बरसात की नन्हीं-नन्हीं बूँदों को रोकने के लिये जब समाज एक जाजम पर आता है तो उसकी गाँव के प्रति सोच सरकारी नहीं, बल्कि अपनत्व भाव वाली हो जाती है। यह एक पृथक अध्ययन का विषय हो सकता है कि ये ‘जीवन-बूँदें’ गाँव के प्रति समाज के सोच की दिशा एकाएक कैसे बदल देती हैं। गाँव आखिर ‘घर’ में कैसे तब्दील होने लगता है। लोग वही। जमीन वही। लेकिन, गाँव में थमी बूँदें किसी दीपक की ज्योत की भाँति एक उजाला देने लगती हैं। यह एक ऐसी कहानी है, जिसके ‘बीज’ पचास साल पहले ही डाल दिये गए थे।
उज्जैन जिले की बड़नगर तहसील के पलसोड़ा गाँव में देवाजी नाम के एक किसान रहा करते थे। बरसात के दरमियान उनके खेत में नाले का पानी आ जाया करता था। पुरातन समाज किसी विश्वविद्यालय से निकले इंजीनियर के भरोसे तो था नहीं। सो, देवाजी ने खुद एक संरचना तैयार कर नाले के बहाव को अपने खेत के दूसरी ओर मोड़ दिया। इस प्रक्रिया को ओट लगाना कहते हैं। ओट यानी रोक। तभी से पलसोड़ा में लोग इस स्थान को देवाजी का ओटा के नाम से जानने लगे।
पानी से देवाजी का खासा लगाव भी था। वे जल प्रबन्धन का पर्याप्त दिलचस्पी और मेहनत के साथ किया करते थे। एक दिन उन्हें धुन सूझी कि क्यों न अपने घर में, अपनी मेहनत से जल प्रबन्ध किया जाये। सो, वे और उनकी पत्नी जुट गए कुई बनाने में। हिम्मत नहीं हारी। कुछ दिनों बाद 35 फीट की यह संरचना तैयार कर ली। थोड़े ठसकेदार भी थे। पानी का खुद उपयोग करते थे। उनका वैज्ञानिक सोच भी था। पचास साल पहले उन्होंने आटा पीसने की ऐसी मशीन तैयार की थी, जो पहिया घुमाने से चलती थी। ...और भी कई बातें!
जनाब! हम देवाजी के ओटे की पाल पर खड़े हैं। यहाँ अब देवाजी के गाँव के समाज ने मिलकर एक विशाल तालाब बना दिया है। इसका क्षेत्रफल 20 हेक्टेयर है। मौटे तौर पर इसके नीचे की साइड में 100 बीघा जमीन में खरीफ व रबी में फायदा हो रहा है। इस साल तीसरी बार भीषण सूखे के चलते यह लाभ एकदम दृष्टव्य नहीं है। तालाब यदि पूर्ण क्षमता के साथ भर जाये तो यह लाभ 500 बीघा तक पहुँच सकता है। राष्ट्रीय मानव बसाहट एवं पर्यावरण केन्द्र के परियोजना अधिकारी श्री मनोज मकवाना हमें गाँव के हर उस स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ पानी से रुक जाने की मनुहार वहाँ के जागृत समाज ने की है।
...यह एक जिन्दा समाज वाला गाँव है।
...और यह जिन्दादिली बूँदों को रोकने के अभियान के बाद पुष्पित-पल्लवित हुई है। गाँव के उत्साही लोगों की एक टीम है, जो इस समाज को दिशा दे रहे हैं। इनमें से अधिकांश युवा हैं। भगवानसिंह, प्रतापसिंह पंवार, लालसिंह (पानी समिति अध्यक्ष), विक्रमसिंह, जालमसिंह, दरबारसिंह, कमलसिंह पंवार सहित कुछ और लोग भी शामिल हैं। इस टीम के एक प्रमुख स्तम्भ गोपालसिंह तो पानी आन्दोलन के फैलाव के दरमियान स्वर्गवासी हो गए।
...अब हम इसी जिन्दा समाज से रूबरू कराते आपको गाँव-समाज द्वारा तैयार जल संरचनाओं के किनारे ले चलते हैं।
ये हैं श्री कमलसिंह पंवार। पलसोड़ा में 25 साल से शिक्षा दान के यज्ञ में जुटे हैं। वे कहने लगे- 25 साल पहले जब यहाँ आया था तो गाँव का नाला गर्मी में भी बहता था। नाले के पास गणपतसिंह और गोवर्धनसिंह भी बावड़ी भरी गर्मी में भी लबालब रहती थी। लोग यहाँ से पानी ले जाया करते थे। यहाँ जंगल भी पर्याप्त मात्रा में थे। इस गाँव में पानी का समृद्ध इतिहास रहा है। कृषि व पशुपालन गाँव की पहचान रही है, लेकिन पानी, जंगल और समाज के रिश्तों में संवर्धन के बजाय दोहन की प्रवृत्ति आने पर पानी यहाँ से गायब होता गया। ...और जब पानी रोकने की बात सामने आई तो पानी वाला यह गाँव पानी के लिये फिर उठ खड़ा हुआ।
इस गाँव में डबरियों के प्रति खासा आकर्षण देखने को मिला।
...यह एक सरकारी जमीन पर बनाई गई विशाल डबरी है। यह पहली बरसात में पूरी भरा गई थी। इसके पास वाले कुएँ में सात फीट पानी आ गया था, जबकि पिछले साल इसमें पानी था ही नहीं। भीषण सूखे के बावजूद रबी के मौसम में इस कुएँ में 25 फीट पानी है। मोटर भी चल रही है। और पास वाले खेत में प्याज, लहसुन व चने लगा रखे हैं। यह डबरी का ही असर है। गाँव के भगवानसिंह ने कुएँ में गहराई में जाकर आड़े होल करने की मशीन खुद तैयार की है। ये होल जमीन में रिसन के पानी को कुएँ में आने के लिये रास्ता सुलभ कराते हैं।
जिस गाँव में पानी प्राप्त करने की यह इच्छा शक्ति हो, उसके क्या कहने!
अब एक दिलचस्प कहानी और!
...बात 100 साल पुरानी है। गाँव की आबादी क्षेत्र के बाहर अपने खेतों में धनसिंहजी ने एक विशाल तालाब बनाया था। निजी जमीन में गाँव का यह पहला तालाब था। धनसिंहजी का मकसद भी परोपकार का ही था। उन्हें उस जमाने में यह महसूस हुआ कि अपने गाँव के मवेशियों को पानी के लिये कहीं भटकना न पड़े तो उन्होंने अपनी 5 बीघा जमीन तालाब के लिये दे दी थी।
ऐसे दादाजी के पोते भगवानसिंहजी भी भला पानी आन्दोलन में पीछे रहने वाले थे।
उन्होंने अपने तीन साथियों के साथ मिलकर 10 डबरियाँ बनाईं। इस जल संरचना से करीब 20 बीघे में सिंचाई हो रही है।
पानी के संस्कार यदि गाँव-समाज में इसी तरह आते रहे तो हम अपने परिवेश के पर्यावरण के लिये कुछ करने का आत्मसन्तोष महसूस कर सकते हैं। डबरी के लिये उपलब्ध कराई गई यह जमीन 8 बीघा है। इसका बाजार मूल्य देखें तो पाएँगे कि इन जल योद्धाओं ने अपनी 4 लाख की जमीन बूँदों की मनुहार के लिये समर्पित की है।
धनसिंहजी के सभी पोते इस बात पर चिन्तन कर रहे हैं कि 100 साल पहले उनके दादाजी द्वारा बनाए तालाब का गाँव-हित में अब जीर्णोद्धार किया जाये। इन्होंने दूर एक खेत में 60 गुणा 35 फीट की एक डबरी और तैयार की है। उसके पास वाला ट्यूबवेल रिचार्ज हो गया है।
...इनसे मिलिए, ये हैं मेहरबानसिंह पंवार। उन्होंने अपने स्वयं के प्रयास से 15 बीघा क्षेत्र में एक विशाल डबरी तैयार करवाई। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उस दौरान मालपुर की सड़क तैयार हो रही थी। ये लोग उनकी डबरी में से मोर्रम निकालकर ले गए। मेहरबान सिंह जी तो खुश। अब यह डबरी एक ऊँची पाल वाले गहरे तालाब का रूप धारण कर चुकी है। इस डबरी के नीचे वाली साइड में जलस्रोत जिन्दा होने से भीषण सूखे में भी आपको रबी की फसल दिख जाएगी। मेहरबानसिंह की 8 बीघा व अन्य किसानों का मिलाकर कुल 25 बीघा जमीन यहाँ रबी फसलों से आच्छादित है, जबकि दो साल पहले यहाँ सूखा ही था। इस डबरी में करमदिया, पलसोड़ा और रेल पटरियों के साइड वाला पानी आकर रुक जाता है। मेहरबानसिंह का कहना है कि यह प्रभाव तो अति अल्पवर्षा काल का है। यदि अच्छा पानी गिरे तो इसका फायदा बहुत दूर तक नजर आएगा। इस संरचना में मछली पालन की भी बहुत अच्छी सम्भावनाएँ हैं।
...गाँव में समाज की भागीदारी के साथ स्टॉपडैम कम रपट भी तैयार की गई है। इससे पानी रिचार्जिंग के अलावा आवागमन की भी सुविधा हो गई। पहले स्थिति यह थी कि पानी गिरने के बाद लोग पैदल नहीं निकल सकते थे। घुटने-घुटने तक कीचड़ हो जाया करता था। इससे आस-पास के नयाखेड़ा, केसखुद, मालपुरा सहित पाँच गाँवों के लिये रास्ता आसान हो गया। गाँव के किसान अब आसानी से अपनी फसलों को खेतों से ले आते हैं।
बरसात की नन्हीं-नन्हीं बूँदों को रोकने के लिये जब समाज एक जाजम पर आता है तो उसकी गाँव के प्रति सोच सरकारी नहीं, बल्कि अपनत्व भाव वाली हो जाती है। यह एक पृथक अध्ययन का विषय हो सकता है कि ये ‘जीवन-बूँदें’ गाँव के प्रति समाज के सोच की दिशा एकाएक कैसे बदल देती हैं। गाँव आखिर ‘घर’ में कैसे तब्दील होने लगता है। लोग वही। जमीन वही। लेकिन, गाँव में थमी बूँदें किसी दीपक की ज्योत की भाँति एक उजाला देने लगती हैं, उस अन्धकार से लड़ने का - जो हमें हर काम में सरकार के सामने ‘याचक’ की भूमिका में खड़ा कर देता है और भीतर की ताकत होते हुए भी समाज स्वयं को शक्तिहीन समझता है।
...जनाब, यहाँ भी इसी तरह की एक रोचक कहानी है।
पानी आन्दोलन के पहले समाज में ताकत तो थी, लेकिन वह बिखरी हुई थी। देवाजी और धनसिंह जैसी पुरानी पानी-शख्सियतों के इस गाँव में लोग आगे आने को तैयार नहीं थे। पानी समिति अध्यक्ष लाल सिंह तंवर कहने लगे- “पहले लोगों से चन्दा माँगने जाते थे, तो यहाँ के लोग मना कर दिया करते थे। अब किसी अच्छे काम की भनक भर लग जाये तो स्वयं मदद करने के लिये आगे आ जाते हैं।” कमलसिंह पंवार और उनके साथी किस्से सुनाने लगेः “टीन शेड वाले स्कूल भवन की मरम्मत के लिये सरपंच भगवानसिंह के परिवार की ओर से 5 हजार रुपए मिले। इसके बाद गाँव के उत्साही युवाओं की टीम ने जनसहयोग से हॉल के निर्माण के लिये 35 हजार रुपए एकत्रित कर लिये।”
मोहनसिंह पंवार की स्मृति में पाँच हजार रुपए दिये गए।
...बूँदों की इबादत के बाद गाँव में जनसहयोग की बयार का सिलसिला जारी है।
पलसोड़ा से ही लगा हुआ है, नयाखेड़ा। यहाँ 20 डबरियाँ तैयार की गई हैं। नयाखेड़ा में भी नाले पर एक विशाल तालाब बनाया गया है। पानी कम गिरने की वजह से अभी इसका पूरा प्रभाव तो नहीं आँका जा सका, लेकिन नीचे की साइड के कुछ कुएँ जरूर लबालब रहने लगे। सूरजसिंह के कुएँ में भी पानी आ गया। वे पाँच बीघा में रबी की फसल लेने लगे। मोहनलाल कहने लगे- “मवेशियों को पानी का फायदा हो गया। इन्दरसिंह, मांगू चौधरी, सन्तोष नाथ के कुओं से काफी लाभ हो रहा है। ये अपने खेतों में पानी रिचार्जिंग के कारण रबी की फसल ले रहे हैं।”
...क्या आपके गाँव में भी पचास साल पहले जल योद्धा देवाजी रहते थे?
...क्या 100 साल पहले धनसिंह जैसी हस्ती मौजूद थी?
...सम्भव है, ऐसा हो।
...तो सोचिए, क्या हम विरासत में मिले पानी संचय के संस्कार को फिर से जागृत कर कोई ‘दीपक’ प्रज्ज्वलित कर सकते हैं?
निश्चित ही।
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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Post By: RuralWater