इस वर्ष 300 किसानों ने मेडागास्कर पद्धति से धान की खेती की है, जो पूरी तरह जैविक व देशी धान बीजों से की जा रही है। धान की रासायनिक खेती में प्रति एकड़ 5-6 हजार रूपए लागत आती है और जैविक खेती में एक से डेढ़ हजार रूपए। जबकि उत्पादन दोगुना मिलता है। अगर मेढ़ पर पौधे लगाए तो इससे हमें लकड़ी, फल, शुद्ध हवा, और ज़मीन को पानी सब कुछ मिलेंगे। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अनूठा है, छत्तीसगढ़ में एक मौन क्रांति की तरह है जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है। छत्तीसगढ़ में एक अनूठा अस्पताल है जहां बीमारी के इलाज के साथ उसकी रोकथाम पर जोर दिया जाता है। स्वस्थ रहने के लिए लोगों को अच्छा भोजन मिले इसके लिए कृषि कार्यक्रम चलाया जा रहा है। बिलासपुर जिले के कई गाँवों में किसान जैविक खेती से धान पैदावार बढ़ा रहे हैं। जब वर्ष 2000 में जन स्वास्थ्य सहयोग नामक गैर सरकारी संस्था ने बिलासपुर जिले में स्वास्थ्य का काम शुरू किया और अपने अध्ययन के दौरान यह पाया कि ज्यादातर बीमारियों का संबंध कुपोषण से है तब संस्था ने अपना कृषि कार्यक्रम शुरू किया। जन स्वास्थ्य सहयोग ने अपने एक डेढ़ एकड़ की भाटा (कमजोर) ज़मीन पर बिना रासायनिक वाली जैविक खेती शुरू की। आज यहां धान की डेढ़ सौ से ज्यादा किस्में संग्रहीत हैं। इसके अलावा ज्वार की तीन, मडिया की छह, गेहूं की छह और अरहर की छह देशी किस्में हैं। चना, अलसी, कुसुम, मटर, भिंडी आदि देशी किस्में भी हैं। रंग-बिरंगे देशी बीज न केवल सौंदर्य से भरपूर हैं बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं। औषधि गुणों से सम्पन्न हैं और स्थानीय मिट्टी पानी और हवा के अनुकूल हैं।
आखिर मनुष्य ने ही जंगलों से तरह-तरह की फसलों के गुणधर्मों की पहचान कर खेतों में उन्हें उगाया है और इसी के परिणामस्वरूप आज हम बीजों के मामले में समृद्ध हैं। लेकिन आज हमने देशी बीजों की संपदा खो दी है, इसी को संजोने व संवारने का प्रयास जन स्वास्थ्य सहयोग में किया जा रहा है। इस प्रयोग की शुरूआत से जेकब नेल्लीथानम जुड़े हुए हैं, जो बाबा आमटे से प्रभावित होकर केरल से आए थे और इसके बाद बरसों से परंपरागत खेती व जैविक खेती के प्रयोगों से लगातार जुड़े हुए हैं। उन्होंने मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में मालवी गेहूं की देशी किस्मों पर प्रयोग किया है और छत्तीसगढ़ में विश्व प्रसिद्ध डॉ. आर. एच. रिछारिया के साथ भी काम किया है। उन्होंने रिछारिया कैम्पेन के नाम से देशी बीजों के संरक्षण और संवर्धन का अभियान भी चलाया हुआ है।
अब जन स्वास्थ्य सहयोग के दो कार्यकर्ता ओम प्रकाश और महेश शर्मा इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। गनियारी स्थित कृषि फार्म में ओम प्रकाश ने और बिलासपुर जिले के कोटा-लोरमी विकासखंड के गाँवों में महेश शर्मा ने जैविक खेती के काम को फैलाया है। दोनों कार्यकर्ता पूर्व में आंदोलनों से जुड़े रहे हैं लेकिन अब पूर्णकालिक कार्यकर्ता होकर इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। गनियारी में एक-दो डिसिमल की छोटी-छोटी क्यारियों में देशी धान का प्रयोग गत एक दशक से चल रहा है। मैं कई बार इस फार्म को देख चुका हूं और इसके प्रमुख कार्यकर्ता ओम प्रकाश से चर्चा की है। ओम प्रकाश ने बताया कि धान की कई किस्में हैं जिनमें हरून धान 60 से 90 दिन वाली, मध्यम 90 से 120 दिन वाली और गहरून 120 से 145 दिन वाली हैं। जो अलग-अलग किस्म की मिट्टी वाली ज़मीन में होती हैं।
उन्होंने बताया कि धान की नई मेडागास्कर पद्धति के प्रयोग हमने देशी धान बीजों से किए जिसमें उत्पादन औसत धान से दोगुना तक पाया गया। यहां हुए प्रयोग में प्रति एकड़ 40 क्विंटल तक पाया गया है। जब हाल ही मुझे ओम प्रकाश अपने खेत में ले गए तो वे कृषि विशेषज्ञों की तरह हर बीज व पौधे का ब्यौरा दे रहे थे। चूंकि वे खुद और उनकी पत्नी खेत में काम करते हैं, इसलिए उन्हें खेती का ज्ञान है और इसीलिए वे बहुत बारीक़ जानकारियाँ रखते हैं। ये अरहर उत्तर प्रदेश से आई है, मडिया बस्तर से। कुसुम से तेल निकलता है और काबुली चना का दाना बड़ा होता है। धान की कई किस्में सुगंधित हैं और कई बिना पानी वाली। मुंगलानी पौष्टिक होता है और ज्वार की रोटी हाजमे के लिए बहुत अच्छी मानी जाती है।
खेत में मेढ़ पर अरहर के पौधे लहलहा रहे थे। बेर के पेड़ों के नीचे बच्चे खेल रहे थे। एक खेत में सब्जियाँ लगी थीं। मूली, भटा, टमाटर, धनिया, मिर्ची, बरबटी, प्याज और भिंडी। उनकी पत्नी सब्जी वाले खेत में काम कर रही थी। उनकी बेटी ने मुझे पके बेर लगाकर दिए। वे बताते हैं खेती के लिए ज़मीन का स्वास्थ्य भी सुधारना जरूरी है। रासायनिक खेती के कारण ज़मीन की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है और उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु खत्म होते जा रहे हैं। बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से ज़मीन सख्त होती जा रही है। भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए मिश्रित फ़सलों को खेतों में बोया जाता है। यह परंपरागत तरीका है। देश के कई इलाकों में अलग-अलग तरह की मिश्रित फसलें होती हैं। बारहनाजा, नवदान्या और उतेरा आदि पद्धति अलग-अलग जगह प्रचलित है।
इसके अलावा, हरी खाद ढनढनी, सन, सोल, चरौरा को भी बोकर फिर मिट्टी में सड़ा दिया जाता है, जिससे ज़मीन उत्तरोत्तर उर्वर बनती जाती है। उन्होंने बताया कि इस भाटा कमजोर ज़मीन को हरी खाद से ही उर्वर बनाया है। महेश शर्मा जो सामुदायिक कृषि कार्यक्रम के प्रमुख ने बताया कि अब हमारा यह प्रयोग न केवल गनियारी में बल्कि कई गाँवों में फैल चुका है। इस वर्ष 2013 में 300 किसानों ने मेडागास्कर पद्धति से धान की खेती की है, जो पूरी तरह जैविक व देशी धान बीजों से की जा रही है। किसान कार्यकर्ता भुवन सिंह ने बताया कि धान की रासायनिक खेती में प्रति एकड़ 5-6 हजार रूपए लागत आती है और जैविक खेती में एक से डेढ़ हजार रूपए। जबकि उत्पादन दोगुना मिलता है। अगर मेढ़ पर पौधे लगाए तो इससे हमें लकड़ी, फल, शुद्ध हवा, और ज़मीन को पानी सब कुछ मिलेंगे। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अनूठा है, छत्तीसगढ़ में एक मौन क्रांति की तरह है जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है।
आखिर मनुष्य ने ही जंगलों से तरह-तरह की फसलों के गुणधर्मों की पहचान कर खेतों में उन्हें उगाया है और इसी के परिणामस्वरूप आज हम बीजों के मामले में समृद्ध हैं। लेकिन आज हमने देशी बीजों की संपदा खो दी है, इसी को संजोने व संवारने का प्रयास जन स्वास्थ्य सहयोग में किया जा रहा है। इस प्रयोग की शुरूआत से जेकब नेल्लीथानम जुड़े हुए हैं, जो बाबा आमटे से प्रभावित होकर केरल से आए थे और इसके बाद बरसों से परंपरागत खेती व जैविक खेती के प्रयोगों से लगातार जुड़े हुए हैं। उन्होंने मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में मालवी गेहूं की देशी किस्मों पर प्रयोग किया है और छत्तीसगढ़ में विश्व प्रसिद्ध डॉ. आर. एच. रिछारिया के साथ भी काम किया है। उन्होंने रिछारिया कैम्पेन के नाम से देशी बीजों के संरक्षण और संवर्धन का अभियान भी चलाया हुआ है।
अब जन स्वास्थ्य सहयोग के दो कार्यकर्ता ओम प्रकाश और महेश शर्मा इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। गनियारी स्थित कृषि फार्म में ओम प्रकाश ने और बिलासपुर जिले के कोटा-लोरमी विकासखंड के गाँवों में महेश शर्मा ने जैविक खेती के काम को फैलाया है। दोनों कार्यकर्ता पूर्व में आंदोलनों से जुड़े रहे हैं लेकिन अब पूर्णकालिक कार्यकर्ता होकर इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। गनियारी में एक-दो डिसिमल की छोटी-छोटी क्यारियों में देशी धान का प्रयोग गत एक दशक से चल रहा है। मैं कई बार इस फार्म को देख चुका हूं और इसके प्रमुख कार्यकर्ता ओम प्रकाश से चर्चा की है। ओम प्रकाश ने बताया कि धान की कई किस्में हैं जिनमें हरून धान 60 से 90 दिन वाली, मध्यम 90 से 120 दिन वाली और गहरून 120 से 145 दिन वाली हैं। जो अलग-अलग किस्म की मिट्टी वाली ज़मीन में होती हैं।
उन्होंने बताया कि धान की नई मेडागास्कर पद्धति के प्रयोग हमने देशी धान बीजों से किए जिसमें उत्पादन औसत धान से दोगुना तक पाया गया। यहां हुए प्रयोग में प्रति एकड़ 40 क्विंटल तक पाया गया है। जब हाल ही मुझे ओम प्रकाश अपने खेत में ले गए तो वे कृषि विशेषज्ञों की तरह हर बीज व पौधे का ब्यौरा दे रहे थे। चूंकि वे खुद और उनकी पत्नी खेत में काम करते हैं, इसलिए उन्हें खेती का ज्ञान है और इसीलिए वे बहुत बारीक़ जानकारियाँ रखते हैं। ये अरहर उत्तर प्रदेश से आई है, मडिया बस्तर से। कुसुम से तेल निकलता है और काबुली चना का दाना बड़ा होता है। धान की कई किस्में सुगंधित हैं और कई बिना पानी वाली। मुंगलानी पौष्टिक होता है और ज्वार की रोटी हाजमे के लिए बहुत अच्छी मानी जाती है।
खेत में मेढ़ पर अरहर के पौधे लहलहा रहे थे। बेर के पेड़ों के नीचे बच्चे खेल रहे थे। एक खेत में सब्जियाँ लगी थीं। मूली, भटा, टमाटर, धनिया, मिर्ची, बरबटी, प्याज और भिंडी। उनकी पत्नी सब्जी वाले खेत में काम कर रही थी। उनकी बेटी ने मुझे पके बेर लगाकर दिए। वे बताते हैं खेती के लिए ज़मीन का स्वास्थ्य भी सुधारना जरूरी है। रासायनिक खेती के कारण ज़मीन की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है और उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु खत्म होते जा रहे हैं। बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से ज़मीन सख्त होती जा रही है। भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए मिश्रित फ़सलों को खेतों में बोया जाता है। यह परंपरागत तरीका है। देश के कई इलाकों में अलग-अलग तरह की मिश्रित फसलें होती हैं। बारहनाजा, नवदान्या और उतेरा आदि पद्धति अलग-अलग जगह प्रचलित है।
इसके अलावा, हरी खाद ढनढनी, सन, सोल, चरौरा को भी बोकर फिर मिट्टी में सड़ा दिया जाता है, जिससे ज़मीन उत्तरोत्तर उर्वर बनती जाती है। उन्होंने बताया कि इस भाटा कमजोर ज़मीन को हरी खाद से ही उर्वर बनाया है। महेश शर्मा जो सामुदायिक कृषि कार्यक्रम के प्रमुख ने बताया कि अब हमारा यह प्रयोग न केवल गनियारी में बल्कि कई गाँवों में फैल चुका है। इस वर्ष 2013 में 300 किसानों ने मेडागास्कर पद्धति से धान की खेती की है, जो पूरी तरह जैविक व देशी धान बीजों से की जा रही है। किसान कार्यकर्ता भुवन सिंह ने बताया कि धान की रासायनिक खेती में प्रति एकड़ 5-6 हजार रूपए लागत आती है और जैविक खेती में एक से डेढ़ हजार रूपए। जबकि उत्पादन दोगुना मिलता है। अगर मेढ़ पर पौधे लगाए तो इससे हमें लकड़ी, फल, शुद्ध हवा, और ज़मीन को पानी सब कुछ मिलेंगे। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अनूठा है, छत्तीसगढ़ में एक मौन क्रांति की तरह है जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है।
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