देवभूमि बरक्स बांध-भूमि

चार पवित्र धाम-गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ की भूमि। पिछले ही पखवाड़े इनकी यात्रा शुरू हुई है। पहाड़ी रास्तों पर वाहनों की लंबी कतारे हैं। लाखों तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की चहल-पहल। सड़कों के लिए जगह-जगह पहाड़ों की बेतहाशा खुदाई भी जारी है। यह तो कुछ नहीं छोटे-बड़े बांध हिमालय के पहाड़ों और नदियों की शक्ल तेजी से बदल रहे हैं। नदियां झीलों में जा सिमटी हैं। हरियाली से ढके पहाड़ों का मलबा घाटियों में धंस रहा है। 13 जिलों का प्रदेश है और 422 बांध चिन्हित किए गए हैं। पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल का कहना है, ‘देवभूमि बांध भूमि में बदल रही है। जब पहाड़ और नदियां ही नहीं रहेंगे तो कौन यहां आना चाहेगा?’

एक तरफ पर्यावरणवादी संगठनों ने बांधों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। दूसरी तरफ, सत्ता में बैठी कांग्रेस और विपक्ष में बैठी भाजपा दोनों को ही उत्तराखंड की भलाई सिर्फ बांधों में नजर आ रही है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं, ‘हमारी नदियों में 27 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है जबकि सिर्फ 36 सौ मेगावाट का ही उत्पादन हो पा रहा है।’

हाल ही में उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच के 4179 वर्ग किमी इलाके को ईको सेंसिटिव जोन (ईएसजेड) घोषित किया गया है। इसकी वजह से उत्तराखंड में बवाल मचा हुआ है। यह वही इलाका है, जहां आधे-अधुरे लोहारीनागा पाला बांध के अवशेष घाटी में बिखरे हैं। तीन साल पहले निरस्त हुए 600 मेगावाट के इस बांध ने 18 किमी. लंबी पहाड़ियों को हमेशा के लिए जख्मी करके छोड़ा है। जगह-जगह सुरंगे बनाने के लिए हुई खुदाई और धमाकों ने पहाड़ों को इस कदर कमजोर कर दिया कि भू-स्खलन की घटनाएँ आम हो गई। गांव में इसके ताजे सबूत हैं। पिछले साल उत्तरकाशी में कई मकानों, पुलों और रास्तों के नामो-निशान मिट गए। भटवाड़ी गांव में सड़क समेत आधा तहसील कार्यालय ही गंगा में समा गया। गंगा आह्वान समिति के कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी कहते हैं, ‘यह कहानी पूरी देवभूमि की है। बांधों के सिवा सरकार के पास देव-भूमि की है। बांधों के सिवा सरकार के पास विकास का कोई विजन नहीं है।’

गंगा के उद्गम को ईको सेंसिटिव जोन के फैसले का विरोध कांग्रेस और भाजपा मिलकर कर रहे हैं। पर्यावरण के हिमायती इसे अब तक की अपनी सबसे बड़ी जीत बता रहे हैं। इससे पहले प्रो. अग्रवाल समेत कई संगठनों के दबाव में गंगोत्री के पास चार बांधों का बोरिया-बिस्तर बंध चुका है। इनमें सबसे बड़ा लोहारीनाग पाला बांध भी शामिल है, जिस पर सरकार 500 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी थी। विशेषज्ञों के मुताबिक ये बांध हिमालय के कच्चे पहाड़ों में बन रहे हैं, जो भूकंप के लिहाज से सर्वाकित संवेदनशील जोन-5 में हैं।

ईको सेंसिटिव जोन बनने से यहां नदी के आसपास निर्माण कार्यों पर रोक लगेगी। डामर की सड़के नहीं बनेगी। तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए पैदल रास्तों पर जोर दिया जाएगा। ऐसे में राज्य सरकार को दो सालों में इस इलाके की जरूरतों के हिसाब से विशेष मास्टर प्लान बनाना होगा। लेकिन इसकी बजाय पिछले दिनों मुख्यमंत्री मुलाकात करके इस फैसले को ही वापस लेने की मांग की है। वे कह रहे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन से 88 गांव बेदखल होंगे, हालांकि गजट नोटिफिकेशन में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। ठेकेदारों और सप्लायरों के स्थानीय गुट लोगों को भड़काने में लगे हैं। उनका तर्क है कि पर्यटन ही यहां आमदनी का खास जरिया है। ईको सेंसिटिव जोन बनने से यहां की अर्थव्यवस्था ही तबाह हो जाएगी। भाजपा की पूर्व सरकार तो विधानसभा में संकल्प पारित करके पहले ही इसके खिलाफ खड़ी है। उत्साहित पर्यावरण हितैषी दूसरे बांधों के खिलाफ एकजुट हो गए हैं।

एक राज्य, 13 जिले, 422 बांध


1 422 बांध बनने हैं।
2 95 बांध बन रहे हैं।
3 27000 मेगावॉट बिजली की कुल क्षमता।
4 12235 मेगावॉट बिजली बनेगी इनसे।

विरोध के छह साल


2006 : गंगोत्री के पास बन रहे चार बांधों के विरोध की शुरुआत।
2008 : पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन।
2010 : केंद्र सरकार झुकी। बांधों का निर्माण निरस्त हुआ।
2012 : गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच ईको सेंसिटिव जोन की घोषणा।

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