दारमा घाटीः नम्छम् कू नलमाँ दमलन नां दीनीं

इन लोगों का दूसरा प्रमुख कार्य खेती करना है, ये प्रायः ऐसी फसलें पैदा करते हैं जो अधिकतम चार माह में उत्पन्न की जा सके। मुख्य फसलों में मक्का, बाजरा, गेंहूँ, जौ, दालें व आलू आदि हैं, आलू इनकी मुद्रादायिनी फसल है, इनके खेत पहाड़ी ढालों पर छोटे-छोटे तथा सीढ़ीनुमा होते हैं, जिनमें पुराने ढँग के उपकरणों से खेती की जाती है, कटाई कार्य प्रायः स्त्रियाँ करती हैं।वर्षा और बर्फीली हवाओं के साथ-साथ बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। चारों ओर घनघोर बादलों एवं कोहरे के साथ आधे से एक फीट तक जमीन बर्फ से ढँकी थी। परन्तु गद्दी लोग भेड़-बकरियों को प्रकृति के खुले आँगन में यूँ ही छोड़कर इधर गाँव में मस्त थे, दो दिन तक लगातार बर्फ और वर्षा जारी रही। इस पूरे समय ज्यादातर गद्दी लोग गाँव में खा-पीकर मस्त थे, भेड़-बकरियों का अता-पता ही नहीं, कहाँ-कहाँ पहुँच जातीं। कुछ गाँव पहुँचती तो कुछ खेतों से दूर जंगलों में, झाड़ियों में और जहाँ कहीं पेड़-पौधों की ओट होती, इस वर्षा और बर्फदारी में न जाने कितनी भेड़-बकरियों और इस गद्दियों की हालत खराब थी। इनकी आवश्यकता से अधिक पियक्कड़ी के कारण सारे गाँव के लोग परेशान थे। कुछ इन लोगों के डर से इधर भागते तो कभी उधर मकान में घुस जाते, लेकिन बकरियों की देखभाल करने कोई नही आता। जिन परिवारों ने इन गद्दियों को अपनी बकरियाँ पालने दी थीं, वह तो और भी परेशानी में थे, क्योंकि इन गद्दियों का खाना पीना एवं उठना-बैठना कई दिनों तक इन्हीं लोगों के घरों में होता था। गाँव की बकरियाँ तो गोठ के अन्दर थीं, लेकिन गद्दियों की भेड़-बकरियाँ खुले मैदानों में और पेड-पौधों की ओट में होती थीं।

इन दिनों सीपू गाँव में गद्दियों के दो गोल (जत्थे) थे और दो-तीन जत्थे दुग्तू से आगे चले गए थे, जहाँ उन्हें बर्फ से तो कोई हानि नहीं हुई, लेकिन बरसात से काफी परेशानी उठानी पड़ी। वहाँ कुछ गर्मी थी। लेकिन गद्दियों के हाल हर जगह एक से ही रहते हैं। बर्फबारी के बाद एक-दो दिन मौसम साफ रहा, लेकिन इन गद्दियों को खाने-पीने से ही फुर्सत नहीं थी। सीपू में ही इन्होंने चालीस-पचास बकरियाँ खा-पीकर बराबर कर दीं। जिस दिन ये लोग सीपू से निकले उस दिन यकायक मौसम खराब हो गया और उन्हें मार्च्छा में ही पड़ाव डालना पड़ा। सीपू गाँव वालो ने भेड़-बकरियाँ पंचायत व स्कूल भवन में रखवा दी थीं, क्योंकि इनके गोठों में पानी भर गया था और गाय-भैंस भी गोठों में थीं।

गद्दियों के साथ स्थानीय गाँव के परिवारों के एक-दो सदस्य भी आगे तक गये। वह भी हल्के नशे में थे, उनके भेड़ भी इनके साथ थे, वे इन हालातों को देखते रह गये, वे स्वयं चारागाह में भेड़-बकरियाँ चराने जा नहीं सकते थे, क्योंकि उनके बच्चे स्कूल पढ़ने वाले थे और अपने इस पुश्तैनी धंधे को वे पहले ही छोड़ चुके थे। आसमान में घनघोर बादल छाये हुए थे, और जमीन में चारों ओर बर्फ ही बर्फ फैली थी, सीपू धार में से उतरते समय सभी लोग फिसलते-घिसटते हुए उतर रहे थे। लच्चर नदी को पार करने के बाद गद्दियों ने अपनी बकरियों को गिनना प्रारम्भ कर दिया। जितनी भेड़ें जून माह में चारागाह के लिए लाये थे उनमें से 200 बकरियाँ कम थीं, ज्यों ही हल्की-हल्की वर्षा शुरू हुई, गद्दियों ने अपने को गर्म रखने के लिए पीना शुरू किया। लेकिन जो एक बार शुरू हुए तो अलमस्त होकर के इधर-उधर धक्के खाने लगे।

ये गद्दी पिथौरागढ़ से ही शराबखोरी और तड़क-भड़क में लिप्त हो जाते हैं और इस शराबखोरी के कारण कितनी ही बकरियाँ बूचड़खाने को भेंट हो जाती हैं। सीमांचल के दूरस्थ इलाकों, तक यही क्रम चलता रहता है, आने-जाने के सम्पर्क गाँवों के साथ-साथ निकट बुग्यालों में माना तीस परिवार भी हों और एक परिवार का एक आदमी भी इस बीच दस बोतल दारू पी लेता है तो एक-एक गद्दी को एक गाँव में तीन हजार रूपये की बलि चढ़ानी पड़ती है। इसके बदले में उनको ऊन या बकरियाँ देनी पड़ती हैं। इस लिए गद्दी परिवारों की परिस्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। साथ ही आज के बदलते सामाजिक ढाँचे, पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रवासियों के खाद्य, जलवायु में भी असंतुलन होता जा रहा है, अपनी वास्तविक परम्पराओं से हटकर आज की परिस्थितियों से तादात्म्य स्थापित न कर पाने के कारण मात्र नशे पर निर्भर रहने लगे हैं, सितम्बर की भारी वर्षा, अक्टूबर माह की बर्फ व बर्फीली हवायें और नयी जगहों में होने के कारण इन गद्दियों का एक ही सहारा होता है, दारू पी के मस्त रहना।

अक्टूबर के दूसरे हफ्ते से तेज बर्फ पड़नी शुरू हुई। यह बर्फ ज्यादातर दस हजार से विशेषकर दुग्तू से ऊपर पड़ी, बालिग से नीचे बारिश हुई जिससे पूरा क्षेत्र प्रभावित रहा। यह बर्फबारी तीन-चार दिन तक जारी रही। सीपू और मार्छा में तीन-तीन फीट तक बर्फ गिरी, इस बर्फ ने गद्दियों की भेड-बकरियाँ मार्छा गाँव के खेतों, हिमालयी काँटेदार पौधों, स्यूपलों, किड़गूलों, गूछ्छै, देवदार (सिसिंग) और मकानों के आस-पास पड़ी रही। इस भंयकर बर्फ में 20-30 छोटी बड़ी बकरियाँ दब गयीं, लेकिन गद्दी लोग दारू पीने में मस्त रहे। भेड़-बकरियों की किसी ने परवाह नहीं की। गाँव वाले उच्च क्षेत्रों में ठंड से बचने के लिए अनाज की बनी भर्ती (शराब), गुड़ की बनी च्यक्ती (शराब) का प्रयोग करते हैं। इस बीच यह शराब जो दस रूपये बोतल थी, गद्दियों को चालीस और साठ रूपये में भी मिलनी मुश्किल हो गई। चार दिन बाद मौसम कुछ साफ हुआ। गाँव के कहीं भेड़-बकरियों के कटे सिर मिलते तो कहीं उनकी टाँगे और कहीं छोटी मरी हुयी बकरियाँ, कुत्तों के लिए तो जैसे जश्न ही हो गया। गाँव के लोग कभी शराब में अलमस्त पड़े गद्दियों को देखते तो कभी खेतों में पड़ी भेड़-बकरियों की लाशें।

गद्दी लोग अप्रैल से जून तक ऊँचे पर्वतीय भागों की ओर बढ़ते हैं। जून से सितम्बर तक ये लोग ऊँचे क्षेत्रों रलाहुल, स्फीति, पंगी में रूकते हैं तथा जैसे ही हिमपात आरम्भ हो जाता है ये नीचे उतरने लगते हैं तथा नवम्बर तक अपनी शीतकालीन बस्तियों में पहुँच जाते हैं, यहाँ दिसम्बर से मार्च तक रूकते हैं इस प्रकार ये लोग एक स्थान पर चार माह से अधिक नहीं रूक पाते हैं।विश्व की जनजातियों की जीवन प्रणालियों की तरह भारत के आदिवासियों का जीवन भौगोलिक परिस्थितियों में साम्यता रखता है। डा. बी. एस. गुहा के अनुसार इनका भौगोलिक वितरण तीन प्रकार का है- उत्तर पूर्वी भाग, केन्द्रीय क्षेत्र और दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र में नर्मदा और गोदावरी के मध्यवर्ती पर्वतीय प्रदेश में सबसे अधिक आदिवासी रहते हैं। दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में कृष्णा नदी के दक्षिण में 16 डिग्री उत्तरी अक्षांश के नीचे वाले भागों में विस्तृत हैं। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में हिमालय की तराई भावर और असम के पर्वतीय प्रदेशों में ही इस भाग के अधिकांश निवासी रहते हैं।

इसके अतिरिक्त भी कहीं-कहीं आदिवासी रहते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में तथा हिमांचल प्रदेश में खासा गद्दी आदि अनेक जातियाँ रहती हैं। इन क्षेत्रों में अंडमान निकोबार के नाग विशेषकर उल्लेखनीय हैं। यहाँ हिमांचल प्रदेश के गद्दी का ही सामान्य परिचय दिया जा रहा है।

उत्तरी भारत का पर्वतीय खण्ड अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध है और इसमें भी हिमाचल प्रदेश विशेषतः उल्लेखनीय है। ‘गद्दी’ जनजाति भारत के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाती है। मुख्य रूप से इन लोगों के निवास क्षेत्र में लघु एवं शिवालिक हिमालयल पर धौलाघर, पीरपंजाल, काँगड़ा, नूरपुर तथा पालपुर तहसीलें एवं जम्मू कश्मीर राज्य के कथुआ जिले की कुछ तहसीलें आती हैं। ये लोग पर्वतीय क्षेत्रों में प्रायः 1200 से 7500 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं।

इनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि मूल रूप से ये लोग मैदानों के निवासी थे, किन्तु मुसलमान लोगों के क्रूर व्यवहार से तंग आकर ये धीरे-धीरे सुरक्षा हेतु पर्वतों पर स्थानान्तरित होते गये। ये लोग अन्य पर्वतीय जन जातियों की अपेक्षा अपने को अधिक उच्च स्तर का मानते हैं।

‘गद्दी’ का प्रमुख पेशा भेड़पालन एवं पशुपालन है, अरब देश के ‘बददू’ के तरह ये लोग भी अपने पशुओं भेड़, बकरी व ऊँटों को लिए घूमते रहते हैं, डा. कायस्था के अनुसार ‘गद्दी’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है, जिसका अर्थ ‘चरवाहे’ से होता है, वस्तुतः इनका मुख्य व्यवसाय पशुचारण ही है। अतः यह तथ्य काफी सार्थक प्रतीत होता है, कुछ विद्वान गद्दी व्युत्पत्ति अल्पाइन शब्द ‘गहर’ से बताते हैं, इनकी त्वचा का रंग गोरा, बदन शक्तिशाली एवं गठा हुआ, अपेक्षाकृत लम्बे होते हैं। इनकी शारीरिक बनावट पर पर्वतीय वातावरण का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

भौगोलिक दृष्टि से यह सम्पूर्ण क्षेत्र पर्वतीय एवं अधिकतर कटा-फटा है, जिसमें अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ, झरने स्रोत तथा झीले आदि हैं, जलवायु की दृष्टि से उच्च पर्वतीय भागों में उप ध्रुवीय तथा घाटियों की उपत्यका में शुष्क जलवायु मिलती है। धौलाधर श्रेणी के दक्षिणी ढाल पर प्रायः 200 सेमी. तथा उत्तरी ढाल पर 500 सेमी. से अधिक वर्षा होती है। सितम्बर के मध्य से उच्च पर्वतीय भागों में हिमपात आरम्भ हो जाता है तथा जनवरी के अन्त तक प्रायः सभी ऊँचाई वाले क्षेत्र हिमाच्छादित हो जाते हैं। रावी नदी की ऊपरी घाटी में हिमपात की अधिक मात्रा के कारण ये लोग अपनी बस्तियों को छोड़कर नीचे उतर आते हैं। यहाँ ये लोग अप्रैल तक रहते हैं।

वनस्पति की दृष्टि से यहाँ मुख्यतः शीशम, चीड़, साल, देवदार, रनीमस तुन, स्प्रुस, ओक, सिल्वरफर आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। सामान्यतः ऊँचे पर्वतीय भागों पर ग्रीष्मकाल में बर्फ पिघल जाने के कारण मुलायम घास पैदा होती है, प्रायः 5000 मीटर से अधिक ऊँचे भाग सदैव हिमाच्छादित रहते हैं। वस्तुतः ये मौसमी पशुचारण अपनाते हैं, पशुचारण के अतिरिक्त इनका दूसरा कार्य कृषि है। ‘गद्दी’ लोगों की स्त्रियाँ उत्तम किस्म के ऊनी कम्बल बुनने में बड़ी प्रवीण होती हैं। इसके अतिरिक्त ये जंगलों से शहद इत्यादि भी प्राप्त करते हैं, पशुचारण इन लोगों की आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार है। प्रत्येक परिवार के साथ कुछ पालतू कुत्ते होते हैं जो कि एक विश्वसनीय चौकीदार का काम करते हैं।

गद्दी लोग अप्रैल से जून तक ऊँचे पर्वतीय भागों की ओर बढ़ते हैं। जून से सितम्बर तक ये लोग ऊँचे क्षेत्रों रलाहुल, स्फीति, पंगी में रूकते हैं तथा जैसे ही हिमपात आरम्भ हो जाता है ये नीचे उतरने लगते हैं तथा नवम्बर तक अपनी शीतकालीन बस्तियों में पहुँच जाते हैं, यहाँ दिसम्बर से मार्च तक रूकते हैं इस प्रकार ये लोग एक स्थान पर चार माह से अधिक नहीं रूक पाते हैं।

इन लोगों का दूसरा प्रमुख कार्य खेती करना है, ये प्रायः ऐसी फसलें पैदा करते हैं जो अधिकतम चार माह में उत्पन्न की जा सके। मुख्य फसलों में मक्का, बाजरा, गेंहूँ, जौ, दालें व आलू आदि हैं, आलू इनकी मुद्रादायिनी फसल है, इनके खेत पहाड़ी ढालों पर छोटे-छोटे तथा सीढ़ीनुमा होते हैं, जिनमें पुराने ढँग के उपकरणों से खेती की जाती है, कटाई कार्य प्रायः स्त्रियाँ करती हैं।

प्रायः भेड़ बकरी से दूध-दही प्राप्त किया जाता है तथा उत्सवों एवं त्यौहारों पर इनका माँस भी खाया जाता है। इसके अतिरिक्त मक्का, बाजरा, गेहूँ, चावल, दालें, मकई व आलू इनका मुख्य भोजन है। ये लोग जौ, जई तथा वनस्पतियों की जड़ों से एक विशेष प्रकार की शराब बनाते हैं, जिसे ये ‘लुक्रि’ कहते हैं, इस शराब का उपयोग पेय के रूप में किया जाता है, ये लोग प्रायः भेड़ की ऊन से अपने वस्त्रों का निर्माण करते हैं, पुरूष प्रायः (ऊनीदार) ढीले-ढाले कुर्ते पहनते हैं तथा कमर में ऊनी रस्सी या कपड़ा बाँधते हैं। भेड़-बकरियों की खाल से शीत बचाने के लिए टोपी, जूते तथा चमड़े के थैले बनाये जाते हैं। टोपी प्रायः नुकीली होती है जिसे खींचकर कानों तक लाया जा सकता है।

इनके ढीले-ढाले कुर्ते के भीतर बड़े-बड़े पाकिट होते हैं। जिनमें खाद्य सामग्री, हथियार तथा कभी-कभी नवजात भेड़ के बच्चों को भी रख लिया जाता है। कुछ लोग सिर में ऊँची पगड़ी बाँधते हैं, इनमें कानों में सोने की मोटी बालियाँ पहिनने का भी रिवाज है, स्त्रियाँ प्रायः एक लम्बा ऊनी गाउन पहिनती हैं, जिसे ‘चोलू’ कहते हैं। सिर ढँकने के लिए चादर का उपयोग करती हैं, गले में अनेक रंग-बिरंगे मोतियों की मालायें होती हैं तथा बालों में फूल लगाने का भी रिवाज है।

मकान का निर्माण स्थानीय सामग्री अर्थात पत्थर, लकड़ी व घास फूस से होता है, इनके मकान प्रायः दो और तीन मंजिल ऊँचे होते हैं। निचली मंजिल का उपयोग भेड़-बकरियों को रखने तथा कृषि व अन्य उपकरणों के रख-रखाव के लिए किया जाता है। मकान का दरवाजा सूर्य से धूप प्राप्त हो पाने को ध्यान में रख कर बनाया जाता है। प्रायः प्रत्येक मकान के सामने एक छोटा सा आँगन होता है। इस आँगन का उपयोग खलियान आदि के लिए किया जाता है। मकानों में दरवाजों की संख्या कम होती है तथा खिड़कियाँ एवं रोशनदान प्रायः नहीं होते हैं। मकानों की छत सामान्यतः नीची होती है, प्रत्येक मकान में बरामदा भी होता है।

इन लोगों में सामाजिक व्यवस्था विकसित अवस्था में मिलती है। इनमें हिन्दुओं के समान अनेक जातियाँ जैसे ब्राह्मण, क्षत्री, ठाकुर आदि होते हैं। इनके परिवार में एक धर्मोपदेशक होता है, जिसका परिवार में बड़ा सम्मान होता है, भूत-प्रेतों में इनका विश्वास होता है। इनके अनेक देवता होते हैं। जिन्हें सन्तुष्ट करने के लिए अनेक कर्मकाण्ड करते हैं। प्रकृति को प्रमुख दैवी शक्ति मानते हैं। दुर्गा, काली पहाड़ियाँ, सिद्ध दियोट तथा विविध पीरादि की आराधना करते हैं।

समाज में स्त्रियों का स्थान ऊँचा होता है। विवाह एक पवित्र कार्य माना जाता है। स्त्रियों की एक से अधिक विवाह करने की अनुमति नहीं होती किन्तु पुरूष बहुविवाह कर सकते हैं। विवाह प्रायः युवावस्था में किया जाता है तथा लड़के लड़की से सहमति लेना आवश्यक होता है।

इस प्रकार विश्व के तमाम आदिवासी समाजों की तरह पर्वतीय वातावरण की कठोर भौगोलिक परिस्थितियों में गद्दी लोगों का जीवन पर्णतः वातावरण से समायोजित मिलता है।

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