छठा विलोपन

पर्यावरण विनाश
पर्यावरण विनाश


सन 2055 की एक अंधेरी सुबह पिछले 10 सालों की तरह आज भी सूरज निकलने के बावजूद अंधेरा छाया हुआ था। डॉ. राकेश चंद्रा डिजिटल टीवी ग्लास आँखों पर पहने समाचार की सुर्खियाँ देख रहे थे। सभी न्यूज चैनलों पर सिर्फ एक ही न्यूज दोहराई जा रही थी और न्यूज का शीर्षक था ‘छठा विलोपन अपने अन्तिम चरण पर’ और साथ ही अंधेरे में डूबी दिल्ली की तस्वीरें भी न्यूज चैनलों पर दिख रही थीं। डॉ.चंद्रा ने अपना डिजिटल टीवी ग्लास आँखों से उठाकर टेबल पर रखा और चेयर पर एक चिन्तित मुद्रा में बैठ गये। तभी उनका मोबाइल बजा। प्रोफेसर रविश का फोन था। डॉ. चंद्रा ने फोन उठाया हैलो चंद्रा, आपने 15 साल पहले जो आशंका जताई थी वही हुआ। आज की न्यूज की हेडिंग्स भी यही हैं कि दुनिया खत्म होने वाली है। दिल्ली में तो प्रदूषण हजारों गुना बढ़ गया है। लोग सांस लेने में तकलीफ के कारण मर रहे हैं। लोगों की आँखों की रोशनी जा रही है और लोग अन्धे हो रहे हैं। प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि पॉल्यूशन स्केल भी इसकी सान्द्रता नहीं माप पा रहा है। इसलिये कल “साइंस कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई है इस विषय पर। जिसमें देश-विदेश के तकरीबन 300 वैज्ञानिक भाग लेंगे। आपको सहायक वक्ता के रूप में बुलाया गया है। आप जल्दी ही मुझसे साइंस कॉन्फ्रेंस में मिलिये।”

डॉ. चंद्रा जब कॉन्फ्रेंस में पहुँचे तो प्रोफेसर रविश उन्हें हॉल के बाहर ही खड़े मिले।

डॉ. चंद्रा के आते ही प्रोफेसर रविश ने कहा- “आखिर जिसका डर था वही हुआ। वायु प्रदूषण असाध्य हो गया है। दुनिया खात्मे के किनारे पर खड़ी है। देखते हैं आखिर क्या हल निकलते हैं। चलिये अन्दर चलते हैं।”

हॉल में देश-विदेश के तकरीबन 300 वैज्ञानिक विद्यमान थे। सभी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। कॉन्फ्रेंस में सभी ने अपने मत रखे। प्रदूषण से किस तरह निपटा जाए, इस बात का कोई भी संतुष्टिजनक उपाय नहीं दे पाया। आखिरकार सबकी नजरें डॉ. राकेश चंद्रा की ओर टिक गईं। डॉ. राकेश चंद्रा ने कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित किया और कहा- वैज्ञानिक मित्रगणों आप सभी जानते हैं कि छठा विलोपन प्रगति पर है और इस विलोपन के लिये हम ही जिम्मेदार हैं। ये विलोपन प्राकृतिक नहीं है, ये कृत्रिम है। इसे हमने ही अंजाम दिया है और इसका उपाय भी हमें ही ढूँढना होगा।

डॉ. चंद्रा अपनी बात पूरी कर पाते, उससे पहल ही एक वैज्ञानिक ने उनकी बात काटते हुए कहा- उपाय ढूँढना ही तो समस्या है। इसलिये ही यह संगोष्ठी आयोजित की गई है। ताकि प्रदूषण रोकने हेतु उचित राय मिल सके।

प्रोफेसर चंद्रा उनके सवाल से ठिठक गये, लेकिन उन्होंने सांत्वना भरे लहजे में कहा- “मैं पिछले 10 सालों से इसी पर काम कर रहा हूँ, लेकिन कोई कारगर उपाय नहीं ढूँढ पाया हूँ। लेकिन हाँ मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूँ और शायद कोई कारगर उपाय भी ढूँढ लूँ, जिससे दुनिया को बचाया जा सके।”

उन्होंने जोश में आकर कह तो दिया था, लेकिन उन्हें खुद ही यह थोड़ा असम्भव लग रहा था। लेकिन वे हार मानने वालों में नहीं थे। डॉ. चंद्रा ने सम्बोधन समाप्त किया और साइंस कॉन्फ्रेंस का आयोजन समाप्त हुआ। डॉ. चंद्रा और प्रोफेसर रविश साइंस हॉल के बाहर इसी विषय पर कुछ चर्चा कर रहे थे कि एक अजनबी आवाज ने उन्हें पुकारा-

डॉ. चंद्रा… डॉ. चंद्रा मुड़े तो उन्होंने अपने सामने एक विदेशी को पाया जो साइंस कॉन्फ्रेंस का एक प्रतिनिधि वैज्ञानिक प्रतीत हो रहा था।

‘जी अाप कौन?’ डॉ. चंद्रा ने प्रश्नवाचक लहजे में कहा।

मैं चार्ल्स मैथ्यूज.. ब्रिटेन से हूँ और एक बायोटेक्नोलॉजिस्ट हूँ। मैंने आप दोनों की ‘प्रदूषण विलोपन थ्योरी’ को पढ़ा था और उसके बाद से ही मैंने उस पर काम शुरू कर दिया था- वैज्ञानिक ने कहा।

जी शुक्रिया पर अफसोस हमने थ्योरी तो दे दी, लेकिन उसका उपाय नहीं ढूँढ पाये। डॉ. चंद्रा ने बेरुखी आवाज में कहा।

कोई बात नहीं लेकिन आपके शोध के कारण ही मैं प्रभावित हुआ और नतीजतन उस रिसर्च को पूरा करने वाला हूँ, जिससे प्रदूषण से निपटा जा सकता है। वैज्ञानिक चार्ल्स मैथ्यूज ने कहा। अच्छा क्या बात कर रहे हैं आप! डॉ. चंद्रा और प्रोफेसर रविश दोनों ने विस्मय से चहककर कहा। आप दोनों आज शाम को लैब में रहिएगा, मैं आपसे वहीं पर मिलूँगा -वैज्ञानिक चार्ल्स ने कहा।

प्रोफेसर रविश और डॉ. चंद्रा को तो मानो नया हल मिल गया। शाम को छः बजे वैज्ञानिक चार्ल्स मैथ्यूज उनकी लैब में आये। लैब में पहले से ही डॉ. चंद्रा व प्रोफेसर रविश उनके इन्तजार में खड़े दिखे। मैथ्यूज के आते ही उन्होंने उनका स्वागत किया। तीनों कुर्सियों पर बैठे और बातचीत शुरू हुई।

तो क्या निष्कर्ष निकाला है रिसर्च में मतलब इससे प्रदूषण रुक सकता है क्या? प्रोफेसर रविश ने कहा कि मैंने रिसर्च पूरी कर ली हैं, लेकिन उसमें समस्या है।

कोई नहीं हम हर सम्भव कोशिश करेंगे, आपकी मदद करने में, आप अपनी रिसर्च सुनाइये-प्रोफेसर रविश ने कहा- ठीक है थैंक्यू। दरअसल अापने लाइकेन के बारे में तो सुना होगा, जो एक प्रदूषण संकेतक और अवरोधक था -चार्ल्स मैथ्यूज ने कहा।

सुना तो था पर अब तो यह रेड डाटा बुक में सम्मिलित है, क्योंकि प्रदूषण के कारण इसकी ज्यादातर स्पिशीज विलुप्त हो गई हैं और अब यह विलुप्त प्रायः हो चुका है। लेकिन इसका हमारी समस्या से क्या लेना देना आप थोड़ा विस्तार से समझाइये -डॉ. चंद्रा ने कहा।

मैथ्यूज ने विस्तारपूर्वक समझाया “लाइकेन प्रदूषण संवेदनशील पादप है। इसकी कुछ स्पिशीज पाई जाती थीं, जो प्रदूषकों का अवशोषण करती थीं। मैंने बायोटेक्नोलॉजी द्वारा एक ऐसा पौधा तैयार किया है। जिसमें प्रदूषकों को अवशोषित करने का जीन मौजूद है।” और मैथ्यूज की बात खत्म होती, उससे पहले डॉ. चंद्रा ने कहा- “ये तो बहुत बड़ी बात है। मतलब हमारी समस्या का हल मिल गया।”

मैथ्यूज ने कहा पर अफसोस की बात यह है कि वह प्रदूषण अवरोधक जीन तभी सक्रिय होगा, जब उसमें लाइकेन का जीन फोड़ा जाये और आप तो जानते ही हैं कि लाइकेन विदेशों में प्रदूषण के कारण खत्म हो गया है जिससे इसका जीन मिलना मुश्किल हो गया है लेकिन मैंने सुना है कि भारत के हिमालयी इलाकों में लाइकेन की कुछ स्पिशीज जीवित हैं। अगर उसका जीन मिल जाये तो ऐसा सम्भव है।

“ठीक है, हम इसका जिम्मा लेते हैं। हम कल ही इसे ढूँढने के लिये हिमालय रवाना होंगे और उसका जीन लायेंगे” प्रोफेसर रविश और डॉ. मैथ्यूज ने कहा।

दूसरे दिन प्रोफेसर रविश और डॉ. चंद्रा अपने मिशन पर निकल गये। पर उन्हें वह पौधा नहीं मिला। पर कुछ दिन बाद उन्हें सफलता प्राप्त हुई, आखिर हिमालय की ऊँची तराइयों में उन्हें लाइकेन की कुछ स्पिशीज मिल गईं। उन्होंने उसका सैम्पल लिया और वापस आए।

वापस आकर चार्ल्स मैथ्यूज को उन्होंने लाइकेन का सैम्पल दिया। लाइकेन का जीन निकालकर ‘रिकॉम्बिनेट डीएनए टेक्नोलॉजी’ द्वारा उस पौधे के अन्दर डाला गया और उस पौधे को नाम दिया गया- ‘लाइकोग्रीन’ उन्होंने इसे आजमा कर देखा।

तीनों वैज्ञानिकों की खुशी की कोई सीमा न रही। उस पौधे ने आशा के अनुरूप काम किया और आस-पास के प्रदूषकों को अवशोषित कर वातावरण शुद्ध कर दिया। कुछ ही दिनों में उन्होंने इसके लाखों-करोड़ों सैम्पल तैयार किये और सरकार व वर्ल्ड पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की सहायता से विश्व के सभी बड़े महानगरों में लगाया गया। कुछ ही दिनों में प्रदूषण का स्तर सामान्य हो गया। ज्यादातर प्रदूषण अवशोषित हो गये थे।

जब मीडिया ने उनका इंटरव्यू लिया तो तीनों ने एक ही बात बोली कि ‘आखिरकार पेड़-पौधों ने ही हमें बचाया।’ धरती एक बार फिर विलोपन से बच गई थी।

श्री नितिश जयपाल
जयपाल हाउस ग्राम व पोस्ट मथुरा (कोहटन), जिला-बाड़मेर 344702 (राजस्थान)
मो- 07425832405
ईमेल-
nitishjaypa11999@gmail.com

 

 

 

TAGS

extinction of world due to pollution in Hindi, lichen plant in Hindi, save environment in Hindi, pollution in Hindi

 

 

 

Path Alias

/articles/chathaa-vailaopana

Post By: editorial
×