आओ! नदियों को बचाएँ

आओ! नदियों को बचाएँ
आओ! नदियों को बचाएँ

मानव सभ्यता का विकास नदियों के तट पर हुआ। नदियों को मानव ने जल स्रोत और जीवनोपयोगी साधन जुटाने का माध्यम बनाया। सिंधु घाटी की सभ्यता, नील नदी घाटी सभ्यता से लेकर अद्यतन मानव और जीव-जंतुओं का जीवन का आधार भी नदियाँ ही हैं। यह परिवहन और कृषि कार्य के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं। जिस प्रकार माँ अपनी संतान का पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार नदियाँ भी मानव सहित अनेक प्राणियों के लिए जीवनदात्री हैं। नदी को अँग्रेजी में रीवर कहा जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति 'रिया' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है किनारा। पुराने काल में, पानी की उस धारा को, जिसके किनारे होते थे, रीवर कहा जाता था। आधुनिक परिभाषा के अनुसार, पानी की बहती विशाल धराओं, जिनके किनारे बदलते रहे, नदी कहा जाता है। सृष्टि के आरंभिक काल में जब धरती पर पहाड़ों और समुद्रों का निर्माण हो चुका था, तब लगातार वर्षा होती रहती थी। वर्षा का यह जल पहाड़ों पर से टेढ़े-मेढ़े मार्गों से होता हुआ, समुद्र में जा मिलता था। लगातार जल प्रवाह के कारण मार्ग गहरे और चौड़े होते गए तथा धाराओं का रूप परिवर्तित होने के कारण उन्हें नदी कहा गया और उनके विभिन्न नाम यथा-गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा, सिंधु, झेलम, रावी, चिनाव, घाघरा, गोदावरी, पिनाकिनी, तुंगा, भद्रा, चंबल आदि दिए गए। अधिकांश नदियाँ पहाड़ों से ही निकलती हैं। कुछ का जन्म पहाड़ों पर जमी बर्फ से बने हिमखंड पिघलने के कारण भी होता है। इसके अतिरिक्त झरने और झीलों से भी कुछ नदियों का जन्म होता है।

नदियाँ तो विश्व के प्रत्येक देश में होती हैं। लेकिन हमारे देश भारत में उन्हें माँ के रूप में अत्यंत सम्मानित स्थान प्राप्त है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में नदियों की महत्ता को स्वीकार करते हुए उनका सदैव गौरवगान किया गया है। कहा गया है- रक्षति रक्षितः, नद्य हन्ति संति।, अर्थात नदी की रक्षा होगी तो वह हमारी रक्षा करेगी। पद्म पुराण में उल्लेख है- सर्वतीर्थमयी गंगा तथा माता न संशयः। अर्थात गंगा और माता सर्वमयी मानी गई है, इसमें कोई संदेह नहीं है। नदियाँ केवल जल प्रवाहिका ही नहीं, अपितु हमारी सांस्कृतिक परंपरा की साधनास्थली, उसकी पोषक एवं वाहिका तथा हमारे जीवन के आवश्यक खाद्यान्न, वन तथा जैवविविधता के संरक्षण संवर्द्धन की हेतु भी हैं। अतः मानव जीवन और अन्य जीव जंतुओं के प्राणों की रक्षा के लिए, नदियों का निरंतर स्वच्छ निर्मल जलयुक्त प्रवाहमान  रहना अत्यावश्यक है।

आइए! एक बार ऐसे समय की कल्पना करें जब भारत देश में एक भी नदी न हो। सदानीरा नदियों के बिना हमारा भारत कैसा लगेगा! ऐसा विचार मस्तिष्क में आते ही मन सिहर उठता है। इस भयावह आपदा के आने से, न केवल भारतीय संस्कृति, अपितु देश की अर्थव्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आज घोर प्रदूषण के कारण नदियों का अमृत जल 'प्राण हारी विष' बन गया है, जिससे जलचरों के साथ मानव जीवन भी संकट में आ गया है। यदि नदियों में बढ़ते प्रदूषण को रोका नहीं गया तो लगभग 1500-2000 वर्ष बाद भारत नदी विहीन देश होगा। आधुनिकता के युग में पूर्वजों की चेतावनियों को मनुष्य ने अनसुना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप पतितपावनी गंगा सहित अन्य नदियों का पावन जल कलुषित और प्रदूषित हो गया है। कई नदियाँ विलुप्ति के सन्निकट हैं और कुछ का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। 

इस कुकृत्य में स्वार्थी मनुष्य का ही हाथ है। नदियों के समीप शौच, वस्त्र धोना, जल में कुल्ला करना, शरीर मलना, बाल झाड़ना, पूजा की सामग्री बहाना, कूड़ा-कचरा फेंकना, शव बहाना, तैरना आदि कर्म करना वर्जित हैं, तथापि कल-कारखानों के अवशिष्ट, रसायन, अपद्रव्य, अधजले शव, शहरों की गंदगी और मल-मूत्र निःसंकोच नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है, इससे नदियों के जल में विष घुल रहा है, यहाँ तक कि जल आचमन के योग्य भी नहीं बचा है। जल में बड़ी संख्या में विषाणु बढ़ रहे हैं और जल का उपयोग गंभीर बीमारियों का कारण बन गया है। जल जीवों की अनेक प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी हैं। नदियों का दूषित जल आसपास भूगर्भ में जाने से भूजल भी विषाक्त हो रहा है। नदियों के बिना लोकजीवन की मधुरता तथा प्रकृति की मोहकता की कल्पना नहीं की जा सकती। अस्तु, नदियों को बचाना एक प्रकार से देश की संस्कृति और मानव अस्तित्व के बचाने का ही प्रयास होगा। एतदर्थ कुछ बिंदुओं पर विशेष ध्यान देकर क्रियान्वयन अपरिहार्य है-नदियों को प्रदूषित करने वाले कारकों को तत्काल रोका जाए। नदियों में गिरने वाले अपशिष्ट को नदियों तक पहुँचने के पूर्व ही विनष्ट कर दिया जाए। इसके लिए जन-जागरूकता और सहभागिता सुनिश्चित की जाए। गंदी नालियों और सीवर को नदियों की ओर न मोड़ा जाए, उसका पूर्व में ही परिशोधन कर लिया जाए। नदियों की निरंतर और नियमित सफाई कराई जाए। इसके लिए समाजसेवियों और स्वयंसेवी संस्थाओं की सेवाएँ ली जा सकती हैं। नदियों की गहराई भी बड़े पैमाने पर बढ़ाई जाए जिससे पानी का स्वाभाविक प्रवाह सतत बना रहे। 

डॉ. राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में 'नदियाँ साफ करो' अभियान का सूत्रपात किया था। आज पुनः ऐसे सार्थक अभियान की आवश्यकता है। माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने गंगा को स्वच्छ -निर्मल बनाने के लिए वर्ष 2014 में  नमामि गंगे परियोजना की घोषण की है ऐसे भी सभी नदियों को स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त बनाया जाये। जीव विज्ञानियों  तथा वनस्पति शास्त्रियों का योगदान लेकर नदियों में ऐसे जीव तथा वनस्पति विकसित हो, जिनसे जल-प्रदूषण को कम किया जा सके। वैज्ञानिकों के अनुसार, बालू अनेक प्रदूषकों को सोख लेती है तथा जल को स्वच्छ कर देती है, इसलिए नदियों में बालू के खनन पर प्रतिबंध लगाया जाए। नदी के जल का वेग बढ़ाया जाए जिससे प्रदूषक तत्त्वों का तन्वीकरण प्राकृतिक रूप से हो सके। नदी के तटों के पास तथा वहाँ के धार्मिक स्थलों पर अनुपयुक्त और अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण हेतु उचित व्यवस्था होनी चाहिए। नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए संचार माध्यमों द्वारा जनजागरण अभियान चलाना चाहिए, इससे लोगों के विचारों में परिवर्तन लाकर उन्हें नदियों के संरक्षण में भागीदार बनाया जा सकता है। नदियों के संरक्षण से ही मानव सभ्यता का संरक्षण होगा। देश के हित में यह आवश्यक, अपरिहार्य और अनिवार्य है कि नदियों को स्वच्छ स्वस्थ रखें, इन्हें विलुप्त होने से बचाएँ। यह हम सभी का पावन कर्तव्य भी है और महत्वपूर्ण कर्तव्य भी। आइए! आज ही इसके लिए सच्चे मन से संकल्प लें।
संपर्क- 117 आदिलनगर, विकासनगर
लखनऊ 226022
स्रोत :-  विज्ञान संप्रेषण 
गौरीशंकर वैश्य विनम्र 
ईमेल- gsvaish51@gmail.com

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Post By: Shivendra
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