मनरेगा परियोजनाएँ काफी संख्या में नाकाम भी हुई हैं क्योंकि सड़क बनाने में पहले से जरूरी एहतियात नहीं बरती गई या तालाब की खुदाई करते समय उसकी अवस्थिति का ध्यान नहीं रखा गया। उसे किसी ढलान के ऊपरी हिस्से में खोद दिया गया। यहाँ जिन सकारात्मक अनुभवों को साझा किया गया है, उनसे मनरेगा के जरिए किये जा सकने वाले उपयोगी कार्य-सामग्री के साथ या सामग्री के बिना-की सम्भावनाओं का पता चलता है। खासकर उन स्थितियों में जब श्रम को अच्छी तकनीकी सहयोग मिले तो मनरेगा की उपयोगिता निर्विवाद है। कोई एक साल पहले प्रधानमंत्री ने संसद में महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इंप्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) के बारे में एक बयान दिया था। कहा था, ‘‘मेरी राजनीतिक समझ कहती है कि मनरेगा को कभी भी बन्द न करो..क्योंकि मनरेगा कांग्रेस की असफलता का एक स्मारक है। देश की आजादी के साठ साल बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिये भेजना पड़ रहा है।” इस कथन पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई। कवि अखिल कात्याल ने भी इस पर तीखा व्यंग्य करते हुए कहा था : ‘‘गड्ढे खोदकर ही कुएँ बनाए जाते हैं/गड्ढा खोदकर नहर निकाली जाती है/एक छोटा गड्ढा खोदकर ही/हम किसी पौधे को रोप पाते हैं और अगर/आप शिलान्यास करने के लिये गड्ढा नहीं खोदते तो/चाहे कितनी ही बड़ी इमारत हो/गिर ही जाएगी।”
ऐसा ही मुझे पहले-पहल तब महसूस हुआ था, जब मैंने 2002 में राजस्थान में एक तालाब खुदते देखा। मैं हैरत में पड़ गई थी। देखा कि एक मैदान में मजदूर एक स्थान से मिट्टी खोदकर दूसरे स्थान पर डाल रहे थे। जब मानसून के बाद मैं दोबारा उसी स्थान के दौरे पर पहुँची तो पाया कि तालाब पानी से लबालब था, जिससे पशुओं और अन्य घरेलू कार्य के लिये पानी लिया जा सकता था। मेरे जैसी शहरी के लिये एक महत्त्वपूर्ण अनुभव था। हालांकि मनरेगा के तहत सम्पत्ति का निर्माण महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था, लेकिन शुरुआती वर्षों में बुनियादी मुद्दों-जरूरी प्रशासनिक मशीनरी की व्यवस्था और भ्रष्टाचार-मुक्त क्रियान्वयन-पर ध्यान केन्द्रित किया गया।
हाल में पुरस्कार के लिये जिलों और राज्यों को चुनने निकली एक समिति की सदस्य के रूप में मुझे 30 से ज्यादा जिलों में मनरेगा परियोजनाओं को जानने-समझने तथा पाँच जिलों में दौरा करने का अवसर मिला। पहली श्रेणी में मिट्टी-गारे के काम शामिल थे। इनमें जलापूर्ति करने वाले चैनलों की साफ-सफाई (उदाहरण के लिये सार्वजनिक रास्तों के साथ-साथ खाई-नालों की खुदाई) तथा तालाबों और जलाशयों की गाद निकालने और उन्हें गहरा करने जैसे काम शामिल थे।
नादिया (प. बंगाल) में खेतों के बीच से एक जल वाहिका की खुदाई कर देने भर से उन खेतों में खेती करने में आसानी हो गई। इससे पहले उन खेतों का उपयोग नहीं हो पाता था क्योंकि वर्षा के दिनों में वे जलप्लावित हो जाते थे। तमिलनाडु के तिरुवल्लुर जिले में मौजूद जल-वाहिकाओं में उग आये झाड़-झंगाड़ और घास को हटा देने भर से जल प्रवाह बेहतर हो गया।
हालिया बाढ़ में कुछेक बाँधों में दरार आ गई थी। गाद हटाने तथा तालाबों और जलाशयों को गहरा किये जाने से आगे चलकर भूजल का स्तर बढ़ने की सम्भावना है, जबकि अभी इनसे मिलने वाले जल से सिंचाई और जल संचयन सुविधाएँ दुरुस्त हो सकेंगी।
जल संवर्धन में भूमिका
बुंदी (राजस्थान), चंबल नदी क्षेत्र में पड़ने वाला जिला, पानी की कमी से जूझ रहे राज्य का जल-प्रचुरता वाला जिला है। वहाँ नहरी-सिंचाई प्रणाली झाड़ियों के कारण चरमरा गई थी। गाद भी सालों से नहीं निकाली गई थी। प्रत्येक वर्ष ऊपरी तथा निचले इलाकों में पड़ने वाले गाँवों में जल सम्बन्धी विवाद छिड़ जाने से पुलिस बल की तैनाती करनी पड़ जाती थी।
मनरेगा का उपयोग नहरों, किसानों को बेहतर जलापूर्ति सुनिश्चित करने तथा जल सम्बन्धी विवादों को कम-से-कम करने के लिये किया जा सका। इसी प्रकार, ग्रामीण सम्पर्क कार्य, जिन्हें बड़े स्तर पर मनरेगा के तहत अंजाम दिया जाता रहा है, के साथ ही सभी के लिये आर्थिक अवसरों में सुधार लाने खासकर बाजारों तक किसानों की पहुँच सुनिश्चित करने, सार्वजनिक परिवहन (जैसे कि साझे के टेम्पो) साधनों की शुरुआत को बेहतर बनाने तथा सरकारी सेवाओं (जैसे कि अस्पताल) तक पहुँच को आसान करने के लिये भी मनरेगा का उपयोग किया जाता है।
सार्वजनिक मार्ग के निर्माण से विवादों का निपटारा अच्छे से होने लगता है। इनमें कमी, खासकर दलितों के लिये बहुत कारगर है।
सुंदरबन में मिट्टी-गारे के कामों की तीन रोचक श्रेणियाँ देखने को मिलीं। पहली, ऐसी रोक या अवरोध बनाए गए जिनसे बाढ़ का पानी और ऊँची लहरें रिहायशी इलाकों में न पहुँचने पाएँ। दूसरी, बाढ़-रोधी कार्य को अंजाम दिया जाना तथा तीसरी, मनरेगा को मैंग्रोव वनों को घना करने के लिये इस्तेमाल किया गया। यह दीर्घकालिक लाभ का कार्य भूक्षरण को कम करने में भी सहायक है।
मैंग्रोव वनों के संरक्षण का एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इससे पर्यावरणीय मुद्दों का भी समाधान किया जा सकता है। ये तमाम उदाहरण ऐसे हैं, जो मिट्टी-गारे से जुड़े हैं, और जिनमें किसी प्रकार की कच्ची सामग्री की जरूरत नहीं पड़ती। मनरेगा के तहत कुल लागत का चालीस प्रतिशत हिस्सा सामग्री की खरीद या व्यवस्था करने पर खर्च किया जा सकता है।
फिश फॉर्म के तालाब (पानी से भरा तालाब) ऐसे कार्य का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है, जिसके लिये सामग्री पर लागत लगानी होती है। कुछ राज्यों (जिनमें छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और त्रिपुरा शामिल हैं) में मछली पालन विभाग के साथ तालमेल बिठा कर मनरेगा तालाबों में मछली के बीज (शीरा) डाले जाते हैं। वहाँ विशुद्ध लाभ (दाने, बीज, पानी और बिजली पर लगने वाली लागत को प्राप्ति से घटाने के बाद) 1.08-3.2 लाख रुपए के बीच रहती है। परियोजना की लागत 70,000 से 2.76 लाख रुपए के बीच रहती है यानी अच्छा-खासा मुनाफा।
वनीकरण को प्रोत्साहन
मनरेगा के तहत चार विभिन्न प्रकार के वनीकरण और पौधरोपण कार्य किये जाते हैं। इनमें सड़कों के किनारों पर, पंचायत या वन विभाग की भूमि पर, सार्वजनिक भवनों के परिसरों और निजी स्वामित्व वाले बागीचों में पेड़ लगाए जाते हैं। प. बंगाल के 24 परगना जिले में अमरूद के एक बगीचे में तीन माह के भीतर 3600-7200 रुपए की प्राप्ति हो सकी।
इस परियोजना पर लागत पन्द्रह हजार रुपए से कम थी। चित्रदुर्ग (कर्नाटक) में मनरेगा का उपयोग सार्वजनिक बोरवेलों का जलस्तर बढ़ाने में किया गया, जो वहाँ पानी का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। हाल में सौ कुओं का अध्ययन किया गया। पता चला कि उनके पूरे होने की दर खासी ऊँची थी और उनसे होने वाला आर्थिक लाभ काफी अच्छा करीब 6 प्रतिशत था। इनके कारण किसानों को कुओं के पास के खेतों में सब्जियों (चावल या मक्का के बजाय) की काश्त करने में आसानी हो जाती है, जो प्रकारान्तर से बेहतर पोषण का कारण बनता है।
मनरेगा ने उर्वर भूमि मुहैया कराकर रचनात्मकता में भी सहयोग दिया है। तमिलनाडु में ठोस कचरा प्रबन्धन के एक उल्लेखनीय प्रयोग पर काम चल रहा है। वर्ष 2000 में अर्द्ध-शहरी पंचायतों में मनरेगा कामगारों का इस्तेमाल घरों से छँटे हुए कचरे को तिपहिया वाहनों की मदद से एकत्रित करने में किया गया।
एकत्रित कचरे को एक यार्ड में लाया जाता है, जहाँ बायो-डिग्रेडिबल कचरे को सड़ा दिया जाता है, जबकि नॉन-डिग्रेडिबल कचरे को या तो बेच दिया जाता है, या इसके प्लास्टिक होने की सूरत में ग्राम पंचायत इसे किसी स्व-सहायता समूह को एक रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेच देती है, जो बाद में इसे तीस रुपए प्रति किलो के हिसाब से सड़क निर्माण करने वाले ठेकेदारों को बेच देता है, जो इससे सड़कों का निर्माण करते हैं।
पाली (राजस्थान) और बांकुड़ा (प. बंगाल) में मनरेगा कामगारों का इस्तेमाल ईंट निर्माण कार्य में किया जा रहा है। इसके खासे लाभकर आयाम हैं, जैसे कि इन ईटों को मात्र मजदूरी लागत पर ही खरीदा जा सकता है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि मनरेगा के जरिए सामग्री-सघन कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। ये तमाम उदाहरण व्यवहार में आजमाए तो जा रहे हैं, लेकिन ये समूची तस्वीर को नहीं उभारते।
मनरेगा परियोजनाएँ काफी संख्या में नाकाम भी हुई हैं क्योंकि सड़क बनाने में पहले से जरूरी एहतियात नहीं बरती गई या तालाब की खुदाई करते समय उसकी अवस्थिति का ध्यान नहीं रखा गया। उसे किसी ढलान के ऊपरी हिस्से में खोद दिया गया। दुख की बात यह है कि मनरेगा कार्य के विश्लेषण के लिये लागत-लाभ पर ध्यान केन्द्रित करने वाला कोई बड़े स्तर का अध्ययन नहीं किया जा सका है।
यहाँ जिन सकारात्मक अनुभवों को साझा किया गया है, उनसे मनरेगा के जरिए किये जा सकने वाले उपयोगी कार्य-सामग्री के साथ या सामग्री के बिना-की सम्भावनाओं का पता चलता है। खासकर उन स्थितियों में जब श्रम को अच्छी तकनीकी सहयोग मिले तो मनरेगा की उपयोगिता निर्विवाद है।
योजना के तहत
1. मनरेगा के तहत तालाब खोदे गए, जिनमें पानी का संग्रह किया जा सका। इसका उपयोग पीने से लेकर खेती तक किया गया
2. मनरेगा का उपयोग नहरों, किसानों को बेहतर जलापूर्ति सुनिश्चित करने तथा जल सम्बन्धी विवादों को कम-से-कम करने के लिये किया जा सका। साथ ही इसने उर्वर भूमि मुहैया कराकर रचनात्मकता में भी सहयोग दिया है
3. ग्रामीण सम्पर्क कार्य, के साथ ही आर्थिक अवसरों में सुधार लाने खासकर बाजारों तक किसानों की पहुँच सुनिश्चित करना भी मकसद है
लेखिका, आईआईटी, नई दिल्ली में अर्थशास्त्री हैं।
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Post By: RuralWater