इन्सेफलाइटिस जब तक समन्वित रूप से पंचायत विभाग, जलकल विभाग, स्वास्थ्य विभाग, शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग एक साथ यानी एक गाँव के विकास के लिये जितने विभाग कार्यरत हैं, एक साथ एक छतरी के नीचे कार्य नहीं करेंगे, तब तक इन्सेफलाइटिस का समूल नाश नहीं कर सकते।
इन्सेफलाइटिस पर अंकुश के लिये सबसे जरूरी कदम उसकी रोकथाम के उपाय होने चाहिए, लेकिन सरकारों का जोर इलाज पर रहता है। इन्सेफलाइटिस पीड़ित जिलों में सबको स्वच्छ पेयजल और शौचालयों की व्यवस्था जरूरी है, जिसके लिये यूपीए सरकार ने चार हजार करोड़ रुपये का पैकेज जारी किया था।
मेरे कन्हैया को किसने मारा/और कितने मासूमों की जान लेंगे?/ पूर्वाचल में इन्सेफलाइटिस का दंश कब तक?/अस्पताल ठीक होने के लिये या मरने के लिये?/हम भी तो भारत के भविष्य होते?
ये चीत्कार हैं गोरखपुर में मस्तिष्क ज्वर से असमय काल कलवित बच्चों के परिजनों के। दरअसल, मस्तिष्क ज्वर मुख्यत: विषाणु-जनित एक गंभीर रोग है। इसे आम भाषा में दिमागी बुखार या नवकी बीमारी के नाम से जाना जाता है। इसका सर्वाधिक प्रकोप पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार प्रांत के सीमावर्ती जिले में है। पूर्वांचल के पीड़ित क्षेत्रों में गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, बस्ती, सिद्धार्थनगर, बहराइच, संतकबीर नगर जिला प्रमुख हैं। जापानी बुखार यानी इन्सेफलाइटिस (जापानी इन्सेफलाइटिस/एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्रोम) उत्तर प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के मासूमों के स्वास्थ के लिये बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। मॉनसून के आगमन के साथ ही इस बीमारी का कहर टूट पड़ता है, और हर वर्ष सैकड़ों बच्चों की जान इस बीमारी से चली जाती है। इस बीमारी की रोकथाम के सभी प्रयास 39 वर्ष बाद भी प्रभावी नहीं हो सके हैं। जापानी इन्सेफलाइटिस से 1978 से पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मौत हो रही हैं, सबसे पहले यह बीमारी 1978 में गोरखपुर में तब पता चली, जब यहाँ के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 274 बच्चे भर्ती हुए, जिनमें 58 की मौत हो गई। तब से आज तक सिर्फ बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इन्सेफलाइटिस से 39,000 से अधिक मरीज भर्ती हुए जिनमें 9,000 ये अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। अब तो सिर्फ पूर्वांचल की बीमारी कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसका प्रसार देश के अन्य राज्यों के लगभग 171 जिलों में हो चुका है।
2005 में राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हुई
नेशनल वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक वर्ष-2010 से 2016 तक (एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिन्ड्रोम) से पूरे देश में 61957 लोग बीमार पड़े जिनमें 8598 लोगों की मौत हो गई। इन्हीं वर्षों में जापानी इन्सेफलाइटिस से 8669 लोग बीमार हुए जिनमें से 1482 की मौत हो गई। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन आंकड़ों से पूरी तस्वीर बनती नहीं है। यह सिर्फ मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पताल के आंकड़े हैं। निजी अस्पताल से कोई आंकड़ा ही प्राप्त नहीं होता है। यह तो जो मरीज अस्पताल आते हैं, उनकी बात है। लेकिन बहुत से ऐसे मरीज हैं, जो अस्पताल तक आ ही नहीं पाते और जो कुछ शेष बचते हैं वो झोलाछाप डॉक्टर और सोखा-ओझा में आज भी उलझ कर रह जाते हैं। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2005 में जेई और एईएस से जब 1500 से अधिक बच्चों की मौत हुई तो पहली बार इस बीमारी को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हुई। तत्कालीन केंद्र सरकार ने चीन से जापानी इन्सेफलाइटिस के टीके आयात करने और बच्चों को लगाने का निर्णय लिया, टीकाकरण से जेई के केस काफी कम हो गए। वर्ष 2005 तक दिमागी बुखार के 70 प्रतिशत मामलों में जेई ही को जिम्मेदार माना जाता था। लेकिन आज यह कुल केस का अधिकतम दस प्रतिशत ही रह गया है। एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिन्ड्रोम (एईएस) का मतलब किसी भी उम्र के व्यक्ति में वर्ष के किसी भी वक्त यदि बुखार के साथ सुस्ती, बदहवासी, अर्धचेतन, पूर्णअचेतन, झटका, विक्षिप्तता, के लक्षण दिखते हैं तो उसे एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिन्ड्रोम कहेंगे।
लगभग 60 जिले बुरी तरह पीड़ित हैं
उ.प्र. में घातक मस्तिष्क ज्वर के लक्षण | ||
साल | मामले | मृत्यु |
2010 | 3,540 | 494 |
2011 | 3,492 | 579 |
2012 | 3,484 | 557 |
2013 | 3,096 | 609 |
2014 | 3,329 | 627 |
2015 | 2,894 | 479 |
2016 | 3,919 | 621 |
2017 | 924 | 127 |
जापानी इन्सेफलाइटिस का प्रकोप 1912 में जापान में हुआ था, उसी समय इसके विषाणु की पहचान की गई और इससे होने वाले संक्रमण को जापानी इन्सेफलाइटिस नाम दिया गया। जापानी इन्सेफलाइटिस का विषाणु क्यूसेक्स विश्नोई नाम के मच्छर से मनुष्य में फैलता है। यह मच्छर धान के खेत में गंदे पानी वाले गड्ढों, तालाबों में पाया जाता है। ये पाँच किमी. की परिधि तक विषाणु फैलाने में सक्षम होते हैं। यह विषाणु मच्छर से उसके लारवा में पहुँच जाता है, और इस तरह इसका जीवन चक्र चलता रहता है, मच्छर से ही विषाणु जानवरों, पक्षियों, और मनुष्यों में पहुँचता है, लेकिन सूअर के अलावा अन्य पशुओं में ये विषाणु अपनी संख्या नहीं बढ़ा पाते और इससे बीमार भी नहीं होते। इसी कारण इन्हें ब्लॉकिंग होस्ट कहते हैं, जबकि सूअर में ये विषाणु बहुत तेजी से बढ़ते हैं। इसी कारण सूअर को एम्लीफायर होस्ट कहते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, असम, तमिलनाडु, और प. बंगाल के लगभग 60 जिले इससे पीड़ित हैं। मोटे तौर पर माना जाता है कि एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिन्ड्रोम यानी एईएस के मरीज में 80 प्रतिशत इंटर विषाणुओं से संक्रमित हुए, जिनकी संख्या सैकड़ों में है। शेष 20 फीसद में 10 फीसद जापानी एन्सेफलाइटिस, 2-3 फीसद को मेनिगो इन्सेफलाइटिस और एक से दो फीसद ट्यूवक्यूलस मेनिजाइटिस, 1-2 फीसद दिमागी टाइफाइड, 0.03 फीसद मलेरिया, 0.01 फीसद हरपीज विषाणु जनित इन्सेफलाइटिस और कुछ मरीजों में स्क्रब टाइफस भी पाया गया है। इन्सेफलाइटिस पर अंकुश पाने के लिये सबसे जरूरी कदम उसकी रोकथाम के उपाय होने चाहिए लेकिन सरकारों का जोर इलाज पर रहता है। इन्सेफलाइटिस पीड़ित जिलों में सबको स्वच्छ पेयजल और शौचालयों की व्यवस्था जरूरी है, जिसके लिये यूपीए सरकार ने चार हजार करोड़ रुपये का पैकेज जारी किया था, जिसमें इलाज, रिसर्च, विकलांगों के पुनर्वास के लिये धन के साथ पेयजल, शौचालय के लिये बजटीय आवंटन था, लेकिन इन कामों की वास्तविक स्थिति क्या है, कोई नहीं जानता। कितने गाँवों में स्वच्छ पेयजल की गारंटी हुई इसे बताने को कोई तैयार नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि इसे चार महीने की बीमारी बताकर सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाती है।
केवल खानापूर्ति
पूर्वांचल में इन्सेफलाइटिस की रोकथाम पर एवं प्रदेश सरकार, केंद्र सरकार तथा मानवाधिकार तक आवाज ले जाने वाली स्वयंसेवी संस्था ‘मानव सेवा संस्थान सेवा’ ने 2009-2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में जनहित याचिका इन मासूम की मौतों को लेकर दाखिल की (जनहित याचिका संख्या-64007 दिनांक 24/11/2010)। माननीय हाईकोर्ट ने संज्ञान लिया एवं उस समय की सरकार से पूरा विवरण मांगा। आश्चर्य हुआ कि उ.प्र. सरकार ने 2010 में ही सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) जिला अस्पताल को कह दिया कि इन्सेफलाइटिस के मरीजों की देखरेख की सारी सुविधाएँ और दवाइयाँ पूर्ण रूप से उपलब्ध हैं। सच्चाई हम सबके सामने है, और तो और सरकार ने 2010 में ही कह दिया कि विकास खंड स्तर, जिलास्तर पर, सूचना शिक्षा एवं संचार के माध्यम से समुदायों को जागरूक किया जा रहा है। साथ ही, बीआरडी मेडिकल कॉलेज की इतनी प्रशंसा की गई कि सब कुछ वहाँ उपलब्ध है। यहाँ तक कहा गया कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिला अस्पताल, मेडिकल कॉलेज में 24 घंटे बच्चों वाले डॉक्टर उपलब्ध हैं।
सच्चाई यह है कि पीएचसी, सीएचसी पर कौन कहे मेडिकल कॉलेज में भी डॉक्टर की अनुपलब्धता है। संस्थान ने हाई कोर्ट के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपनी याचिका 2013 में प्रस्तुत की। आयोग ने इसे प्रमुखता से लिया एवं उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भी दिया। रिपोर्ट भी सरकार ने प्रस्तुत की लेकिन वह केवल खानापूर्ति थी। दिसम्बर, 2014 में आयोग ने गैर जमानती वारंट जारी कर प्रमुख सचिव स्वास्थ्य, उत्तर प्रदेश सरकार, महानिदेशक, स्वास्थ्य एवं निदेशक, इन्सेफलाइटिस को दिल्ली बुलाया एवं साथ ही शिकायतकर्ता निदेशक, मानव सेवा संस्थान सेवा को भी बुलाया गया। उस समय भी सरकार ने जो रिपोर्ट दी उस पर आयोग सहमत नहीं हुआ एवं उप्र सरकार को जेई/एईएस की बीमारी के पूर्व, बीमारी के दौरान एवं बीमारी के बाद तीनों स्तरों पर सरकार से कार्ययोजना मांगी। लेकिन दुख है कि आज तक उप्र सरकार ने अपनी रिपोर्ट ही नहीं प्रस्तुत की। बावजूद संस्था ने हार नहीं मानी। लगातार पैरवी करती रही। परिणामस्वरूप आयोग ने 10 अगस्त, 2017 को लखनऊ में निदेशक, मानव सेवा संस्थान सेवा को पूरी रिपोर्ट के साथ प्रस्तुत होने को कहा। निदेशक ने पूरा रिपोर्ट आयोग के समक्ष प्रस्तुत की। रिपोर्ट के आधार पर स्वयं आयोग ने 11 अगस्त, 2017 को मुख्य सचिव, उ.प्र. सरकार एवं उच्चाधिकारियों के समक्ष चिंता व्यक्त की एवं सरकार से जेई/एईएस पर रिपोर्ट मांगी। जवाब में मुख्य सचिव, उ.प्र. सरकार एवं उच्चाधिकारियों ने आयोग को विश्वास दिलाया कि सरकार इस पर ध्यान दे रही है। स्थिति अच्छी हो रही है। इसका परिणाम हम सभी ने बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर में घटित घटना को देखा है। संस्थान ने सीएचसी एवं पीएचसी एवं जो इन्सेफलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर (ईटीसी) बनाए गए हैं, बार-बार मांग की गई है कि इसे पूर्ण रूप से सुसज्जित एवं सुसंगठित किया जाए। सारी सुविधाएँ, डॉक्टर, दवा, रिसोर्स, से परिपूर्ण रखा जाए जिससे कि समुदाय वहाँ पर मरीज को लेकर जाए और मरीज वहाँ से ठीक होकर घर लौटे। साथ ही केवल अब स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी नहीं रह गई है।
एक साथ एक छतरी के नीचे
इन्सेफलाइटिस जब तक समन्वित रूप से पंचायत विभाग, जलकल विभाग, स्वास्थ्य विभाग, शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग, एक साथ यानी एक गाँव के विकास के लिये जितने विभाग कार्यरत हैं, एक साथ एक छतरी के नीचे कार्य नहीं करेंगे तब तक इन्सेफलाइटिस का समूल नाश नहीं कर सकते। अब तक यही होता रहा है, एक विभाग दूसरे विभाग पर दोषारोपण करता है कि शुद्ध पेयजल मुहैया कराना मेरा काम नहीं है, शौचालय बनाना मेरा काम नहीं, टीका लगाना मेरा काम नहीं। इस बहस में मारे जाते हैं मासूम बच्चे। इन प्रयासों के साथ ही स्वास्थ पर सरकार को बजट भी बढ़ाना होगा। स्वच्छता, शुद्धपेय जल, सूअर बाड़ों का प्रबंधन, टीकाकरण, विकलांगों के लिये पुनर्वास और साथ ही साथ अपनी संवेदना और मानवता को बचाए और जगाए रखने की जरूरत है।
राजेश मणि, निदेशक, मानव सेवा संस्थान ‘सेवा’
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