मध्य प्रदेश के देवास शहर में लगभग एक दशक पूर्व पीने का पानी ट्रेन से लाया गया था, उस समय के दौर में यह घटना अकल्पनीय थी। इसी के चलते चारों ओर शोर हुआ। चहुँ ओर लोगों ने यह पीड़ा और वेदना सुनी थी। लेकिन अब देश में किसी स्थान में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होना अकल्पनीय नहीं रहा। शायद अब यह एक सामान्य घटना होगी। देवास के किसानों के चेहरे पर अब मुस्कुराहट है। उनकी स्थिति बयाँ करने के लिये शायद यही काफी है। अब शोर नहीं है, लेकिन देश के लिये शायद उनका मौन ज्यादा शक्तिशाली है
किसी भी जगह सूखे या बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होना प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है जो सार्वभौमिक रूप से युगों से रहा है। सूखे को लेकर देश में चिंता और चर्चा सामान्य तौर पर गर्मियों में अर्थात बरसात के पूर्व शुरू होती है और बारिश के साथ धुल जाती है। व्यापक होती जा रही पानी की समस्या के पीछे एक आम धारणा है कि अब पूर्व वर्षों की तुलना में बारिश कम हो रही है। यद्यपि विशेषज्ञ/वैज्ञानिक इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं।
यह भी एक मजबूत धारणा है कि पानी की समस्या का हल नदियों में बहता हुआ जल है एवं पानी के स्रोत या तो नदियों का जल है या फिर जमीन के अंदर स्थित भूजल है। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में कुल पानी की खपत का 80 से 90 प्रतिशत पानी सिंचाई के लिये प्रयोग होता है। जिसमें से लगभग 70 प्रतिशत सिंचाई भूजल से की जाती है एवं मात्र लगभग 30 प्रतिशत सिंचाई नदियों के बहते जल से होती है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार नदी घाटियों में दोहन योग्य सिंचाई क्षमता की संभावना आंशिक ही बची है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सिंचाई के लिये नदी घाटियों में से जो क्षमता दोहन योग्य बची हुई है उन सभी को यदि विकसित कर भी लिया जाये तो भी लगभग 70 प्रतिशत के करीब सिंचाई ग्राउण्ड वाटर पर ही निर्भर रहेगी।
यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि पूरे देश की कुल कृषि योग्य भूमि का मात्र लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्र ही अभी तक सभी स्रोतों से सिंचित किया जा सका है। बढ़ती हुई जनसंख्या और कृषि उत्पादों की माँग तथा कृषि योग्य खेती के घटते रकबे (क्षेत्रफल) के कारण हमारी सिंचाई की आवश्यकता दिनोंदिन बढ़ रही है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में पानी की आवश्यकता और बढ़ेगी तथा ग्राउण्ड वाटर दोहन की गति भविष्य में और भी ज्यादा होगी।
स्पष्ट हो समाधान
यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि वैज्ञानिक आँकड़ों के अनुसार देश में ग्राउण्ड वाटर का बहुतायत भाग का दोहन किया जा चुका है। हम सभी जानते हैं कि ग्राउण्ड वाटर का दोहन पिछले 30-40 वर्षों में ही मुख्य रूप से किया गया है। देश के कई विकास खण्ड डेंजर जोन में आ गए हैं और उनमें भूजल समाप्त होने की कगार पर पहुँच गया है।
पानी के स्रोत नदियाँ एवं ग्राउण्ड वाटर हैं। यह अवधारणा हमारे उस ज्ञान की वजह से है जो सिविल इंजीनियरिंग संस्थानों में दिया जाता है एवं मानव को शुद्ध एवं संपोषणीय जलस्रोत की खोज की आवश्यकता के साथ ही जीवन के अन्य क्षेत्रों में तकनीकी विकास के साथ यह ज्ञान विकसित हुआ है। परिणामस्वरूप योजनाकारों और सिविल इंजीनियरों को बेसिन आधारित अवधारणाओं को ही पाठ्यक्रम में तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों में जल की समस्या के हल के मॉडल के रूप में पढ़ाया जाता है।
स्रोत की अवधारणा प्रभावी हल के बारे में सोच के तौर-तरीके को निर्धारित करती है। नदियाँ मात्र जल की वाहक हैं और ग्राउण्ड वाटर जमीन के अंदर के बाँधों में इकट्ठा जल। वह मूल स्रोत नहीं है। वस्तुतः जल का मूल स्रोत वर्षा की वो बूँदें हैं जो बादलों से बारिश के रूप में गिरती हैं जो जलभूगर्भ चक्र के अनुक्रम में भूजल व नदी से प्रवाहित जल के रूप में परिलक्षित होती हैं, लेकिन जब वर्षाजल नदी में प्रवाहित जल के रूप में सिंचाई के लिये बाँधों एवं नहरों के माध्यम से खेतों में लाया जाता है तो 100 लीटर वर्षाजल के विरुद्ध मात्र 10 से 20 लीटर ही खेत तक सिंचाई के लिये आ पाता है। आशय यह है कि लगभग 80 प्रतिशत वर्षाजल हमें उपभोग के लिये उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह अपर्याप्तता उपभोग की अपर्याप्तता नहीं है बल्कि वर्षाजल के खेत तक पहुँचने में लम्बे प्रवाह और बाँध के डिजाइन के कारण है।
यह सहज सोच की बात है कि क्या इस देश में उत्पन्न भयावह जल की समस्या का हल बाँधों एवं नहर के मॉडल से संभव है या नहीं? एवं क्या इतनी अपर्याप्तता भारत जैसा देश वहन कर सकता है? जहाँ तक भूजल का प्रश्न है हम सभी समझते हैं कि वह तेजी से घटता हुआ स्रोत है। जहाँ एक ओर भूजल के दोहन की गति तेजी से बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर जंगल, कटाई, शहरीकरण आदि के उपरांत जो पृथ्वी की सतह की स्थिति उत्पन्न हुई है उसके फलस्वरूप मात्र 5 से 7 प्रतिशत वर्षाजल ही स्वाभाविक रूप से जमीन के अंदर प्रवेश कर भूजल के रूप में एकत्रित हो पाता है। जबकि भूजल के दोहन की गति उससे कई गुना ज्यादा है यही कारण है कि देश के नये-नये क्षेत्रों में पानी का संकट बढ़ता जा रहा है।
संपोषणीय मॉडल की जरूरत
आज देश में जहाँ एक ओर जल की समस्या के लिये उपलब्ध मॉडल से बाँध और नहर का अत्यंत ही अपर्याप्त विकल्प है। वहीं दूसरी ओर भूजल आधारित महँगा एवं क्षणिक मॉडल है। अतः एक ऐसे मॉडल की आवश्यकता है जो दक्ष और टिकाऊ हो। जिससे कि उपलब्ध जिससे कि उपलब्ध वर्षा हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में सफल हो एवं वह अगली पीढ़ी की कीमत पर न हो। मौलिक रूप से ऐसे मॉडल की अवधारणा इस बात पर निर्भर करेगी कि हम नदियों के जल व भूजल की बजाए वर्षा के जल को मूल रूप से ही जल के स्रोत के रूप में अवधारित करें एवं तदानुसार जल की समस्या के हल का मॉडल अवधारित करें। यह अवश्य है कि आज जन एवं योजनाकारों में लोकप्रिय अभी तक की अवधारणाओं को ध्यान में रखते हुए ऐसे मॉडल में वर्षाजल का प्रयोग जहाँ एक ओर ज्यादा दक्ष हो वहीं दूसरी ओर उसे अपनाना संपोषणीय हो तथा उसमें निवेश करना लाभप्रद हो। चूँकि समस्या अत्यंत ही व्यापक है। अतः मॉडल व्यक्ति तथा समाज आधारित होना चाहिए। वर्षाजल को स्रोत में ही नियंत्रण में लेकर प्रबंधन करने का सबसे सशक्त व पुरातन तरीका तालाब के रूप में रहा है। जो इस दर्शन का उदाहरण है कि जल का स्रोत नदीजल या भूजल नहीं बल्कि वर्षा का जल है।
देवास का अद्भुत प्रयोग
मध्यप्रदेश के देवास जिले में वर्ष 2006 का दौर था? तत्समय जब वहाँ के किसान विभीषण सूखे के दौर से गुजर रहे थे। देवास जिले के कृषकों ने भी देश के लाखों-करोड़ों किसानों की तरह ग्राउण्ड वाटर का अगली पीढ़ियों की कीमत पर दोहन कर लगभग समाप्त कर दिया था और इस इंतजार तथा भरोसे में थे कि किसी न किसी दिन नदी का पानी उनके सूखे खेत में आकर फसल लहलहाएगा एवं सरकार की ओर मुखकर, परिस्थिति और भाग्य को कोस रहे थे। भूजल का स्तर तेजी से गिरकर कई गाँवों में 800 फीट या उससे ज्यादा पहुँच गया था। हजारों-हजारों कुएँ एवं ट्यूबवेल जो 60 से 90 के दशक में खोदे गये थे उनमें ज्यादातर या तो बंद कर दिये गये थे या फिर पर्याप्त पानी के अभाव में अप्रयोज्य हो गये थे।
देश के अन्य बहुतायत लोगों की तरह देवास के कृषकों ने भी वर्षा की बूँदों को समस्या के हल के रूप में शायद नहीं देखा था। बल्कि नदियों के जल, ग्राउण्ड वाटर को ही एक मात्र समस्या के हल के रूप में देखते आ रहे थे। लेकिन एक सच्चाई यह भी शायद उनके सामने थी कि उनके सामने व्यक्ति/ परिवार आधारित वर्षाजल केंद्रित एक ऐसा मॉडल नहीं था जो टिकाऊ हो तथा जिसमें निवेश करना लाभप्रद हो एवं उनकी सिंचाई की आवश्यकता की पूर्ति कर सके। अभी तक उनके सामने केवल ट्यूबवेल एवं कुँओं का ही विकल्प था।
समस्या की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए यह अपरिहार्य था कि व्यक्ति/परिवार आधारित नदी जल एवं भूजल से परे वर्षाजल केंद्रित हल की तलाश की जाए। देवास में पूर्व के वर्षों के बारिश के जो आँकड़े थे वो इस बात को इंगित कर रहे थे कि जिले में उपजाई जाने वाली खेती एवं उसमें सिंचाई के लिये पानी की आवश्यकता की तुलना में अपवादस्वरूप वर्षों को छोड़कर वर्षा पर्याप्त या उससे अधिक होती रही है। (देश के ज्यादातर जिलो में यही स्थिति है) लेकिन उसके उपरांत भी जिले की भयावह स्थिति थी जो कि पूर्व वर्षों में भूजल के अनियंत्रित दोहन किये जाने के वजह से थी, नदियों का जल भी सीमित परिक्षेत्र से बाहर उपलब्ध होना संभव नहीं था। अतः चुनौती यह थी कि कैसे वर्षाजल केंद्रित एक दक्ष मॉडल विकसित किया जाये जो ट्यूबवेल की तरह व्यक्ति/परिवार आधारित हो लेकिन आर्थिक रूप से लाभप्रद एवं टिकाऊ हो।
तालाब के प्रति सोच में बदलाव
समाज में तालाब बनाना सैकड़ों वर्षों से आम प्रचलन में रहा है। लेकिन तालाबों को सामान्य तौर पर सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विकल्प के रूप में ही बनाया जाता रहा है। उसे ट्यूबवेल की तरह किसानों की सिंचाई की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले स्रोत के रूप में नहीं देखा गया है। यह भी धारणा बलवती रही है कि सिंचाई के लिये तालाब बनाना लाभ का निवेश नहीं हो सकता है और शायद इसलिये कुछ सरकारों ने सब्सिडी आधारित तालाब योजना शुरू की है।
कृषि के साथ तालमेल
देवास जिले में होने वाली वर्षा, उपजाई जाने वाली फसलें, वहाँ उपलब्ध मृदा एवं भूगर्भीय विशेषता को ध्यान में रखते हुए तालाबों को इस तरह डिजाइन किया गया कि एक ओर जहाँ वह सम्बन्धित किसानों की सिंचाई की आवश्यकता को पूर्ण करने में सफल हो वहीं उसको बनाने में लगने वाली लागत अधिकतम 3 वर्षों में हासिल कर सकें। चूँकि तालाबों में एकत्रित होने वाला जल का सर्वाधिक क्षय वाष्पीकरण एवं अंतःस्रवण (परकोलेशन) के रूप में होता है। अतः निम्नतम गहराई तालाबों में इस तरह रखी गई कि रबी फसल के दौरान भी आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध रहे। अतः वाष्पीकरण, अंतःस्रवण, फसल, किसान के भू स्वामित्व आदि को ध्यान में रखते हुए भिन्न आकार और गहराई वाले सिंचाई तालाब बनाने के लिये किसानों को तकनीकी सहायता उपलब्ध करायी गई। सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध हो सके एवं निर्माण की लागत तथा वाष्पीकरण क्षय न्यूनतम हो इस हेतु तालाबों की गहराई इस तरह रखी गई कि तालाबों में पानी सामान्य तौर पर जुलाई से फरवरी तक ही उपलब्ध रहे, क्योंकि लगभग 70 प्रतिशत वाष्पीकरण फरवरी से जून की अवधि में होता है। इनके निर्माण में भी लागत कम करने के लिये निर्माण के तौर तरीके में बदलाव किए गये।
देवास में चलाए गये इस अभियान को भागीरथ कृषक अभियान नाम दिया गया था किसानों द्वारा बनाए जाने वाले सिंचाई तालाबों को रेवा सागर नाम दिया गया। रेवा सागर हेतु जमीन स्वयं किसानों की थी एवं किसानों के द्वारा अपने ही पैसे व संसाधन से रेवा सागर बनाए जाने थे। म.प्र. में माँ नर्मदा को अत्यंत ही सम्मान से माँ रेवा भी कहते हैं। उद्देश्य था कि रेवा सागर के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न हो। इसी तरह किसानों को भागीरथ कृषक का नाम दिया गया था। उद्देश्य था कि आर्थिक लाभ के भाव के साथ-साथ किसानों के अंदर आत्म-सम्मान का भाव भी पैदा हो एवं समाज में वो रोल मॉडल के रूप में उभरकर आए एवं अन्य लोगों को भी प्रेरित करें। तत्कालीन जिला कलेक्टर अभियान के दौरान जो सामान्य तौर पर गर्मियों में 3-4 महीने चलाया जाता था स्वयं गाँव में जाते थे एवं किसान के खेत में स्वयं श्रमदान के रूप में फावड़ा से खुदाई करते थे तथा किसान को समाज में रोल मॉडल के रूप में पेश करने के लिये फूलमाला आदि से सार्वजनिक रूप से सम्मानित करते थे जिससे कि हजारों-हजारों कृषक दूसरे के लिये रोल मॉडल के रूप में नेतृत्व प्रदान कर सके।
जल बचाओ लाभ कमाओ
देश में जल बचाओ, जीवन बचाओ संभवतः जल को लेकर सबसे ज्यादा लोकप्रिय नारा रहा है। सच्चाई यह है कि पानी की भयावह स्थिति, आर्थिक कारणों से सिंचाई एवं औद्योगिक प्रयोग के लिये पानी के दोहन की वजह से हुई है न कि जीवन बचाने की वजह से। अतः देवास में इस नारे को बदला गया एवं जल बचाओ, लाभ कमाओ को अभियान के साथ जोड़ा गया। अभियान के प्रचार-प्रसार की रणनीति यह भी ध्यान रखा गया कि वो अपने आर्थिक पहलू के साथ-साथ किसान अपने आगे आने वाली पीढ़ी की भयावह स्थिति को भी देख सकें। जिससे उन्हें अपने बच्चे के बेहतर, सुखद, सम्पन्न जीवन के लिये रेवा सागर के निर्माण करने हेतु निर्णय लेने में कोई दुविधा न हो।
लाभ से बेहतर कुछ नहीं बिकता है। देवास में जल संरक्षण के मॉडल का मूल मंत्र भी यही था यद्यपि संपोषणीयता स्वतः ही मॉडल का अभिन्न अंग है। वर्ष 2006 में शुरू किया गया अभियान स्वतः संपोषणीय जन अभियान बन चुका है एवं अन्य जिलों, प्रदेशों एवं देशों में भी किसानों को एवं योजनाकारों को प्रेरित कर रहा है। आज अकेले देवास जिले में ही लगभग 10,000 सिंचाई तालाब (रेवा सागर) का निर्माण किसानों के द्वारा किया जा चुका है। जिनके आकार 0.25 एकड़ से लेकर 10 एकड़ तक के हैं एवं इनकी गहराई 8 फीट से लेकर 40 फीट तक है।
चूँकि इन तालाबों में जो पानी एकत्रित होता है वह स्वतः रिसाव के माध्यम से भूजल को भी समृद्ध कर रहा है परिणामस्वरूप ग्राउण्ड वाटर लेविल ज्यादा क्षेत्रों में 15 से 20 फीट तक आ गया है एवं 20000-25000 कुएँ एवं ट्यूबवेल जो पानी के अभाव के कारण सूख गये थे वे आज जीवित हो गये हैं। गरीब कृषक जो लगने वाली लागत से गहरे ट्यूबवेल नहीं बना सकते थे वो लोग अब अपने खेतों को 20-20 फीट गहरे कुएँ बनाकर सिंचाई करने में सफल हो रहे हैं। 10,000 रेवा सागर से ही लगभग 60 से 80 हजार हेक्टेयर सिंचाई क्षमता सृजित हुई है। दुग्ध उत्पादन कई गुना बढ़ गया है। कच्चे मकान, पक्के और बड़े मकानों में बदल गए हैं। अभियान कुछ गाँव से शुरू होकर जिले के 200-300 गाँव में फैल गया है एवं हर वर्ष नये गाँव जुड़ते जा रहे हैं। एक मोटे आकलन के अनुसार यदि यही कार्य शासकीय संस्थाओं के द्वारा किया जाना होता तो संभवतः 700 से 1000 करोड़ की राशि शासन को खर्च करनी पड़ती।
सुखद परिणाम
20-25 वर्ष पूर्व देवास जिला जैव विविधता से परिपूर्ण था। पानी के अभाव में वो सब दिखना दुर्लभ हो गया था। क्षेत्र में लगभग 20-25 वर्ष बाद पुनः साइबेरियन क्रेन वापस आ गये एवं अन्य बहुतायत पक्षी भी दिखने लगे हैं। वो शायद अगली पीढ़ी के लिये सम्पन्नता का संदेश देने आते हैं। क्षेत्र में हिरण, काले हिरण, लोमड़ी, सियार एवं अन्य जंगली जानवर भी बहुतायत में दिखना शुरू हो गये हैं। देवास के किसानों के चेहरे पर अब मुस्कुराहट है। उनकी स्थिति बयां करने के लिये शायद यही काफी है। अब शोर नहीं है, लेकिन देश के लिये शायद उनका मौन ज्यादा शक्तिशाली है।
लेखक परिचय
लेखक आईएएस अधिकारी हैं। सम्प्रति मध्य प्रदेश में उच्च शिक्षा आयुक्त हैं। आईआईटी रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग पढ़ने के बाद प्रशासनिक सेवा में आये। मध्य प्रदेश के देवास में जिलाधिकारी के तौर पर नियुक्ति के दौरान वहाँ तालाबों के पुनर्जीवन के लिये प्रसिद्धि पायी। ईमेलः umakant.umarao@gmail.com
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