हमें ऑक्सीजन की चर्चा से आगे बढ़ना होगा। बाल विवाह और कम उम्र में माँ बनने के चलन से कुपोषण की विकरालता गहरा जाती है। नतीजतन, कम वजनी बच्चे जन्मते हैं, जो संक्रमण की चपेट में जल्दी आते हैं। गोरखपुर और आस-पास के जिलों के अस्पतालों में पहुँचने वाले बीमार बच्चों के बीमार पड़ने के पीछे यही कहानी है। रिहायशी इलाकों में कूड़े के ढेरों पर मँडराने वाले सुअरों और धान के खेतों में पनपने वाले मच्छरों से विषाणु इन्सानों तक पहुँच जाते हैं। जीवाणु भी गंदे इलाकों में आसानी से कुपोषित गरीब बच्चों को शिकार बना लेते हैं।
जानवरों से इनसानों तक बीमारियों के कीटाणु पहुँचने के बढ़ते खतरे के मद्देनजर जरूरी है कि पारिस्थितिकीय प्रणालियाँ विकसित की जाएँ ताकि वन्यजीवन, पालतु पशुओं और मानवीय आबादी से संबंधित आंकड़े समेकित किए जा सकें। प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिये ज्यादा से ज्यादा संसाधन मुहैया कराए जाएँ। स्टाफ की कमी को दूर किया जाए। जिला और मेडिकल कॉलेजों, जहाँ उन्नत उपचार मुहैया कराया जाता है, के स्तर पर उपचार के लिये मानक प्रबंधन होना चाहिए।
गोरखपुर में अनेक मासूम बच्चों का जीवन लीलने वाली वीभत्स घटना पर गुस्सा उमड़ना स्वाभाविक है। लेकिन गुस्सा बेमानी मनोभाव भर है, अगर घटना के पीछे रहे कारणों की पहचान करने की गरज से ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण न किया जाए और तद्नुरूप सुधारात्मक उपाय न किए जाएँ। इन बच्चों की मौत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की एक के बाद एक नाकामियों का नतीजा है। विकासोन्मुख प्रक्रियाओं के सिलसिले में कमी का नतीजा है, जिनसे गरीबों को अनगिनत आर्थिक-सामाजिक असामानताएँ भोगने को विवश होना पड़ रहा है। प्राणघाती बीमारी सामाजिक स्थितियों से पनपती है, जिसके सर्वाधिक निशाने पर वे बच्चे होते हैं जो बेहद गंदगी भरी स्थितियों में रहने को अभिशप्त हैं। जब उन्हें बीमारी से बेहद लाचार स्थिति में भीड़ भरे अस्पताल में पहुँचाया जाता है, तो वहाँ पसरी लापरवाही से त्रस्त प्रणाली उन्हें जरूरी उपचार नहीं मुहैया करा पाती। ऐसे माहौल में उनकी मौत के प्रमाणपत्र पर इन हालात का कोई उल्लेख नहीं होता। लेकिन ये प्राणघाती स्थितियाँ देश के अल्पविकसित और चिकित्सा सुविधाओं के मामले में बेहद पिछड़े इलाकों में आये दिन बच्चों की मौत का कारण बन रही हैं।आखिर क्या कारण है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर बेहद ज्यादा है, जन्मे बच्चों का वजन कम रहता है। शहरी साफ-सफाई के मामले में गोरखपुर बेहद निचले पायदान पर क्यों है? मेडिकल कॉलेज और बड़े अस्पताल का प्रबंधन एक ही डॉक्टर की जिम्मेदारी क्यों है, जिसे भुगतान के लिये बिलों पर भी हस्ताक्षर करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। सरकारी डॉक्टरों को निजी क्लीनिकों में प्रैक्टिस करने की अनुमति क्यों है? दवाओं और अन्य अनिवार्य आपूर्तियों के स्टॉक का इलेक्ट्रॉनिक रखरखाव क्यों नहीं है जिससे कि स्टॉक कम पड़ जाने की जानकारी समय रहते मिल सके। खरीद प्रक्रिया कितनी पारदर्शी और स्पष्ट है? आपूर्तिकर्ताओं की अनगिनत शिकायतों को अनदेखा क्यों कर दिया जाता है? इन तमाम सवालों की समीक्षा किए जाने की जरूरत है, और तद्नुरूप तमाम स्तरों पर तमाम त्रुटियों से ग्रस्त प्रणाली में सुधार करना होगा।
उ.प्र. के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानव संसाधन | |
लैब टेकनीशियन नहीं | 64.6% |
फार्मासिस्ट नहीं | 6.2% |
महिला चिकित्सक नहीं | 78.6% |
महिला सहयोगी की कमी नहीं | 65% |
पुरुष सहयोगी नहीं | 69.6% |
चिकित्सकों की कमी | 37.7% |
ग्यारह अगस्त को ब्रेकिंग न्यूज के रूप में मीडिया में जो खबर आई, वह हमारी स्वास्थ्य प्रणाली में अरसे से घर कर चुकी व्याधि को ही बयां करने वाली थी। यह कोई एकाएक घटी घटना नहीं थी, जो एक शरारती आपूर्तिकर्ता द्वारा बड़ी निष्ठुरता से ऑक्सीजन आपूर्ति रोक दिए जाने के नतीजे के रूप में प्रकाश में आई हो। हालाँकि आपूर्तिकर्ता का निंदनीय कृत्य अब परस्पर विरोधी दावों-प्रतिदावों में घिर गया है। इस बात की चर्चा हो रही है कि क्या ये मौतें ऑक्सीजन आपूर्ति रोक दिए जाने के कारण ही हुई हैं? मूल बीमारी को हमेशा मौत के कारण के रूप में दर्ज किया जाता है, लेकिन श्वसन में मददगार प्रणाली का अभाव स्वास्थ्य सुविधाओं से बेहद ज्यादा ग्रस्त इस राज्य में स्थिति में सुधार की संभावनाओं को धूमिल करने वाला ही होगा और मौतों का सिलसिला तेजी पकड़े रह सकता है। श्वसन प्रणाली को लाचार कर देने वाला कृत्य क्षम्य नहीं है। वैसे ही जैसे कि सड़क हादसे के शिकार व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने पर जीवनदायी रक्त के अभाव के मामले को क्षम्य नहीं समझा जाता।
ऑक्सीजन की र्चचा से आगे बढ़ें
लेकिन हमें ऑक्सीजन की र्चचा से आगे बढ़ना होगा। बाल विवाह और कम उम्र में माँ बनने के रिवाज से कुपोषण की विकरालता गहरा जाती है। नतीजतन, कम वजनी बच्चे जन्मते हैं। ऐसे बच्चे संक्रमण की चपेट में जल्दी आ जाते हैं। गोरखपुर और आस-पास के जिलों के अस्पतालों में पहुँचने वाले बीमार बच्चों के बीमार पड़ने के पीछे यही कहानी है। रिहायशी इलाकों के आस-पास कूड़े के ढेरों पर मंडराने वाले सुअरों और धान के खेतों में पनपने वाले मच्छरों से विषाणु इनसानों तक पहुँच जाते हैं। जीवाणु भी गंदे इलाकों में आसानी से कुपोषित गरीब बच्चों को शिकार बना लेते हैं। इसलिये जरूरी है कि गरीबी के खात्मे के लिये जोरदार प्रयास हों। बच्चों को पोषक आहार मिले। बीमारियों पर हमारे निगरानी तंत्र को मजबूत किए जाने की जरूरत है। ऐसा समुदाय और अस्पताल, दोनों स्तर पर करना होगा ताकि वास्तविक और विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध हो सकें।
जानवरों से इनसानों तक बीमारियों के कीटाणु पहुँचने के बढ़ते खतरे के मद्देनजर जरूरी है कि पारिस्थितिकीय प्रणालियाँ विकसित की जाएँ ताकि वन्यजीवन, पालतु पशुओं और मानवीय आबादी से संबंधित आंकड़े समेकित किए जा सकें। प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिये ज्यादा से ज्यादा संसाधन मुहैया कराए जाएँ। स्टाफ की कमी को दूर किया जाए। जिला और मेडिकल कॉलेजों, जहाँ उन्नत उपचार मुहैया कराया जाता है, के स्तर पर उपचार के लिये मानक प्रबंधन होना चाहिए। मानक परिचालनात्मक प्रक्रियाएँ अपनाई जानी चाहिए। प्रशासनिक प्रक्रियाओं का भी मानक हो ताकि समय से समुचित उपचार उपलब्ध कराया जा सके। तमिलनाडु में पहले पहले आरंभ की गई पारदर्शी और अबाधित खरीद प्रणाली को तमाम जगहों पर अपनाया जाना चाहिए जिससे कि आवश्यक दवाओं और अन्य आपूर्तियों की अबाधित प्राप्ति संभव हो सके। सरकारी डॉक्टरों का वेतन भी बेहतर किया जाना चाहिए, लेकिन उन पर निजी प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंध रहे।
आवधिक गुणवत्ता ऑडिट्स में तकनीकी, प्रशासनिक और सामाजिक ऑडिट्स को भी शामिल किया जाए। इसके लिये स्वास्थ्य प्रणाली में विभिन्न स्तरों पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन में प्रशिक्षित पेशेवरों को तैनात करना होगा। नेशनल हेल्थ पॉलिसी, 2017 में प्रत्येक राज्य में सार्वजनिक हेल्थ प्रबंधन लाने की बात कही गई है, यह जरूरत पहले शायद इतनी न भी रही हो लेकिन आज की स्थिति में बेहद जरूरी हो गई है। गोरखपुर के बच्चे मृत्यु का ग्रास न बने होते अगर हमने अपनी कमजोर पड़ती स्वास्थ्य प्रणाली को समय रहते मजबूत कर लिया होता।
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