बचपन तो बचपन ही होता है चाहे वह किसी भी परिवेश में बीता हो। बचपन की यादों की बारात भी लम्बी होती है। सरयू और रामगंगा के मध्य में बसे गंगावली क्षेत्र यानी परगना गंगोलीहाट में पट्टी बेल के 105 और भेरंग के 95 गाँव शामिल हुआ करते थे। वर्तमान गंगोलीहाट बाजार को तब जान्धवी (अपभ्रंश में जान्धबि) कहा जाता था। जान्धवी नौले का जल गंगा के समान पवित्र और निर्मल माना जाता था। कहते हैं कि श्वीलधुरा के शीर्ष से पर्वत के गर्भ में बहने वाली गुप्त गंगा का जल इस नौले में आता है। इस नौले का वास्तुकला और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्व है। बुजुर्ग कहा करते थे कि इस नौले को एक रात में बनाया गया। इसमें बात-बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं। लेकिन एक बात जो तब समझ में नहीं आती थी, कि यदि श्वीलधुरा को बाँजवृक्ष विहीन कर दिया गया तो यह नौला ही नहीं, क्षेत्र के सभी जल-स्रोत सूख जायेंगे।
जब मणकोटी राजा यहाँ शासन करते होंगे और उस स्थान पर जहाँ राजमहल रहा होगा तो लगता ही नहीं कि कुछ ऐसा भी रहा होगा। मणिकेश्वर मन्दिर की खंडित मूर्तियों को टटोलते-टटोलते उन टीलों की ओर निहारकर उनके गर्भ में छिपे किसी राजप्रासाद और खजाने की कल्पना करता रहा हूँ और भय भी खाता हूँ कि खजाने का पहरा कर रहा मणि वाला नाग वहाँ बैठा होगा। मणिकोट के चारों ओर खंडित मूर्तियाँ आज भी बहुत कुछ कह जाती हैं। यहाँ से गंगोलीहाट बाजार तक सीधी चढ़ाई वाले मार्ग को राजै धार (राजा की धार) कहा जाता था। वहाँ से सीधे मणकनाली तक (जहाँ रानी का निवास था) का मार्ग, इतिहास की बातें रह गई हैं। राजा की धार के मध्य में मुगरूँ का जल-स्रोत भी किंवदन्तियों का हिस्सा है। ऊपर हाथी गौन (हाथी के आने-जाने का मार्ग), मणिकेश्वर के नीचे कचहरी का खेत आदि कुछ अवशेष मात्र हैं। ये इतिहास की बातें नहीं, मेरी जिज्ञासाओं और खेल-खेल में अपने साथियों के साथ बुजुर्गों से सुने कहानी-किस्सों को बालमन से टटोले जाने की हैं।
राजमहल के निकट ही जहाँ नौबत बजाने वालों को बसाया गया था, वहीं चारण-भाटों को भी। अस्त्र-शस्त्र तथा खेती में काम आने वाले औजारों को बनाने के लिये लोहारों को बसाया गया तो साथ ही स्वर्णकारों को भी बसाया गया। व्यावसायिक दृष्टि से शासन को मजबूत रखने के लिये शाह और चौधरी बसाये गये। भंडार की रक्षा के लिये भंडारी, कर्मकांडों के अलावा वैद्यकी, ज्योतिषकार्य, सलाह व मंत्रित्व आदि के लिये पंडितों व राज्य रक्षार्थ राजपूतों के अतिरिक्त राज-मिस्त्रियों, कपड़ा बुनकरों से लेकर छोटे-मोटे कामों मसलन पत्ते लाने वाले पतारों, चर्मकारों, नाइयों, मिरासियों आदि को इस तरह नियोजित ढंग से बसाया गया था जिसकी कोई मिसाल नहीं है। इन जातियों, उपजातियों का ऐसा जटिल ताना-बना था कि एक-दूसरे के बिना सामाजिक व्यवस्था चल ही नहीं सकती थी। वह समय अदला-बदली यानी वस्तु विनिमय का था जो मेरे बचपन के दिनों तक भी जीवित था।
वर्तमान गंगोलीहाट बाजार के आस-पास कहीं ऐसी हाट की व्यवस्था रही होगी। कहाँ होगी, कह पाना कठिन है। जब हम गलत-सही, उलट-पुलट इतिहास और बुजुर्गों द्वारा बताये गये वृत्तान्तों पर जाते हैं तो यहाँ इतिहास के कई अनजान पन्ने दफन पड़े दिखाई देते हैं। मसलन गंगोलीहाट बाजार के निकट जहाँ आजकल लोक निर्माण विभाग का अतिथि गृह है, वह बमलकोट के नाम से जाना जाता है। जाहिर है कि राजाओं के जमाने में इस स्थान पर कोई कोट रहा हो। वन रावतों की बस्तियों के निशान और उनके सम्बन्ध में प्रचलित कई कहानियाँ बालमन में उत्सुकता जगाती रहती थीं और हम उनके उड्यारों, ऊखलों की तलाश में फिरते रहते थे- जानवरों और उनके ग्वालों को साथ लेकर। एक ओर द्यारीधुरा और दूसरी ओर श्वीलधुरा और इस प्राकृतिक किले को अभेद्य बनाये रखने के लिये श्वीलधुरा के मध्य में बने दर्रे पर अगल घर (अर्गला)। द्यारीधुरा के बीच में नागवंशियों की कहानियाँ कहता नाग देवता का थान, जहाँ नागपंचमी को मेला लगा करता था।
नवदुर्गाओं की समस्त शक्तिपीठ यहाँ हैं। महाकाली, चामुंडा, चण्डिका, अम्बिका, वैष्णवी देवी, शीतला देवी तथा त्रिपुरा देवी। शिवालयों की बात करें तो लगेगा कि शक्तिपीठों का अस्तित्व ही इन शिवालयों के बिना अधूरा है। महाकाली मन्दिर से लगभग 1 किमी नीचे देवदारु के जंगल में मुक्तेश्वर की विशाल व खुली गुफा, पानी का कुंड, कुंड के ऊपर पहरेदारी में डैने फैलाकर वज्रप्रहार के बाद गर्दन टेढ़ी हो जाने पर भी बैठा गरुड़। महाशिवरात्रि को यहाँ मेला लगा करता था। दुकानें सजती थीं। ब्राह्मण रुद्री का पाठ करते थे। श्वीलधुरा के शीर्ष से पर्वत के गर्भ में बहने वाली गुप्तगंगा और कुछ ही दूर पर शैलेश्वर की गुफा। पचास फुट गहरे उतरने के बाद अंधेरी गुफा में प्रकाश फैलाता दो फीट ऊँचा और तकरीबन चार फीट गोलाई का स्वच्छ, सफेद, धवल शिवलिंग। गुफा की छत और जमीन पर कई स्थानों पर लम्बी और आपस में गुंथी मूली की जड़ों की तरह आकृतियाँ और इन आकृतियों से वहाँ के अन्धकार में फैला प्रकाश।
इस स्थान से कुछ ही दूर आदित्य यानी सूर्यदेव का पुराना मन्दिर। बाजार से उत्तर की ओर राजा राम के पूर्वज ऋतुपर्ण से लेकर वर्तमान में व्यवसाय और कुछ लोगों की धूर्तता के जाल में आये पाताल-भुवनेश्वर की गुफा। महाकाली उग्रपीठ के सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ प्रचलित हैं। शंकराचार्य ने श्रीयंत्र की स्थापनाकर उग्रपीठ को कीलित किया। जान्धवी नौले के पास बने मन्दिर समूहों को कत्यूरियों द्वारा बनाया माना जाता है। पुरातत्व विभाग का बोर्ड और खंडहर होते मन्दिर भी जिज्ञासा थे।
सौ-डेढ़ सौ साल पहले जंगम बाबा नामक एक तपस्वी ने अपना अखाड़ा यहाँ बनाया था। उनकी समाधि अभी भी विद्यमान है। उन्होंने ही महाकाली मन्दिर का निर्माण करवाया, लोगों में पठन-पाठन की चेतना जागृत की तथा संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। बाद में इसे मदनमोहन मालवीय संस्कृत विद्यालय के नाम से जाना जाने लगा। आचार्य पूर्णानन्द कोठारी संस्कृत की शिक्षा का संचालन करते थे। वे चाहते थे कि लोग पुरानी परम्पराओं को समझें-सीखें, लेकिन समय परिवर्तन के साथ संस्कृत में किसी की रुचि नहीं रही। शास्त्री जी अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक यहाँ आकर बैठते थे। धर्मशाला में जंगम बाबा के सेवादार के रूप में लालबाजी नामक सन्यासी और एक वृद्ध माई भी रहती थी।
गंगोलीहाट बाजार में जिला बोर्ड का एक प्राइमरी स्कूल और दशाईंथल में मिडिल स्कूल था। बाद में महाकाली मन्दिर के पास धर्मशाला में हाईस्कूल खोला गया। धर्मशाले के बगल में काठ के तीन बड़े-बड़े हॉल कक्षाओं के लिये बनाये गये थे। बरसात के दिनों में अधिकतर छुट्टी करनी पड़ती थी या छाता लगाकर पढ़ाई होती थी। छाता लगाकर परीक्षा देने वालों का विद्यालय शायद यही रहा होगा। जाड़ों में बाहर देवदार के पेड़ों के नीचे हरी घास में कक्षाएँ लगा करती थीं। तब गुरु का स्थान सर्वोच्च था। भैरवदत्त पाठक जी जैसे समर्पित अध्यापक यहाँ थे।
कुंजी, गैस पेपर तथा फाउंटेनपेन जैसी चीजें रखना अपराध की श्रेणी में आता था। वर्तमान भवन बनाने में पाठक जी ने स्वयं पत्थर ढोये थे। ऐसे में छात्र पीछे कहाँ रह पाते। विद्यालय निर्धारित समय से एक घंटा पहले तथा एक घंटा बाद तक चलता। यह सब अतिरिक्त पाठन निःशुल्क हुआ करता था। इस विद्यालय के विस्तृत इतिहास की बात सपने सी लगती है। महाभारत जैसे नाटकों की तैयारी में गुरुजनों की अति निकटता और साप्ताहिक गोष्ठियों का आयोजन कम-से-कम मुझमें लेखन की अभिरुचि पैदा कर गया। गंगोलीहाट-दशाईंथल का पुराना पैदल मार्ग और इसमें हाट गाँव के पास बयालपाटा का बहुत बड़ा लम्बा खेत। पहले यहाँ पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को विद्यालयों के खेलकूद के आयोजन हुआ करते थे। बुजुर्गों की बात सच मानी जाय तो इस मार्ग में देवी के आँण-बाँण चला करते थे और महाकाली का डोला ब्रह्ममुहूर्त में निकला करता था। सच न भी मानें तो क्या है। किस्से तो किस्से ही हुआ करते हैं और सच में कहा जाय तो तत्कालीन स्थितियों में इस हरे-भरे मैदान में महाकाली का डोला निकलने वाली बात मन को छू जाने वाली तो है ही।
जान्धवी नौले के पास वाले मन्दिरों के बीच से निकलने वाले मार्ग पर धनसिंह-बिशनसिंह की एकमात्र दुकान हुआ करती थी। बाद में उदयसिंह रावल और उनके लड़के बचीसिंह, मगनसिंह की दुकान थी। लाला जयलाल साह यहाँ के जाने माने व्यक्ति थे। उनके बड़े पुत्र रायसाहब पूरनलाल साह अवैतनिक रिक्रूटिंग ऑफिसर थे। उनके दो बंगलों में कुछ दुकानें, चाय की एजेंसी, पोस्ट ऑफिस आदि हुआ करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यहाँ पोस्ट ऑफिस खुला। तब जयलाल साह उसके पैट्रन हुआ करते थे और मेरे पिता राधाबल्लभ उप्रेती, जो युद्ध की विभीषिका को झेलते हुए बर्मा से घर लौटकर आये थे, पोस्ट ऑफिस का कार्यभार सम्भालते थे। उन दिनों इस इलाके के अंग्रेजी जानने वाले वे (मेरे पिता) सम्भवतः एकमात्र व्यक्ति थे। अंग्रेजी में लिखा कोई पत्र पढ़ना-लिखना हो तो इसकी जिम्मेदारी पिताजी पर ही थी।
इलाके के अधिकांश युवक फौज में थे। युद्ध से भयभीत दूर-दूर से इलाके की बूढ़ी महिलायें महाकाली मन्दिर में मनौती मनाकर आतीं और लेटर बॉक्स के सामने हाथ जोड़कर अपने पुत्र की कुशल जल्दी लाने के लिये सिर झुकाकर गिड़गिड़ातीं। किसी किस्म का टेलीग्राम हो या फौत (मृत्यु) हो जाने की सूचना या पेंशन की लिखा-पढ़ी, यह भी पिताजी का ही काम था। परोपकार का यह काम था बहुत दुष्कर। किसी के कलेजे के टुकड़े के फौत हो जाने का समाचार उसकी माँ को बताना आसान काम नहीं था। आजादी के बाद जब कई पोस्ट ऑफिस खुल गये और व्यवस्था में परिवर्तन आने के साथ उनका स्थानान्तरण कर दिया गया तो उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और अध्यापकी का काम श्रेयस्कर समझा।
प्राइमरी पाठशाला के सामने ही कल्याण सिंह-सोबन सिंह पुस्तक विक्रेता की दुकान थी। प्राइमरी स्कूल में शिक्षा प्रसार, उत्तर प्रदेश का पुस्तकालय हुआ करता था। यहाँ बहुत ही उपयोगी पुस्तकें थीं। इसी मार्ग में आगे उर्वादत्त-लक्ष्मीदत्त पाठक बन्धुओं की कपड़े की दुकान थी। मैं और पिताजी अक्सर वहीं बैठा करते थे। वहीं मिरासियों की सिलाई की दुकानें भी थीं। उस्ताद शिवलाल अपने पुराने सितार के साथ यहीं रहा करता था। राजपुरा अल्मोड़ा निवासी संगीत मर्मज्ञ कलिया उस्ताद की तीसरी पीढ़ी का उस्ताद था शिवलाल। लेकिन यहाँ आकर उसके सितार की खूँटियों में लकड़ी शोभायमान होने लगी और बिजली के तारों में से खींचकर तार लगने लगे।
सरकारी अस्पताल में नैनसिंह और किसनसिंह दो डॉक्टर अलग-अलग समय में रहे। उनके जाने के बाद यह कम्पाउंडरों के हवाले रहा। प्राइमरी स्कूल के पास ही एक मिट्ठू जमादार रहता था। उसके घर के बाहर मुर्गियों का बाड़ा था। तब यहाँ के लोग इन पालतू मुर्गियों का मांस व अंडा नहीं खाते थे। बच्चे खाली समय में इन मुर्गियों की छीना-झपटी देखा करते थे। एक को-ऑपरेटिव सोसाइटी भी थी जहाँ राशन के लिये भीड़ लगी रहती थी। अकाल के जमाने में रोते-बिलखते मीलों पैदल चलकर राशन के लिये आये लोगों का मेला सा लग जाता था। उन्हें राशन के लिये कई दिनों तक खुले आसमान के नीचे इन्तजार करना पड़ता था। तब अलमोड़ा से घोड़ों पर राशन आया करता था जिसे यहाँ पहुँचने में कई दिन लग जाते थे। राशन पहुँचते ही चिल्ल-पों मच जाती थी। आज की पीढ़ी इस दृश्य की कल्पना भी नहीं कर सकती। राशन के लिये रात-दिन भटकते लोग और घरों में उनका इन्तजार करते भूखे बच्चे।
इसी के नीचे दिवान राम की जूते टांकने की एकमात्र दुकान थी। एक हुआ करता था पुनियां पागल। उसके बिना तब की बाजार की बात अधूरी ही रह जायेगी। यों कहने को वह पागल था और रात-दिन न जाने क्या-क्या बोलता रहता था लेकिन उसे बाजार की हर गतिविधि की पूरी जानकारी रहती थी। पीठ पर बोझा लादे लम्बी कतार में अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर जाते नेपाली और जाड़ों में भेंड़ों के साथ नमक लेकर आते शौका भी हमारे लिये जिज्ञासा का कारण थे। चने के साथ आधी भेली गुड़ खा जाने वाले नेपाली व करबचों को सिलने में व्यस्त शौकों को देखे रहना भी जिज्ञासा ही तो थी।
जान्धवी नौले से पिथौरागढ़ पैदल मार्ग की ओर करीब आधा फर्लांग आगे जिला परिषद का एक डाक बंगला था जो अब भी मौजूद है। वहाँ साहब लोग टिका करते थे। वहीं फौज की भर्ती का कैम्प लगा करता था और कभी-कभी न्यालाय भी। काला कोट लगाकर बहस करते लोगों को बड़ी उत्सुकता से मैंने सबसे पहले यहीं देखा था।
सांस्कृतिक परम्परायें भी यहाँ समृद्ध थीं। श्रीमहाकाली दरबार में रामलीला का मंचन बड़े श्रद्धा भाव से किया जाता था। जोगासिंह रावत, सोबनसिंह रावल, गोपालदत्त पाठक, श्रीकृष्ण बचीराम पाठक तथा प्रताप सिंह कार्की प्रभृत्ति लोगों को मैं कैसे भूल सकता हूँ। होली की महफिलें सजा करती थीं। सप्ताह भर तक यहाँ के गाँव होली के ही रंग में रहते थे। सावन-भादौ की रिमझिम बरसात के बीच पतारबाड़ा में सजने वाली आठूँ-सातूँ के पर्व पर हुड़के की थाप के साथ लोकगीतों की स्वर लहरियाँ मन को भा जाती थीं। लोकपर्वों की यदि बात की जाय तो इसका अपना अलग ही इतिहास बनता है। दीपावली में घरों की सफाई, फूलों की सजावट बच्चों का ही काम होता था। जहाँ आजकल स्टेशन और मुख्य बाजार है, इसके आस-पास के इलाके में काँटेदार झाड़ियों का जंगल हुआ करता था। इसी जंगल में दूर-दूर से आने वाले जुआरियों का जमघट सप्ताह भर तक चलता था। बच्चों के लिये कौतूहलपूर्ण मेला था यह।
उस जमाने में बच्चों को टीका लगाने के लिये भ्यदुवा डॉक्टर (वैक्सीनेटर) गाँव में आया करता था। ग्राम प्रधान के पास एक फौती-पैदायशी (मृत्यु व जन्म) रजिस्टर हुआ करता था। रोती-बिलखती महिलाएँ अपने नवजात बच्चों को टीका लगवातीं, साथ ही भ्यदुवा डॉक्टर को टीके (इस टीके का मतलब पिठ्यां लगाने से है) में एक रुपया भी भेंट स्वरूप देती थीं। मैं चूँकि प्रधान जी का नाती था, अतः मुझे भेद (टीका) लगाने की छूट मिल गई। बाद में जब मैं स्कूल जाने लगा तब मैंने स्वयं ही अस्पताल में जाकर टीका लगवाया।
उस जमाने में इलाके के सबसे बड़े हाकिम पटवारी को देखकर लोग थर-थर काँपते थे। हमारे इलाके के पटवारी का डेरा हमारे ही घर पर था। लोग पटवारी से मिलने घी या फल लेकर ही आते थे। कुछ को छोड़कर अधिकांश पटवारी सहिष्णु व धार्मिक हुआ करते थे लेकिन उनके पास राजस्व, पुलिस और वनाधिकारी के जो असीमित अधिकार थे, उनसे लोग भयभीत हो उठते थे। पटवारियों और उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में कई बातें मुझे आज भी याद हैं। एक बार का वाकया तो भूले नहीं भूलता। हुआ यों कि एक व्यक्ति पटवारी के पास किसी दूसरे व्यक्ति के नाम का वारंट लेकर आया और बताया कि फलां व्यक्ति बहुत पहले उसकी पत्नी को भगाकर ले गया था। पटवारी ने दोनों पक्षों को बुलाया और राजीनामा एक बकरी में तय हो गया। लिखा-पढ़ी पूरी होने के बाद बकरी को वहीं काटकर हजम कर लिया गया और वारंट लेकर आने वाला व्यक्ति चुप-चाप वापस लौट गया।
बचपन के ये चौदह साल, लगता है सतयुग में बिताये थे। आज यदि किसी को सोने का हार कहीं पड़ा मिल जाये तो वह क्या करेगा? रुद्रदत्त नामक एक ऐसे गरीब व्यक्ति को किस युग का माना जाये जिसके पास शाम के भोजन का कोई डौल न हो और उसे खेत में कम-से-कम तीन तोले का हार पड़ा मिल जाये। रुद्रदत्त ने उसे हाथ से छुआ तक नहीं। एक लकड़ी से उठाकर गाँव भर में घुमाकर उसके असली मालिक तक पहुँचा दिया। यादों की इस बारात में जितना ही खोया जाय, उतना ही कम है। जब भी इन बातों की याद आती है तो आज का सब-कुछ अर्थहीन सा लगने लगता है।
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