वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के नजरिए से पिछले साल राष्ट्रीय हरित पंचाट ने कई कड़े कदम उठाने के निर्देश दिये थे। उनमें से बाहरी ट्रकों के शहर में प्रवेश पर रोक लगाने की कोशिश की थी। निजी वाहनों के लिये प्रायोगिक तौर पर एक दिन सम और दूसरे दिन विषम कारें चलाने की योजना लागू की गई। ज्यादा डीजल खाने वाली नई कारों के पंजीयन पर आंशिक रोक लगाई गई थी। प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के खिलाफ भी सख्ती बरतने की बात कही गई थी। दस साल पुरानी कारों को सड़कों से हटाने के निर्देश दिये गए। लेकिन परिणाम शून्य रहा। किसी महानगर के लिये इससे बड़ी चिन्ता की बात क्या हो सकती है कि प्रदूषण के चलते वहाँ के नागरिकों को घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाये। सारे विद्यालय बन्द करना पड़े। ऐसा अक्सर साम्प्रदायिक तनाव या युद्ध की स्थिति बनने पर होता है। लेकिन देश की राजधानी धुआँ-धुआँ हुई दिल्ली को प्रदूषित वायु के कहर बरपाने के कारण झेलना पड़ रहा है। इसके फौरी कारण दिवाली की रात चलाए पटाखे और हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश के खेत में फसलों के जलाए जा रहे अवशेष बताए जा रहे हैं।
डंठल जलाने और पटाखे चलाना कोई नई बात नहीं है, ये हजारों साल से चली आ रही परम्पराए हैं। इसलिये सारा दोष इन पर मढ़ना, मूल समस्या से ध्यान भटकाना है। असली वजह बेतरतीब होता शहरीकरण और दिल्ली में बढ़ते वाहन हैं।
इन वाहनों से निकले धुएँ की वजह से पहली बार पता चला है कि हम अपने पेड़-पौधों में कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता खो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक ताजा शोध से भी पता चला है कि वायु प्रदूषण के चलते दुनिया में 30 करोड़ बच्चों को जहरीली हवा में साँस लेनी पड़ रही है। यही स्थिति बनी रही तो दिल्ली से लोग पलायन को मजबूर हो जाएँगे।
जाड़ों के शुरू होने से पहले और दीवाली के आसपास पिछले कई सालों से यही हालात पैदा हो रहे हैं। जागरुकता के तमाम विज्ञापन छपने के बावजूद न तो आतिशबाजी का इस्तेमाल कम हुआ और न ही पराली जलाने पर अंकुश लगा। पराली जलाने पर तो जुर्माना वसूलने तक की बात कही गई थी। लेकिन ठोस हकीकत तो यह है कि किसानों के पास पलारी को जलाकर नष्ट करने के अलावा कोई दूसरा उपाय है ही नहीं।
यदि केन्द्र व राज्य सरकारें विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च करने की बजाय पराली से आधुनिक ईंधन, जैविक खाद और मवेशियों का आहार बनाने वाली मशीनें धान की ज्यादा पैदावार वाले क्षेत्रों में लगवा देतीं, तो कहीं ज्यादा बेहतर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मन की बात कार्यक्रम में ठूँठ व कचरा नहीं जलाने की अपील की थी, लेकिन इस अव्यावहारिक नसीहत का कोई असर नहीं हुआ।
वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के नजरिए से पिछले साल राष्ट्रीय हरित पंचाट ने कई कड़े कदम उठाने के निर्देश दिये थे। उनमें से बाहरी ट्रकों के शहर में प्रवेश पर रोक लगाने की कोशिश की थी। निजी वाहनों के लिये प्रायोगिक तौर पर एक दिन सम और दूसरे दिन विषम कारें चलाने की योजना लागू की गई। ज्यादा डीजल खाने वाली नई कारों के पंजीयन पर आंशिक रोक लगाई गई थी।
प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के खिलाफ भी सख्ती बरतने की बात कही गई थी। दस साल पुरानी कारों को सड़कों से हटाने के निर्देश दिये गए। लेकिन परिणाम शून्य रहा। यहाँ तक कि वाहनों के बेवजाह इस्तेमाल की आदत पर भी अंकुश लगाना सम्भव नहीं हो सका। मसलन बीमारी को जान लेने के बाद भी हम उसका इलाज नहीं कर पा रहे हैं। वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँचने की यही सबसे बड़ी विडम्बना है। लिहाजा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार वायुमण्डल में बढ़ रहा है।
अब तक तो यह माना जाता रहा था कि वाहनों और फसलों के अवशेषों को जलाने से उत्पन्न होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने में पेड़-पौधों की अहम भूमिका रहती है। पेड़ अपना भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं।
यह बात सच भी है, मगर अब पहली बार देश और दुनिया में यह तथ्य सामने आया है कि बढ़ता प्रदूषण पेड़-पौधों में कार्बन सोखने की क्षमता घटा रहा है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के लिये जिस तरह से पेड़ों को काटा जा रहा है, इस कारण भी पेड़ों की प्रकृति में बदलाव आया है। शहरों को हाईटेक एवं स्मार्ट बनाने की पहल भी कहर ढाने वाली है।
वाहनों की अधिक आवाजाही वाले क्षेत्रों में पेड़ों में कार्बन सोखने की क्षमता 36.75 फीसदी कम पाई गई है। यह तथ्य देहरादून स्थित वन अनुसन्धान संस्थान के ताजा शोध से सामने आया है। संस्थान की जलवायु परिवर्तन व वन प्रभाव आकलन प्रभाव विभाग के वैज्ञानिक डॉ. हुकूम सिंह ने ‘फोटो सिंथेसिस एनालाइजर’ से कर्बन सोखने की स्थिति का पता लगाया गया है।
लैगेस्ट्रोमिया स्पेसियोसा नाम के पौधे पर यह अध्ययन किया गया। इसके लिये हरियाली से घिरे वन अनुसन्धान संस्थान और वाहनों की अधिक आवाजाही वाली देहरादून की चकराता रोड का चयन किया गया है। बाद में इन नतीजों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद उपरोक्त स्थिति सामने आई।
संस्थान के परिसर में पौधों में कार्बन सोखने की क्षमता 9.96 माइक्रो प्रति वर्गमीटर प्रति सेकेंड पाई गई। जबकि चकराता मार्ग पर पौधों में यह दर महज 6.3 रही। इसके कारणों की पड़ताल करने पर ज्ञात हुआ कि पौधों की पत्तियाँ प्रदूषण से ढँक गईं। इस हालत में पत्तियों के वह छिद्र अत्यधिक बन्द पाये गए।, जिनके माध्यम से पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण (फोटो सिंथेसिस) की क्रिया कर कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं।
छिद्रो को खोलने के लिये पौधे से भीतर से दबाव भी डालते हैं। दबाव का यह उल्लंघन का ग्राफ भी वन परिसर के पौधों की तुलना में चकराता मार्ग के पौधों में तीन गुना अधिक रिकॉर्ड किया गया। यह अध्ययन संकेत दे रहा है कि इंसान ही नहीं प्रदूषित वायु से पेड़-पौधे भी बीमार होने लग गए हैं। इसलिये जिस तरह पर्यावरण पर चौतरफा मार पड़ रही है, उसे सुधारने के लिये भी चहुँमुखी प्रयास करने होंगे। हर समस्या को लेकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने या फिर जनहित याचिका न्यायालय के दिशा-निर्देशों से भी कोई कारगार परिणाम निकलने वाले नहीं है।
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Post By: RuralWater