दिल्ली भूमि (अन्तरण पर निर्बन्धन) अधिनियम, 1972 (DELHI LANDS(RESTRICTION ON TRANSFERS) ACT, 1972)

(1972 का अधिनियम संख्यांक 30)


{14 जून, 1972}


केन्द्रीय सरकार द्वारा अर्जित भूमियों के अथवा जिन भूमियों के अर्जन की कार्यवाहियाँ उस सरकार द्वारा आरम्भ की जा चुकी हैं उनके, यथास्थिति, अत्यधिक संख्या में तात्पर्यित अन्तरणों अथवा अनिभज्ञ लोगों को ऐसी भूमियों के अन्तरणों को निवारित करने की दृष्टि से कतिपय निर्बन्धन अधिरोपित करने के लिये अधिनियम

भारत गणराज्य के तेईसवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो:-

1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ


(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम दिल्ली भूमि (अन्तरण पर निर्बन्धन) अधिनियम, 1972 है।
(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र पर है।
(3) यह तुरन्त प्रवृत्त होगा।

2. परिभाषाएँ


इस अधिनियम में, जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, -

(क) ‘प्रशासक” से संविधान के अनुच्छेद 239 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र का प्रशासक अभिप्रेत है;
(ख) ‘सक्षम प्राधिकारी” से अभिप्रेत है प्रशासक द्वारा, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, उन क्षेत्रों के लिये, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किये जाएँ, इस अधिनियम के अधीन सक्षम प्राधिकारी के कृत्यों को करने के लिये प्राधिकृत कोई व्यक्ति या प्राधिकारी;
(ग) विकास अधिनियम” से दिल्ली विकास अधिनियम, 1957 (1957 का 61) अभिप्रेत है;
(घ) विहित” से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है;
(ङ) “स्कीम” से दिल्ली के योजनाबद्ध विकास के लिये भूमि अर्जन की स्कीम अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत दिल्ली महायोजना के उपबन्धों के अनुसरण में क्रियान्वित की जाने वाली, केन्द्रीय सरकार द्वारा विकास अधिनियम की धारा 9 की उपधारा (2) के अधीन यथा अनुमोदित कोई स्कीम, परियोजना या संकर्म भी है।

3. केन्द्रीय सरकार द्वारा अर्जित भूमियों के अन्तरण का प्रतिषेध


कोई भी व्यक्ति दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र में स्थित किसी ऐसी भूमि या उसके किसी भाग का जिसे केन्द्रीय सरकार ने भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 (1894 का 1) के अधीन या किसी अन्य विधि के अधीन, जिसमें लोक प्रयोजन के लिये भूमि के अर्जन के लिये उपबन्ध हो, अर्जित कर लिया हो, विक्रय, बन्धक, दान या पट्टे द्वारा या अन्यथा तात्पर्यित अन्तरण नहीं करेगा।

4. जिन भूमियों के सम्बन्ध में अर्जन की कार्यवाहियाँ प्रारम्भ कर दी गई हैं उनके अन्तरण का विनियमन


कोई भी व्यक्ति, सक्षम प्राधिकारी की लिखित पूर्व अनुज्ञा के बिना, दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र में स्थित किसी ऐसी भूमि या उसके भाग का जो स्कीम के सम्बन्ध में अर्जित किये जाने के लिये प्रस्थापित है और जो, उसके सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार द्वारा भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 (1894 का 1) की धारा 6 के अधीन की गई इस आशय की घोषणा के बाद की ऐसी भूमि या उसका कोई भाग लोक प्रयोजन के लिये अपेक्षित है, केन्द्रीय सरकार द्वारा उस अधिनियम की धारा 48 के अधीन अर्जन से प्रतिसंहृत नहीं की गई है विक्रय, बन्धक, दान या पट्टे द्वारा या अन्यथा अन्तरण नहीं करेगा या तात्पर्यित अन्तरण नहीं करेगा।

5. धारा 4 के अधीन अन्तरण के लिये अनुज्ञा की मंजूरी के लिये आवेदन -

(1) कोई व्यक्ति जो धारा 4 में निर्दिष्ट किसी भूमि का विक्रय, बन्धक, दान या पट्टे द्वारा या अन्यथा अन्तरण करना चाहता है, सक्षम प्राधिकारी को, ऐसी विशिष्टियाँ देते हुए, जो विहित की जाएँ, लिखित आवेदन कर सकेगा।

(2) उपधारा (1) के अधीन आवेदन की प्राप्ति पर सक्षम प्राधिकारी, ऐसी जाँच करने के पश्चात जो वह ठीक समझे, लिखित आदेश द्वारा, आवेदित अनुज्ञा दे सकेगा या देने से इनकार कर सकेगा।

(3) सक्षम प्राधिकारी, निम्नलिखित में से एक या अधिक आधारों पर ही, इस धारा के अधीन आवेदित अनुज्ञा देने से इनकार करेगा अन्यथा नहीं, अर्थात-

(i) स्कीम के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये भूमि की आश्यकता है या आवश्यकता होने की सम्भाव्यता है;
(ii) विकास अधिनियम की धारा 6 में निर्दिष्ट दिल्ली विकास प्राधिकरण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये भूमि की आवश्यकता है या आवश्यकता होने की सम्भाव्यता है;
(iii) विकास अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (घ) के अर्थ के अन्तगर्त, किसी विकास के लिये या ऐसी चीजों के लिये जैसे सार्वजनिक भवनों और अन्य लोक संकर्मों और उपयोगिताओं, सड़कों, आवास, मनोरंजन, उद्योग, कारबार, बाजारों, विश्वविद्यालय और अन्य शैक्षिक संस्थाओं, अस्पतालों और सार्वजनिक खुले स्थानों तथा अन्य प्रकार की सार्वजनिक उपयोगिताओं के लिये भूमि की आवश्यकता है या आवश्यकता होने की सम्भाव्यता है।

(4) जहाँ सक्षम प्राधिकारी आवेदित अनुज्ञा देने से इनकार कर देता है वहाँ वह ऐसा करने के कारणों को लेखबद्ध करेगा और उसकी एक प्रति आवेदक को संसूचित की जाएगी।

(5) जहाँ इस धारा के अधीन आवेदन की प्राप्ति की तारीख से तीस दिन की अवधि के भीतर सक्षम प्राधिकारी आवेदित अनुज्ञा देने से इनकार नहीं करता है या इनकार की संसूचना आवेदक को नहीं देता है, वहाँ यह समझा जाएगा कि सक्षम प्राधिकारी ने आवेदित अनुज्ञा मंजूर कर दी है।

6. सक्षम प्राधिकारी के आदेशों के विरुद्ध अपीलें


(1) धारा 5 के अधीन सक्षम प्राधिकारी के आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति, उसे आदेश प्राप्त होने की तारीख से तीस दिन की अवधि के भीतर, विहित प्राधिकारी को, ऐसे प्रारूप में और ऐसी विशिष्टियाँ देते हुए जो विहित की जाये, अपील कर सकेगा।

(2) उपधारा (1) के अधीन अपील की प्राप्ति पर विहित प्राधिकारी, अपीलार्थी को उस विषय में सुनवाई का अवसर देने के पश्चात, अपील को यथासम्भव शीघ्रता के साथ निपटाएगा।

(3) विहित प्राधिकारी द्वारा इस धारा के अधीन अपील में किया गया प्रत्येक आदेश अन्तिम होगा।

7. भूमि अन्तिरत करने की अनुज्ञा देने से इनकार करने के आदेश के प्रवर्तन की अवधि


जहाँ सक्षम प्राधिकारी ने किसी भूमि का अन्तरण करने की अनुज्ञा देने से इनकार करने का कोई आदेश धारा 5 के अधीन किया है या जहाँ ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील की जाने पर विहित प्राधिकारी ने ऐसे आदेश की पुष्टि करते हुए धारा 6 के अधीन कोई आदेश किया है वहाँ ऐसी भू्मि का अन्तरण करने की अनुज्ञा देने से इनकार करने का आदेश, यथास्थिति, सक्षम प्राधिकारी या विहित प्राधिकारी द्वारा किये गए आदेश की तारीख से केवल तीन वर्ष की अवधि तक प्रवृत्त रहेगा और तत्पश्चात उस व्यक्ति के लिये, जिसने अनुज्ञा के लिये आवेदन किया है, या उसके हित-उत्तराधिकारी के लिये, यह विधिपूर्ण होगा कि वह ऐसी भूमि का विक्रय, बन्धक, दान या पट्टे द्वारा या अन्यथा अन्तरण धारा 3 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, करे।

स्पष्टीकरण


किसी भूमि के सम्बन्ध में, इस अधिनियम के अधीन, तीन वर्ष की अवधि की संगणना करने में उस अवधि का अपवर्जन कर दिया जाएगा जिसके दौरान ऐसी भूमि के सम्बन्ध में अर्जन की कार्यवाहियाँ किसी न्यायालय द्वारा रोक दी गई हैं।

8. भूमि के अन्तरण के रजिस्ट्रीकरण पर निर्बन्धन


तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते भी, जहाँ रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) की धारा 17 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से खण्ड (ङ) के उपबन्धों के अधीन रजिस्टर किये जाने के लिये अपेक्षित कोई दस्तावेज धारा 4 में निर्दिष्ट किसी भूमि या उसके भाग का विक्रय, बन्धक, दान या पट्टे द्वारा या अन्यथा अन्तरण करने के लिये तात्पर्यित है वहाँ उस अधिनियम के अधीन नियुक्त कोई भी रिजस्ट्रीकर्ता अधिकारी ऐसी दस्तावेज की तब तक रजिस्ट्री नहीं करेगा जब तक कि अन्तरक ऐसे रजिस्ट्रीकर्ता अधिकारी के समक्ष, ऐसे अन्तरण के लिये सक्षम पदाधिकारी की लिखित अनुज्ञा पेश न कर दे।

9. शास्ति


यदि कोई व्यक्ति धारा 3 या धारा 4 के उपबन्धों का उल्लंघन करेगा तो वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडनीय होगा।

10. कम्पनियों द्वारा अपराध


(1) यदि इस अधिनियम के अधीन अपराध करने वाला व्यक्ति कम्पनी है तो प्रत्येक व्यक्ति जो अपराध के करते समय उस कम्पनी के कारबार के संचालन के लिये उस कम्पनी का भारसाधक और उसके प्रति उत्तरदायी था और साथ ही वह कम्पनी भी ऐसे अपराध के दोषी समझे जाएँगे तथा तद्नुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और दण्डित किये जाने के भागी होंगे:

परन्तु इस उपधारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को दण्ड का भागी नहीं बनाएगी यदि वह यह साबित कर देता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था या उसने ऐसा अपराध किये जाने का निवारण करने के लिये सब सस्यक तत्परता बरती थी।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, जब इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी कम्पनी द्वारा किया गया है तथा यह साबित होता है कि वह अपराध कम्पनी के किसी निदेशक, प्रबन्धक, सचिव या अन्य अधिकारी की सम्मति या मौनानुकूलता से किया गया है या उस अपराध का किया जाना उसकी किसी उपेक्षा के कारण माना जा सकता है, वहाँ ऐसा निदेशक, प्रबन्धक, सचिव या अन्य अधिकारी भी उस अपराध का दोषी समझा जाएगा तथा तद्नुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और दण्डित किये जाने का भागी होगा।

स्पष्टीकरण


इस धारा के प्रयोजनों के लिये -

(क) “कम्पनी” से कोई निगमित निकाय अभिप्रेत है और इसके अन्तगर्त फर्म या व्यष्टियों का अन्य संगम भी है; और
(ख) फर्म के सम्बन्ध में निदेशक” उस फर्म का भागीदार अभिप्रेत है।

11. नियम बनाने की शक्ति


(1) प्रशासक, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस अधिनियम के प्रयोजनों की कार्यान्वित करने के लिये नियम बना सकेगा।

(2) पूर्वगामी उपबन्धों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियम निम्नलिखित विषयों में से सभी या किन्हीं के लिये उपबन्ध कर सकेंगे, अथार्त -

(क) वे विशिष्टियाँ जो धारा 5 की उपधारा (1) के अधीन किये जाने वाले आवेदन में दी जाएँगी;
(ख) वह प्राधिकारी जिसको धारा 6 की उपधारा (1) के अधीन अपील की जा सकेगी, वह प्रारूप जिसमें ऐसी अपील की जा सकेगी और वे विशिष्टयाँ जो ऐसी अपील में दी जाएँगी;
(ग) अन्य कोई विषय जो विहित किये जाने के लिये अपेक्षित है या विहित किया जा सकता है।

(3) इस धारा के अधीन बनाया गया प्रत्येक नियम बनाए जाने के पश्चात यथाशीघ्र, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, तीस दिन की अवधि के लिये रखा जाएगा। यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी। यदि उस सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी। यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिये सहमत हो जाएँ तो तत्पश्चात वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा। यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएँ कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात वह निष्प्रभाव हो जाएगा। किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

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