छत्तीसगढ़ : सामाजिक सांस्कृतिक क्रांति की व्यवस्था को चुनौती

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छत्तीसगढ़ी बड़ा भोला-भोला प्राणी है- श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी बातचीत के दौरान बता दे रहे थे। यूनियन के कार्यकर्ता ने उन्हें खबर दी कि लोग अपने जेवर बर्तन और पशु बेचते चले जा रहे हैं और कर्जा प्राप्त करने के लिए किसी आवेदन पत्र पर सैकड़ों रुपया खर्च कर रहे हैं। श्री नियोगी को आश्चर्य हुआ इतना आसानी से कर्जा कहां से मिल रहा है। तहकीकात करने पर पता चला कि कुछ धोखेबाजों ने पर्चा छपवाकर बंटवा दिया था जिसमें यह मांग की गई थी कि कर्जा दिलवाया जाएगा। पहाड़ियों की ढलानों और तराईयों में बसी बस्तियां कच्चे घर और झोपड़ियां बड़ी खूबसूरत लगती हैं, लोग अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने ऐसे मकानों में रहना पसंद करते हैं, इसलिए जब दल्ली राजहरा की लौह अयस्क की पहाड़ियों पर ऊपर-नीचे बसी बस्तियों को देखा तो बड़ा अच्छा लगा, लेकिन जब लोगों से बात हुई और उनकी रहन-सहन की भौतिक स्थितियां देखी तो सारा रोमांच हवा की तरह उड़ गया।

इन स्थानों पर रमणीय स्थलों की तरह कोई म्यूनिसिपैलिटी या टाउनशिप थोड़े ही होती है, जो उनके पानी, संडास नालियों और रास्तों की व्यवस्था करे। जिसे जहां जगह मिलती है, बस जाता है, चाहे जहां रास्ते बन जाते हैं और नालियां बन जाती हैं, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। सुबह उठकर कम से कम 4-5 कि.मी. पहाड़ पर चढ़कर लौह अयस्क खोदने जाना होता है। दल्ली-राजहरा का लोहा दुर्ग स्थित भिलाई स्टील प्लांट को भेजा जाता है, लेकिन बी.एस.पी. कोई बस वगैरह की व्यवस्था नहीं करती कि लोग दूर रहकर समय पर अपने कर्तव्य स्थल तक पहुंच सकें। न ही खदान में काम कर रहे मजदूरों की भौतिक आवश्यकताओं की समुचित व्यवस्था करती है।

करीब दस हजार मजदूर इन बेतरतीब बस्तियों में रहते हैं। अंदाजन तीस चालीस हजार लोग वहां रहते होंगे। शहर की आबादी एक लाख के आस-पास है। शहर में भी कोई म्यूनिसिपैलिटी वगैरह नहीं है। व्यापारी हैं, अफसर हैं, कर्मचारी हैं। उन्होंने भी अपने बड़े-बड़े और पक्के मकान बना लिए हैं, जो सब अनधिकृत हैं, इस अनधिकृत शहर में एक छोटी-सी पहाड़ी पर मजदूरों का अस्पताल है जिसे शहीद अस्पताल के नाम से जाना जाता है तथा जिसे शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ खदान श्रमिक संघ चलाता है। वर्तमान माहौल के हिसाब से यही बड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि यूनियन अस्पताल चलाए और वह भी सी.एम.एस. जैसा विरोधी और लड़ाकू श्रम संगठन। लेकिन जब मुझे मालूम पड़ा कि अस्पताल मजदूरों की श्रद्धा का केंद्र है, मजदूर बी.एस.पी. (भिलाई स्टील प्लांट) के अस्पताल में अपना इलाज कराते हैं और यूनियन के कार्यकर्ता नियमित अवैतनिक सेवा करते हैं जिसे ‘जनता सेवा’ कहा जाता है तो सचमुच हैरत हुई। मैं जब पिछले अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में वहां था तब पाकिस्तान, बांग्लादेश और लंका के कुछ युवा संगठनों के पंद्रह प्रतिनिधि जिनमें महिलाएं भी थी, इस अस्पताल की तथा सी.एम.एस.एस. की अन्य गतिविधियों को देखने पहुंचे थे।

अस्पताल में कार्यरत दो बंगाली डॉक्टर डॉ. विनायक सेन एवं डॉ. सेवाल जाना जो दिनरात अस्पताल में ही लगे रहते हैं, से अस्पताल की आवश्यकता, उसके विकास और भविष्य के बारे में लंबी चर्चाएं हुई।

छत्तीसगढ़ी बड़ा भोला-भोला प्राणी है- श्रमकि नेता शंकर गुहा नियोगी बातचीत के दौरान बता दे रहे थे। यूनियन के कार्यकर्ता ने उन्हें खबर दी कि लोग अपने जेवर बर्तन और पशु बेचते चले जा रहे हैं और कर्जा प्राप्त करने के लिए किसी आवेदन पत्र पर सैकड़ों रुपया खर्च कर रहे हैं। श्री नियोगी को आश्चर्य हुआ इतना आसानी से कर्जा कहां से मिल रहा है। तहकीकात करने पर पता चला कि कुछ धोखेबाजों ने पर्चा छपवाकर बंटवा दिया था जिसमें यह मांग की गई थी कि कर्जा दिलवाया जाएगा। लोग मांग पत्र को ही कर्जे का सौलभ्य समझकर सैकड़ों की संख्या में कर्जा लेने खड़े हो गए थे और घर बर्बाद कर बैठे। ऐसी अनेकों घटनाएं चलते रास्ते मिल जाएगी जो साबित करती है कि छत्तीसगढ़ी कितनी भोला भाला प्राणी है।

ऐसी भोली भाली कौम को अंधविश्वास में जकड़ देना और फिर शोषण करना बड़ा आसान है। अस्पताल खुलने के पूर्व लोगों की मान्यता थी कि ‘जिचकी’ (गर्भवती महिला) को पानी नहीं देना चाहिए। इसी तरह आलसमाता (टाइफाइड) में खाना पानी बंद कर देना चाहिए। यूनियन के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शनियां लगाई, बैगा के झाड़फूंकी उपचार का भंडाफोड़ किया, पानी की आवश्यकता को समझाया और इस तरह सैकड़ों लोगों की जान बचाई जो अंधविश्वास और पानी की कमी (डी हायड्रेशन) के कारण ही मर जाते थे। यूनियन के कार्यकर्ता जनता सेवा देने अस्पताल में छः-छः घंटे काम करते हैं और यहां तक कि रात को भी ड्यूटी देते हैं। सुबह 5-7 मील पहाड़ चढ़ते हैं लोहा खोदते हैं और उसके बाद अस्पताल में आकर अवैतनिक सेवाएं प्रदान करते हैं। नर्सों के पद पर अधिकांश मजदूरों की पढ़ी लिखी लड़कियां काम करती हैं जिन्हें अस्पताल ने ही प्रशिक्षित किया है।

पिछली कई दशाब्दियों से बड़ी जातियों ने छोटी जातियों को दबाकर रखा है। उनके आत्म सम्मान को कुचला है और उनके इतिहास को गाड़ दिया है, ताकि वे आने वाली सदियों तक बेजुबान संस्कृति की तरह अपना जीवन बिताते रहें। वीर नारायसिंह के नाम पर अब म.प्र. की सरकार जलसा मनाती है, लेकिन इस स्वतंत्रता सेनानी को खोजने का काम इतिहासकारों ने या सरकार ने नहीं किया। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता को ऊंचा उठाने वाले वीर नारायणसिंह की खोज शंकर गुहा नियोगी ने की थी। छत्तीसगढ़ में एक गाथा प्रचलित है कि एक राजा चांदनी रात में आता है और ललकारता है ‘अंग्रेज कहां है जिन्होंने हमारे घर जला दिए।’ श्री नियोगी को जब इसके बारे में पता चला तो उन्हें इस गाथा के पीछे इतिहास की खुशबू आई। वे खोज करते रहे और अंत में उन्हें एक वृद्ध मिला। उसने वीर नारायणसिंह के किस्से सुनाए। नियोगी ने इस किस्सों को इतिहास का रूप दिया। शुरू में नियोगी पर प्रबुद्ध लोगों ने विश्वास नहीं किया, लेकिन अब वीरनारायण सिंह को सभी इतिहास पुरुष मानने लगे हैं। छत्तीसगढ़ खदान श्रमिक संघ केवल आर्थिक लड़ाई तक ही सीमित नहीं है। ऊपर बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के द्वारा उन्होंने सामाजिक परिवर्तन किए। यहां यह लिखना भी जरूरी है कि उसका एक सांस्कृतिक संगठन भी है, जिसका नाम है ‘नवा अंजोर’। सी.एम.एस. का यह सांस्कृतिक प्रकोष्ठ ड्रामा, संगीत आदि क्रियाकलापों के जरिए छत्तीसगढ़ी जनता में अपनी पहचान और अस्मिता का गौरव पैदा कर रहा है। वे गांव-गांव घूमते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं और लोगों से बात करते हैं।

नियोगी का कार्य क्षेत्र केवल मजदूर नहीं है। उन्होंने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा गठित किया है जिसमें गांवों के मजदूर और किसान शरीक हैं। इस कारण दुर्ग और कांकेर क्षेत्र में वे एक राजनैतिक शक्ति बन गए हैं। इसके अलावा राजनांदगांव की कपड़ा मील के मजदूरों तथा बालाघाट के खदान के मजदूरों में भी उनका प्रभाव बढ़ा है। दल्ली राजहरा के करीब 8 हजार मजदूर समय पड़ने पर मजदूर आंदोलन के लिए 5 रू. प्रतिमाह तथा अनाज देते रहते हैं। दो तरह के लोग भी नियोगी का विरोध कर रहे हैं, एक तो यथास्थितिवादी जिनके हाथ में राजनैतिक शक्ति भी है और दूसरे कम्युनिस्ट यूनियन के लोग जिन्हें प्रतिद्वंद्विता में सी.एम.एस. ने बहुत पीछे धकेल दिया है।

अध्यक्ष महादेव साहू ने बतलाया कि 1975 की बात है मशीन पर काम करने वाले मजदूरों को 360 रु. बोनस दिया गया था, जबकि हाथ से खुदाई करने वालों को केवल 70 रु. दिया गया था। इससे असंतोष भड़क उठा था। उस समय न इंटक ने मजदूरों का साथ दिया और न ही एटक ने। बस यहीं से एक नई यूनियन का जन्म हुआ था जिसके नेतृत्व के लिए कुछ दिनों बाद श्री शंकर गुहा नियोगी को बुलाया गया था।

राजानांदगंव में एक समाजवादी नेता से नियोगी के बारे में चर्चा चल रही थी। मैंने पूछा था क्या नियोगी पक्के मार्क्सवादी विचारधारा के हैं? उनका जवाब था- कौन कहता है कि नियोगी कम्युनिस्ट है। जो ठेकेदारी प्रथा का समर्थन करता है वह कम्युनिस्ट कैसे हो सकता। इसलिए जब मैं दल्ली राजहरा में सी.एम.एस. यूनियन के कार्यालय में पहुंचा तो एक खोजी पत्रकार की तरह सबसे पहले मैंने कहा कि मैं आपके संगठन के पर्चों और मांगों की फेहरिस्त देखना चाहता हूं। उनकी फाइल पर जब मैं नजर दौड़ा रहा था तो मुझे स्पष्ट दिखाई दिया कि हमारे समाजवादी नेता कितने भ्रम में है। श्री नियोगी ने हमेशा इस बात की मांग की है कि जो खुदाई ठेकेदारों के द्वारा होती है उसे भिलाई स्टील प्लांट खुद करवाए। सी.एम.एस. का झगड़ा मशीनीकरण और गैरमशीनीकृत मजदूरी का है। बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों की खुदाई का काम मशीनों से हुआ तो दस हजार छत्तीसगढ़ी बेकार हुए। यह नजदीकी अनुभव दल्ली राजहरा के मजदूरों को खलता है और वे किसी भी कीमत पर बैलाडीला की मौत को दल्ली राहजरा पर मंडराने नहीं देना चाहते।

साइकिल पर सवार होकर जब पहाड़ियों के शिखर पर पहुंचा तो हांफ गया था, लेकिन मजदूर तो रोज ही उतनी दूर अधिकतर पैदल और कोई-कोई साइकिल अथवा ट्रकों से तय करते हैं। दल्ली राजहरा में खदानों की जो ‘बेल्ट’ है, वह देश की सबसे अच्छी बेल्ट है, क्योंकि इसमें खतरे सबसे कम है-ऐसा माना जाता है। इसका कारण मजदूरों का संगठन ही है। खदान देखते-देखते मुझे एक बड़ा भारी ढेर दिखाई दिया। उत्सुकतावश मैंने पूछा यह क्या है? मार्गदर्शक ने बड़ी सरलता से जवाब दिया-साब ये ‘रोजी’ है। मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि उस सूखे इलाके में ‘रोज’ या रोजी कहां से आ गया। बाद में मालूम पड़ा कि करीब 400 मीटर लंबा 200 मीटर चौड़ा और 200 मीटर गहरा वह पहाड़ था और स्टाफ यार्ड जहां खोदा गया लौह अयस्क एकत्रित किया जाता है, यह महीनों से पड़ा हुआ है, उठाया ही नहीं जा रहा है। इसके अलावा एक और ऐसा ही लौह अयस्क का पहाड़ उठाए जाने के इंतजार में पड़ा हुआ है। स्पष्ट है खदानों में पैदावार अधिक है, बी.एस.पी. इसका उपयोग नहीं कर रही है, लेकिन मशीन से पैदावार की जिद्द जारी है। यूनियन ने आंकड़े देकर यहां तक साबित किया है कि जो खर्च मशीनीकृत पैदावार में होता है, उससे कहीं कम खर्च अर्द्ध मशीनीकृत खुदाई में होता है।

मशीनीकृत पद्दथि में लगो मजदूर भयंकर विपरीत भौतिक परिस्थितियों में जी रहे हैं। 70 फीसदी मजदूर टी.बी. के मरीज हो गए हैं तथा अन्य पेट में दर्द, अस्थमा आदि बीमारी से पीड़ित हैं तथा 75 पीसदी पाइल्स के शिकार हो चुके हैं। 35 की उम्र के बाद ही बूढ़े हो जाते हैं और अपनी रिटायरमेंट की उम्र भी नहीं पहुंच पाते। कारखाने में जहां स्क्रीनिंग होती है, भयंकर धूल उड़ती है जहां ‘फाइंस’ निकाला जाता है वहां भयंकर गर्मी होती है। पानी नहीं डाला जा रहा था। हमने जांच की तो पाया कि शावर्स के नल ही खराब थे। बड़े-बड़े डोजर्स जब टनों माल इकट्ठा करते हैं और बड़े-बड़े शावलैस जब उस माल को उठाकर बंकरों में डालते हैं, तो ऐसा लगता है कि गिरते पड़ते बीमार मानवों को मशीन इकट्ठा करती है, उन्हें उठाती है और कब्रस्तान में पटक देती है।

इस मशीनी सभ्यता के खिलाफ शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में जबरदस्त मजदूर आंदोलन खड़ा हुआ है। यह आंदोलन केवल बोनस की लड़ाई नहीं लड़ता है। संपूर्ण जीवन पद्धति ही बदलना चाहता है। यूनियन अस्पताल चलाए, अंधविश्वास से लड़े, स्कूल चलाए, सहकारी संस्थाएं बनाए, मजदूरों के साथ किसानों का संगठन भी करा करे, वर्तमान यथास्थितिवादी पूंजीवादी आर्थिक नीतियों पर प्रहार करे, अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए एक नई वैचारिक क्रांति की अगुवाई करे और छत्तीसगढ़ में बस गए लोग यदि इसमें कोई दिलचस्पी न लें तो क्या कहा जाना चाहिए। क्या वे नहीं चाहते कि छत्तीसगढ़ में चेतना पैदा हो? जो लोग बाहर से आकर छत्तीसगढ़ में बस गए हैं वे भी छत्तीसगढ़ की मुक्ति का आंदोलन तो चलाते हैं, लेकिन क्या बात है कि जब गरीब खड़ा होता है तो मूक दर्शक बन जाते हैं? क्या उन्हें भय है कि शोषित संगठित हो गया तो उनके हितों को चोट पहुंचेगी? क्या वे छत्तीसगढ़ की मुक्ति का राग सिर्फ इसलिए अलापते हैं कि उन्हें और अधिक शोषण के लाभ मिलते रहे?

जो लोग यह कहते नहीं थकते कि राजनीति गंदी हो गई है तथा राजनैतिक दल निरर्थक हो गए हैं, वे भी जब बुनियादी सवालों से जूझने वाले मैदानी संगठनों से नहीं जुड़ते हैं तो यह कहा जा सकता है। शोषण और सामाजिक न्याय की बात तो बड़े जोर शोर से होती है, क्रांतिकारिता चलती है, लेकिन जैसे ही स्थापित व्यवस्था टूटती हुई नजर आती है वे अपना हाथ खींच लेते हैं। यही कारण है कि इस देश में परिवर्तन की धारा नहीं बह रही है। क्या नई पीढ़ी चुनौती को स्वीकार कर सकेगी?

साभार-अमृत संदेश, रायपुर, 17.2.1985

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