बारिश के दिनों में छत्तीसगढ़ को हरा-भरा बनाने का वादा दम तोड़ रहा है। हर साल ऐसा होता है। कई सालों से ऐसा ही हो रहा है। मगर छत्तीसगढ़ की हरियाली है कि बढ़ती नहीं। वन विभाग के आसमानी दावों को मानें तो 15 सालों में 75 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगाए जा चुके हैं। पेड़ लगाने के नाम पर महकमे ने हर साल 150 करोड़ रुपए खर्च किये। लेकिन ये पेड़ हैं कहाँ? यदि राजधानी रायपुर के आसपास ही 10 प्रतिशत पेड़ बच जाते तो शहर की सूरत के साथ हवा भी बदल जाती। उलटा पूरे राज्य में सैकड़ों वर्ग किमी वनावरण घट गया। तापमान एक डिग्री कम नहीं हुआ। शिरीष खरे की पड़ताल
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग, देहरादून की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 2011 में 55 हजार 674 वर्ग किमी क्षेत्र में वन था, लेकिन वर्ष 2014 में यह घटकर 55 हजार 621 वर्ग किमी हो गया। इनमें से 10 वर्ग किमी अति घने वन तथा 46 वर्ग किमी वनों में किमी आई है, जबकि इस दौरान मात्र तीन वर्ग किमी क्षेत्र में वन लगाए गए। रिपोर्ट के अनुसार विकास निर्माण, खनन और कब्जा होने की चलते वनों का आवरण कम हुआ है। बीते एक दशक में 550 वर्ग किमी में सघन वन क्षेत्र से पेड़ उजड़ गए हैं।बिजली हासिल करने की दौड़ ने प्रदेश के जंगलों के भविष्य पर अन्धेरे की चादर उड़ा दी है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कराए जा रहे सर्वे की प्रारम्भिक रिपोर्ट के अनुसार कोयला खदान और थर्मल पॉवर प्लांट्स पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इसी तरह से जंगल काटा गया तो 80 साल में छत्तीसगढ़ में जंगल पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।
जंगलों पर निर्भर नदियाँ भी खत्म हो जाएँगी और सामान्य तापमान के तीन से चार डिग्री सेल्सियस बढ़ने की आशंका है। पॉवर स्टेट बनने की चाह में यहाँ कोयले की खदानें और थर्मल पावर प्लांटों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
अकेले नकिया कोल ब्लॉक के लिये चार लाख पेड़ों की कटाई की गई है। इससे जैवविविधता को खतरा है। थर्मल पावर प्लांट्स में कोयले के उपयोग से वायुमंडल गर्म हो रहा है। रायपुर, बिलासपुर और कोरबा जिला इसका उदाहरण है। यहाँ गर्मी में सामान्य तापमान हर साल एक से दो डिग्री बढ़ रहा है।
प्रदेश में अभी 39 कोयला खदानें और 16 थर्मल पावर प्लांट हैं, वहीं 12 अण्डर कंस्ट्रक्शन हैं। कोरबा, कोरिया और सरगुजा जिले के नीचे 50 हजार मिलियन टन कोयला अभी ज़मीन के नीचे है। देश के कोयला उत्पादन में हर साल छत्तीसगढ़ का योगदान 21 प्रतिशत से अधिक रहता है।
रायगढ़ और कोरबा में छह-छह, सूरजपुर और कोरिया में 11-11, सरगुजा में चार और बलरामपुर में एक-एक कोयला खदान है। कोयला खदानें बढ़ाने के लिये बड़े पैमाने पर पेड़ों की बलि ली जाएगी।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग, देहरादून की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 2011 में 55 हजार 674 वर्ग किमी क्षेत्र में वन था, लेकिन वर्ष 2014 में यह घटकर 55 हजार 621 वर्ग किमी हो गया। इनमें से 10 वर्ग किमी अति घने वन तथा 46 वर्ग किमी वनों में किमी आई है, जबकि इस दौरान मात्र तीन वर्ग किमी क्षेत्र में वन लगाए गए।
रिपोर्ट के अनुसार विकास निर्माण, खनन और कब्जा होने की चलते वनों का आवरण कम हुआ है। बीते एक दशक में 550 वर्ग किमी में सघन वन क्षेत्र से पेड़ उजड़ गए हैं। वृक्षारोपण के 95 प्रतिशत काम वनों के भीतर कराए जाने के बाद हालत यह है।
दूसरी ओर, राज्य में नगरीय क्षेत्र के महज 16 प्रतिशत हिस्से में वृक्षावरण है। यहाँ 1866 वर्ग किमी लम्बा-चौड़ा नगरीय क्षेत्र है, लेकिन केवल 400 वर्ग किमी में ही आवरण है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट वन विभाग के सारे दावों की हवा निकाल रही है।
देश के पहाड़ी एवं जनजातीय जिलों में दो सालों के दौरान वनावरण 40 वर्ग किमी बढ़ा है लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसे जिलों की तस्वीर एकदम अलग है।
बस्तर में 19 वर्ग किमी, दुर्ग में 12 वर्ग किमी, दंतेवाड़ा में 10 वर्ग किमी, कांकेर में 9 वर्ग किमी, कवर्धा में 6 वर्ग किमी, सरगुजा और बिलासपुर में पाँच-पाँच वर्ग किमी, कोरबा में चार वर्ग किमी और महासमुंद, रायगढ़ तथा राजनांदगाँव जिले में दो-दो वर्ग किमी क्षेत्र में वन कम हुए है। जांजगीर-चांपा और दुर्ग न्यूनतम आवरण वाले जिले हैं।
बीते दिनों मंत्रालय में हुई समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने विभाग को इस वर्ष 8 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य दिया। मगर इस दौरान मुख्यमंत्री ने रोपण से ज्यादा उनकी सुरक्षा पर ध्यान दिये जाने पर जोर दिया। दरअसल, हरिहर छत्तीसगढ़ बनाने के लिये विभाग अपने कागजी घोड़े दौड़ा रहा है।
उसके पास इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि हकीक़त में कितने पेड़ उसने लगाए ही नहीं हैं और जो लगाए हैं उनमें कितने जिन्दा हैं। कायदे से इन पौधों की तीन साल तक लगातार देखभाल होनी चाहिए। साथ ही पौधे सूखने और जानवरों से बचाना भी विभाग की जिम्मेदारी है। दिक्कत यह है कि अधिकारियों को नहीं मालूम कितने पौधे विभिन्न कारणों से मर जाते हैं।
वन-विभाग द्वारा वनक्षेत्र में वृक्षरोपण
वन-विभाग से वृक्षारोपण के लक्ष्य और रोपण से जुड़ी संख्याएँ जारी होती हैं, लेकिन रोपण के बाद कितने वृक्ष बचे और विभिन्न कारणों से कितने कटे जैसी आँकड़े जारी नहीं किये जाते हैं। खास बात है कि जिन तरीकों से वृक्षों की अकाल मौत से जुड़ी गणनाएँ हो सकती हैं, मगर वृक्षों के उजाड़ पर पर्दा डालने का काम हो रहा है-
वार्षिक प्रतिवेतन में बिगाड़ वनों को सुधारने के नाम पर अलग-अलग योजनाओं के लगाए गए वृक्षों का विस्तृत ब्यौरा और बजट आवंटन दिखाया जाता है, लेकिन वृक्षों के सूखने की संख्या छिपा ली जाती हैं।
बीते दस सालों की कमियों को आधार बनाकर कार्ययोजना तैयार की जाती है। मगर जब यह सार्वजनिक होती है तो अगले दशक की योजना ही बताई जाती है और बीते दशक की कमियों की सूचनाएँ केवल बड़े अधिकारियों तक सीमित रह जाती हैं।
विभागीय स्तर पर डिवीजन के आधार पर कार्यों की समीक्षा होती है, लेकिन एक डिवीजन के अधिकारी दूसरे डिवीजन की कमियों की अनदेखी इसलिये करते हैं कि दूसरे डिवीजन के अधिकारी उनके डिवीजन की वाहवाही करें।
विभाग के बाहर निष्पक्षता से मूल्यांकन करने वाली सरकारी या गैर-सरकारी एजेंसी से समीक्षा कराने से बचा जाता है। इसके चलते वृक्षों की बर्बादी का मोटा लगाने से भी बचा जाता है।
कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2012 के दौरान जंगल काटने के मामले में छत्तीसगढ़ आगे है। इन 6 सालों के अन्दर राज्य की 20456.19 हेक्टेयर वनभूमि का दूसरे उद्देश्यों के लिये डायवर्सन कर दिया गया। नियमों के मुताबिक इस ज़मीन के बदले में इतनी ही ज़मीन वन-विभाग को देनी चाहिए थी। मगर एक इंच गैर वनभूमि भी वन विभाग को नहीं दी गई।
रिपोर्ट में निजी कम्पनियों को वनभूमि के आवंटन पर भी उँगलियाँ उठाई गई हैं। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिवों (सीएस) ने प्रमाणपत्र दिये हैं कि उनके वन विभाग को लौटाने के लिये गैर वन भूमि उपलब्ध नहीं है। इन प्रमाणपत्रों पर इस आधार पर सन्देह जताया गया है कि छत्तीसगढ़ राजस्व विभाग के रिकार्ड में 5 लाख हेक्टेयर से अधिक गैर वनभूमि इस प्रयोजन के लिये उपलब्ध है।
छत्तीसगढ़ के जंगल उजड़ ज्यादा रहे हैं
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग, देहरादून की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 2011 में 55 हजार 674 वर्ग किमी क्षेत्र में वन था, लेकिन वर्ष 2014 में यह घटकर 55 हजार 621 वर्ग किमी हो गया। इनमें से 10 वर्ग किमी अति घने वन तथा 46 वर्ग किमी वनों में किमी आई है, जबकि इस दौरान मात्र तीन वर्ग किमी क्षेत्र में वन लगाए गए। रिपोर्ट के अनुसार विकास निर्माण, खनन और कब्जा होने की चलते वनों का आवरण कम हुआ है। बीते एक दशक में 550 वर्ग किमी में सघन वन क्षेत्र से पेड़ उजड़ गए हैं।बिजली हासिल करने की दौड़ ने प्रदेश के जंगलों के भविष्य पर अन्धेरे की चादर उड़ा दी है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कराए जा रहे सर्वे की प्रारम्भिक रिपोर्ट के अनुसार कोयला खदान और थर्मल पॉवर प्लांट्स पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इसी तरह से जंगल काटा गया तो 80 साल में छत्तीसगढ़ में जंगल पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।
जंगलों पर निर्भर नदियाँ भी खत्म हो जाएँगी और सामान्य तापमान के तीन से चार डिग्री सेल्सियस बढ़ने की आशंका है। पॉवर स्टेट बनने की चाह में यहाँ कोयले की खदानें और थर्मल पावर प्लांटों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
अकेले नकिया कोल ब्लॉक के लिये चार लाख पेड़ों की कटाई की गई है। इससे जैवविविधता को खतरा है। थर्मल पावर प्लांट्स में कोयले के उपयोग से वायुमंडल गर्म हो रहा है। रायपुर, बिलासपुर और कोरबा जिला इसका उदाहरण है। यहाँ गर्मी में सामान्य तापमान हर साल एक से दो डिग्री बढ़ रहा है।
यह है स्थिति
प्रदेश में अभी 39 कोयला खदानें और 16 थर्मल पावर प्लांट हैं, वहीं 12 अण्डर कंस्ट्रक्शन हैं। कोरबा, कोरिया और सरगुजा जिले के नीचे 50 हजार मिलियन टन कोयला अभी ज़मीन के नीचे है। देश के कोयला उत्पादन में हर साल छत्तीसगढ़ का योगदान 21 प्रतिशत से अधिक रहता है।
रायगढ़ और कोरबा में छह-छह, सूरजपुर और कोरिया में 11-11, सरगुजा में चार और बलरामपुर में एक-एक कोयला खदान है। कोयला खदानें बढ़ाने के लिये बड़े पैमाने पर पेड़ों की बलि ली जाएगी।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग, देहरादून की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 2011 में 55 हजार 674 वर्ग किमी क्षेत्र में वन था, लेकिन वर्ष 2014 में यह घटकर 55 हजार 621 वर्ग किमी हो गया। इनमें से 10 वर्ग किमी अति घने वन तथा 46 वर्ग किमी वनों में किमी आई है, जबकि इस दौरान मात्र तीन वर्ग किमी क्षेत्र में वन लगाए गए।
रिपोर्ट के अनुसार विकास निर्माण, खनन और कब्जा होने की चलते वनों का आवरण कम हुआ है। बीते एक दशक में 550 वर्ग किमी में सघन वन क्षेत्र से पेड़ उजड़ गए हैं। वृक्षारोपण के 95 प्रतिशत काम वनों के भीतर कराए जाने के बाद हालत यह है।
दूसरी ओर, राज्य में नगरीय क्षेत्र के महज 16 प्रतिशत हिस्से में वृक्षावरण है। यहाँ 1866 वर्ग किमी लम्बा-चौड़ा नगरीय क्षेत्र है, लेकिन केवल 400 वर्ग किमी में ही आवरण है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट वन विभाग के सारे दावों की हवा निकाल रही है।
यहाँ तेजी से घट रहे वन
देश के पहाड़ी एवं जनजातीय जिलों में दो सालों के दौरान वनावरण 40 वर्ग किमी बढ़ा है लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसे जिलों की तस्वीर एकदम अलग है।
बस्तर में 19 वर्ग किमी, दुर्ग में 12 वर्ग किमी, दंतेवाड़ा में 10 वर्ग किमी, कांकेर में 9 वर्ग किमी, कवर्धा में 6 वर्ग किमी, सरगुजा और बिलासपुर में पाँच-पाँच वर्ग किमी, कोरबा में चार वर्ग किमी और महासमुंद, रायगढ़ तथा राजनांदगाँव जिले में दो-दो वर्ग किमी क्षेत्र में वन कम हुए है। जांजगीर-चांपा और दुर्ग न्यूनतम आवरण वाले जिले हैं।
अधिकारी दौड़ा रहे घोड़े
बीते दिनों मंत्रालय में हुई समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने विभाग को इस वर्ष 8 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य दिया। मगर इस दौरान मुख्यमंत्री ने रोपण से ज्यादा उनकी सुरक्षा पर ध्यान दिये जाने पर जोर दिया। दरअसल, हरिहर छत्तीसगढ़ बनाने के लिये विभाग अपने कागजी घोड़े दौड़ा रहा है।
उसके पास इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि हकीक़त में कितने पेड़ उसने लगाए ही नहीं हैं और जो लगाए हैं उनमें कितने जिन्दा हैं। कायदे से इन पौधों की तीन साल तक लगातार देखभाल होनी चाहिए। साथ ही पौधे सूखने और जानवरों से बचाना भी विभाग की जिम्मेदारी है। दिक्कत यह है कि अधिकारियों को नहीं मालूम कितने पौधे विभिन्न कारणों से मर जाते हैं।
वन-विभाग द्वारा वनक्षेत्र में वृक्षरोपण
वर्ष | वृक्ष |
2011-12 | 4.69 करोड़ |
2012-13 | 4.76 करोड़ |
2013-14 | 4.90 करोड़ |
2014-15 | 5.85 करोड़ |
योग - चार साल | 20 करोड़ 2 लाख वृक्ष |
सबूत छिपाने में ज्यादा माहिर
वन-विभाग से वृक्षारोपण के लक्ष्य और रोपण से जुड़ी संख्याएँ जारी होती हैं, लेकिन रोपण के बाद कितने वृक्ष बचे और विभिन्न कारणों से कितने कटे जैसी आँकड़े जारी नहीं किये जाते हैं। खास बात है कि जिन तरीकों से वृक्षों की अकाल मौत से जुड़ी गणनाएँ हो सकती हैं, मगर वृक्षों के उजाड़ पर पर्दा डालने का काम हो रहा है-
दोष एक
वार्षिक प्रतिवेतन में बिगाड़ वनों को सुधारने के नाम पर अलग-अलग योजनाओं के लगाए गए वृक्षों का विस्तृत ब्यौरा और बजट आवंटन दिखाया जाता है, लेकिन वृक्षों के सूखने की संख्या छिपा ली जाती हैं।
दोष दो
बीते दस सालों की कमियों को आधार बनाकर कार्ययोजना तैयार की जाती है। मगर जब यह सार्वजनिक होती है तो अगले दशक की योजना ही बताई जाती है और बीते दशक की कमियों की सूचनाएँ केवल बड़े अधिकारियों तक सीमित रह जाती हैं।
दोष तीन
विभागीय स्तर पर डिवीजन के आधार पर कार्यों की समीक्षा होती है, लेकिन एक डिवीजन के अधिकारी दूसरे डिवीजन की कमियों की अनदेखी इसलिये करते हैं कि दूसरे डिवीजन के अधिकारी उनके डिवीजन की वाहवाही करें।
दोष चार
विभाग के बाहर निष्पक्षता से मूल्यांकन करने वाली सरकारी या गैर-सरकारी एजेंसी से समीक्षा कराने से बचा जाता है। इसके चलते वृक्षों की बर्बादी का मोटा लगाने से भी बचा जाता है।
21 हजार हेक्टेयर वनभूमि का डार्यवर्सन
कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2012 के दौरान जंगल काटने के मामले में छत्तीसगढ़ आगे है। इन 6 सालों के अन्दर राज्य की 20456.19 हेक्टेयर वनभूमि का दूसरे उद्देश्यों के लिये डायवर्सन कर दिया गया। नियमों के मुताबिक इस ज़मीन के बदले में इतनी ही ज़मीन वन-विभाग को देनी चाहिए थी। मगर एक इंच गैर वनभूमि भी वन विभाग को नहीं दी गई।
रिपोर्ट में निजी कम्पनियों को वनभूमि के आवंटन पर भी उँगलियाँ उठाई गई हैं। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिवों (सीएस) ने प्रमाणपत्र दिये हैं कि उनके वन विभाग को लौटाने के लिये गैर वन भूमि उपलब्ध नहीं है। इन प्रमाणपत्रों पर इस आधार पर सन्देह जताया गया है कि छत्तीसगढ़ राजस्व विभाग के रिकार्ड में 5 लाख हेक्टेयर से अधिक गैर वनभूमि इस प्रयोजन के लिये उपलब्ध है।
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