छोटे किसानों की आय कैसे बढ़ाई जा सकती है

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कारण 1: 26.30 करोड़ भारतीय किसान और कृषि क्षेत्र में मजदूर हैं। 43 करोड़ खेती पर निर्भर हैं। अगर इतने सारे भारतीयों के पास बुनियादी आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी, तो भारत को समृद्ध देश नहीं माना जा सकता अगर इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं…

कारण 2: किसान ग्राहक होते हैं और अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान देते हैं।

कारण 3: किसानों के मुद्दे भारत की राजनीति को प्रभावित करते हैं... राजनीति का नीतियों पर असर पड़ता है… जिसका आप पर असर पड़ता है फिर भले ही आप किसान हों या न हों…

कितने किसान छोटे हैं?

1. 35% किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से कम जमीन है।
2. 69% के पास 1 हेक्टेयर से कम जमीन है।
3. 87% के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है।

केवल शीर्ष 13% किसानों के पास ही 2 हेक्टेयर से अधिक जमीन है (एक हेक्टेयर=100 मीटर X 100 मीटर। सामान्य क्रिकेट का मैदान = 1.25 हेक्टेयर होता है)

छोटे किसान मतलब कम आमदनी

0.4 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान सालाना रु. 8,000 कमाते हैं। 1 से 2 हेक्टेयर के बीच जमीन वाले किसान सालाना रु. 50,000 कमाते हैं। इस अल्प आय की पूर्ति के लिये किसान मवेशी, भेड़, बकरी, मुर्गी आदि पालते हैंं और साथ ही उन्हें मनरेगा या शहरों में एक मजदूर के रूप में भी काम करना पड़ता है- खासकर जब खेती का मौसम न हो तब।

हाँ, ये राष्ट्रीय औसत है इसलिये अलग-अलग प्रदेशों में काफी अन्तर होगा, और ऐसे कई प्राकृतिक कारक हैं जो किसानों की आय को प्रभावित करते हैं- लेकिन ये आँकड़े स्पष्ट संकेत करते हैं कि किसानों की आय कितनी चिन्ताजनक रूप से कम है।

अतिरिक्त चिन्ता: जोखिम

न केवल सिर्फ आय कम है, बल्कि खेती में जोखिम भी है! किसान को सामना करना पड़ता है ऐसे कुछ जोखिम:

1. अपर्याप्त या असामयिक (जल्दी/देर से )बारिश।
2. फसलों पर कीटों द्वारा हमला होने का खतरा है।
3. कई अन्य प्राकृतिक कारणों से भी फसल खराब हो जाती है।
4. अगर कटाई के समय फसल की अस्थाई भरमार हो जाए, तो भी कीमतें गिर सकती हैं।

बुनियादी चीजों के लिये पैसे चाहिए

किसान अपने लिये अन्न तो उगा सकता है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजों के लिये उसे पैसों की जरूरत पड़ती है।

सार्वजनिक शिक्षा अपर्याप्त है और किसान को अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये पैसों की जरूरत पड़ती है।

भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ विश्वसनीय नहीं हैं और चिकित्सकीय आपात स्थिति किसान को कर्ज की तरफ धकेल सकती है।

छोटे किसान को अपने जीवन में सम्भलकर चलना पड़ता है।

तो फिर किसान कैसे ज्यादा कमा सकते हैं?

दो तरीकों से किसान ज्यदा कमा सकते हैं:

1. ज्यादा उगाएँ
2. ज्यादा पैसे प्राप्त करें

कम लागत में उसी जमीन पर ज्यादा फसलों को उगाएँ। अपनी उगाई हुई फसल के लिये ज्यादा दाम प्राप्त करें। चलिये दोनों तरीकों पर नजर डालते हैं।

1. ज्यादा कैसे उगाएँ

सिंचाई को बढ़ाने से ज्यादा उगाने में सबसे बड़ी मदद मिल सकती है।

1. सिंचाई वाले मौसम में 4.5 गुना।
2. और सिंचाई के साथ सालाना 3.15 गुना।

ज्यादा पानी से

1. किसान को अपनी पहली फसल पर बेहतर उपज मिलती है,
2. दूसरी और यहाँ तक कि तीसरी फसल भी उगा सकता है।
3. दूसरी फसल किसान को जोखिम लेने का मौका देती है और वह ऐसी फसल उगा सकता है जिससे उसे काफी बेहतर कीमत मिले।

1A. ज्यादा उगाएँ, ज्यादा पानी

पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिये 4 पद्धतियाँ हैं

1. वाटरशेड का निर्माण स्थानीय पानी को बचाने के लिये।
2. कमाण्ड एरिया सिंचाई के लिये बड़ी सिंचाई परियोजनाएँ।
3. जमीन से पानी निकालना।
4. लिफ्ट सिंचाई जैसी अन्य पद्धतियाँ।

वाटर शेड (जल संग्रह) का निर्माण कहाँ?

सिंचाई नहरों के बिना शुष्क और निर्जल क्षेत्र, जहाँ भूमिगत जल काफी गहरा होता है!

लक्ष्य?

1. बारिश के पानी को बह जाने से बचाना
2. मिट्टी की नमी के स्तर में वृद्धि करना
3. खुले कुओं और भूजल के स्तर में सुधार करना
4. पूरे साल पीने का पानी उपलब्ध कराना

वाटरशेड का निर्माण

ढलान वाला क्षेत्र- पानी के प्रवाह को धीमा करने के लिये समोच्च गड्ढे बनाना और वृक्षारोपण करना।
ड्रेनेज लाइन क्षेत्र कंकर के बाँध और सीमेंट बाँध बनाना।

कृषि क्षेत्र के काम में खेत, बाँध और खेत तालाब बनाना शामिल है।

वाटर शेड निर्माण की जटिलताएँ

1. लागत और लाभ असमान रूप से वितरित होते हैं। उदाहरण: ढलान के किसानों को अपनी जमीन में से कुछ हिस्सा छोड़ना पड़ता है, लेकिन सबसे ज्यादा फायदा घाटी में किसानों को होता है।

2. बाँध की पोजीशन महत्त्वपूर्ण है, इस मुद्दे पर राजनीति हो सकती है जातीय राजनीति भी।

3. अगर ज्यादा पानी से कुछ किसान ज्यादा मुनाफे वाली फसलों की ओर मुड़ते हैं, तो अन्य किसानों को कम पानी मिलता है।
4. वाटर शेड निर्माण एक तकनीकी कौशल है, जो काफी कम मात्रा में उपलब्ध है।

सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं की जटिलताएँ

आजादी के बाद के दशकों में बाँधों और नहरों का एक बड़ा नेटवर्क बनाया गया और उसने भारत की हरित क्रान्ति और खाद्य सुरक्षा के लिये बहुत योगदान दिया, लेकिन आज यह पद्धति अस्थिर है, क्योंकि:

1. बड़े पैमाने पर विरोध क्योंकि विस्थापित लोगों के पुनर्वास का रिकॉर्ड काफी खराब रहा है।
2. महँगा रख-रखाव निरन्तर आधार पर आवश्यक हो जाता है।
3. अतीत में लगे भ्रष्टाचार के आरोप इसे वर्तमान में शुरू करने के लिये राजनीतिक रूप से असमर्थनीय बना देता है।
4. बिल्कुल छोर वाले किसान पानी से वंचित रह जाते हैं क्योंकि बाँध के नजदीक वाले किसान अधिक-से-अधिक मात्रा में पानी उपयोग करते हैं जिससे प्रवाह के छोर तक काफी कम पानी पहुँचता है।

जमीन से पानी निकालने की जटिलताएँ

जमीन से पानी को सदियों से निकाला जा रहा है और हर साल बारिश से फिर से भरा जाता है, लेकिन...बारिश में फिर से भरे गए पानी की तुलना में मुफ्त बिजली तथा सब्सिडी वाले ईंधन का उपयोग कर पम्प से किसान अधिक पानी का उपयोग कर सकते हैं।

कम गरीब किसान अक्सर बहुत गहरे बोरवेल खुदवा कर सभी उपलब्ध पानी को बाहर खींच लेते हैं और इससे गाँव में आम पानी के कुओं से पीने का पानी भी सूख सकता है।

अत्यधिक हद तक निर्भरता ज्यादा पानी से किसान अधिक कमाई वाली ज्यादा पानी वाली फसलों की तरफ जा सकते हैं, लेकिन इससे उन्हें अचानक से ही पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है।

स्थिरता की आवश्यकता पानी का आपूर्ति में वृद्धि से माँग में बेमेल वृद्धि हो सकती है और सामुदायिक संस्थाओं और संगठन को स्थिरता सुनिश्चित करनी पड़ सकती है।

कानूनी ढाँचा भले ही जमीन से पानी निकालने के लिये कानून बनाए गए हों- फिर भी किसान शायद ही कभी इस बारे में बोलते हैं क्योंकि उन्हें अपनी आय बढ़ाने की कोशिश में कोई बुराई नहीं दिखती।

महबूब नगर का उदाहरण

1. तेलगांना का आधा बंजर क्षेत्र, जहाँ हर साल मुश्किल से 600 मिमी तक ही बारिश होती है। 2. ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों के लिये जमीन से पानी निकालने की प्रतिस्पर्धा ने पहले से ही सूखे जैसी स्थिति को और खराब कर दिया।

3. वर्ष 2007 में, हैदराबाद स्थित गैर सरकारी संगठन, वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (WASSAN) ने बारिस के पानी से सींची जाने वाली फसलों को बचाने के लिये भूजल को इकट्ठा किया।

4. जमीन मालिकों ने 50 से 100 एकड़ जमीन के पूरे ब्लॉक के लिये महत्त्वपूर्ण सिंचाई उपलब्ध कराने के लिये बोरवेल साझा किए, पहली प्राथमिकता थी कि सभी फसलों को बचाना, नाकि कुछ का पनपना।

सामूहिक मॉडल निम्नलिखित पर आधारित था:

1. व्यक्तिगत किसान के बजाय पूरे क्षेत्र की सिंचाई पर बल दिया गया।
2. जमीन का पानी एक सामूहिक सम्पत्ति है नाकि निजी सम्पत्ति।

सफल कहानी के तत्व

1. गाँव के लिये मौजूदा ट्यूबवेलों से वोटर ग्रिड बनाई गई।
2. फव्वारे जैसी तकनीक और सर्दियों में मूँगफली और लोबिया जैसी कम पानी की खपत वाली फसलें उगाने के लिये गाँव वालों की प्रतिबद्धता से पानी का नुकसान कम हुआ।
3. लागत साझा करने और नए कुओं की खुदाई न करने जैसे नियम के लिये सहमति।
4. फसल विविधीकरण बायोमास में वृद्धि तथा गेर्निक्स, पलवार, मेंड़बन्दी, और जल संचयन से मिट्टी और नमी का संरक्षण करने के लिये कदम उठाए गए।

प्रभाव: सिंचित क्षेत्र का दोगुना होना

1. साझे क्षेत्र के एक बड़े हिस्से (40%) को सुरक्षात्मक सिंचाई प्रदान की गई।
2. अनाज के उत्पादन में 240% तक वृद्धि हुई और चारे में 300 % वृद्धि हुई।
3. प्रति बोरवेल कुल रु 7812 का अतिरिक्त लाभ हुआ।
4. पम्प चलाने के कुल समय में लगभग 25% तक बचत हुई जिसके परिणामस्वरूप भूजल और बिजली दोनों की बचत हुई।
5. पानी को सुरक्षित क्षेत्र के भीतर ही निकाला गया।

ऐसे उपाय जिनसे पानी की उपलब्धता बढ़े जो किसान की आय और जीवन में बदलाव ला सकते हैं:

1. अगर उपाय तकनीकी रूप से ठोस हैं और
2. अगर माँग को प्रबन्धित किया जाता है ( अगर समुदाय आपूर्ति की तुलना में माँग में वृद्धि न करें)।

इसके महत्त्वपूर्ण तत्व हैं

1. सब का लाभ ना कि केवल कुछ लोगों का।
2. प्रभावी स्थानीय नेतृत्व।

1B ज्यादा उगाएँ, फसल से बेहतर उपज

अधिक उपज का दूसरा तरीका है: फसल से बेहतर उपज हर बुवाई में अधिक फसल उगाकर आय बढ़ाने के लिये निम्नलिखित तरीके हैं:


ड्रिप सिंचाईड्रिप सिंचाई ऐसी तकनीकें जिनसे किसान प्रति एकड़ में अधिक फसल उगा सकते हैं:

उदाहरण: SRI तकनीकों के प्रयोग से चावल की उपज में प्रति हेक्टेयर 22 टन से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है।

ज्यादा उपज वाले बीज और ऐसे बीज जो किसी खास क्षेत्र में खराब परिस्थितियों की क्षतिपूर्ति करते हों।

उदारहरण: ऐसे बीज जिनसे धान को खारे पानी में उगाया जा सकता है।

बेहतर खाद, कीटनाशक और कृमिनाशक जो किसानों की जमीन में पोषक तत्वों की कमी और फसल को प्रभावित करती खरपतवार और कीटों को हटाकर मदद करते हैं।

टपकन सिंचाई जैसी तकनीकों से किसान पानी जैसे सबसे दुर्लभ घटक का सही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं।

जानकारी का आदान-प्रदान: किसान को अपने लिये सबसे अच्छे विशिष्ट बीज, उर्वरक और तकनीक के बारे में सीमित जानकारी होती है। अक्सर बेचने वाले ही जानकारी का एकमात्र स्रोत होते हैं, जो उचित नहीं है। कृषि विश्वविद्यालय और संस्थानों को इस अन्तर को ज्यादा तेजी से भरने की जरूरत है। कुछ राज्यों में कृषि विश्वविद्यालयों और संस्थानों के अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी प्रदर्शन से पता चलता है कि भारत में यह सम्भव है।

ऋण की उपलब्धता: उपरोक्त वर्णित कई तकनीक में सबसे पहले निवेश की आवश्यकता होगी और उसके लिये किसान को किफायती दरों पर ऋण की आवश्यकता होगी।

जोखिम उठाने की सीमित क्षमता: एक छोटे किसान की जोखिम उठाने की क्षमता बहुत ही सीमित होती है। पारम्परिक तरीकों से हटकर कुछ करने का निर्णय अगर विफल रहता है तो यह उसके लिये जीवन और मृत्यु का निर्णय बन जाता है।

1. खेती के लिये जरूरी वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ सकती हैं।

देश भर में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ बुवाई के मौसम के दौरान बेईमान खुदरा विक्रेताओं द्वारा उर्वरक को बहुत ही अधिक कीमत पर बेचा गया हो। इसके अलावा, निजी कम्पनियाँ अपने उच्च उपज वाले बीज की कीमतों में वृद्धि कर सकती हैं जिससे उच्च उपज का लाभ लगभग ना के बराबर रह जाता है।

2. किसान खेती के लिये जरूरी इन वस्तुओं को ऋण पर भी ले लेते हैं, जिससे उनका जोखिम अधिक बढ़ जाता है।

एक अकेला किसान मोल भाव नहीं कर सकता, अगर इस पूरी शृंखला में केवल कुछ लोग ज्यादा उपज वाली वस्तुएँ प्रदान कर रहे हों जो ‘थोड़ा अधिक’ मुनाफा चाहते हों, तो किसान का लाभ गायब हो जाता है या किसान को नुकसान भी हो सकता है।

फसल से बेहतर उपज: लागत चक्र

किसान की उपज खेती के लिये जरूरी वस्तुओं की बेहद गुणवत्ता से बढ़ सकती है, लेकिन-

1. इनमें से कई वस्तुएँ क्षेत्र के आधार पर होती हैं और कम्पनी उसके शोध पर काफी खर्च करती है। इसीलिये कम्पनी इस खर्च को वसूलना चाहती है।
2. हालांकि, इन वस्तुओं की अधिक कीमत से वास्तव में किसान की शुद्ध आय घट सकती है और इन वस्तुओं को खरीदने के लिये ऋण की लागत से किसान संकट में आ सकता है।
3. इन वस्तुओं की लागत के अनौपचारिक नियमों से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।

सरकार कैसे मदद कर सकती है

1. खेती में सहायक वस्तुओं के लिये अनुसन्धान और उत्पादन के लिये एक प्रतिस्पर्धी परिदृश्य का निर्माण करना।
2. महत्त्वपूर्ण वस्तुओं के नियमन के लिये पारदर्शी नीति वाला ढाँचा बनाएँ ताकि कोई भी विक्रेता अपनी एकाधिकार शक्तियों का दुरुपयोग न कर सके।

2. अधिक प्राप्त करें, प्रणाली

उपभोक्ताओं की थाली तक पहुँचने से पहले किसान द्वारा उगाई गई खाद्य वस्तुएँ कई बिचौलियों के माध्यम से होकर गुजरती हैं।

किसानों को कीमतों में वृद्धि का लाभ क्यों नहीं मिल पाता?

मोल-भाव की सीमित क्षमता यहाँ तक कि बड़े किसान भी किसी आम बाजार में छोटे उत्पादक होते हैं और थोक खरीददार उनकी बताई कीमत पर बेचो या चलते बनो वाली नीति अपनाते हैं जो किसानों को मजबूरन स्वीकार करनी पड़ती है।

APMC की गुटबन्दी किसानों की मदद करने के बजाय APMC अब ऐसी नीतियाँ बना रहीं हैं जहाँ एजेंट 5 मिनट से कम समय की नीलामी के लिये 6% से 10% तक शुल्क ले सकते हैं।

भण्डारण सुविधाओं का अभाव चूँकि भण्डारण उपलब्ध नहीं होता इसलिये किसान को उपज के बाद अपनी फसल बेचनी ही पड़ती है- बेहतर कीमत के लिये इन्तजार करने का उसके पास विकल्प नहीं होता।

सीमित वित्तीय क्षमता अपनी बहुत ही सीमित आय के चलते, किसान को खर्चे के लिये हो सके उतनी जल्दी पैसों की जरूरत होती है- इसका मतलब यह भी है कि वह कीमतों में सुधार के लिये इन्तजार नहीं कर सकता।

अधिक प्राप्त करें, क्यों नहीं
प्याज का उदाहरण

1. 2013 में प्याज की थोक और खुदरा कीमत के बीच का अन्तर (अर्थात आपूर्ति शृंखला में बढ़ी हुई राशि) रु. 6 से बढ़कर रु. 33 हो गई थी।
2. इससे पता चलता है कि जब खुदरा कीमत बढ़ जाती है तब अधिकांश लाभ किसान को नहीं मिलता, इस तरह के रुझान अन्य सब्जियों में भी देखे जा सकते हैं।
3. थोक मूल्य में थोड़ी वृद्धि हो सकती है लेकिन खुदरा कीमत में हुई वृद्धि ज्यादातर आपूर्ति शृंखला में चली जाती है।
4. ध्यान देने योग्य बात है कि अगले साल, कीमतें घट जाएँ और किसान को भुगतना पड़े।

क्यों MSP कोई समाधान नहीं है?

न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP किसानों के लिये मूल्य सुरक्षा के रूप में 2 दर्जन से अधिक फसलों के लिये घोषित किया गया है लेकिन यह केवल गेहूँ और धान के लिये ही प्रभावी है। वास्तव में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अन्य फसलों को खरीदने के लिये न तो सरकार और न ही कोई और तैयार है।

MSP का अनपेक्षित परिणाम यह है कि किसान गेहूँ और चावल को उगाना पसन्द करते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली जमीन को दलहन, तिलहन और अन्य फसलों के लिये इस्तेमाल करने के बजाय इन फसलों के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं।

अधिक लाभकारी फसलों को क्यों न उगाएँ?

सैद्धान्तिक रूप से किसान गेहूँ और धान के बजाय सब्जियों जैसी अधिक लाभकारी फसलों को उगा सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा कर पाने में कई बाधाएँ हैं।

कोई किसान अकेला ऐसा नहीं कर सकता, इसके लिये उसे किसानों के एक बड़े समूह को राजी करना पड़ेगा। तभी वे नई फसल के लिये प्रतिस्पर्धी मूल्य पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीज और उर्वरकों को खरीद सकते हैं और साथ ही नई फसल को उगाने की जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं।

इसी तरह जब किसान बिक्री करने जाएगा तब कोई क्षेत्र अंगूर उगाने के लिये आदर्श हो सकता है लेकिन एक खरीददार के लिये ऐसे किसान से जो केवल एक हेक्टेयर भूखण्ड पर अंगूर उगाता है उससे खरीदना लाभकारी नहीं होगा।

अधिक प्राप्त करें, कैसे?
APMC के लिये प्रतिस्पर्धा पैदा करें

अधिनियम में संशोधन करें, साथ ही किसानों के लिये अधिकतम सम्भव विकल्पों को पैदा करें उदाहरण के लिये, उत्पादक कम्पनियों, सहकारी समितियों, अनुबन्ध से खेती आदि के जरिए प्रत्यक्ष बिक्री करें।

मौजूदा मंडियों को कड़ाई से विनियमित करें और अत्यधिक प्रभार को समाप्त करना तय करें।


किसानकिसान कम उगाएँ, कम प्राप्त करें का उदाहरण
अरहर दाल में उथल-पुथल: वास्तव में क्या हुआ था?

1. मई 2015 में, खाद्य पदार्थों की कीमतों में साल दर साल, थोक में केवल 2.3% तथा प्रति खुदरा 5% की वृद्धि हुई थी।
2. हालांकि इसी अवधि में कुछ की कीमतों में विशेष रूप से उड़द और अरहर में 30 % की वृद्धि हुई। रिपोर्ट बताती है कि चुनिन्दा शहरों में उड़द और अरहर की खुदरा कीमतों में 50% से अधिक की वृद्धि हुई।
3. यह सब तब हुआ जबकि भारत ने 2014-15 में, 4.6 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) दालों को आयात किया था, जो पिछले वर्ष की तुलना में 27% अधिक था।
4. दुनिया में बहुत कम देशों में दालों को उगाया जाता है और जबकि भारत ने भारी मात्रा में दाल आयात कर ली थी, इसलिये वैश्विक कीमतें बहुत बढ़ गई।
5. उसी समय चावल के लिये WPI 1.8 प्रतिशत से नीचे चला गया था। भारत ने 7.8 बिलियन डॉलर मूल्य के 12 MMT चावल को निर्यात किया था।

अरहर दाल में उथल-पुथल: यह क्यों हुआ?

1. सरकार ने दालों के लिये MSP में उल्लेखनीय वृद्धि की घोषणा नहीं की और यहाँ तक कि जब घोषणा की तब बुहत देर हो चुकी थी।
2. किसान- विशेष रूप से छोटे किसानों को धान के लिये MSP द्वारा खरीद समर्थन मिला। वे सुनिश्चित नहीं थे कि क्या दालों में MSP उनके लिये मान्य होगा क्योंकि अधिकांश स्थानों में घोषित कीमत के लिये कोई खरीद समर्थन नहीं था।
3. सरकार द्वारा खरीद के अभाव में, उच्च खुदरा मूल्य आपूर्ति शृंखला के लिये उच्च मार्जिन में परिवर्तित हो जाता है। जब फसल काटी जाती है तब थोक कीमतों में गिरावट आती है और अधिकांश किसानों के पास अपनी फसल संग्रह करने के लिये भौतिक और वित्तीय क्षमता नहीं है।
4. कई किसान चाहते हुए भी बदल नहीं सकते क्योंकि उन्हें सही समय पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीज नहीं मिलते।

चुनौतियों का सारांश
1. जल और जल सुरक्षा सम्भव हो पाए ऐसे समाधान हैं लेकिन माँग का प्रबन्धन करने के लिये प्रत्येक गाँव के स्तर पर तकनीकी कौशल और नेतृत्व जरूरी है।
2. खरीददार का एकाधिकार इसका मतलब है कि किसान बाजार में मोल-भाव नहीं कर सकता।
3. संग्रह के लिये सीमित बुनियादी ढाँचा किसानों के मोल-भाव की क्षमता को और कम कर देता है।
4. जानकारी की कमी की वजह से लाभकारी फसलों के लिये बदलाव करने में असमर्थ और अकेले वह यह कर नहीं सकता।
5. अनिश्चित धन की वजह से वह जोखिम नहीं उठा सकता क्योंकि असफल होने पर जीवन और मृत्यु की स्थिति हो सकती है।

किसान क्या कर सकते हैं?

सामूहिक खेती: हालांकि इसकी अपनी ही चुनौतियाँ हैं, लेकिन अगर किसान साथ मिलकर काम करें, तो फिर इस एक सबसे महत्त्वपूर्ण कदम से उन्हें निम्नलिखित बातों के लिये मदद मिल सकती है…

1. पानी जैसे आम संसाधनों का बेहतर उपयोग
2. सहयोग करके बेहतर कीमत वाली फसल उगाने के लिये जानकारी प्राप्त करना।
3. भण्डारण जैसी बुनियादी सुविधाओं को साझा करना।
4. फसल की बेहतर कीमतों के लिये खरीदारों के साथ मोल-भाव करना।
5. खेती से जुड़ी वस्तुओं के किफायती दाम के लिये विक्रेताओं के साथ मोल-भाव करना।

सामूहिक मॉडल में शामिल है। 1. सहकारी समितियाँ 2. राजनीतिक दल 3. निजी कम्पनियों को ठेके पर खेती 4. उत्पादक कम्पनियाँ (स्वयं किसानों द्वारा गठित) 5. जमीन को पट्टे पर देना, उपरोक्त सभी विकल्पों के लिये सफलता और विफलता दोनों के ही उदाहरण मौजूद हैं।

सरकार क्या कर सकती है…

1. गाँवों में बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना: यह हर मौसम के लिये सड़कों जैसा सामान्य बुनियादी ढाँचा होगा और साथ ही विशेष रूप से उस क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलों के भण्डारण के लिये बुनियादी ढाँचा।
2. मंडियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।
3. सुनिश्चित करें कि वैकल्पिक विपणन तंत्र असल में मंडियों के सामने प्रतिस्पर्धा प्रदान करता है।
4. कृषि ज्ञान की रचना और आदान-प्रदान को फिर से जीवन्त करना। कृषि विश्वविद्यालयों और नए संस्थानों का मूल्यांकन किसानों की आय में हुए सुधार पर किया जाना चाहिए। भूमि परीक्षण जैसे अन्य उपायों को लागू करें जो किसानों को अपनी जमीन/फसलों के लिये खाद जैसी उचित कृषि सहायक वस्तु निर्धारित करने में मदद करेगा।
5. पिछले 2 दशकों में जमीन धारण आधा हो गया है, जिसके खेती पर हानिकारक प्रभाव पड़े हैं, जमीन पर इस दबाव को कम करने के लिये अधिक गैर कृषि रोजगार के अवसर पैदा करने पड़ेंगे।
6. किसानों के लिये त्वरित भुगतान के साथ किफायती फसल बीमा प्रदान किया जाना चाहिए ताकि किसान को किसी भी प्राकृतिक आपदा से होने वाली बर्बादी के तुरन्त बाद पैसे मिलने में देरी न हो।
7. स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के वितरण को तेज बनाया जाना चाहिए ताकि किसानों को इनके लिये कर्ज न लेना पड़े।

कृपया अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों से पूछें

कैसे आप किसानों को लगातार अधिक पानी प्रदान कर सकते हैं?
आप किसानों को सामूहिक खेती के लिये कैसे प्रोत्साहित करेंगे?
आपने मंडियों की ताकत पर अंकुश लगाने और वैकल्पिक मार्केटिंग पद्धति बनाने के लिये क्या किया है?

1. फसल बीमा जैसी सरकारी योजनाओं
2. कृषि विश्वविद्यालयों जैसे संस्थानों की प्रभावशीलता पर आप कैसे निगरानी रखेंगे।
आप स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सरकारी सेवाओं के वितरण को कैसे तेज बनाएँगे?

सन्दर्भ

1. कृषि सांख्यिकी एक नजर में, 2014, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार।
2. 2011 में भारत की जनगणना के हिसाब से परिवार के आकार का डेटा।
3. कृषि सांख्यिकी एक नजर में, 2014, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार।
4. 2013 NSGO डेटा (NSS 70वाँ राउंड)।
5. इंडिया इंफ्रास्ट्रक्चर रिपोर्ट 2007, रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
6. http://www.livemint.com/Politics/LGhKIt4BVBcZn4Ui6RYgQI/Inflation-in-pricesof-pulses-sharpest-in-a-decade-Crisil.html

 

 

 

 

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