जब डाउन टू अर्थ संवाददाता निधि अग्रवाल और डीबी मनीषा ने भूमिगत जल में फ्लोराइड और विषाक्त पदार्थों पर अपनी रिपोर्ट लिखी तब हम इस समस्या के विस्तार और घातक प्रभावों की कल्पना मात्र से ही सिहर उठे। वास्तव में निराशा में लिखी गई एक कहानी है, जिसका नाम - द डार्क ज़ोन है/ यह भूमिगत जल के बारे में उस समय की कहानी है जब पानी (रस) विष में बदल जाता है और जब किसी एक कष्टदायी रोग और मौत का कारण बन जाता है। यह 'प्राकृतिक आपदा' नहीं है -जहां गहराई तक जाने वाला प्राकृतिक विष और फ्लोराइड पेयजल में अपना मार्ग बना लेते हैं। ऐसा लगता है जैसे इसे जानबूझकर विषैला बना दिया गया हो। सुरक्षित, स्वच्छ जलापूर्ति की तलाश के निहित इरादे को सभी सफल सरकारों एवं बहुआयामी एजेन्सियों ने अंजाम दिया और जमीन में बोरिंग करने पर तब तक खर्च किया जब तक कि दैनिक जीवन के प्रकाश में उन्हें एक अंधकार क्षेत्र नहीं मिल गया।
जहां तक इन रोगों के असली कारणों की अनिश्तिताओं का संबंध है, भूमिगत जल की कड़ी पर कोई विवाद नहीं है। विष प्रभावित क्षेत्र में किए गए अध्ययनों से प्रकट होता है कि पानी की गहराई के साथ सांद्रता बढने लगती है - जो 100-125 मीटर नीचे तक चली जाती है - और जैसे ही यह 400 फुट नीचे पहुंचती है कम होने लगती है। फ्लोराइड भूमिगत जल की कड़ी स्पष्ट है किंतु इसका भौगोलिक विस्तार अभी अज्ञात है। किसी एक क्षेत्र को गंभीर अथवा खतरनाक फ्लोराइड संभावित क्षेत्र नहीं कहा जा सकता है। भारतीय भौगोलिक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट में ऐसे क्षेत्रों की सूची दी गई है जो फ्लोराइड-रेड अलर्ट बताए गए हैं और ये उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक फैले हुए हैं।
यह कहानी 1960 और 1980 के दशकों के आसपास कई साल पहले उस समय आरंभ हुई जब राष्ट्रीय सरकार एवं अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सियों ने सभी के लिए सुरक्षित जल उपलब्ध कराने वाली विस्तृत योजनाएं बनाईं। उन्होंने ठीक ही समझा था कि पानी में उपस्थित बेक्टीरिया विश्व में किसी अन्य तत्व की अपेक्षा अधिकाधिक बच्चों को जान से मार देता हैं। उनका विश्वास था कि धरातल पर करोड़ो जलाशय़ों और तालाबों तथा अन्य जल संरक्षण संरचनाओं में जो पानी है - वह दूषित था और इसीलिए उन्होंने शीध्र जमीन में काफी गहराई तक खुदाई करने वाली नई प्रौद्योगिकियों को कार्यान्वित करना आरंभ कर दिया। ड्रिल, बोरपाइप, नलकूप तथा हैंडपंप जल्दी ही सार्वजनिक स्वास्थ्य मिशन के अनिवार्य यंत्र बन गए। इसके बाद सभी के लिए वाटर टेबल अर्थात जल तालिका आरंभ की गई। गहराई तक खुदाई करने पर निवेश किया गया। और यही वह बिंदु है जहां कहानी मोड़ लेती है।
स्वच्छ पानी की तलाश में हालांकि सरकार की मंशा बिल्कुल स्पष्ट थी तथापि, उसकी समान रूप से विचारशून्य जैसी दशा हो गई या यूं कहिए कि आपराधिक स्थिति बन गई जब यह खबर फैली कि जिस पानी को जनता आज उपयोग कर रही हैं संभवत: वह अनूठे रोगों से भरा पड़ा हो। इसका नकारात्मक उत्तर दिया गया। इसमें गलत सूचना, भ्रम और अक्षमता का समावेश था। विज्ञान और इसकी अनिश्चितताएं अपनी निश्क्रियता के लिए निकृष्ट उपकरण सिद्ध हो रहे थे। यह उपयोजना कारण एवं विकल्पों की पहचान करने वाले प्रयासों में स्पष्ट और समग्र अक्षमता का प्रतीक बन गई। यह उपयोजना घातक और भयंकर रोगों को जन्म देती है।
इसलिए यह कहानी अधिकतर इस क्षेत्र में फैले हुए गांवों में रहने वाले पीडि़तों के बारे में है। ये ''अधिकारिक'' तौर पर स्वीकृत पीडि़त हैं जिनके नलकूपों की संक्रमणता के स्तरों की पहचान करने के लिए उन्हें लाल रंग से चिह्नित किया गया था। किंतु इसके अतिरिक्त कुछ ''गैर-अधिकारिक'' एवं पहचान न किए गए पीडि़त भी हैं। हो सकता है इनकी संख्या हज़ारों में हो। ऐसा भी हो सकता है कि इनकी संख्या करोड़ों में हो। इसके बारे में कोई नहीं जानता क्योंकि इसे खोजने की किसी ने भी परवाह नहीं की। यहां तक कि इन ''पीडि़तों'' को भी इसके बारे में पता नहीं है। उन्हें केवल इतना पता है कि वे बीमार हैं। किंतु उनकी इस रहस्मयी बीमारी का कारण क्या है। इसे खोजने के लिए वे जाएं तो जाएं कहां? यह कहानी उन गुमनाम योद्धाओं की भी है जिन्होंने पहले नजर में संसार को इस समस्या की पहचान करने के लिए संघर्ष किया था। विष प्रभावित इन लोगों की पीड़ा सुनने के लिए इनमें से केवल कुछ के नाम दिए जा सकते हैं: पश्चिमी बंगाल में दीपांकर चक्रवर्ती, बांग्लादेश में काज़ी कामरूजमन, और फ्लोरोसिस के बारे में सूचना प्रदान करने के लिए नई दिल्ली में सुश्री ए.के. सुशीला।
आज भी हमारा मस्तिष्क निर्धन लोगों के लिए किसी तकनीक की खोज करने में लगा हुआ है। ऐसी प्रौद्योगिकियों की रचना कौन करेगा जो कार्य कर सकें? इन प्रौद्योगिकियों पर कौन कार्य करेगा? यहां तक कि आज भी सरकारी नीतियां इस समस्या को विषैली अथवा फ्लोरोसिस से प्रभावित समस्या मानने से इंकार करती हैं। समस्या भूमिगत जल के उपयोग की है।
इसलिए इस समस्या का उत्तर रोग का प्रबंधन नहीं है। इसका उत्तर जल प्रबंधन में निहित है। अपनी पेयजल से संबंधित जरूरतों के लिए हम एक्वीफॉयर जैसे जलशोधक उपकरणों पर गंभीर रूप से निर्भर होने लगे हैं। इस संसाधन के प्रबंधन हेतु इसके नाम के अनुरूप कोई नियम नहीं बना है। इसकी बर्बादी अर्थात जरूरत से ज्यादा उपयोग को रोकने के लिए बनाए गए सभी कानून अभी मसौदा ही बने हुए हैं। साथ ही, प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण हमें पानी की तलाश के लिए जमीन के अंदर और अधिक गहराई तक प्रवेश करने में मदद कर रहा है। आज हमें ऐसी रणनीतियों की सबसे अधिक जरूरत हे जिनसे यह सुनिश्चित किया जा सके कि पानी की खुदाई एक्वीफॉयरों की रीचार्ज सीमा से अधिक न होने पाए। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल के भंडारों की जलापूर्ति के स्तर को पुन: भरने के लिए वर्षा के पानी को संरक्षित करने वाले निवेशपरक कार्यक्रमों को किर्यान्वित करने की जरूरत है।
किंतु केवल यही एक उपाय नहीं है1 हमें धरातलीय जल प्रणालियों में भी निवेश करने की जरूरत है जैसे - भूमिगत जल की पुन: भरपाई करने तथा उपलब्ध जल संसाधनों की वृद्धि में मदद करना और यही वह अवस्था है जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रस्तावों को जल प्रबंधन समुदायों के साथ अवश्य कार्य करना चाहिए। सरकार, जलापूर्ति सुनिश्चित नहीं कर सकती है। इसे हम भी जानते हैं। विषैले जल और फ्लोरोसिस की समस्या इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि सरकार की नीति ने सामुदायिक जल प्रणाली को छोड़ दिया है और इसके तकनीकी समाधान में विश्वास करती हैं। अब हमारा कार्य सामुदायिक जल प्रणालियों का पुन:गठन करना है - जलाशय, तालाब, स्टेपवेल - तथा इन्हें स्वच्छ बनाते हुए प्रदूर्षित होने से बचाए रखना है। इस कार्य को केवल स्थानीय जनता की इच्छाशक्ति एवं सक्रिय भागीदारी से ही पूरा किया जा सकता है। अन्यथा, पानी केवल पाइपों के अंदर ही भरा रहेगा अथवा इधर-उधर बिखकर पानी का पाइप टूट जाएगा। कहने का भाव यह हे कि हमारा यह सपना साकार नहीं हो सकेगा।
याद रखें कि इस कार्य के प्रति हमें अपनी निष्क्रियता का मूल्य देश को विकंलांग बनाकर देना होगा। जानबूझकर ग्रहण की गई विकलांगता से हमारी पृथ्वी अंधकारमयी अथात डार्क ज़ोन बन जाएगी।
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