दिल्ली में लाखों लोग पानी के साथ लेड, कैडमियम, फ्लोराइड, नाइट्रेट व क्रोमियम जैसे भारी तत्वों का सेवन कर रहे हैं। इन तत्वों से हड्डियाँ प्रभावित होती हैं और बच्चों के स्वांस तंत्र को नुकसान पहुँचता है। इतना ही नहीं, कई मामलों में तो ये कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियों का कारण भी बन जाते हैं।
दिल्ली के कई इलाकों में सीवर लाइन का पानी पेयजल की लाइनों में मिल गया था। इससे घरों में सप्लाई होने वाला पेयजल दूषित व बदबूदार हो गया था। राजधानी दिल्ली में पानी की किल्लत को लेकर समय-समय पर आवाज़ उठती रहती है। दिल्ली में पीने का पानी हरियाणा से आता है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहले भी पीने या सिचाईं के पानी की कमी थी।
यमुना के किनारे बसे इस शहर में पानी की कोई कम नहीं थी। लेकिन आधुनिक विकास ने पहले तो यमुना को निगला। अब भूजल को निगलने लगी है। मुगल बादशाह अकबर के समय की एक घटना याद करें तो यमुना के पानी के स्तर को समझा जा सकता है।
बादशाह अकबर ने एक दिन सभा बुलाई। सभा में उन्होंने सवाल किया कि सबसे अच्छा जल किस नदी को होता है। सवाल का उत्तर सरल था। लेकिन अकबर के नवरत्नों में शामिल बीरबल ने कहा कि, हुजूर यमुना का पानी सबसे उत्तम और स्वास्थप्रद है। लेकिन सारे दरबारियों ने बारी-बारी से गंगा के पानी को सबसे अच्छा कहा। इस पर बादशाह अकबर ने नाराजगी भरे स्वर में कहा कि बीरबल गंगा के पानी की महिमा तो शास्त्रों और पुराणों में भी वर्णित है कि गंगाजल सबसे उत्तम और स्वच्छ है। तो फिर तुम क्यों यमुना के पानी को गंगाजल से भी श्रेष्ठ बता रहे हो। इस पर बीरबल ने कहा कि हुजूर आपने कहा था कि किसी नदी का पानी सबसे स्वच्छ और उत्तम होता है। गंगाजल तो अमृत है उसकी तुलना किसी जल से नहीं की जा सकती। यमुना का जल सबसे स्वास्थप्रद है।
लेकिन आज यमुना का पानी पीने की कौन कहे स्नान के लायक नहीं है। पर्यावरणविदों के अनुसार यमुना का पानी फ़सलों के सिचाईं के काबिल भी नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिनोंदिन बढ़ रहे औद्योगिक कचरा ने दिल्ली के आबोहवा को तबाह कर दिया है। फ़ैक्टरियों से निकलने वाले कचरा का सही ढंग से निपटान नहीं होता है। कचरा को खुले में छोड़ दिया जाता है। जिससे वे धीरे-धीरे भूजल को बर्बाद कर रहें हैं।
एक आँकड़े के मुताबिक दिल्ली के उत्तरी-पश्चिमी जिले में भूजल में फ्लोराइड, नाइट्रेट, क्रोमियम और शीशा की मात्रा की बहुतायत है। इसी तरह से पश्चिमी दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड, नाइट्रेट, शीशा, क्रोमियम और केडियम की मात्रा तो दक्षिणी दिल्ली में फ्लोराइड, नाइट्रेट, शीशा और क्रोमियम जैसे खतरनाक रसायन जहर घोल रहे हैं। उत्तरी दिल्ली में शीशा और क्रोमियम मौजूद है।
उत्तरी पूर्वी दिल्ली यमुना का बेसिन है लेकिन यहाँ के भूजल में भी क्रोमियम की मात्रा की अधिकता है। क्रोमियम की अधिकता से कैंसर जैसे घातक रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। पूर्वी दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट और क्रोमियम देखने को मिली है। नई दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट के मात्रा की अधिकता है।
नाइट्रेट साँस सम्बन्धी रोग, हृदय और खून में आक्सीजन की कमी लाता है। यह आँकड़े केन्द्रीय भूजल बोर्ड के हैं। दिल्ली के भूजल में कई खतरनाक रसायन मौजूद हैं। जो स्वास्थ्य पर न केवल प्रतिकूल असर डाल रहे हैं बल्कि आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिये हैं।
कुछ वर्षों पहले संसद में एक प्रश्न के उत्तर में तत्कालीन जल संसाधन मंत्री ने संसद को बताया था कि दिल्ली में नजफगढ़ ड्रेन के साथ वाली कॉलोनियों में भूजल में लेड, यानि सीसा पाया गया है। ऐसे में पेयजल में लेड होने पर इसके बेहद गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। वहीं, दक्षिण-पश्चिमी जिले के भूजल में कैडमियम पाया गया है।
उत्तरी-पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी दिल्ली में भूमिगत पानी में क्रोमियम जैसे भारी तत्व पाये गए हैं। इन सभी तत्वों की मौजूदगी के चलते ऐसे पानी को पीना स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है।
इन खतरनाक रसायनों के अलावा दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड पाया गया है। पूर्वी दिल्ली, मध्य दिल्ली, नई दिल्ली, उत्तर पश्चिमी, दक्षिणी व दक्षिणी-पूर्वी दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट भी पाया गया है। इस जानकारी के मुताबिक दिल्ली के लगभग हर हिस्से में भूमिगत जल बहुत ज्यादा दूषित है व इसमें खतरनाक रसायन घुल चुके हैं।
सुरक्षित स्तर से ज्यादा फ्लोराइड के इस्तेमाल से दाँत और हड्डियों के खराब होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। वहीं, आर्सेनिक ऐसा तत्व है जो सीधे तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव डालता है। नाईट्रेट से स्वांस के अलावा पाचन तंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है।
खतरनाक रसायन घुला यह पानी मुख्य रूप से अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले लोगों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। यहाँ पेयजल की समुचित व्यवस्था न होने के कारण लोग सीधे भूमिगत जल व टैंकर से सप्लाई होने वाले पानी पर निर्भर रहते हैं।
गंगा-सफाई योजना की चर्चा ने नदियों के प्रदूषण की तरफ नए सिरे से देश का ध्यान खींचा है। गंगा और दूसरी नदियों के निर्मलीकरण के वादे कहाँ तक पूरे होंगे, इस बारे में फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन पानी का प्रदूषण नदियों तक सीमित नहीं है। झीलों और तालाबों का भी बुरा हाल है, उनसे भी ज्यादा चिन्ताजनक स्थिति भूजल की है।
देश के कम-से-कम सात करोड़ लोग भूजल में आर्सेनिक जैसे खतरनाक रसायन की मौजूदगी से प्रभावित हैं और केन्द्र सरकार के पास इस समस्या से निपटने की अभी तक कोई योजना नहीं है। कई वर्ष पहले 'भूजल में आर्सेनिक की मौजूदगी' पर पेश अपनी पहली रिपोर्ट में भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने जो तथ्य दिये थे वे एक बड़े संकट की ओर इशारा कर रहे थे। लेकिन उसके बाद यमुना में बहुत पानी बह गया। लेकिन कोई कारगर नियम नहीं बन सका।
भूजल में कई खतरनाक रसायनों की मौजूदगी और उनके दुष्परिणामों को लेकर इससे पहले कई और अध्ययन आ चुके हैं। लगभग चार दशक पहले चण्डीगढ़ में पानी में आर्सेनिक का पहला मामला सामना आया था। आज यह समस्या दस राज्यों के कुल छियासी जिलों तक फैल चुकी है।
भारतीय मानक ब्यूरो ने मानक तय करने में ढिलाई क्यों बरती? भूजल में आर्सेनिक के खतरनाक हद तक घुले होने के चलते कैंसर, लीवर फाइब्रोसिस, हाइपर पिगमेंटेशन जैसी लाइलाज बीमारियाँ हो जाती हैं। संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक आर्सेनिकयुक्त भूजल के कारण एक लाख से ज्यादा लोग मौत के मुँह में चले गए और करीब तीन लाख के बीमार होने की पुष्टि हो चुकी है।
लिहाजा, समिति ने सिफारिश की है कि भूजल में आर्सेनिक की मात्रा के सुरक्षित मानक में दी गई ढील पर तत्काल रोक लगाई जाये और इस मामले में डब्ल्यूएचओ के मानक को लागू किया जाये। लेकिन मानक में सुधार से ही क्या आर्सेनिक से मुक्ति मिल जाएगी? जाहिर है, जब तक भूजल को प्रदूषण से बचाने का बड़ा अभियान नहीं चलेगा, समस्या न सिर्फ बनी रहेगी, बल्कि वह और विकराल रूप ले सकती है।
आज देश के एक बड़े हिस्से में स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता बाजार में बिकने वाले बोतलबन्द पानी पर निर्भर होती जा रही है। जबकि ज्यादातर लोगों की क्रयशक्ति ऐसी नहीं है कि वे बोतलबन्द पानी खरीदें। फिर, पानी के बाजारीकरण के दुनिया भर में खतरनाक नतीजे आये हैं।
यह ध्यान रखना चाहिए कि पानी कोई आर्थिक उत्पाद नहीं, धरती की अनमोल धरोहर है और सबकी जरूरत है। संसदीय समिति की रिपोर्ट ने सरकार पर एक अहम जिम्मेदारी डाली है, वह यह कि भूजल को प्रदूषण से निजात दिलाने के लिये वह शीघ्र कारगर योजना बनाए और उसे सख्ती से लागू करे।
दिल्ली के कई इलाकों में सीवर लाइन का पानी पेयजल की लाइनों में मिल गया था। इससे घरों में सप्लाई होने वाला पेयजल दूषित व बदबूदार हो गया था। राजधानी दिल्ली में पानी की किल्लत को लेकर समय-समय पर आवाज़ उठती रहती है। दिल्ली में पीने का पानी हरियाणा से आता है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहले भी पीने या सिचाईं के पानी की कमी थी।
यमुना के किनारे बसे इस शहर में पानी की कोई कम नहीं थी। लेकिन आधुनिक विकास ने पहले तो यमुना को निगला। अब भूजल को निगलने लगी है। मुगल बादशाह अकबर के समय की एक घटना याद करें तो यमुना के पानी के स्तर को समझा जा सकता है।
बादशाह अकबर ने एक दिन सभा बुलाई। सभा में उन्होंने सवाल किया कि सबसे अच्छा जल किस नदी को होता है। सवाल का उत्तर सरल था। लेकिन अकबर के नवरत्नों में शामिल बीरबल ने कहा कि, हुजूर यमुना का पानी सबसे उत्तम और स्वास्थप्रद है। लेकिन सारे दरबारियों ने बारी-बारी से गंगा के पानी को सबसे अच्छा कहा। इस पर बादशाह अकबर ने नाराजगी भरे स्वर में कहा कि बीरबल गंगा के पानी की महिमा तो शास्त्रों और पुराणों में भी वर्णित है कि गंगाजल सबसे उत्तम और स्वच्छ है। तो फिर तुम क्यों यमुना के पानी को गंगाजल से भी श्रेष्ठ बता रहे हो। इस पर बीरबल ने कहा कि हुजूर आपने कहा था कि किसी नदी का पानी सबसे स्वच्छ और उत्तम होता है। गंगाजल तो अमृत है उसकी तुलना किसी जल से नहीं की जा सकती। यमुना का जल सबसे स्वास्थप्रद है।
लेकिन आज यमुना का पानी पीने की कौन कहे स्नान के लायक नहीं है। पर्यावरणविदों के अनुसार यमुना का पानी फ़सलों के सिचाईं के काबिल भी नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिनोंदिन बढ़ रहे औद्योगिक कचरा ने दिल्ली के आबोहवा को तबाह कर दिया है। फ़ैक्टरियों से निकलने वाले कचरा का सही ढंग से निपटान नहीं होता है। कचरा को खुले में छोड़ दिया जाता है। जिससे वे धीरे-धीरे भूजल को बर्बाद कर रहें हैं।
एक आँकड़े के मुताबिक दिल्ली के उत्तरी-पश्चिमी जिले में भूजल में फ्लोराइड, नाइट्रेट, क्रोमियम और शीशा की मात्रा की बहुतायत है। इसी तरह से पश्चिमी दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड, नाइट्रेट, शीशा, क्रोमियम और केडियम की मात्रा तो दक्षिणी दिल्ली में फ्लोराइड, नाइट्रेट, शीशा और क्रोमियम जैसे खतरनाक रसायन जहर घोल रहे हैं। उत्तरी दिल्ली में शीशा और क्रोमियम मौजूद है।
उत्तरी पूर्वी दिल्ली यमुना का बेसिन है लेकिन यहाँ के भूजल में भी क्रोमियम की मात्रा की अधिकता है। क्रोमियम की अधिकता से कैंसर जैसे घातक रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। पूर्वी दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट और क्रोमियम देखने को मिली है। नई दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट के मात्रा की अधिकता है।
नाइट्रेट साँस सम्बन्धी रोग, हृदय और खून में आक्सीजन की कमी लाता है। यह आँकड़े केन्द्रीय भूजल बोर्ड के हैं। दिल्ली के भूजल में कई खतरनाक रसायन मौजूद हैं। जो स्वास्थ्य पर न केवल प्रतिकूल असर डाल रहे हैं बल्कि आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिये हैं।
कुछ वर्षों पहले संसद में एक प्रश्न के उत्तर में तत्कालीन जल संसाधन मंत्री ने संसद को बताया था कि दिल्ली में नजफगढ़ ड्रेन के साथ वाली कॉलोनियों में भूजल में लेड, यानि सीसा पाया गया है। ऐसे में पेयजल में लेड होने पर इसके बेहद गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। वहीं, दक्षिण-पश्चिमी जिले के भूजल में कैडमियम पाया गया है।
उत्तरी-पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी दिल्ली में भूमिगत पानी में क्रोमियम जैसे भारी तत्व पाये गए हैं। इन सभी तत्वों की मौजूदगी के चलते ऐसे पानी को पीना स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है।
इन खतरनाक रसायनों के अलावा दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड पाया गया है। पूर्वी दिल्ली, मध्य दिल्ली, नई दिल्ली, उत्तर पश्चिमी, दक्षिणी व दक्षिणी-पूर्वी दिल्ली के भूजल में नाइट्रेट भी पाया गया है। इस जानकारी के मुताबिक दिल्ली के लगभग हर हिस्से में भूमिगत जल बहुत ज्यादा दूषित है व इसमें खतरनाक रसायन घुल चुके हैं।
सुरक्षित स्तर से ज्यादा फ्लोराइड के इस्तेमाल से दाँत और हड्डियों के खराब होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। वहीं, आर्सेनिक ऐसा तत्व है जो सीधे तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव डालता है। नाईट्रेट से स्वांस के अलावा पाचन तंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है।
खतरनाक रसायन घुला यह पानी मुख्य रूप से अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले लोगों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। यहाँ पेयजल की समुचित व्यवस्था न होने के कारण लोग सीधे भूमिगत जल व टैंकर से सप्लाई होने वाले पानी पर निर्भर रहते हैं।
गंगा-सफाई योजना की चर्चा ने नदियों के प्रदूषण की तरफ नए सिरे से देश का ध्यान खींचा है। गंगा और दूसरी नदियों के निर्मलीकरण के वादे कहाँ तक पूरे होंगे, इस बारे में फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन पानी का प्रदूषण नदियों तक सीमित नहीं है। झीलों और तालाबों का भी बुरा हाल है, उनसे भी ज्यादा चिन्ताजनक स्थिति भूजल की है।
देश के कम-से-कम सात करोड़ लोग भूजल में आर्सेनिक जैसे खतरनाक रसायन की मौजूदगी से प्रभावित हैं और केन्द्र सरकार के पास इस समस्या से निपटने की अभी तक कोई योजना नहीं है। कई वर्ष पहले 'भूजल में आर्सेनिक की मौजूदगी' पर पेश अपनी पहली रिपोर्ट में भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने जो तथ्य दिये थे वे एक बड़े संकट की ओर इशारा कर रहे थे। लेकिन उसके बाद यमुना में बहुत पानी बह गया। लेकिन कोई कारगर नियम नहीं बन सका।
भूजल में कई खतरनाक रसायनों की मौजूदगी और उनके दुष्परिणामों को लेकर इससे पहले कई और अध्ययन आ चुके हैं। लगभग चार दशक पहले चण्डीगढ़ में पानी में आर्सेनिक का पहला मामला सामना आया था। आज यह समस्या दस राज्यों के कुल छियासी जिलों तक फैल चुकी है।
देश के कम-से-कम सात करोड़ लोग भूजल में आर्सेनिक जैसे खतरनाक रसायन की मौजूदगी से प्रभावित हैं और केन्द्र सरकार के पास इस समस्या से निपटने की अभी तक कोई योजना नहीं है। कई वर्ष पहले 'भूजल में आर्सेनिक की मौजूदगी' पर पेश अपनी पहली रिपोर्ट में भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने जो तथ्य दिये थे वे एक बड़े संकट की ओर इशारा कर रहे थे। लेकिन उसके बाद यमुना में बहुत पानी बह गया। लेकिन कोई कारगर नियम नहीं बन सका।
ग़ौरतलब है कि विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसद बीमारियों का मूल कारण जल प्रदूषण है। डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पीने के पानी के प्रति एक लीटर में अधिकतम 0.01 मिलीग्राम आर्सेनिक की मौजूदगी को एक हद तक सुरक्षित मानक माना है। लेकिन भारतीय मानक ब्यूरो ने डब्ल्यूएचओ की इस 'छूट' और पेयजल स्रोतों की कमी को बहाना बनाकर इस सीमा को बढ़ाकर प्रति लीटर 0.05 मिलीग्राम तक कर दिया। जबकि संसदीय समिति ने ब्यूरो के इस मानक का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं पाया।भारतीय मानक ब्यूरो ने मानक तय करने में ढिलाई क्यों बरती? भूजल में आर्सेनिक के खतरनाक हद तक घुले होने के चलते कैंसर, लीवर फाइब्रोसिस, हाइपर पिगमेंटेशन जैसी लाइलाज बीमारियाँ हो जाती हैं। संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक आर्सेनिकयुक्त भूजल के कारण एक लाख से ज्यादा लोग मौत के मुँह में चले गए और करीब तीन लाख के बीमार होने की पुष्टि हो चुकी है।
लिहाजा, समिति ने सिफारिश की है कि भूजल में आर्सेनिक की मात्रा के सुरक्षित मानक में दी गई ढील पर तत्काल रोक लगाई जाये और इस मामले में डब्ल्यूएचओ के मानक को लागू किया जाये। लेकिन मानक में सुधार से ही क्या आर्सेनिक से मुक्ति मिल जाएगी? जाहिर है, जब तक भूजल को प्रदूषण से बचाने का बड़ा अभियान नहीं चलेगा, समस्या न सिर्फ बनी रहेगी, बल्कि वह और विकराल रूप ले सकती है।
आज देश के एक बड़े हिस्से में स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता बाजार में बिकने वाले बोतलबन्द पानी पर निर्भर होती जा रही है। जबकि ज्यादातर लोगों की क्रयशक्ति ऐसी नहीं है कि वे बोतलबन्द पानी खरीदें। फिर, पानी के बाजारीकरण के दुनिया भर में खतरनाक नतीजे आये हैं।
यह ध्यान रखना चाहिए कि पानी कोई आर्थिक उत्पाद नहीं, धरती की अनमोल धरोहर है और सबकी जरूरत है। संसदीय समिति की रिपोर्ट ने सरकार पर एक अहम जिम्मेदारी डाली है, वह यह कि भूजल को प्रदूषण से निजात दिलाने के लिये वह शीघ्र कारगर योजना बनाए और उसे सख्ती से लागू करे।
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Post By: RuralWater