अमेरिका की संस्था सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल को केंद्र सरकार ने यहाँ भेजा। उसके शोध वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि टीके लगने के बाद अब जेई कम है, इसमें भी अधिकतर मामले जल-जनित हैं। लिहाजा, अब अधिक काम इसे रोकने का है। एईएस के दो मुख्य कारक हैं-मच्छर-जनित जापानी इन्सेफलाइटिस और जल-जनित एन्ट्रोवॉयरल इन्सेफलाइटिस। अभी आईसीएमआर और एनआईवी, पुणे के शोधों में स्क्रब टायफस का भी पता चला है। मच्छर-जनित इन्सेफलाइटिस क्यूलेक्स मच्छर द्वारा संचारित होता है। वहीं जल-जनित इन्सेफलाइटिस दूषित जल के कारण। सुरक्षित पेयजल और स्वच्छ शौचालय तथा हाथ धोने की शिक्षा ही इसकी रोकथाम में जरूरी हैं। इसका कोई टीका कहीं नहीं है। बस पेयजल और मानव मल के मिल जाने को रोकना ही इसकी रोकथाम का मुख्य उपाय है।
आज जवाबदेही का समय है, इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान के लिये। 2017 में इन्सेफलाइटिस से पिछले तमाम वर्षों की तरह ही हो रहीं मौतें अभियान के सतत संघर्षों पर बड़ा सवाल खड़े करती हैं। प्रयास कुछ भी रहे हों, लेकिन स्थिति जस की तस है तो जवाबदेही बनती ही है। वैसे इस साल अभियान का संघर्ष बेअसर रहा है।
इन्सेफलाइटिस नाम की महामारी सबसे पहले 1977 में पूर्वांचल में पहुँची। वैसे दक्षिण भारत में वर्षों पहले इसने दस्तक दे दी थी। मैं उन दिनों गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में कनिष्ठ पद पर सेवारत था। मरीज सुबह आता था, शाम तक उसकी मौत हो जाती थी। समझ में ही नहीं आता था कि हुआ क्या? लक्षणों के आधार पर इसे इन्सेफलाइटिस समझ कर संभव इलाज वर्षों तक किया जाता रहा। आधुनिक जाँच की सुविधा तब कुछ थी ही नहीं। इसे तब मच्छरजनित जापानी इन्सेफलाइटिस नाम दिया गया। वर्षों प्रक्रिया चली। कभी इसके प्रिवेंशन पर कोई ठोस काम नहीं हुआ। हर साल मासूमों का मरना, विकलांग होना जारी रहा। सिलसिला वर्षों तक चला। स्थानीय सांसद आदित्यनाथ योगी ने लोक सभा में 2000 के आस-पास से हर सत्र में मामले को सभी सरकारों के सामने प्रभावी रूप से उठाया।2005 में इस महामारी को उन्मूलित करने के इरादे से इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान नाम से एक अभियान गोरखपुर और आस-पास के सात जिलों में प्रारंभ किया गया। पहली मांग थी कि जेई के खिलाफ टीके मास स्केल पर लगें। साथ ही, फॉगिंग के जरिए मच्छरों पर नियंत्रण पाया जाए। सूअरों के बाड़े आबादी से दूर किए जाने की भी मांग उठाई गई। राज्यपाल के दौरे के दौरान उनके सामने भी इसके टीके की मांग उठी। फिर 2005 में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी दौरे पर आए। उनके सामने भी यह मांग उठाई गई। अंतत: सरकार ने चीन से टीके आयात करके 2006 में पैंसठ लाख टीके मास स्केल पर लगवा दिए। जेई उसके बाद काफी कम हो गई।
2007 के बाद घटकर यह छह से आठ प्रतिशत ही (कुल एईएस का) रह गया। अभियान ने उसी साल फॉगिंग के लिये राहुल गांधी को फैक्स किया। उन्होंने संवेदनशीलता दिखाते हुए मेडिकल कॉलेज का दौरा किया। एरियल फॉगिंग के लिये हेलीकॉप्टर भी काम में लगाए गए। लेकिन प्रदेश सरकार की सहमति नहीं होने के कारण एरियल फॉगिंग नहीं हो पाई। उस साल इन्सेफलाइटिस से मौतों की संख्या ने रिकॉर्ड तोड़ दिया। ग्यारह सौ मौतें और चार हजार मासूमों की भर्ती, उससे पहले एक छत के नीचे कभी नहीं हुई थी।
2007 में अभियान की मांग पर अमेरिका की संस्था सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल को केंद्र सरकार ने यहाँ भेजा। उसके शोध वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि टीके लगने के बाद अब जेई कम हैं, इसमें भी अधिकतर मामले जल-जनित हैं। लिहाजा, अब अधिक काम इसे प्रिवेंट करने का है। एईएस के दो मुख्य कारक हैं-मच्छर-जनित जापानी इन्सेफलाइटिस और जल-जनित एन्ट्रोवॉयरल इन्सेफलाइटिस। अभी आईसीएमआर और एनआईवी, पुणे के शोधों में स्क्रब टायफस का भी पता चला है। मच्छर-जनित इन्सेफलाइटिस क्यूलेक्स मच्छर द्वारा संचारित होता है। वहीं जल-जनित इन्सेफलाइटिस दूषित जल के कारण। सुरक्षित पेयजल और स्वच्छ शौचालय, हाथ धोने की शिक्षा ही इसके रोकथाम में जरूरी हैं। इसका कोई टीका कहीं नहीं है। बस पेयजल और मानव मल के मिल जाने को रोकना ही इसके प्रिवेंशन का मुख्य उपाय है। खुले में शौच के कारण बरसात के दिनों में यह जल जमाव दुश्वार हो जाता है।
जवाबदेही का समय है आज
आज जवाबदेही का समय है, इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान के लिये। 2017 में इन्सेफलाइटिस से पिछले तमाम वर्षों की तरह ही हो रहीं मौतें अभियान के सतत संघर्षों पर बड़ा सवाल खड़े करती हैं। प्रयास कुछ भी रहे हों, लेकिन स्थिति जस की तस है तो जवाबदेही बनती ही है। वैसे इस साल अभियान का संघर्ष बेअसर रहा है।
अभियान और 2017
- नवम्बर, 2016 से ही उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल सहित बिहार में सैकड़ों जन संसद का आयोजन। छह बिंदुओं पर बहस हुई। प्रधानमंत्री को हजारों पोस्टकार्ड भी भेजे गए।
- अभियान ने साथियों सहित शरद ऋतु के बाद ‘चाय बहस’ का जगह-जगह आयोजन किया। उन्हीं छह बिंदुओं पर बहस हुई। हजारों लोग इसमें भागीदार रहे। यह सिलसिला तीन महीने तक लगातार चला। पूर्वांचल में, कुछ बिहार में भी। फिर जगह-जगह से ढेरों पोस्टकार्ड भेजे जाते रहे।
- उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इन्सेफलाइटिस को एक अहम चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास किया गया। फिर भी किसी राजनैतिक दल ने प्रमुखता से अपने घोषणापत्र में इसे जगह नहीं दी। पीएम ने जरूर कहा कि इन्सेफलाइटिस से मासूमों को बचाने की कोशिश होगी। आदित्यनाथ योगी ने लोक सभा, अपनी अधिकांश जनसभाओं में जोरदार ढंग से इस मुद्दे पर आवाज उठाई।
- अभियान ने मजबूरन इन्सेफलाइटिस उन्मूलन के लिये अपना छह सूत्री ‘‘जनता का इलेक्शन मैनिफेस्टो’ बना कर सभी राजनैतिक दलों और अधिकांश प्रत्याशियों को प्रेषित किया। 2017 के चुनाव से पहले की है यह बात।
- प्रधानमंत्री को ईमेल से भी कई बार छह बिंदुओं की बाबत लिख कर भेजा गया।
इन सब के बावजूद भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो इसे क्या कहें। उत्तर साफ है, इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान की विफलता। इन पंक्तियों के लेखक जो इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान, गोरखपुर के चीफ कैंपेनर हैं, ने दो अगस्त, 2017 को स्वास्थ्य मंत्री, भारत सरकार से इन्सेफलाइटिस पर नियंत्रण के लिये तीन वर्ष पूर्व ही बने हुए नेशनल प्रोग्राम को तत्काल रिलीज करने और हालिया मॉडल ऑफ वॉटर प्यूरिफिकेशन को एनआरएम के जरिए व्यापक प्रचार कराए जाने का अनुरोध करते हुए पत्र लिखा।
बहरहाल, अभी तक कुछ भी नहीं हो पाया है। डॉ. सिंह ने पुन: आग्रह किया है कि इन बिंदुओं पर सरकार शीघ्र कुछ ठोस कदम उठाए। मासूमों की इन्सेफलाइटिस से प्रभावी हिफाजत अपरिहार्य है। वैसे तो कहीं भी सभी मासूमों की सलामती जरूरी है।
डॉ. आर एन. सिंह, वरिष्ठ चिकित्सक गोरखपुर
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