डायमंड हार्बर- गुलामी की बदलती तस्वीर


एक समय था जब बंगाल का डायमंड हार्बर, ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रमुख ठिकाना हुआ करता था। अंग्रेजों ने बंगाल लूट को बाहर ले जाने के लिये यहाँ एक विशाल जेट्टी यानी बंदरगाह का निर्माण किया था। यहाँ के बाशिंदे जो मूलत बंगाली मछुआरे थे, धीरे–धीरे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कामगार बन गए।

वे स्वदेश का लूटा माल जहाजों पर चढ़ाते और ब्रिटेन से आये समानों को उतारते, यहाँ तक की मछली पकड़ने का डॉक (ठेका) भी कम्पनी सरकार के पास ही रहता। चिनग्रिखाली दुर्ग में रखी तोपें बताती है कि क्रान्तिकारी और बाहरी लुटेरों से माल की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता थी। कुल मिलाकर 17वीं और 18वीं सदी में स्वतंत्र मछुआरों का ये सुन्दरबन गुलामों के टापू में बदल गया। म्यांमार के लूटेरों से भी यह इलाका त्रस्त रहा और गिरमिटियाओं की सौदेबाजी भी बड़े पैमाने पर होती रही।

वक्त बदला लेकिन गंगा के अन्तिम किनारे पर बसे मछुआरों की किस्मत में कुछ खास बदलाव नहीं आया। आज का डायमंड हार्बर विकास की दौड़ में पिछड़ा एक कस्बा है जहाँ ईस्ट इण्डिया के हुक्मरानों के बड़े–बड़े फार्महाउस अपने नए मालिकों की छाया में खड़े रहने की कोशिश करते नजर आते हैं। पान, धान और माछ के अलावा सप्ताहान्त होने वाले पर्यटन से लोगों की जीविका चलती है।

कोलकाता से मात्र 45 किलोमीटर दक्षिण में होने के कारण स्थानीय पर्यटक यहाँ आते है, क्योंकि यहीं उन्हें नजर आती है गंगा के सामुद्रिक रूप की पहली झलक। हुगली बनकर बह रही गंगा एकाएक विशाल रूप ले लेती है, ज्वार भाटा नदी के जीवन को प्रभावित करने लगता है और गंगा एक खारे पानी की नदी बन जाती है।

डायमंड हार्बर के आसपास करीब डेढ़ हजार गाँव हैं इन गाँवों में ज्यादातर गरीब किसान और मछुआरे रहते हैं। गंगा पर निर्भर किसान सिंचाई के लिये तरसते हैं क्योंकि गंगा का पानी खारा है और लगातार इसका खारापन बढ़ता जा रहा है, खारे पानी के चलते यहाँ धान की उत्पादकता तेजी से गिरी है। सबसे ज्यादा दयनीय हालात में मछुआरे हैं। वे फिशिंग के लिये समुद्र जाने वाले ट्राले (बड़ी नाव) में काम करते हैं। दो–दो हफ्तों तक परिवार से दूर समुद्र में रहने के बावजूद पर्याप्त मछलियाँ नहीं मिलती।

पकड़ी गई मछलियों में से आधी पर ट्राला मालिक का हक होता है, बाकी आधी 15 सदस्यीय मछुआरों के बीच बाँटी जाती हैं। मंडी में ठीकठाक मछली का रेट डेढ़ सौ से दो सौ रुपए किलो होता है। हिल्सा जैसी मछलियाँ विरले और सीजन पर ही मिलती है। हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार हिल्सा की गिरती उत्पादकता को लेकर चिन्तित है और पाँच सौ ग्राम से छोटी साइज की मछली पकड़ने पर सख्ती से रोक है। वैसे यह रोक व्यावहारिक नहीं है क्योंकि जाल में फँसी हिल्सा को ऊपर खींचने और छाँटकर वापस पानी में फेंकने तक उसकी मौत हो जाती है।

पीक सीजन में भी आम मछुआरे को तीन–चार हजार रुपए महीने की कमाई होती है साल के बाकी महीने को फाँके की नौबत आ जाती है। ट्राला मालिकों के रूप में नए ठेकेदारों का भी मछुआरों की जिन्दगी पर पूरा कब्जा रहता है, क्योंकि मंडी में दलाल से भी उसी का सम्पर्क होता है और वहीं मछलियों के दाम तय करता है। यहीं नहीं मछुआरे का परिवार भी ट्राला पर बन्दोबस्त जैसे दूसरे काम करता है।

जाल बूनती महिलाएँहर चक्कर के बाद क्षतिग्रस्त हुए जाल को मछुआरा महिलाएँ बुनाई कर ठीक करती हैं। जाल बुनना बेहद महीन और मेहनत का काम है और इस काम की मजदूरी है महज 140 रुपए प्रतिदिन। डायमंड हार्बर की मुख्य जेट्टी पर 300 से ज्यादा महिलाएँ जाल बुनने के काम में लगी रहती है उन्होंने सरकारी योजना मत्स्यजीवी का नाम तो सुना है लेकिन सिर्फ नाम ही सुना है।

लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जैसे समुद्र में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है उसी तरह बड़े ट्रालों ने छोटे ट्रालों को बर्बाद कर दिया है, छोटी नाव में अकेले मछली पकड़ने वालों के हालात तो बेहद खराब हैं। एक छोटे ट्राला पर 20 से 25 परिवार निर्भर करते हैं इसके बन्द होने का असर घातक होता है।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बनाई जेट्टी पचासों मरम्मत के बाद नए रूप में खड़ी है उसमें खड़े जहाजों के मस्तूल पर भगवा रंग में रंगा गरूण ध्वज की तरह नजर आता है। एक समय था जब ये मस्तूल गर्व, ताकत, धर्म और आस्था का प्रतीक थे आज मछलियाँ कम होने और गंगा में पानी घटने से मस्तूल भी मछुआरों के कंधों की तरह झुके नजर आते हैं।
 

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Post By: RuralWater
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