जल जन जोड़ो अभियान देश भर में जल संरक्षण की दिशा में व्यापक काम कर रहा है। अभियान के राष्ट्रीय संयोजक व समाजसेवी संजय सिंह से पूजा सिंह की बातचीत
आप जल जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं। क्या है यह अभियान?
जल जन जोड़ो अभियान एक राष्ट्रव्यापी अभियान है जो पूरे देश में पानी यानी तालाब, नदियों तथा अन्य जल स्रोतों के संरक्षण का काम करने वाले संगठनों और व्यक्तियों का साझा मंच है। यह कोई पंजीकृत संस्था नहीं है न ही यह कोई स्वयंसेवी संगठन है। बल्कि यह सिविल सोसाइटी की तरह काम करता है। इसकी शुरुआत अप्रैल 2013 में हुई थी।
यह देश के किन हिस्सों में काम कर रहा है?
फिलहाल देश के 20 राज्यों में यह अभियान सक्रिय रूप से काम कर रहा है। अलग-अलग राज्यों में इसकी सक्रियता के कारण अलग-अलग परिवेश और बोली बानी वाले लोग इसमें सक्रिय हैं। यह बात भी इसे एक किस्म की पूर्णता प्रदान करती है।
अब तक अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में किस हद तक सफल रहा है?
अभी तो लक्ष्य प्राप्ति की बात करना बहुत जल्दीबाजी होगी। यही कहूँगा कि जल जन जोड़ो अभियान की स्थापना एक वृहद उद्देश्य की पूर्ति के लिये की गई थी। देश के सभी लोगों को पेयजल सुरक्षा मुहैया कराना हमारा सबसे प्रमुख सोच है। इसके लिये पेयजल सुरक्षा अधिनियम आवश्यक है। देश के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के उसकी जरूरत के लिये शुद्ध पानी मिले यह बहुत जरूरी है। देश में जल सुरक्षा विधेयक के लिये माहौल तैयार किया जा रहा है। पिछले दिनों हमने दिल्ली में जल सत्याग्रह का आयोजन किया था। आने वाले दिनों में दोबारा ऐसा करेंगे। इससे सरकारों में भी संवेदना पैदा हो रही है। यह अभियान रचना और संघर्ष का एक संयुक्त प्रयास है। महाराष्ट्र में अभियान पाँच बड़ी नदियों पर काम कर रहा है। वहाँ सफलता भी मिल रही है। इसके अलावा मुम्बई में मीठी नदी और बीजापुर के तालाबों पर हमारा लगातार काम चल रहा है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हमारे साथी आमी नदी पर बहुत सघन मेहनत कर रहे हैं। बुन्देलखण्ड में चन्द्रावल और लखेरी नदियों को लेकर हम लगातार प्रयासरत हैं। कुल मिलाकर कहें तो उद्देश्य प्राप्ति की बात अभी जल्दबाजी होगी लेकिन सम्भावनाएँ बननी शुरू हो चुकी हैं।
बुन्देलखण्ड में तालाबों को लेकर आप लोगों ने क्या काम किये हैं?
बुन्देलखण्ड में तालाबों को लेकर हमने दो तरह से काम किया। एक तो अपने संगठनों के जरिए और दूसरा सरकार की मदद से। सरकार के सहयोग से हमने इस क्षेत्र में 100 चन्देलकालीन तालाबों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया था। यह काम अभी-अभी पूरा हुआ है। जिन चन्देलकालीन बुन्देली तालाबों पर काम हुआ है उनमें से 50 महोबा में और 50 महोबा के बाहर स्थित हैं। यह देश में पहला उदाहरण है कि महज 40 दिन में 100 तालाबों में नई जान फूँकी गई। ये तालाब कोई छोटे-मोटे तालाब नहीं हैं। इनका आकार 20 एकड़ से लेकर 50 और 80 एकड़ तक है। नरेगा के तहत 4000 तालाब बनाने का काम हुआ है। इसके अलावा अपना तालाब अभियान इस क्षेत्र में सिंचाई तालाब बनाने का काम कर ही रहा है। हमारी कोशिश है लोगों की स्मृति में नदियों की महत्ता को नए सिरे से पैदा करना और उनको नदी पुनर्जीवन के काम में लगाना। इस सिलसिले में हम लगातार लोगों को जागरूक करने का प्रयास करते रहते हैं। आम जनता से लेकर राजनेताओं तक में जल संचयन को लेकर जागरुकता पैदा हुई है।
इन तमाम कामों में जनता को कैसे साथ लाए आप लोग?
हम हमेशा लोगों को प्रेरित करने और उनको साथ जोड़ने का प्रयास करते रहते हैं। इस क्रम में पदयात्राएँ, संगोष्ठियाँ व सम्मेलन आदि करते रहते हैं। जिससे लोग पानी के मुद्दे को इसकी महत्ता को समझें। एक सीमा के बाद लोग खुद-ब-खुद चीजों को समझने लगे वे हमारे साथ आये। आज तो लोग आगे बढ़कर मदद की पेशकश करते हैं। इसका सुपरिणाम यह हुआ है कि देश में पहली बार पानी की राजनीति शुरू हुई है। साफ पानी की उपलब्धता अब एक राजनीतिक मुद्दा बन रहा है।
आप समाज सेवा के क्षेत्र में कब और कैसे आये?
मैं सन 1995 में इस काम से जुड़ा। कहीं-न-कहीं यह रुझान गाँधीवादी चिन्तकों के साथ रहने का परिणाम था। शुरुआत में राष्ट्रीय सेवा योजना जैसे शिविरों के साथ जुड़कर काम करना शुरू किया। मैंने समाज सेवा में ही स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। इस बीच में मैंने और कई कोर्स किये लेकिन समाजसेवा की ओर से मेरा रुझान कभी नहीं भटका। मैंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत चम्बल के डकैत प्रभावित इलाकों में काम करने से की। उस समय जमीनी काम करते हुए ही मुझे यह अहसास हो गया था कि अगर बुन्देलखण्ड को बचाना है तो पानी की समस्या को हल किये बिना काम नहीं चल सकता।
क्या समाज सेवा की कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि भी रही आपके यहाँ?
जी हाँ, मेरे पिता चिकित्सक थे और साथ ही वे सामाजिक कार्यों में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। यह संस्कार मुझे विरासत में मिला है। इसकी वजह से मुझे भीषण दंश भी झेलना पड़ा। मेरे काम की वजह से तमाम दुश्मनियाँ भी हुईं। 2009 में इसी के चलते मेरे पिता की हत्या भी कर दी गई। यह एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले से शुरू किया हुआ मेरा छोटा सा काम धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके में फैला और अब तो राष्ट्रीय अभियान के साथ जुड़ा हुआ हूँ।
हमें परमार्थ के बारे में कुछ बताइए?
परमार्थ की स्थापना 5 नौजवान साथियों ने की थी। उनमें से चार आज भी साथ हैं। सन 1995 में इसकी स्थापना हुई। यह जल, जंगल और जमीन के अलावा समाज में महिलाओं के योगदान को लेकर भी काफी सचेत संस्थान है। हम शासन में भागीदारी यानी स्वशासन की प्रक्रिया को बढ़ावा देने की माँग लगातार करते रहे हैं और इस दिशा में काफी काम भी किया है।
पिछले दिनों आपकी पानी गाड़ी खबरों में थी। इसकी क्या अवधारणा है?
बुन्देलखण्ड एक ऐसा इलाका है जहाँ महिलाओं की स्थिति थोड़ी अलग है। यहाँ न केवल उन पर काम का बोझ अधिक है बल्कि सुरक्षा का सवाल भी अहम है। दूरदराज इलाकों से पानी लाने का काम भी महिलाएँ करती हैं। हमने यह भी देखा कि जिन इलाकों में महिलाएँ पानी के संरक्षण के काम से जुड़ती हैं वहाँ यह काम व्यापक स्तर पर होता है। ऐसे में महिलाओं का पानी पर प्रथम अधिकार है, इस सोच को बढ़ावा देने के लिये हमने पानी गाड़ी तैयार करवाई। यह गाड़ी उपलब्ध कराने का मकसद महिलाओं के सिर पर पानी ढोने से पड़ने वाले बोझ को कम करना है और उन्हें इसके कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से बचाना है। साथ ही समय की बचत करना भी है। यह गाड़ी पूरी तरह लोहे से बनी हुई है, जिसमें एक तरफ पकड़ने का डंडा लगा हुआ है, तो साथ ही बर्तन रखने के खाँचे बनाए गए हैं, जिससे बर्तन हिलता-डुलता नहीं है और नुकसान का भी खतरा कम होता है। इसमें नीचे लगे पहिए स्कूटर के बराबर हैं। इन पहियों में बगैर ट्यूब के रबर वाले टायर लगाए गए हैं, जिनके पंक्चर होने का खतरा नहीं रहता। इतना ही नहीं, पहियों में बैरिंग होने के कारण गाड़ी को चलाने में भी ज्यादा श्रम नहीं लगता है।
संस्था के आर्थिक स्रोत क्या हैं? धन कहाँ से आता है?
परमार्थ का आर्थिक स्रोत प्रमुख तौर पर दान में मिलने वाला धन है। ये दानदाता सांगठनिक भी हैं और ऐसे लोग भी हैं जो निजी तौर पर परमार्थ को आर्थिक मदद देते हैं।
इन अभियानों से इतर बुन्देलखण्ड के संकट के बारे में कुछ बताइए?
इतर क्या कहा जाये? मैं तो बुन्देलखण्ड में ही पैदा हुआ। मैं बचपन में जिस गाँव में रहा वहाँ सबसे पहले पानी का भीषण संकट देखा। मैंने देखा कि कैसे 12-15 किलो की रस्सी की मदद से कुएँ से पानी निकाला जाता और एक बाल्टी पानी में ही नहाना-धोना सब होता। वहीं से पानी को लेकर जागरुकता पैदा हो गई। बुन्देलखण्ड की बात करें तो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह इलाका एकदम विपन्नता की ओर चला गया। इसमें सरकारों का भी हाथ रहा और स्थानीय राजनेताओं का भी। महोबा के तालाब 1000 साल पहले बने थे। यानी यहाँ जल संकट बहुत पहले से है। यहाँ कि मिट्टी ऐसी है कि यहाँ भूजल रिचार्ज आसानी से नहीं होता है। हाल के सालों में यहाँ सतही जल के संरक्षण को लेकर कोई उपाय नहीं किया गया जबकि भूजल का दोहना बढ़ाया गया। यही वजह है कि यह पूरा इलाका इस समय भीषण जल संकट से दोचार है। यहाँ कपास और गन्ने की खेती नहीं होती है लेकिन फिर भी इस बार के सूखे में 80 फीसदी जलस्रोत पूरी तरह सूख चुके हैं।
जमीनी स्तर पर किस तरह की चुनौतियों से निपटा जाना है?सबसे अहम है सतह पर बने जलाशयों जलस्रोतों में जल संरक्षण को बढ़ाना, इसके अलावा फसल चक्र में बदलाव लेकर सूखे की दिक्कत को कुछ कम किया जा सकता है। पीने के पानी का इन्तजाम करना आवश्यक है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर व्यक्ति को साफ पानी मिल सके।
शासन किस प्रकार मदद कर सकता है?
सरकारी मशीनरी के पास बहुत सारे संसाधन हैं लेकिन जरूरत इच्छाशक्ति दिखाने की है। सूखे ने लोगों की कमर तोड़ रखी है। शासन को चाहिए कि जब तक क्षेत्र के किसान अगली फसल नहीं ले लेते तब तक लगातार उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ा रहे।
सूखे के चलते बुन्देलखण्ड एक साथ कई समस्याओं से दोचार है। पानी की कमी, सूखा, पलायन, गरीबी सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं कोई वैकल्पिक हल आपके दिमाग में?
बुन्देलखण्ड के कई इलाकों में 80 फीसदी तक लोग पलायन कर गए हैं। मेरी नजर में अभी जो वैकल्पिक हल है वह यह कि कृषि को मजबूत किया जाये और लोगों में कौशल विकास पर भरपूर ध्यान दिया जाये। क्षेत्र में पशुपालन पूरी तरह टूट गया है उसे फिर से खड़ा करना होगा। कौशल विकास होने से पलायन रोकने में मदद मिलेगी। संक्षेप में कहें तो बुन्देलखण्ड में किसानी और जवानी दोनों को बचाना होगा।
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