हमने भारत की लगभग सभी नदियों को प्रदूषित कर चुके हैं। अब हालात धीरे-धीरे और भी गम्भीर होते जाएँगे। हमारी नदियों से ही धरती के पेट का पानी का भरण होता है। जिस दिन हानिकारक जीवाणु धरती के पेट के पानी को प्रदूषित कर दिया उस दिन मानव सभ्यता का अन्त प्रारम्भ हो जाएगा। दुनिया भर के प्रदूषित नदियों का पानी समुद्र में मिल रहा है। हमारा आकूत कचरा समुद्र में जमा हो रहा है। समुद्री जीव धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं। प्रकृति की सबसे अनुपम कृति यानि मानव जिसके हाथ प्रकृति ने पृथ्वी को सौंप कर निश्चिंत होना चाहती थी। वह इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकती थी। लेकिन इसी मानव ने प्रकृति के सारी बनावट के आगे संकट पैदा कर दिया है। इस संकट से उबरने के लिये प्रकृति दिन-रात तत्परता से लगी है लेकिन कुछ भी सूत्र उसके हाथ आने से पहले मानव नए-नए संकट पैदा कर रहा है।
आज आधुनिकता के केन्द्र में मनुष्य है। मनुष्य को सिर्फ धन व प्रतिष्ठा अर्जित करना ही मुख्य चिन्ता रही है। धन व प्रतिष्ठा ने दो देशों के बीच से लेकर दो परिवारों के बीच तक अपना पाँव पसार कर प्रकृति को सर्वनाश की पराकाष्ठा तक पहुँचाने में लगी है। अब तो विकसित देश विकाशील देशों की ओर बड़े ध्यान के टकटकी लगाए देख रही है कि कहीं जो कुछ अपने विकास के लिये उसने किया है वही वह तो नहीं करने जा रहा।
थोड़े ही शब्दों में कहें तो पर्यावरण संकट पृथ्वी को भस्म कर सकती है। केवल भारत ही नहीं विश्व के सभी देश को अपनी विकास की आधुनिक परिभाषा को बदलनी होगी। सभी देशों को अपनी सोच बदलनी होगी। दुनिया भर के कार्य और व्यापार के तौर-तरीके बदलने होंगे।
1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जलवायु परिवर्तन संधि और 1997 में क्योटो-कॉल में यह आम सहमति बनी थी कि पृथ्वी को गर्म होने से बचाने में सभी देशों की जिम्मेदारी बनती है। किन्तु जिन देशों ने अपने विकास यात्राओं के दौरान सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया है उनका आर्थिक दायित्व अधिक-से-अधिक बनता है। लेकिन विकसित देशों को जो धन व तकनीक उपलब्ध कराने का वादा किया था, उसे वह अमल में नहीं ला रहा है।
पर्यावरण संकट के कारण हम क्या-क्या खोएँगे इसकी लम्बी लिस्ट है- लेकिन मुख्य रूप से हवा, जल, अनाज सबसे अधिक प्रभावित होंगे। जल संकट से हमने जूझना प्रारम्भ कर दिया है। इस संकट से हम थोड़ी-बहुत निजात पा भी लें, लेकिन वायु प्रदूषण के संकटों से हम उबर नहीं पाएँगे।
जल प्रदूषण के बारे में थोड़ा देखिए- हमने भारत की लगभग सभी नदियों को प्रदूषित कर चुके हैं। अब हालात धीरे-धीरे और भी गम्भीर होते जाएँगे। हमारी नदियों से ही धरती के पेट का पानी का भरण होता है। जिस दिन हानिकारक जीवाणु धरती के पेट के पानी को प्रदूषित कर दिया उस दिन मानव सभ्यता का अन्त प्रारम्भ हो जाएगा। दुनिया भर के प्रदूषित नदियों का पानी समुद्र में मिल रहा है। हमारा आकूत कचरा समुद्र में जमा हो रहा है। समुद्री जीव धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं।
वायु प्रदूषण के कारण अनेक प्रकार के मित्र जीवाणु हम खोते जा रहे हैं, इसका तनिक भी अन्दाजा हमें नहीं है। पृथ्वी पर जीवनोपयोगी जीवाणु के अभाव का हम पर असर दिखने लगा है। फसलों में बेधड़क रसायन उपयोग से जीव-जन्तु समाप्त हो रहे हैं। पशु-पक्षी लगातार लुप्त होते जा रहे हैं। यहाँ यह बताने की जरूरत नहीं हैं कि कौन-कौन से पशु-पक्षी हमने अभी तक खोया है। प्रत्येक व्यक्ति व समाज अपने आसपास यह महसूस कर सकता है कि उसके बीच कौन-कौन थे जो अब नहीं दिखते। प्रकृति को लगातार सहायता करने वाली पक्षियों को, पशुओं को हम खोते जा रहे हैं।
भारत की समस्या यह है कि वह विकास की पटरी पर चल रहा है- वह उसे किस स्टेशन ले जाएगा, यह ठीक से विचार कर ही गाड़ी आगे बढ़ाएँ। अभी हमारे सामने सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न जो खड़ा है वह है- नदियों को पुनर्जीवित करना। जब तक हम नदियों को पुनर्जीवित नहीं करते तब तक हम जल संकट से निजात नहीं पा सकते। पृथ्वी की जीवनदायिनी क्षमता के सभी अवयवों को हमें पुनर्स्थापित करना होगा। इस कड़ी में हमें दो-तीन सौ साल पीछे जाकर देखना होगा कि हम कहाँ से अपने जीवनोपयोगी पर्यावरण को बचाने के बदले ध्वस्त कर तेजी से आगे बढ़ने लगे। अभी तक इस ओर ध्यान नहीं जा रहा है हमारा। प्रकृति भी बाजार के हाथों बिकेगी तो परिणाम ठीक नहीं होने वाला।
उदाहरण के तौर पर देखिए- पहले हम बाहर शौच आदि के लिये जाते थे। खेतों में गाँव से काफी दूर नित्यक्रिया से निवृत्त होते थे। हमारे मल प्रकृति में आसानी से विसर्जित हो उपयोगी बन जाती थी। लेकिन अब हम अपना मल-मूत्र ही नहीं तमाम तरह के विकृत रसायन सीधे नदियों में डाल समझते रहे कि हमने बहुत ही अच्छा निस्तारण कर दिया है। फिर हुआ क्या हमने अपने सारे जलस्रोतों को तबाह कर दिया है।
हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण को जलवायु भी कहते हैं- जल और वायु इन दो को ही यदि हम सुधार लें तो हम काफी संकटों से निजात पा सकेंगे। पर्यावरण तो जल, जंगल, जमीन, और वायु (वातावरण) को ठीक करने से ही हम बच पाएँगे। इसे सुधारने के जो भी समुचित और सच्ची प्रयास हो सकती है उसे हमें करना चाहिए।
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Post By: RuralWater