यूपी सरकार की चेतावनी : अगर दिल्ली यमुना जल को इसी तरह गंदा करती रही तो पानी बंद कर दिया जाएगा। इससे दिल्ली में जल संकट की आशंका
दिल्ली के ओखला बैराज से निकलने के बाद यह नदी उत्तर प्रदेश में काफी दूर तक ग्रामीण इलाकों से गुजरती है। ग्रामीण इस पर पीने के पानी के लिए आश्रित नहीं हैं और नदी की पेटी में उनके खेतों को इससे खास नुकसान नहीं है। हर साल बारिश के मौसम में पानी का स्तर बढ़ने की वजह से नदी के पेटी का इलाका काफी उपजाऊ है। फिलहाल इस इलाके में गेहूं और सरसों की फसल लहलहा रही है। लेकिन ज्यादातर जगहों पर नदी सिमटकर गंदे नाले में तब्दील हो गई है। उत्तर प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने पिछले दिनों धमकी दी कि अगर दिल्ली इसी तरह से यमुना का सारा पानी सोखकर सिर्फ मल-मूत्र ही उत्तर प्रदेश के लिए छोड़ेगी तो दिल्ली की गंगा वाटर सप्लाई बंद कर दी जाएगी।
उन्होंने यह भी कह दिया है कि दिल्ली को सुधरना ही होगा। चुनाव आचार संहिता लागू होने की वजह से यथास्थिति बनाए रखने की सुविधाजनक मजबूरी की वजह से दिल्ली के प्रशासक भले ही धमकी को नजरअंदाज कर दें, लेकिन चुनाव के बाद इस पर अमल होने की घड़ी में गर्मी के दौरान दिल्ली में गंभीर जल संकट पैदा हो सकता है।
शिवपाल की धमकी दरअसल उन बेबस लोगों की आवाज है जो यमुना के किनारे बसे उत्तर प्रदेश की बस्तियों और शहरों में रहते हैं। वे इस नदी में दिल्ली से छोड़े गए मल-मूत्र और रासायनिक कचरे को बर्दाश्त कर रहे हैं।
धार्मिक महत्व की नदी होते हुए भी लोग इसका पानी पीना तो दूर, इसमें नहा तक नहीं सकते। यही नहीं, कई जगहों पर मवेशी भी इसका पानी नहीं पीते। दिल्ली के बाद उत्तर प्रदेश के दो बड़े शहरों मथुरा और आगरा में यमुना की जो हालत है, उससे साफ है कि प्रदेश के साथ पूरी तरह नाइंसाफी हो रही है।
इस नाइंसाफी का नजारा देखना है तो आगरा में जल संस्थान के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट पर चले जाइए। यहां आगरा जो पानी उठाकर पीने के लिए साफ करता है वह ऑर्गेनिक वेस्ट (मल-मूत्र) के अलावा कुछ नहीं है। यमुना ट्रीटमेंट प्लांट से कोई 200 मीटर दूर खिसक गई है और छोटी-सी नहर बनाकर पानी ट्रीटमेंट प्लांट की तलहटी में आता है।
पॉलीथीन, मल-मूत्र, कचरा और सड़ांध इस पानी की सबसे बड़ी खासियत है। आगरा में ऐसे दो वाटर ट्रीटमेंट प्लांट हैं। शहर के ट्रीटमेंट प्लांट से 225 मिलियन लीटर डेली (एमएलडी) पानी और सिकंदरा के ट्रीटमेंट प्लांट से 144 एमएलडी पानी ट्रीट किया जाता है।
जल संस्थान की प्रबंध निदेशक मंजू रानी गुप्ता बताती हैं, ''दिल्ली अत्यधिक ऑर्गेनिक प्रदूषण वाला पानी उत्तर प्रदेश के लिए छोड़ रही है। माट ब्रांच में जरूर 150 क्यूसेक गंगा जल इसमें मिलाया जाता है, जिससे पानी की गुणवत्ता थोड़ी बेहतर हो।” उनका मानना है कि ओखला में कम से कम 100 क्यूसेक साफ पानी यमुना में मिलाया जाए तभी कुछ हालत बेहतर होगी।
इसके बावजूद उनका दावा है कि जल संस्थान पानी को साफ करके सप्लाई कर रहा है। लेकिन शहर की असली हकीकत देखनी हो तो डी.के. जोशी से मिलिए। जोशी सुप्रीम कोर्ट की ओर से आगरा में यमुना प्रदूषण पर निगरानी के लिए बनाई गई समिति के सदस्य हैं और लंबे समय से यमुना आंदोलन से जुड़े हैं। जोशी कहते हैं, ''जल संस्थान पानी जरूर साफ करता है लेकिन लोग इसे कपड़े धोने और बाकी काम के लिए ही इस्तेमाल करते हैं।
ज्यादातर घरों में बोरिंग है और लोग बोरिंग का पानी आरओ से साफ करके पी रहे हैं।” उनके मुताबिक शहर में रोजाना 900 एमएलडी ग्राउंड वाटर, 160 एमएलडी जल संस्थान का पानी और 30 एमएलडी पानी हैंडपंप से निकाला जाता है। जोशी का दावा है, ''अगर दिल्ली में सारा पानी रोका न जाए तो यमुना से ही आगरा को इतना पानी मिल सकता था। लेकिन आगरा वाले तो बूंद-बूंद साफ पानी को तरस रहे हैं।”
यही हाल मथुरा का है। इस धर्मनगरी की तो कल्पना ही यमुना के बिना नहीं हो सकती क्योंकि महाभारत की मान्यता के मुताबिक भगवान कृष्ण की सारी लीलाएं यहीं हुई हैं। मथुरा में भी आगरा की तरह ही सिर्फ गंदा पानी नदी में बह रहा है। हाल यह है कि यहां 19वीं सदी के राजस्थानी स्थापत्य शैली के ज्यादातर घाट मिट्टी के नीचे दब गए हैं क्योंकि साल भर उन तक पानी ही नहीं आता। यमुना बचाओ आंदोलन के नेता संत जयकृष्ण दास कहते हैं, ''सिर्फ मथुरा की आबादी का सवाल नहीं है, साल भर में करोड़ों लोग धार्मिक पर्यटन के लिए यहां आते हैं। इन लोगों के लिए यमुना का स्नान करना धार्मिक रीति से अनिवार्य है, लेकिन ये लोग यहां से पुण्य लेने की बजाए बीमारियां लेकर जाते हैं।”
पिछले साल अप्रैल में कृष्णदास के नेतृत्व में मथुरा से दिल्ली तक यमुना बचाओ पद यात्रा शुरू की गई थी। तब केंद्रीय जल संसाधन मंत्री ने दिल्ली से मथुरा के बीच एक समांतर नाला बनाने की बात पर रजामंदी जाहिर की थी ताकि यमुना में सीधे गंदा पानी न जाए। लेकिन सवाल यह है कि अगर यमुना में गंदा पानी न रहे तब तो वह पूरी तरह सूख ही जाएगी?
ऐसे में समांतर नाले से क्या हासिल, इस सवाल पर मौनव्रती विज्ञानाचार्य कॉपी पर लिखकर कहते हैं, ''हां, तब यह साफ तो हो जाएगा कि मथुरा-वृंदावन में यमुना समाप्त हो चुकी है। जब नदी सूखी दिखेगी तो अपने आप सरकार-श्रद्धालु और अदालतें जागरूक होंगी।” मथुरा में नदी के सूखने का असर यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में राजस्थान शैली में बनाए गए पौराणिक घाट पूरी तरह गाद से दब गए हैं। मथुरा और वृंदावन में अलग-अलग संगठन इन घाटों के पुनरुद्धार में लगे हैं।
दरअसल, दिल्ली के ओखला बैराज से निकलने के बाद यह नदी उत्तर प्रदेश में काफी दूर तक ग्रामीण इलाकों से गुजरती है। ग्रामीण इस पर पीने के पानी के लिए आश्रित नहीं हैं और नदी की पेटी में उनके खेतों को इससे खास नुकसान नहीं है। हर साल बारिश के मौसम में पानी का स्तर बढ़ने की वजह से नदी के पेटी का इलाका काफी उपजाऊ है।
गौतम बुद्ध नगर के ग्रेटर नोएडा इलाके में अट्टा गुजरान गांव यमुना के तट के किनारे स्थित है। गांव के दूध व्यापारी सतपाल नागर तट से करीब दो किलोमीटर दूर बहने वाली धारा की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ''जानवर भी उसका पानी नहीं पीते। हम सब अपनी जरूरतों के लिए भूजल का ही प्रयोग करते हैं।” नदी के नाले में तब्दील होने से उन्हें दुख तो होता है लेकिन इससे उनके कारोबार पर कोई असर नहीं पड़ता।
दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अलीगढ़-गौतम बुद्ध नगर सीमा पर यमुना पुल के पास पानी से वैसी दुर्गंध उठती है, जैसा कि ओखला बैराज से। पुल के नीचे अपने खेत में काम कर रहे 56 वर्षीय गजराज कहते हैं, ''अब से 30 साल पहले यहां पानी इतना साफ हुआ करता था कि हम इसे पीते थे। लेकिन पीना तो दूर, इसमें अगर कोई नहा ले तो लगता है कि उसके शरीर पर गोंद चिपक गया है।” वे यह भी बताते हैं कि नदी की पेटी में भी लोग ट्यूबवेल लगाकर जमीन के अंदर से पानी निकालकर सिंचाई करते हैं।
इस पुल के पास बने हनुमान मंदिर के पुजारी 50 वर्षीय मनमोहन गिरि हैंडपंप के पानी से नहाते हैं। वे बताते हैं, ''सुबह में तीन बजे पानी से उठने वाली दुर्गंध से सांस लेना मुश्किल हो जाता है। इसमें मल-मूत्र के अलावा औद्योगिक कचरा है।” आखिर कब तक यह ऐसी ही रहेगी? ''जब तक इसे साफ करने के लिए हजार-दो हजार लोग जान नहीं देंगे तब तक दिल्ली और लखनऊ में सरकारों की नींद नहीं खुलेगी।”
यमुनोत्री से निकलने के बाद यमुना दिल्ली में प्रवेश करने से पहले दूर तक हरियाणा और उत्तर प्रदेश में साफ रहती है, उसमें जलजीव जिंदा रहते हैं, लेकिन दिल्ली में प्रवेश करने के बाद यह मर जाती है। पल्ला गांव के रास्ते दिल्ली में प्रवेश करने वाली यह नदी वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक कुल 22 किलोमीटर के रास्ते में सबसे ज्यादा प्रदूषित होती है।
दिल्ली की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश गंगा का 500 क्यूसेक पानी देता है और दिल्ली उसका भी यही हाल करती है। दिल्ली में 3,300 मिलियन लीटर डेली (एमएलडी) सीवेज यमुना में गिरने वाले नालों में बहता है।
इसकी सफाई के लिए कुल 16 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगे हैं जिनकी अधिकतम क्षमता कुल 2,330 एमएलडी ही है। केवल 70 फीसदी काम करने वाले इन एसटीपी की बदौलत दिल्ली का केवल 1,600 एमएलडी सीवेज साफ किया जा रहा है और तकरीबन इतना ही सीवेज लेकर यमुना उत्तर प्रदेश में फिर दाखिल होती है।
यमुना में गंदगी रोकने का जिम्मा उठाने वाला एक मुख्य विभाग प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है। बोर्ड ने अपना काम केवल पानी की जांच और चेतावनी जारी करने तक सीमित कर रखा है। बोर्ड के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं है कि आखिर यमुना में रासायनिक कचरा डालने वाले उद्योगों को हमेशा के लिए बंद किया गया और उनसे यमुना के प्रदूषण में कितनी कमी आई?
यमुना रक्षा मंच के अध्यक्ष पंकज बाबा कहते हैं, ''प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहा। यमुना में बढ़ रहे प्रदूषण को रोकने के जितनी सक्रियता गैर सरकारी लोग दिखा रहे हैं सरकारी विभाग उसका दसवां हिस्सा भी नहीं कर रहे।”
गंदगी के बोझ से कराह रही यमुना को नया जीवन मिलने की उम्मीद उस वक्त जगी जब केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से वर्ष 2000 में 'यमुना ऐक्शन प्लान’ हकीकत में आया। कई चरणों वाले इस प्लान में सीवर-नालों की गंदगी और सिल्ट को सीधे नदी में गिरने से रोकने, एसटीपी से नालों के गंदे पानी को साफ कर पानी का यमुना में छोड़ने और शहर में सीवर लाइनों का जाल बिछाकर इन्हें नालों से जोड़ने की तैयारी की गई।
2007 में इस योजना के दूसरे चरण की शुरुआत होने के बाद से अब तक 1,500 करोड़ रु. से अधिक खर्च हो चुके हैं लेकिन अभी तक यमुना में गिरने वाले सीवेज की मात्रा और एसटीपी की शोधन क्षमता के बीच दोगुने से अधिक का फासला बना हुआ है।
यमुना ऐक्शन प्लान के शुरुआती चरणों में जुड़े इंजीनियर रवि श्रीवास्तव बताते हैं, ''दिल्ली, मथुरा और आगरा में 40 प्रतिशत के करीब ऐसे इलाके हैं जो आज भी सीवर लाइनों से महरूम हैं। इन इलाकों का मल-मूत्र नालियों के जरिए नालों और फिर यमुना में मिल रहा है।”
तो क्या दिल्ली का मल-मूत्र इस लायक बनाया जा सकता है कि मथुरा और आगरा में उसे पीने या निस्तार के लिए इस्तेमाल किया जा सके? आगरा के रीजनल पॉल्यूशन ऑफिसर बी.बी. अवस्थी कहते हैं, ''बहते हुए पानी में यह ताकत होती है कि वह अपने भीतर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ा लेता है।
फिर घरेलू अपशिष्ट भले ही कितना ग्लानि भरा दिखे लेकिन यह रासायनिक कचरे से कम खतरनाक होता है।” टेक्निकल रूप से वे यमुना के पानी को शुद्ध बता रहे हैं, लेकिन अपने दफ्तर में इस संवाददाता को उन्होंने बिसलेरी का पानी ही पिलाया। कुछ ऐसे ही स्वागत करने के लिए मथुरा के संत भी मजबूर हुए।
अब सवाल यह है कि ताजेवाला बैराज से आखिर कब उत्तर प्रदेश को 28 फीसदी पानी मिलेगा, जिसका वादा 1994 के एग्रीमेंट में किया गया था। शिवपाल यादव अगर चुनावी मौसम में शिगूफा छोड़ रहे हैं तो उन्हें सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि चुनाव के ठीक बाद गर्मी आएगी और तब शब्द नीर की जगह लोगों को असली पानी चाहिए होगा।
—साथ में सिराज कुरैशी
दिल्ली के ओखला बैराज से निकलने के बाद यह नदी उत्तर प्रदेश में काफी दूर तक ग्रामीण इलाकों से गुजरती है। ग्रामीण इस पर पीने के पानी के लिए आश्रित नहीं हैं और नदी की पेटी में उनके खेतों को इससे खास नुकसान नहीं है। हर साल बारिश के मौसम में पानी का स्तर बढ़ने की वजह से नदी के पेटी का इलाका काफी उपजाऊ है। फिलहाल इस इलाके में गेहूं और सरसों की फसल लहलहा रही है। लेकिन ज्यादातर जगहों पर नदी सिमटकर गंदे नाले में तब्दील हो गई है। उत्तर प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने पिछले दिनों धमकी दी कि अगर दिल्ली इसी तरह से यमुना का सारा पानी सोखकर सिर्फ मल-मूत्र ही उत्तर प्रदेश के लिए छोड़ेगी तो दिल्ली की गंगा वाटर सप्लाई बंद कर दी जाएगी।
उन्होंने यह भी कह दिया है कि दिल्ली को सुधरना ही होगा। चुनाव आचार संहिता लागू होने की वजह से यथास्थिति बनाए रखने की सुविधाजनक मजबूरी की वजह से दिल्ली के प्रशासक भले ही धमकी को नजरअंदाज कर दें, लेकिन चुनाव के बाद इस पर अमल होने की घड़ी में गर्मी के दौरान दिल्ली में गंभीर जल संकट पैदा हो सकता है।
शिवपाल की धमकी दरअसल उन बेबस लोगों की आवाज है जो यमुना के किनारे बसे उत्तर प्रदेश की बस्तियों और शहरों में रहते हैं। वे इस नदी में दिल्ली से छोड़े गए मल-मूत्र और रासायनिक कचरे को बर्दाश्त कर रहे हैं।
धार्मिक महत्व की नदी होते हुए भी लोग इसका पानी पीना तो दूर, इसमें नहा तक नहीं सकते। यही नहीं, कई जगहों पर मवेशी भी इसका पानी नहीं पीते। दिल्ली के बाद उत्तर प्रदेश के दो बड़े शहरों मथुरा और आगरा में यमुना की जो हालत है, उससे साफ है कि प्रदेश के साथ पूरी तरह नाइंसाफी हो रही है।
नाइंसाफी का नजारा
इस नाइंसाफी का नजारा देखना है तो आगरा में जल संस्थान के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट पर चले जाइए। यहां आगरा जो पानी उठाकर पीने के लिए साफ करता है वह ऑर्गेनिक वेस्ट (मल-मूत्र) के अलावा कुछ नहीं है। यमुना ट्रीटमेंट प्लांट से कोई 200 मीटर दूर खिसक गई है और छोटी-सी नहर बनाकर पानी ट्रीटमेंट प्लांट की तलहटी में आता है।
पॉलीथीन, मल-मूत्र, कचरा और सड़ांध इस पानी की सबसे बड़ी खासियत है। आगरा में ऐसे दो वाटर ट्रीटमेंट प्लांट हैं। शहर के ट्रीटमेंट प्लांट से 225 मिलियन लीटर डेली (एमएलडी) पानी और सिकंदरा के ट्रीटमेंट प्लांट से 144 एमएलडी पानी ट्रीट किया जाता है।
जल संस्थान की प्रबंध निदेशक मंजू रानी गुप्ता बताती हैं, ''दिल्ली अत्यधिक ऑर्गेनिक प्रदूषण वाला पानी उत्तर प्रदेश के लिए छोड़ रही है। माट ब्रांच में जरूर 150 क्यूसेक गंगा जल इसमें मिलाया जाता है, जिससे पानी की गुणवत्ता थोड़ी बेहतर हो।” उनका मानना है कि ओखला में कम से कम 100 क्यूसेक साफ पानी यमुना में मिलाया जाए तभी कुछ हालत बेहतर होगी।
इसके बावजूद उनका दावा है कि जल संस्थान पानी को साफ करके सप्लाई कर रहा है। लेकिन शहर की असली हकीकत देखनी हो तो डी.के. जोशी से मिलिए। जोशी सुप्रीम कोर्ट की ओर से आगरा में यमुना प्रदूषण पर निगरानी के लिए बनाई गई समिति के सदस्य हैं और लंबे समय से यमुना आंदोलन से जुड़े हैं। जोशी कहते हैं, ''जल संस्थान पानी जरूर साफ करता है लेकिन लोग इसे कपड़े धोने और बाकी काम के लिए ही इस्तेमाल करते हैं।
ज्यादातर घरों में बोरिंग है और लोग बोरिंग का पानी आरओ से साफ करके पी रहे हैं।” उनके मुताबिक शहर में रोजाना 900 एमएलडी ग्राउंड वाटर, 160 एमएलडी जल संस्थान का पानी और 30 एमएलडी पानी हैंडपंप से निकाला जाता है। जोशी का दावा है, ''अगर दिल्ली में सारा पानी रोका न जाए तो यमुना से ही आगरा को इतना पानी मिल सकता था। लेकिन आगरा वाले तो बूंद-बूंद साफ पानी को तरस रहे हैं।”
मथुरा में बीमारी की जड़
यही हाल मथुरा का है। इस धर्मनगरी की तो कल्पना ही यमुना के बिना नहीं हो सकती क्योंकि महाभारत की मान्यता के मुताबिक भगवान कृष्ण की सारी लीलाएं यहीं हुई हैं। मथुरा में भी आगरा की तरह ही सिर्फ गंदा पानी नदी में बह रहा है। हाल यह है कि यहां 19वीं सदी के राजस्थानी स्थापत्य शैली के ज्यादातर घाट मिट्टी के नीचे दब गए हैं क्योंकि साल भर उन तक पानी ही नहीं आता। यमुना बचाओ आंदोलन के नेता संत जयकृष्ण दास कहते हैं, ''सिर्फ मथुरा की आबादी का सवाल नहीं है, साल भर में करोड़ों लोग धार्मिक पर्यटन के लिए यहां आते हैं। इन लोगों के लिए यमुना का स्नान करना धार्मिक रीति से अनिवार्य है, लेकिन ये लोग यहां से पुण्य लेने की बजाए बीमारियां लेकर जाते हैं।”
पिछले साल अप्रैल में कृष्णदास के नेतृत्व में मथुरा से दिल्ली तक यमुना बचाओ पद यात्रा शुरू की गई थी। तब केंद्रीय जल संसाधन मंत्री ने दिल्ली से मथुरा के बीच एक समांतर नाला बनाने की बात पर रजामंदी जाहिर की थी ताकि यमुना में सीधे गंदा पानी न जाए। लेकिन सवाल यह है कि अगर यमुना में गंदा पानी न रहे तब तो वह पूरी तरह सूख ही जाएगी?
ऐसे में समांतर नाले से क्या हासिल, इस सवाल पर मौनव्रती विज्ञानाचार्य कॉपी पर लिखकर कहते हैं, ''हां, तब यह साफ तो हो जाएगा कि मथुरा-वृंदावन में यमुना समाप्त हो चुकी है। जब नदी सूखी दिखेगी तो अपने आप सरकार-श्रद्धालु और अदालतें जागरूक होंगी।” मथुरा में नदी के सूखने का असर यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में राजस्थान शैली में बनाए गए पौराणिक घाट पूरी तरह गाद से दब गए हैं। मथुरा और वृंदावन में अलग-अलग संगठन इन घाटों के पुनरुद्धार में लगे हैं।
नजर से ओझल, दिमाग से ओझल
दरअसल, दिल्ली के ओखला बैराज से निकलने के बाद यह नदी उत्तर प्रदेश में काफी दूर तक ग्रामीण इलाकों से गुजरती है। ग्रामीण इस पर पीने के पानी के लिए आश्रित नहीं हैं और नदी की पेटी में उनके खेतों को इससे खास नुकसान नहीं है। हर साल बारिश के मौसम में पानी का स्तर बढ़ने की वजह से नदी के पेटी का इलाका काफी उपजाऊ है।
“मथुरा में धार्मिक पर्यटन के लिए आने वाले लोगों के लिए यमुना में स्नान करना अनिवार्य है, लेकिन ये लोग यहां पुण्य लेने की बजाए बीमारियां लेकर जाते हैं।”
संत जयकृष्ण दास, यमुना बचाओ आंदोलन, मथुरा
गौतम बुद्ध नगर के ग्रेटर नोएडा इलाके में अट्टा गुजरान गांव यमुना के तट के किनारे स्थित है। गांव के दूध व्यापारी सतपाल नागर तट से करीब दो किलोमीटर दूर बहने वाली धारा की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ''जानवर भी उसका पानी नहीं पीते। हम सब अपनी जरूरतों के लिए भूजल का ही प्रयोग करते हैं।” नदी के नाले में तब्दील होने से उन्हें दुख तो होता है लेकिन इससे उनके कारोबार पर कोई असर नहीं पड़ता।
दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अलीगढ़-गौतम बुद्ध नगर सीमा पर यमुना पुल के पास पानी से वैसी दुर्गंध उठती है, जैसा कि ओखला बैराज से। पुल के नीचे अपने खेत में काम कर रहे 56 वर्षीय गजराज कहते हैं, ''अब से 30 साल पहले यहां पानी इतना साफ हुआ करता था कि हम इसे पीते थे। लेकिन पीना तो दूर, इसमें अगर कोई नहा ले तो लगता है कि उसके शरीर पर गोंद चिपक गया है।” वे यह भी बताते हैं कि नदी की पेटी में भी लोग ट्यूबवेल लगाकर जमीन के अंदर से पानी निकालकर सिंचाई करते हैं।
इस पुल के पास बने हनुमान मंदिर के पुजारी 50 वर्षीय मनमोहन गिरि हैंडपंप के पानी से नहाते हैं। वे बताते हैं, ''सुबह में तीन बजे पानी से उठने वाली दुर्गंध से सांस लेना मुश्किल हो जाता है। इसमें मल-मूत्र के अलावा औद्योगिक कचरा है।” आखिर कब तक यह ऐसी ही रहेगी? ''जब तक इसे साफ करने के लिए हजार-दो हजार लोग जान नहीं देंगे तब तक दिल्ली और लखनऊ में सरकारों की नींद नहीं खुलेगी।”
पानी चट, कचरा नदी में
यमुनोत्री से निकलने के बाद यमुना दिल्ली में प्रवेश करने से पहले दूर तक हरियाणा और उत्तर प्रदेश में साफ रहती है, उसमें जलजीव जिंदा रहते हैं, लेकिन दिल्ली में प्रवेश करने के बाद यह मर जाती है। पल्ला गांव के रास्ते दिल्ली में प्रवेश करने वाली यह नदी वजीराबाद बैराज से लेकर ओखला बैराज तक कुल 22 किलोमीटर के रास्ते में सबसे ज्यादा प्रदूषित होती है।
दिल्ली की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश गंगा का 500 क्यूसेक पानी देता है और दिल्ली उसका भी यही हाल करती है। दिल्ली में 3,300 मिलियन लीटर डेली (एमएलडी) सीवेज यमुना में गिरने वाले नालों में बहता है।
इसकी सफाई के लिए कुल 16 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगे हैं जिनकी अधिकतम क्षमता कुल 2,330 एमएलडी ही है। केवल 70 फीसदी काम करने वाले इन एसटीपी की बदौलत दिल्ली का केवल 1,600 एमएलडी सीवेज साफ किया जा रहा है और तकरीबन इतना ही सीवेज लेकर यमुना उत्तर प्रदेश में फिर दाखिल होती है।
यमुना में गंदगी रोकने का जिम्मा उठाने वाला एक मुख्य विभाग प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है। बोर्ड ने अपना काम केवल पानी की जांच और चेतावनी जारी करने तक सीमित कर रखा है। बोर्ड के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं है कि आखिर यमुना में रासायनिक कचरा डालने वाले उद्योगों को हमेशा के लिए बंद किया गया और उनसे यमुना के प्रदूषण में कितनी कमी आई?
यमुना रक्षा मंच के अध्यक्ष पंकज बाबा कहते हैं, ''प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहा। यमुना में बढ़ रहे प्रदूषण को रोकने के जितनी सक्रियता गैर सरकारी लोग दिखा रहे हैं सरकारी विभाग उसका दसवां हिस्सा भी नहीं कर रहे।”
सीवर में डूबा यमुना ऐक्शन प्लान
गंदगी के बोझ से कराह रही यमुना को नया जीवन मिलने की उम्मीद उस वक्त जगी जब केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से वर्ष 2000 में 'यमुना ऐक्शन प्लान’ हकीकत में आया। कई चरणों वाले इस प्लान में सीवर-नालों की गंदगी और सिल्ट को सीधे नदी में गिरने से रोकने, एसटीपी से नालों के गंदे पानी को साफ कर पानी का यमुना में छोड़ने और शहर में सीवर लाइनों का जाल बिछाकर इन्हें नालों से जोड़ने की तैयारी की गई।
2007 में इस योजना के दूसरे चरण की शुरुआत होने के बाद से अब तक 1,500 करोड़ रु. से अधिक खर्च हो चुके हैं लेकिन अभी तक यमुना में गिरने वाले सीवेज की मात्रा और एसटीपी की शोधन क्षमता के बीच दोगुने से अधिक का फासला बना हुआ है।
यमुना ऐक्शन प्लान के शुरुआती चरणों में जुड़े इंजीनियर रवि श्रीवास्तव बताते हैं, ''दिल्ली, मथुरा और आगरा में 40 प्रतिशत के करीब ऐसे इलाके हैं जो आज भी सीवर लाइनों से महरूम हैं। इन इलाकों का मल-मूत्र नालियों के जरिए नालों और फिर यमुना में मिल रहा है।”
लफ्फाजी नहीं, कार्रवाई हो
तो क्या दिल्ली का मल-मूत्र इस लायक बनाया जा सकता है कि मथुरा और आगरा में उसे पीने या निस्तार के लिए इस्तेमाल किया जा सके? आगरा के रीजनल पॉल्यूशन ऑफिसर बी.बी. अवस्थी कहते हैं, ''बहते हुए पानी में यह ताकत होती है कि वह अपने भीतर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ा लेता है।
फिर घरेलू अपशिष्ट भले ही कितना ग्लानि भरा दिखे लेकिन यह रासायनिक कचरे से कम खतरनाक होता है।” टेक्निकल रूप से वे यमुना के पानी को शुद्ध बता रहे हैं, लेकिन अपने दफ्तर में इस संवाददाता को उन्होंने बिसलेरी का पानी ही पिलाया। कुछ ऐसे ही स्वागत करने के लिए मथुरा के संत भी मजबूर हुए।
अब सवाल यह है कि ताजेवाला बैराज से आखिर कब उत्तर प्रदेश को 28 फीसदी पानी मिलेगा, जिसका वादा 1994 के एग्रीमेंट में किया गया था। शिवपाल यादव अगर चुनावी मौसम में शिगूफा छोड़ रहे हैं तो उन्हें सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि चुनाव के ठीक बाद गर्मी आएगी और तब शब्द नीर की जगह लोगों को असली पानी चाहिए होगा।
—साथ में सिराज कुरैशी
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