दिल्ली के आकाश में तबाही का मंजर


यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहाँ भी रोकना मुश्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौतों के लिये वायु प्रदूषण जिम्मेदार है, इस साल तो पिछले 17 साल का रिकॉर्ड टूट चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाजमी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है, यह कब तय होगा?

जब हम सुनियोजित व संकल्पित होते हैं, तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं, पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का शिकार हो जाए तो वातावरण में ऐसी ही धुंध छाती है, जैसी कि इन दिनों दिल्ली में छाई है। मनुष्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है, पर विडंबना यह है कि भौतिक मनुष्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था, आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है, अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आकाश है। राजधानी में दीपावली के बाद प्रदूषण का स्तर बढ़ने के चलते सांस लेने में दिक्कत, दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। चिकित्सकों की राय है कि ऐसे मामलों की संख्या 60 फीसदी तक हो गई है। बीते 17 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली इन दिनों घुट रही है।

सर्वाधिक आम समस्या यहाँ श्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गंभीर परेशानी, खाँसी और छींक सहित कई चीजें निरंतरता लिये हुए हैं। स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय को यहाँ तक कहना पड़ा कि यह किसी गैस चैंबर में रहने जैसा है। प्रदूषण की स्थिति को देखते हुए निगम के करीब 17 सौ स्कूल बीते 5 नवंबर को बंद कर दिए गए। स्कूल खुलने के दौरान अध्यापकों और छात्रों को कक्षा के बाहर न जाने और प्रार्थना मैदान के बजाय कक्षा में ही कराने के निर्देश भी दिए गए।

इसमें कोई दोराय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवाएँ जहरीली हो गई हैं। अब इस जहरीली धुंध ने नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम, आगरा और लखनऊ को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोशनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहाँ हवाओं का कर्फ्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिये जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक संपदा से तुलना नहीं की जा सकती।

मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु ऊर्जा आदि के कारण खूब लाभांवित हुआ है, परंतु भविष्य में होने वाले अतिघातक परिणामों की अवहेलना भी की है, जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका शिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अंतर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमंडल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं, जिसका अपना एक निश्चित अनुपात है, मसलन नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा।

सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिश कराने की संभावना पर भी विचार किया जा रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री की मानें तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण के खास स्तर के लिये दिल्ली सरकार जिम्मेदार है, क्योंकि 80 प्रतिशत से अधिक प्रदूषण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है। अब प्रदूषण के चलते आपे से बाहर हो गई दिल्ली को लेकर सियासत भी रंगदारी दिखा रही है।

एतियाती उपाय के तौर पर कह दिया गया है कि जितना हो सके, लोग घरों में रहें। सभी सामान्य रिपोर्टों का निष्कर्ष यही है कि दिल्ली का प्रदूषण अपनी उस सीमा पर चला गया है, जहाँ से मनुष्य की सहनशीलता जवाब दे देती है। यह महज आँकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि सबके लिये डरावनी स्थिति पैदा करने वाला भी है। दिल्ली सरकार के मुखिया केजरीवाल प्रदूषण को आपातकालीन स्थिति मानते हुए जो कुछ कर रहे हैं, उसका कितना असर होगा, यह देखने वाली बात है। दरअसल, केजरीवाल ने 5 दिनों तक किसी प्रकार के निर्माण या तोड़-फोड़ की कार्यवाही पर रोक लगाने की बात कही है।

अस्पतालों व मोबाइलों के टावरों को छोड़ सभी जनरेटर सेट चलाने पर दस दिन की बंदिश है। यहाँ तक की बदरपुर प्लांट से इतने ही दिनों तक राख भी नहीं उठाई जाएगी। बेशक केजरीवाल के इस प्रयास के चलते कुछ हद तक प्रदूषण के स्तर में तो कमी आएगी, पर जिस बुलंदी पर दिल्ली के आकाश में प्रदूषण तैर रहा है, उसे देखते हुए इतने प्रयास नाकाफी लगते हैं। कृत्रिम बारिश का उपाय भी पूरी तरह कारगर है, इस पर भी अभी बातें कुछ अस्पष्ट-सी हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूषण के मामले को लेकर दिल्ली सरकार को फटकार लगाई है और कहा है कि उसे स्टेटस रिपोर्ट दे। ट्रिब्यूनल की तल्खी इस कदर है कि उसने केजरीवाल को यहाँ तक कहा कि आप सिर्फ मीटिंग करने में व्यस्त हैं, जबकि प्रदूषण रोकने में कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। फिर सवाल उठता है कि पर्यावरण की स्वच्छता को लेकर क्या केवल दिल्ली सरकार की लानत-मलानत से पूरा समाधान मिलेगा।

प्रदूषण को फैलाने वाले जिम्मेदार लोग कहाँ गए, इस प्रश्न की भी तलाश होनी चाहिए। रोशनी के त्यौहार दीपावली में फूटे पटाखे और उससे फैले प्रदूषण के चलते आँखों के आगे अंधेरा छा जाएगा, इसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो। यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुष्य, आर्थिक मनुष्य, तत्पश्चात प्रौद्योगिक मानव बना है, उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गई है। विज्ञान व अत्यधिक विकसित, परिमार्जित व दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रांति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुष्य और पर्यावरण के मध्य शत्रुतापूर्ण संबंध की शुरुआत भी होती है, तब दुनिया के आकाश में प्रदूषण का सवेरा मात्र हुआ था।

एक सौ पचास वर्ष के इतिहास में प्रदूषण का यह सवेरा कब प्रदूषण की आधी रात बन गया, इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासशील देशों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 व 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकॉल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोशिशें की गईं, पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया, इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालाँकि, 1952 में ग्रेट स्मॉग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेश यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के शिकार हुए थे।

कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहाँ भी रोकना मुश्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौतों के लिये वायु प्रदूषण जिम्मेदार है, इस साल तो पिछले 17 साल का रिकॉर्ड टूट चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाजमी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है, यह कब तय होगा?

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