकता। इस तरह के पानी के रास्ते में एक छोटा सा अवरोध उसके प्रवाह को रोक देने या पीछे ठेल देने के लिये पर्याप्त होता है। पहाड़ों से मैदानी इलाके में प्रवेश करने पर पानी के साथ-साथ उसके साथ आई गाद पूरे इलाके में फैलती है। तटबन्ध बन जाने के बाद गाद का अधिकतर हिस्सा नदी की तलहटी में जमा होता है, इसलिये तटबन्धों के निर्माण के बाद भी नई धाराओं का फूटना जारी रहा।

वैसे बागमती पर तटबन्ध बनाने का पहला दौर 1950 के दशक में चला जब उसके दाहिने किनारे पर सोरमार हाट से बदलाघाट तक 145.24 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बनाए गए। बाएँ किनारे हायाघाट से फुहिया के बीच 72 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध का निर्माण हुआ। इसके बाद 1971 से 1978 के बीच बागमती नदी के ऊपरी हिस्सों में नदी के दाएँ किनारे पर लगभग 57 किलोमीटर और बाएँ किनारे पर लगभग 74 किलोमीटर तटबन्ध बनाए गए।

इसके बाद लगभग तीस वर्षों तक बागमती परियोजना में सब कुछ शान्त रहा। केवल तटबन्ध टूटते रहे और बाहर निकले पानी के बहाव से सड़कें टूटती रहीं, गाँवों में तबाही की दास्तान लिखी जाती रही। खासकर मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी सड़कों का टूटना सालाना व्यापार बन गया। इसी पृष्ठभूमि में बागमती तटबन्ध के निर्माण का तीसरा दौर 2006 में आरम्भ हुआ जब रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक नदी के बचे हिस्से में लगभग 90 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों के निर्माण को पूरा करने की कोशिश शुरू हुई।

792 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाले इन तटबन्धों की मदद से रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक के क्षेत्रों की बाढ़ से रक्षा का प्रावधान है। इस प्रयास की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट हिन्दुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड नाम की एक संस्था ने बनाई है और उसी को इस परियोजना के क्रियान्वयन का जिम्मा भी दिया गया है। इस परियोजना रिपोर्ट को डॉ. दिनेश कुमार मिश्र ने निहायत ही घटिया किस्म का दस्तावेज ठहराया है।

बिहार की नदियों पर लगातार अध्ययनरत श्री मिश्र ने बागमती नदी के बारे में बागमती की सदगति नाम से किताब लिखी है। उसमें डॉ मिश्र बताते हैं कि उक्त परियोजना रिपोर्ट के तीन चौथाई हिस्से में 1983 में बनाई गई परियोजना रिपोर्ट से उद्धरण मात्र दिये गए हैं और योजना के औचित्य पर न तो कोई आलेख है और न ही जनता और कृषि को होने वाले किसी सम्भावित लाभ की कोई चर्चा है।

इस रिपोर्ट में न तो बाढ़ से होने वाली क्षति और उसके कारणों का विश्लेषण है और न उसे समाप्त करने या कम करने की कोई दृष्टि नजर आती है। इस रिपोर्ट में जब योजना के क्रियान्वयन के बाद होने वाले लाभ की कोई चर्चा नहीं है तो योजना से होने वाले अवांछित प्रभावों और उनके निदान के लिये किये जाने वाले प्रयासों का जिक्र कैसे होगा? इस रिपोर्ट में बाढ़ से सुरक्षा दिये जाने वाले क्षेत्र और उसके परिणाम तक का भी जिक्र नहीं है।

नाम जाहिर न किये जाने की शर्त पर बिहार के जल संसाधन विभाग में काम कर चुके बहुत से वरिष्ठ इंजीनियरों का कहना है कि अव्वल तो हिन्दुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड को इस तरह के काम का कोई अनुभव ही नहीं है और दूसरे यह सारा काम टुकड़े-टुकड़े करके उनके हवाले किया गया है जिसकी कोई समेकित परियोजना रिपोर्ट बन भी नहीं सकती। वो यह भी मानते हैं कि जितने पैसे इस तथाकथित परियोजना रिपोर्ट को बनाने में खर्च किये गए उसके मुकाबले बहुत कम खर्च में जल संसाधन विभाग यह काम खुद कर सकता था, पर राजनीति ने यह होने नहीं दिया।

जब योजना का आधार पत्र ही इतना दरका हुआ हो तो योजना के भविष्य के बारे में सहज ही आशंकाएँ होती हैं। सरकार का यह भी मानना है कि इस लम्बाई में नदी प्रायः समतल जमीन पर बहती है जिससे इसकी बाढ़ के पानी का कोसी या गंगा में निकासी होने में बहुत समय लगता है। अगर इन दोनों नदियों में से किसी में बाढ़ हो तो बागमती के पानी को ठहर जाना पडता है। यह ठहराव नदी से होने वाले कटाव को बढ़ाता है, तटबन्धों के ऊपर से नदी के पानी के बहने के रास्ते तैयार करता है और जलजमा को स्थायी बनाता है। अगर कभी बागमती और कोसी के साथ-साथ गंगा में भी बाढ़ आ जाये तब गंगा के पानी को वापस इन नदियों में घुसने की परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं और ऐसी परिस्थिति से निपटना आसान नहीं होता।

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