दामोदर का पानी मटमैला क्यों है?

रानीगंज कोलफील्ड पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में फैले कोयलांचल का ही एक हिस्सा है। रानीगंज कोलफील्ड बर्दवान जिले के दो अनुमंडलों आसनसोल और दुर्गापुर में फैला है। इस इलाके में 90 कोईलरी और अन्य खदान परियोजनाएं चल रही हैं। कोयलांचल का ही प्रभाव है कि है इस इलाके में तीन बड़े इस्पात संयंत्र काम करते हैं, चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, डीपीएल और डीटीपीएस के थर्मल पावर प्लांट के अलावा 18 से अधिक स्पंज आयरन, जूट, अल्युमिनियम, सीमेंट जैसी उत्पादक ईकाईयां हैं। कोईलरी को छोड़ दें तो उद्योग का विकास पिछले तीन दशक में ही हुआ है। तीन दशक के इस विकास ने आज इलाके के तीस लाख लोगों के जीवन को संकट में डाल दिया है।

इसके पहले ही राष्ट्रीयकृत कोयला उद्योग में आधुनिक उपकरणों, विदेशी तकनीकी का इस्तेमाल से अंधाधुंध कोयला उत्पादन के चेष्टा में खुली कोयला खदानों पर निर्भरता बढ़ने लगी थी। नतीजा हुआ खेती योग्य जमीनों, जंगलात का निर्ममता से सफाया। कोयले पर रायल्टी से बढ़ते राजस्व की चकाचौंध में राज्य सरकार ने भी इस पर ज्यादा आपत्ति नहीं की। कोलमाईन्स रेगुलेटरी एक्ट 1952 ओर डीजीएमएस, पर्यावरण, वन प्रदूषण नियंत्रण विभागों को अंगूठा दिखाते हुए धरती में कम गहराई पर मौजूद कोयला हैवी अर्थ मूवर्स से कम समय, कम श्रम, कम लागत पर धड़ल्ले से निकाला जाता रहा है और यह क्रम जारी है। उत्खनन में बारूदी विस्फोटों के कारण थर्राती जमीन भीषण आवाज, धूल, धुआं, जमीन का बंजरपन का प्रतिफलन होना ही था एवं हुआ।

अवैध खनन से प्राप्त कोयला तुलनात्मक कम दर पर नजदीकी मंगलपुर के कारखानों, छोटे-बड़े अन्य धंधों, घरेलू उपयोग में खपने के साथ ही फर्जी कागजातों पर राज्य में बाहर भी चालान किया जाता है। अवैध कोयले की ढुलाई यहां ट्रकों, वैन, साइकिलों, रिक्शों सभी साधनों द्वारा किया जाता है। कुछ अर्सा पहले एगरा स्थित ईसीएन के एगरा बैच के घर बाड़ी के वासियों ने इससे अपने मकानों, जमीनों की क्षति को लेकर बारंबार विरोध प्रदर्शन भी किया था। टाउनशिप बनाने की योजना का भार आसनसोल-दुर्गापुर विकास प्राधिकरण को सौंपा गया। राज्य के तत्कालीन मंत्री, अब सांसद, बंश गोपाल चौधरी को प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया गया। परंतु `उपनगरी´ तो नहीं बन सकी, अलबत्ता श्री चौधरी के अथक प्रयासों व माकपा की बर्दवान लॉबी का राईट्स बिल्डिंग कोलकाता व अलिमुद्दीन स्ट्रीट स्थित माकपा के राज्य मुख्यालय में कथित प्रभाव के कारण मंगलपुर में औद्योगिक क्षेत्र बनना शुरू हो गया। यह जानकारों का अभिमत है सिंगल विंडो सिस्टम से प्रभावित उद्यमियों को रियायती दरों पर जमीनें देकर, बिजली, पानी, सड़क, पुलिस चौकी, बैंक लोन, पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम आदि से सहज ऋण देने की सुविधा और शुरूआती कुछ वर्षों तक करों से छूट आदि के ऑफर से लुभाकर उन्हें पूंजी निवेश के लिए राजी किया गया।

उद्योग लगे परंतु ज्यादातर स्पंज आयरन जैसे महाप्रदूषण कारक संयंत्र जिनकी आयु ज्यादा नहीं थी। विदेशों में इसकी अनुमति देनी बंद हो चुकी है और भारत के अन्य कई राज्यों ने भी अपने यहां इसकी स्थापना पर गुरेज जताया है। लेकिन यहां इस पहलू की विशेष कारणों से जानबूझकर अनदेखी की जाती रही। इससे मिलते जुलते लौह, सीमेन्ट आदि उद्योग भी लगे। अधिकृत सूत्रों व विभिन्न स्रोतों से आज इलाके में एक दर्जन से भी ज्यादा स्पंज आयरन संयंत्र चालू हैं व कई प्रस्तावित हैं। न्यूनतम 4 सीमेंट कारखाने, अन्य दर्जनों वैध-अवैध ईंट भट्टे, कई रिफैक्टरीज, हार्ड कोक, कोल प्लांट्स चल रहे हैं। इनसे निकलता फैलता घना जहरीला धुआं गैसें, धूलकणों की मात्रा इतनी ज्यादा है कि पेड़ पौधों के पत्तों पर धूल की परतें जम जाती हैं। उनकी उर्वरा शक्ति समाप्त होती जा रही है। इलाके के घरों, उनकी छतों पर, धोये कपड़े सुखाने को रात में छोड़ दें तो सुबह वे मैले मिलेंगे। मैदानी घास, तालाबों का पानी, कुछ भी इससे अछूता नहीं रह गया है। सांसद चौधरी इसके लिए उद्यमियों की मुनाफा बढ़ाने की कुप्रवृति के कारण प्रदूषण रोधी उपकरणों का सटीक उपयोग नहीं होने का आरोप लगाते हैं। कई बार तथाकथित उद्योगों का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व जिला प्रशासन की टीमों ने पुलिस को साथ ले, औचक निरीक्षण में अनियमितताएं पाई। कार्रवाई की। परंतु फिर वही ढाक के तीन पात। बगड़िया जैसे उद्यमी प्रदूषण की समस्या का हौवा उठाने में एतराज जताते हैं और अपना दोष नहीं मानते। डॉ. पीआर घोष, डॉ. दीपक, डॉ. पीके बजाज आदि अनेक डॉक्टरों ने यहां पर प्रदूषण के कुप्रभाव से दमा, श्वास, तपेदिक, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप, आंखों के रोगों, चर्मरोगों, एलर्जी आदि के ग्रस्त रोगियों की संख्या वृद्धि पर चिंता जताई है। जिला व महानगरों में स्थित कई जाने माने डॉक्टर्स ने यहां से इलाज के लिए गए अपने रोगियों को पर्याप्त बचाव या स्थान परिवर्तन तक की सलाह दी है। स्वयं पूर्व राज्यपाल नुरूल हसन ने यहां पर एक समारोह में इलाके के भयानक प्रदूषण की आलोचना कड़े शब्दों में की थी।

इसी के साथ उपजी अवैध उत्खनन की समस्या। इससे खदानों में कोयले में आग लगने, जहरीली गैसों का रिसाव आदि से पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ने लगा। जंगलों का अभाव में उन पर जीने को निर्भर जीव जंतु, पक्षी अन्यत्र चले गये अथवा प्रदूषण की चपेट में आकर उनकी प्रजातियां ही विलुप्त हो गई। जमीनों की यहां पर बर्बादी देखकर ही तत्कालीन राज्य के वरिष्ठ मंत्री विनय कृष्ण चौधरी ने वर्षों पूर्व कहा था `यह सब देखकर ऐसा लगता है कि यह कोई भीषण युद्ध और विध्वंस का तबाह क्षेत्र हो।´ आज इसके कारण सैकड़ों हेक्टेयर जमीन भूधंसान की विभीषका के सम्मुख है। धरातल पर बसी लाखों लोगों की आबादी को जान-माल के खतरों की आशंका से विस्थापन, पुनर्वास की नौबत आ गई है। जुझारू व स्व. पूर्व माकपा सांसद हाराधन राय ने इस त्रासदी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। जिसका निर्णय 2002-2003 में याचिकाकर्ता के पक्ष में आया। उक्त फैसले के कुछ अंशों की रोशनी में, विस्थापन, पुनर्वासन का कार्य करना कोयला मंत्रालय, कोल इंडिया लि. तथा राज्य सरकार की सम्मिलित जिम्मेदारी मानी गई। विस्थापितों को पर्याप्त बाजार दर पर जमीनों का दाम, वैकल्पिक पुनर्वासन तमाम मौलिक सुविधाओं सहित पुनर्वासन का प्रावधान है।

अवैध खनन, पुनर्वास का मुद्दा : सर्वोच्च न्यायलय के आदेश अनुपालन में कोताही से खिन्न स्व. हाराधन राय ने पुन: अदालत में आवेदन किया तो वर्ष 2003 में खान सुरक्षा उप महानिदेशक सतीश पुरी के नेतृत्व में एक कमीशन ऑफ इंक्वायरी, मौके मुआयना पर यहां भेजा जिसने अपनी रिपोर्ट भी कोर्ट को सौंपी थी। हालांकि माकपा से मतभेदों के चलते स्व। सांसद हाराधन राय ने माकपा से नाता तोड़ लिया लेकिन उन्होंने कोयला खान एवं कोयलांचल बचाओ समिति का अलग से गठन कर अपनी जंग जारी रखी। 2004 में उनका देहांत हो गया। समिति का काम भी लगभग ठप्प हो गया।

औद्योगीकरण ने हम निवासियों को ऐसे ही कुछ सवाल शेष छोड़ दिये हैं जिनका जवाब हमें ढूढें नहीं मिलता। हो सकता है यहां के उद्योग से बड़े शहरों को दिन रात रोशनी मिलती हो लेकिन हमारे हिस्से तो सिर्फ कालिख ही आयी है। हमारे हिस्से की यह कालिख आपको हर कहीं दिख जाएगी। हमारे घरों पर। हमारे पर्यावरण पर। हमारे जीवन पर। हमारी दामोदर नदी पर। कभी फागुन के मौसम में आम के पेड़ो में बौराते कलियों की सुगंध, पलास के पेड़ों पर उगे फूलों की आभा जंगलों में फैली रहती थी। तोता, नीलकंठ, बया, चील, गिद्ध, बगुलों, कोयल, कठफोड़वा अन्य सुंदर रंग-बिरंगे पंछियों के दर्शन हुआ करते थे। अब तो कबूतरों, गौरेया, कौवों के भी कहीं-कहीं दर्शन होते हैं। इनमें पाले गये कबूतरों की बड़ी तादाद होती है। जंगलों में खरगोश, सियार, कइ रेंगने वाले सरीसृप कुल के जीवों, कई प्रकार के कीट-पतंगों का दिखना भी मुहाल है। अगर किसी कीट ने अपना भरपूर विस्तार किया है तो वह है मच्छर। जंगलों मैदानों में सहज ही उपलब्ध बेल, अमरूद, आम, बेर, जामुन, बिजौरा, इमली, साल, महुआ, फालसा, बरगद, नीम, पीपल, बहेड़ा, अर्जुन, बबूल, बांसों के झुरमुट, पेड़ अब गिनेचुने ही दिखते हैं। जिन पर आदिवासी निर्भर थे। सियारसोल, डामालिया, मंगलपुर, पलासवन, वक्तारनगर के हरियाले खेत जंगलों का अस्तित्व किसने मिटा दिया। जो शेष रह गया है उसे देखकर बार-बार मन में सवाल आता है कि सदानीरा दामोदर में अब पानी का रंग मटमैला क्यों है?

(विमल कुमार सिंघानिया स्वतंत्र पत्रकार हैं।
ई.मेलः-b.snghn2007@gmail।com)

 

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