दिमागी बुखार - बच्चों की बेवजह मौतें मंजूर नहीं (Encephalitis - Zero tolerance to unnecessary death of children)


अस्पताल की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली सूची में ऑक्सीजन आपूर्ति को समुचित स्थान नहीं दिया गया? केवल अपवादपूर्ण स्थिति के मद्देनजर उपाय और प्रबंधन किए जाने से खतरे के समय को भाँपा जा सकता था। प्रत्येक अत्याधुनिक अस्पताल ऐसे ही संचालित किया जाता है, और एक मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल को तो खराब के बजाय बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए था।

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में तीस से ज्यादा बच्चों की मौतों ने समूचे देश को भयाकुल कर दिया है। इसलिये नहीं कि अन्य त्रासदियाँ कोई कम चिंता में डालती हैं, बल्कि इसलिये कि मासूम बच्चों के लिये कहीं ज्यादा ऊँचे स्तर के संरक्षण की दरकार होती है। स्वास्थ्य संबंधी देखभाल में उन्हें ज्यादा तरजीह दी जाती है। एक बार अस्पाल में दाखिल करा दिए जाने के उपरांत अस्पताल का दायित्व था कि उनका जीवन हर हाल में बचाया जाता। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा के लिहाज से तीसरे दर्जे का अस्पताल है। बताया जाता है कि इन्सेफलाइटिस का उपचार करने वाला तीन सौ किमी. के दायरे में यह एकमात्र अस्पताल है। यह बीमारी बीते चार दशकों से गोरखपुर और आसपास के इलाकों में क्षेत्रीय महामारी का रूप अख्तियार किए हुए है। अस्पताल गोरखपुर ही नहीं बल्कि गोंडा, बस्ती, बिहार के कुछ इलाकों यहाँ तक कि नेपाल के तराई क्षेत्रों से पहुँचे लोगों को बीमारी का उपचार मुहैया कराता है। इसे देखते हुए उम्मीद थी कि अस्पताल में उच्चतम स्तर की आपातकालीन तैयारी होगी लेकिन इसके बावजूद असहाय बच्चों को काल का ग्रास बनना पड़ा। आखिर क्यों?

उपचार संबंधी तौर-तरीकों के चलते यह दिन देखना पड़ा। स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश या देखभाल को लेकर चिंता या सक्रिय सार्वजनिक भागीदारी नहीं दिखती-उस स्तर की तो नहीं है, जिस स्तर का ढाँचागत निवेश दिखलाई पड़ता है। स्वास्थ्य क्षेत्र की अफसरशाही, सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कामगारों की भाँति, सरकार के रुख की गंभीरता का अंदाजा लगाए रखती है। अगर कुछेक मौतों को सामान्य माना जा रहा, और कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा, तो प्रशासन को लापरवाह होने में देर नहीं लगती। अस्पताल प्रबंधन की निगरानी शायद ही अस्पताल के स्तर से इतर की जाती हो। स्वास्थ्य क्षेत्र को हलकान करने वाले विरोधाभास और जटिलताएँ अनेक हैं, और विवशताएँ अथाह।

संक्रमणीय बनाम असंक्रमणीय व्याधियों, प्राथमिक बनाम तृतीयक स्वास्थ्य सुविधा, व्याधि बचाव नियंत्रण जैसे सतत प्राथमिकता की दरकार वाले मुद्दों के लिये सतत निगरानी और उपाय जरूरी हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र की अफसरशाही कदाचित ही लोगों के जीवन के लिये खतरा बन जाने वाली बुरी खबर की बाबत सतर्क करते हो। कोई मुख्यमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में तो शायद ही कभी, रुझानों पर नजर रख पाने की स्थिति में नहीं होता। खतरे की घंटी बनने वाले संकेतों पर ध्यान नहीं दे पाता। मानव शक्ति की स्थानीय स्तर पर कमी पर उसकी नजर नहीं रह पाती। उपकरणों या दवाओं की कमी पर ध्यान शायद ही दे पाता हो। इसलिये उन्हें अधिक सतर्क रहने की जरूरत है। इसके लिये आंकड़ों के प्रबंधन की दरकार है ताकि चिंता का सबब बन जाने वाले संकेतों पर ध्यान रहे और तत्काल उपाय किए जा सकें।

गरीबों पर बुरी गुजरती है


त्रासदी और सच्चाई यह है कि गरीब वर्ग आपातकाल में सरकारी जिला अस्पतालों में ही पनाह लेते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि गरीब प्रदूषित जल, लचर साफ-सफाई व्यवस्था, मच्छर प्रजनन से फैली बीमारियों या नीम-हकीमों द्वारा गलत उपचार किए जाने के चलते अस्पताल पहुँचते हैं। गोरखपुर अस्पताल में भर्ती कराए गए बच्चे जीवित लाए गए थे। उनकी बीमारी के जो भी कारण रहे हों वे अब विशेषज्ञों की चिंता के विषय रह गए हैं। अस्पताल की आपातकालीन सेवाएं ऐसी विपदा से पार पाने में पहले से ही अक्षम थीं। ऑक्सीजन की आपूर्ति में कुप्रबंधन के चलते और भी चरमरा गई। दरअसल, निराशाजनक स्थिति थी। अगर विलंबित भुगतान के चलते यह स्थिति दरपेश हुई तो एक या दो व्यक्तियों को उत्तरदायी ठहरा दिए जाने से बात नहीं बनेगी।

अस्पताल की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली सूची में ऑक्सीजन आपूर्ति को समुचित स्थान नहीं दिया गया? केवल अपवादपूर्ण स्थिति के मद्देनजर उपाय और प्रबंधन किए जाने से खतरे के समय को भाँपा जा सकता था। प्रत्येक अत्याधुनिक अस्पताल ऐसे ही संचालित किया जाता है, और एक मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल को तो खराब के बजाय बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए था। कितना बेतुका है कि टमाटर या प्याज के दाम सरकारों को घुटने पर ले आते हैं, लेकिन असहाय बच्चों की मौतों से ऐसा नहीं होता। इस घटना से सबक तो तभी सीखा जा सकेगा जब मुख्यमंत्री सरकारी अस्पतालों में बच्चों की बेवजह मौतों को कतई अस्वीकार्य मानें। उन्हें जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को सीधे ताकीद करनी चाहिए कि रोगियों की भर्ती संबंधी मासिक और वार्षिक आंकड़ों को प्रकाशित करें। अस्पतालगत कारणों से होने वाली मौतों के रुझानों संबंधी मासिक रिपोर्टों को ध्यान में रखें। और इन रिपोर्टों को प्रकाशित करके सार्वजनिक रूप से साझा करें। अन्य देशों में मृत्यु और रुग्णता संबंधी समीक्षा या क्लीनिकल पीयर समीक्षा किए जाने का चलन है। इससे बेहतर प्रक्रियाएँ और तौर-तरीके सुनिश्चित होते हैं। मात्र कुछेक लोगों को दंडित किए जाने से तौर-तरीकों में सुधार नहीं होगा और न ही सुधार करने की इच्छा जागृत होगी। केवल तरतीबवार बदलाव से ही बात बनेगी; लेकिन इसके लिये सतत आंकड़ा संग्रहण और मेडिकल ऑडिट्स बेहद जरूरी हैं।

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