देख रहा हूं गंगा

देख रहा हूँ गंगा के उस पार धूल की
धारा बहती चली जा रही है, चढ़-चढ़कर
वायु-तरंगो पर, अपने बल से बढ़-चढ़कर
धूसर करती हुई क्षितिज को, वृक्ष-मूल की
शोभा हरित सस्य की निखरी,विषम कूल की
अखिल शून्यता हरती है छवि से मढ़-मढ़कर
मानव-आकृतियाँ निःस्वन गति से पढ़-पढ़कर
जीवन-मंत्र कहानी देतीं शूल-फूल की।

मैं इस पार नहीं हूँ, आँखें उसी पार को
दौड़-दौड़ जाती हैं, लहर-लहर से होकर
तट की सतत वक्र रेखाओं का अनुधावन
करती हुई, धूल-धारा को, कृषि उभार को,
पुनः क्षितिज की वृक्षशीर्षरेखा को, टोकर
नील व्योम में करती हैं अनुभव-संभावन।

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