जब एक तरफ डीजल एसयूवी और कारों की बिक्री जारी थी और डीजल ट्रकों का रात में शहर में प्रवेश निर्बाध था तो दूसरी तरफ दिल्ली परिवहन निगम और उसके तहत चलने वाली बसों को सीएनजी में बदलकर साफ दिल्ली के हसीन सपने देखे जा रहे थे। सरकारों ने सोचा कि दिल्ली की कुछ गाड़ियों को हरा-हरा पोत कर और उस पर पर्यावरण अनुकूल लिख देने से शहर की हवा साफ हो जाएगी। यह एक नए किस्म का झाँसा था। यह कुछ वैसा ही साबित हुआ जैसे बार-बार अखबार और टीवी की तस्वीरों में यमुना सफाई का पाखण्ड किया जाता है। इन दिनों दिल्ली में एक दिलचस्प किस्म की जंग छिड़ी हुई है। वह जंग है पेट और फेफड़े के बीच। एक तरफ दिल्ली के साँस लेने दो और दिल्ली के जहर जैसे नारों के साथ पुरानी और प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों को हटाने का अभियान चल रहा है तो दूसरी तरफ रोज़गार और पेट का वास्ता देकर वैसा करने से बचने का प्रयास चल रहा है।
सचमुच यह बड़ी पुरानी बहस है जिसे कभी अर्थ समिट में इन्दिरा गाँधी ने विकसित देशों के सामने रखा था तो आज राष्ट्रीय स्तर पर उसे राजनीतिक दल, ट्रांसपोर्ट लॉबी और उसमें काम करने वाले लोग रख रहे हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले और उसे सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का समर्थन मिलने के बाद यह तो साफ हो गया है कि दिल्ली की हवा का प्रदूषण स्तर भयानक है और पूरी दिल्ली सोते-जागते जहर में साँस लेती है।
लेकिन असली सवाल यह है कि क्या एनजीटी का दस साल पुरानी डीजल और पन्द्रह साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को हटाए जाने का फैसला आसानी से लागू होने जा रहा है? केन्द्र सरकार ने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट से चार हफ्ते का स्थगन चाहा था लेकिन उसे महज दो हफ्ते का स्टे मिला है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और दूसरे पड़ोसी राज्यों की सरकारें इस मामले पर अपने-अपने तर्क तैयार कर रही हैं और केन्द्र उन्हीं के आधार पर एक्शन प्लान बना रहा है।
पहला सवाल यह है कि क्या एनजीटी ने पुरानी गाड़ियों को सड़क से बाहर करने का कोई नया आदेश दिया है या यह किसी पुराने आदेश का नए सन्दर्भ में दोहराव है? मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा कि यह आदेश नया नहीं है बल्कि संविधान पीठ के पुराने फैसले का दोहराव ही है।
इस फैसले पर मचे विवाद के साथ एमसी मेहता की याचिका और उस पर सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट के संस्थापक और प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल की सक्रियता की याद ताजा हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि काफी हाहाकार और विवाद के बाद वह फैसला महज दिल्ली की बसों को सीएनजी में बदलने तक सिमट गया। भूरेलाल समिति की निगरानी और तरह-तरह की बहसों के बीच जब शहर में सीएनजी फिलिंग स्टेशनों पर लम्बी लाइनें लगती थीं तो कहा जाता था कि यह अनिल अग्रवाल जैसे कुछ पर्यावरणविदों और सीएनजी लॉबी के चोचले हैं और ज्यादा दिन चल नहीं पाएँगे। फिर भी दिल्ली के प्रदूषण के प्रभाव से कैंसर जैसी असाध्य बीमारी झेल रहे अनिल अग्रवाल की जिद ने बसों के प्रदूषण से तो राहत दिला दी थी और नब्बे के दशक के अन्त और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में दिल्ली की हवा साँस लेने लायक बनने लगी थी।
लेकिन वह कार्यक्रम और उसका क्रियान्वयन अधूरा था। जब एक तरफ डीजल एसयूवी और कारों की बिक्री जारी थी और डीजल ट्रकों का रात में शहर में प्रवेश निर्बाध था तो दूसरी तरफ दिल्ली परिवहन निगम और उसके तहत चलने वाली बसों को सीएनजी में बदलकर साफ दिल्ली के हसीन सपने देखे जा रहे थे।
सरकारों ने सोचा कि दिल्ली की कुछ गाड़ियों को हरा-हरा पोत कर और उस पर पर्यावरण अनुकूल लिख देने से शहर की हवा साफ हो जाएगी। यह एक नए किस्म का झाँसा था। यह कुछ वैसा ही साबित हुआ जैसे बार-बार अखबार और टीवी की तस्वीरों में यमुना सफाई का पाखण्ड किया जाता है।
सचमुच दिल्ली कितनी पाखण्डी है इसका अन्दाजा लगाना हो तो शहर के परिवहन और उसके प्रदूषण स्तर को देखना जरूरी है। हवा की गुणवत्ता नापने का एक पैमाना है पीएम 2.5 । इस पैमाने पर आज दिल्ली की हवा का गुणवत्ता सूचकांक 252 है जो भविष्य में जल्दी ही 278 तक जाने वाला है। यह भारत के किसी शहर के मुकाबले बहुत ज्यादा है। इसकी तुलना में पुणे में यह सूचकांक 78, हैदराबाद में 69, चेन्नई में 36, कोलकाता में 47 और मुंबई में 65 है।
दिल्ली का दावा है कि उसने मेट्रो जैसे सार्वजनिक परिवहन को चालू करके दिल्ली की सड़कों का बोझ बहुत कम किया है और उससे प्रदूषण स्तर भी घटा है। लेकिन असलियत यह है कि मेट्रो के विभिन्न चरणों के लिये राजधानी में लाखों पेड़ काटे गए हैं। अगर वे होते तो राजधानी में प्रदूषण की ऐसी स्थिति शायद होती। दूसरी तरफ यह भी सोचने वाली बात है कि व्यस्त समय में राजधानी के सड़कों पर गाड़ियों की स्पीड कई स्थलों पर तो पाँच से दस किलमोटर प्रतिघंटा तक हो जाती है। वे सारे फ्लाई ओवर बेकार हो चुके हैं जो राष्ट्रमण्डल खेलों के दौरान महज पाँच साल पहले बने थे।
आज दिल्ली की सड़कों पर न तो ट्रैफिक का कोई नियम है और न ही उस पर चलने वाली गाड़ियों से निकलने वाले प्रदूषण का। दिल्ली की परिवहन पुलिस को या तो अन्धाधुन्ध चालान काटते हुए देखा जा सकता है या फिर रात और सुबह गुजरने वाले ट्रकों से उगाही करते हुए।
केजरीवाल के तमाम दावों के बावजूद दिल्ली की हवा में लापरवाही और भ्रष्टाचार कार्बन डाइऑक्साइड की तरह घुले हुए हैं। इन तमाम स्थितियों में लोग सड़क पर भड़क कर हैवान बनने पर उतर आते हैं। तुर्कमान गेट पर गाड़ी पार्क करने के चक्कर में हुई हत्या ने तो पूरे शहर का ध्यान खींचा लेकिन ऐसी घटनाएँ शहर के दूसरे हिस्सों में आम हैं और हर गाड़ी वाला कोई-न-कोई राड या हाकी अपने साथ लेकर चलता ही है।
दिल्ली में रोजाना 80, 000 ट्रक प्रवेश करते हैं। उनके धुएँ, शोर और सड़कों पर होने वाले जाम के कारण शहर में न सिर्फ चलना मोहाल है बल्कि रात में सोना भी मुश्किल है। दूसरी तरफ इससे होने वाली साँस और फेफड़े की बीमारियों की अपनी कहानियाँ हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी साँस की बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं बूढ़ों की बात ही कुछ और। सवाल ट्रकों का ही नहीं उन निजी वाहनों का भी है जो हर घर में दो से चार, पाँच तक हो गए हैं। उन गाड़ियों को घरों में पार्क किया नहीं जा सकता और उन्हें सड़क पर उतारे जाने पर जाम लगने से बचा नहीं जा सकता।
निश्चित तौर पर एनजीटी के आदेश को लागू किए बिना काम चल नहीं सकता लेकिन उसे लागू करने में महज जनता की भलाई है यह भी सोचना पूरे मसले का सरलीकरण है। दिल्ली के योजनाकारों ने अगर यह सोचा था कि यहाँ बढ़ते जाम और प्रदूषण की समस्या को महज फ्लाईओवर बनाकर और नगर बसों को सीएनजी में बदलकर हल कर लिया जाएगा तो वे जनता की आँखों में धूल झोंक रहे थे। यह प्रदूषण और जाम से प्रतीकात्मक लड़ाई थी और इसमें डीजल एसयूवी और कारों की छूट देकर आटोमोबाइल उद्योग को गलियारा दे दिया गया था।
आज भी अगर दस साल पुरानी डीजल गाड़ियों और पन्द्रह साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को दिल्ली में चलने पर प्रतिबन्धित किया जा रहा है तो इसका भी फायदा आटोमोबाइल उद्योग को मिलना ही मिलना है। यही वजह है कि गाड़ियों की उम्र के बजाय उनके प्रदूषण स्तर और चलने लायक स्थितियों के आकलन का सुझाव दिया जा रहा है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि अगर इतने बड़े पैमाने पर गाड़ियाँ बाहर की जाएँगी तो लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार होंगे।
एनजीटी ने नोएडा और गाज़ियाबाद से दस साल पुरानी डीजल गाड़ियों को हटाने का जो आदेश दिया है उसके विरोध में उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि इससे तो नोएडा, गाज़ियाबाद, बुलन्दशहर और हापुड़ की 40,000 गाड़ियाँ सड़क से बाहर हो जाएँगी। एक तो यह आदेश राज्य के मोटर वेहिकल अधिनियम के खिलाफ है दूसरी तरफ लाखों लोगों को बेरोजगार करने वाला है।
निश्चित तौर पर प्रदूषण के बारे में पूरे देश के स्तर पर सोचना होगा और उसके लिये यूरो-4 मानक को लागू करने का सुझाव भी दिया ही जा रहा है। लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि आटोमोबाइल उद्योग जिसने परिवहन व्यवस्था को बनाने के साथ उसका मौजूदा संकट भी खड़ा किया है वह भी इस बहती गंगा में अपने हाथ धोएगा ही। पर ध्यान इस बात का रखना होगा कि उसे दी जाने वाली तमाम तरह की रियायतें न तो शहर के हित में है न ही देश की जनता और उसकी आबोहवा के।
हरियाणा के पूर्व परिवहन आयुक्त अशोक खेमका ठीक ही कहते हैं कि उनके राज्य की परिवहन निगम की बस को सालाना चार लाख पथ कर देना होता है जबकि अच्छे-से-अच्छा निजी वाहन का आजीवन पथ कर चालीस हजार से ज्यादा नहीं है। इसके साथ ही कारों को ढोने वाले ट्रक हर कम्पनी ओवरसाइज बनाती है जो न सिर्फ ज्यादा गाड़ियाँ ढोता है बल्कि सड़क पर ज्यादा जगह भी घेरता है। यहाँ भी नियमों को लागू करवाने में कड़ाई करनी होगी।
आज शहर के परिवहन का खाका दूरगामी नजरिए से बनाना होगा जिसमें लोगों की आजीविका के साथ उनका स्वास्थ्य और शहर की आबोहवा का भी ख्याल रखा जाए। उसके लिये सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा तो देना ही होगा साथ ही निजी वाहनों को घटाना होगा। निजी गाड़ियों की ज्यादा संख्या और उनकी बड़ी साइज समृद्धि की निशानी नहीं पर्यावरणीय विनाश को आमन्त्रण भी हैं।
उनकी जगह पर गाड़ियों के हालीडे, साइकिलों की लेन और पैदल चलने वालों के ट्रैक सुनिश्चित करने ही होंगे। इसके लिये पेट और फेफड़े की झूठी बहस दरअसल उन भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और व्यापारियों ने खड़ी की है जो पहले अपने मुनाफ़े के लिये संकट खड़ा करते हैं और उसके समाधान के लिये। यही बहस संसाधनों की लूट के लिये भी खड़ी की जाती है और कहा जाता है कि किसानों की जमीनें इसलिये ली जा रही हैं कि उन्हें रोज़गार दिया जाएगा। परिवहन हमारे लोकतन्त्र और सभ्यता की संवेदनशीलता का सही परीक्षा स्थल है। इस मोर्चे पर हम जितने मानवीय और दूरदर्शी होंगे हमारी सभ्यता उतनी ही टिकाऊ होगी।
सचमुच यह बड़ी पुरानी बहस है जिसे कभी अर्थ समिट में इन्दिरा गाँधी ने विकसित देशों के सामने रखा था तो आज राष्ट्रीय स्तर पर उसे राजनीतिक दल, ट्रांसपोर्ट लॉबी और उसमें काम करने वाले लोग रख रहे हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले और उसे सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का समर्थन मिलने के बाद यह तो साफ हो गया है कि दिल्ली की हवा का प्रदूषण स्तर भयानक है और पूरी दिल्ली सोते-जागते जहर में साँस लेती है।
लेकिन असली सवाल यह है कि क्या एनजीटी का दस साल पुरानी डीजल और पन्द्रह साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को हटाए जाने का फैसला आसानी से लागू होने जा रहा है? केन्द्र सरकार ने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट से चार हफ्ते का स्थगन चाहा था लेकिन उसे महज दो हफ्ते का स्टे मिला है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और दूसरे पड़ोसी राज्यों की सरकारें इस मामले पर अपने-अपने तर्क तैयार कर रही हैं और केन्द्र उन्हीं के आधार पर एक्शन प्लान बना रहा है।
पहला सवाल यह है कि क्या एनजीटी ने पुरानी गाड़ियों को सड़क से बाहर करने का कोई नया आदेश दिया है या यह किसी पुराने आदेश का नए सन्दर्भ में दोहराव है? मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा कि यह आदेश नया नहीं है बल्कि संविधान पीठ के पुराने फैसले का दोहराव ही है।
इस फैसले पर मचे विवाद के साथ एमसी मेहता की याचिका और उस पर सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरनमेंट के संस्थापक और प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल की सक्रियता की याद ताजा हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि काफी हाहाकार और विवाद के बाद वह फैसला महज दिल्ली की बसों को सीएनजी में बदलने तक सिमट गया। भूरेलाल समिति की निगरानी और तरह-तरह की बहसों के बीच जब शहर में सीएनजी फिलिंग स्टेशनों पर लम्बी लाइनें लगती थीं तो कहा जाता था कि यह अनिल अग्रवाल जैसे कुछ पर्यावरणविदों और सीएनजी लॉबी के चोचले हैं और ज्यादा दिन चल नहीं पाएँगे। फिर भी दिल्ली के प्रदूषण के प्रभाव से कैंसर जैसी असाध्य बीमारी झेल रहे अनिल अग्रवाल की जिद ने बसों के प्रदूषण से तो राहत दिला दी थी और नब्बे के दशक के अन्त और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में दिल्ली की हवा साँस लेने लायक बनने लगी थी।
लेकिन वह कार्यक्रम और उसका क्रियान्वयन अधूरा था। जब एक तरफ डीजल एसयूवी और कारों की बिक्री जारी थी और डीजल ट्रकों का रात में शहर में प्रवेश निर्बाध था तो दूसरी तरफ दिल्ली परिवहन निगम और उसके तहत चलने वाली बसों को सीएनजी में बदलकर साफ दिल्ली के हसीन सपने देखे जा रहे थे।
सरकारों ने सोचा कि दिल्ली की कुछ गाड़ियों को हरा-हरा पोत कर और उस पर पर्यावरण अनुकूल लिख देने से शहर की हवा साफ हो जाएगी। यह एक नए किस्म का झाँसा था। यह कुछ वैसा ही साबित हुआ जैसे बार-बार अखबार और टीवी की तस्वीरों में यमुना सफाई का पाखण्ड किया जाता है।
सचमुच दिल्ली कितनी पाखण्डी है इसका अन्दाजा लगाना हो तो शहर के परिवहन और उसके प्रदूषण स्तर को देखना जरूरी है। हवा की गुणवत्ता नापने का एक पैमाना है पीएम 2.5 । इस पैमाने पर आज दिल्ली की हवा का गुणवत्ता सूचकांक 252 है जो भविष्य में जल्दी ही 278 तक जाने वाला है। यह भारत के किसी शहर के मुकाबले बहुत ज्यादा है। इसकी तुलना में पुणे में यह सूचकांक 78, हैदराबाद में 69, चेन्नई में 36, कोलकाता में 47 और मुंबई में 65 है।
दिल्ली का दावा है कि उसने मेट्रो जैसे सार्वजनिक परिवहन को चालू करके दिल्ली की सड़कों का बोझ बहुत कम किया है और उससे प्रदूषण स्तर भी घटा है। लेकिन असलियत यह है कि मेट्रो के विभिन्न चरणों के लिये राजधानी में लाखों पेड़ काटे गए हैं। अगर वे होते तो राजधानी में प्रदूषण की ऐसी स्थिति शायद होती। दूसरी तरफ यह भी सोचने वाली बात है कि व्यस्त समय में राजधानी के सड़कों पर गाड़ियों की स्पीड कई स्थलों पर तो पाँच से दस किलमोटर प्रतिघंटा तक हो जाती है। वे सारे फ्लाई ओवर बेकार हो चुके हैं जो राष्ट्रमण्डल खेलों के दौरान महज पाँच साल पहले बने थे।
आज दिल्ली की सड़कों पर न तो ट्रैफिक का कोई नियम है और न ही उस पर चलने वाली गाड़ियों से निकलने वाले प्रदूषण का। दिल्ली की परिवहन पुलिस को या तो अन्धाधुन्ध चालान काटते हुए देखा जा सकता है या फिर रात और सुबह गुजरने वाले ट्रकों से उगाही करते हुए।
केजरीवाल के तमाम दावों के बावजूद दिल्ली की हवा में लापरवाही और भ्रष्टाचार कार्बन डाइऑक्साइड की तरह घुले हुए हैं। इन तमाम स्थितियों में लोग सड़क पर भड़क कर हैवान बनने पर उतर आते हैं। तुर्कमान गेट पर गाड़ी पार्क करने के चक्कर में हुई हत्या ने तो पूरे शहर का ध्यान खींचा लेकिन ऐसी घटनाएँ शहर के दूसरे हिस्सों में आम हैं और हर गाड़ी वाला कोई-न-कोई राड या हाकी अपने साथ लेकर चलता ही है।
दिल्ली में रोजाना 80, 000 ट्रक प्रवेश करते हैं। उनके धुएँ, शोर और सड़कों पर होने वाले जाम के कारण शहर में न सिर्फ चलना मोहाल है बल्कि रात में सोना भी मुश्किल है। दूसरी तरफ इससे होने वाली साँस और फेफड़े की बीमारियों की अपनी कहानियाँ हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी साँस की बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं बूढ़ों की बात ही कुछ और। सवाल ट्रकों का ही नहीं उन निजी वाहनों का भी है जो हर घर में दो से चार, पाँच तक हो गए हैं। उन गाड़ियों को घरों में पार्क किया नहीं जा सकता और उन्हें सड़क पर उतारे जाने पर जाम लगने से बचा नहीं जा सकता।
निश्चित तौर पर एनजीटी के आदेश को लागू किए बिना काम चल नहीं सकता लेकिन उसे लागू करने में महज जनता की भलाई है यह भी सोचना पूरे मसले का सरलीकरण है। दिल्ली के योजनाकारों ने अगर यह सोचा था कि यहाँ बढ़ते जाम और प्रदूषण की समस्या को महज फ्लाईओवर बनाकर और नगर बसों को सीएनजी में बदलकर हल कर लिया जाएगा तो वे जनता की आँखों में धूल झोंक रहे थे। यह प्रदूषण और जाम से प्रतीकात्मक लड़ाई थी और इसमें डीजल एसयूवी और कारों की छूट देकर आटोमोबाइल उद्योग को गलियारा दे दिया गया था।
आज भी अगर दस साल पुरानी डीजल गाड़ियों और पन्द्रह साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को दिल्ली में चलने पर प्रतिबन्धित किया जा रहा है तो इसका भी फायदा आटोमोबाइल उद्योग को मिलना ही मिलना है। यही वजह है कि गाड़ियों की उम्र के बजाय उनके प्रदूषण स्तर और चलने लायक स्थितियों के आकलन का सुझाव दिया जा रहा है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि अगर इतने बड़े पैमाने पर गाड़ियाँ बाहर की जाएँगी तो लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार होंगे।
एनजीटी ने नोएडा और गाज़ियाबाद से दस साल पुरानी डीजल गाड़ियों को हटाने का जो आदेश दिया है उसके विरोध में उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि इससे तो नोएडा, गाज़ियाबाद, बुलन्दशहर और हापुड़ की 40,000 गाड़ियाँ सड़क से बाहर हो जाएँगी। एक तो यह आदेश राज्य के मोटर वेहिकल अधिनियम के खिलाफ है दूसरी तरफ लाखों लोगों को बेरोजगार करने वाला है।
निश्चित तौर पर प्रदूषण के बारे में पूरे देश के स्तर पर सोचना होगा और उसके लिये यूरो-4 मानक को लागू करने का सुझाव भी दिया ही जा रहा है। लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि आटोमोबाइल उद्योग जिसने परिवहन व्यवस्था को बनाने के साथ उसका मौजूदा संकट भी खड़ा किया है वह भी इस बहती गंगा में अपने हाथ धोएगा ही। पर ध्यान इस बात का रखना होगा कि उसे दी जाने वाली तमाम तरह की रियायतें न तो शहर के हित में है न ही देश की जनता और उसकी आबोहवा के।
हरियाणा के पूर्व परिवहन आयुक्त अशोक खेमका ठीक ही कहते हैं कि उनके राज्य की परिवहन निगम की बस को सालाना चार लाख पथ कर देना होता है जबकि अच्छे-से-अच्छा निजी वाहन का आजीवन पथ कर चालीस हजार से ज्यादा नहीं है। इसके साथ ही कारों को ढोने वाले ट्रक हर कम्पनी ओवरसाइज बनाती है जो न सिर्फ ज्यादा गाड़ियाँ ढोता है बल्कि सड़क पर ज्यादा जगह भी घेरता है। यहाँ भी नियमों को लागू करवाने में कड़ाई करनी होगी।
आज शहर के परिवहन का खाका दूरगामी नजरिए से बनाना होगा जिसमें लोगों की आजीविका के साथ उनका स्वास्थ्य और शहर की आबोहवा का भी ख्याल रखा जाए। उसके लिये सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा तो देना ही होगा साथ ही निजी वाहनों को घटाना होगा। निजी गाड़ियों की ज्यादा संख्या और उनकी बड़ी साइज समृद्धि की निशानी नहीं पर्यावरणीय विनाश को आमन्त्रण भी हैं।
उनकी जगह पर गाड़ियों के हालीडे, साइकिलों की लेन और पैदल चलने वालों के ट्रैक सुनिश्चित करने ही होंगे। इसके लिये पेट और फेफड़े की झूठी बहस दरअसल उन भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और व्यापारियों ने खड़ी की है जो पहले अपने मुनाफ़े के लिये संकट खड़ा करते हैं और उसके समाधान के लिये। यही बहस संसाधनों की लूट के लिये भी खड़ी की जाती है और कहा जाता है कि किसानों की जमीनें इसलिये ली जा रही हैं कि उन्हें रोज़गार दिया जाएगा। परिवहन हमारे लोकतन्त्र और सभ्यता की संवेदनशीलता का सही परीक्षा स्थल है। इस मोर्चे पर हम जितने मानवीय और दूरदर्शी होंगे हमारी सभ्यता उतनी ही टिकाऊ होगी।
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Post By: RuralWater