बदलते मौसम चक्र, वैश्विक तापवृद्धि, पिघलते ग्लेशियर, सिंचाई व पेयजल के लिए पानी की किल्लत आदि को देखते हुए यह समय की मांग है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी योजनाओं और जल संरक्षण के परंपरागत साधनों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए। बड़ी परियोजनाओं पर लगने वाली हजारों करोड़ की धनराशि जब तालाबों, वाटरशेड विकास, कुंओं, जोहड़ों आदि पर खर्च होगी तो उससे सिंचाई का तेजी से विस्तार होगा। इनसे न तो बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और न ही पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। फिर ये शीघ्रता से पूरे होते हैं और इनकी रखरखाव लागत भी बहुत कम आती है। भले ही अमेरिका-यूरोप में बड़े बांधों का दौर ढलान पर है लेकिन एशिया-अफ्रीका में वह पूरे उफान पर है। एशिया में भारत और चीन बड़े बांध निर्माता बनकर उभरे हैं। भारत सरकार ने 12वीं व 13वीं पंचवर्षीय योजना में जल विद्युत संयंत्रों से 40,000 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा है। यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य इस ज़मीनी हकीक़त के बावजूद तय किया गया है कि पिछले 65 वर्षों में जलविद्युत क्षमता 25000 मेगावाट तक ही पहुंच पाई है। भारत की भांति चीन भी नदियों पर बांध बनाकर बिजली पैदा करने की कोशिश में जी जान से जुटा है। चीन की देखा-देखी अब कंबोडिया, लाओस, वियतनाम भी मीकांग नदी पर बड़े-बड़े बांध बनाने का मंसूबा बांध रहे हैं जिसका नतीजा क्षेत्रीय तनाव के रूप में सामने आ रहा है। अफ्रीका महाद्वीप में कांगो गणराज्य ने कांगो नदी पर दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना बनाने की घोषणा की है जो चीन के थ्री जार्जेज से दो गुना बड़ी होगी। इथियोपिया सूडान सीमा के नज़दीक नील नदी पर एक बांध बना रहा है जो अस्वान बांध से ऊंचा होगा। इसी तरह नाइजर व जांबेजी नदी पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। बड़े बांधों की इस मुहिम में छोटे-छोटे बांध बनाने का अभियान चलाना दुस्साहस ही माना जाएगा। यह दुस्साहस किया है महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने। उनकी कोशिशों से रविवार अर्थात 9 जून को 1423 छोटे बांधों का उद्घाटन एक साथ किया गया। राज्य के छह जिलों के 474 गाँवों में बने ये पक्के चेक डैम (छोटे बांध) भविष्य के लिए उम्मीद की किरण बन सकते हैं। ये बांध रोज़गार गारंटी योजना के तहत स्थानीय लोगों की सहभागिता और राज्य सरकार के आर्थिक सहयोग से बनाए गए हैं। सरकार ने दूसरे चरण में बनने वाले 2340 छोटे बांधों की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है।
ये बांध राज्य सरकार की 60,000 करोड़ रुपए की लागत वाली विकेंद्रीकृत जल संग्रहण प्रणाली के तहत बनाए जा रहे हैं। इसका लक्ष्य छोटे-छोटे बांधों की मदद से तीन साल में राज्य को सूखा-मुक्त बनाना है। राज्य सरकार ने बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की विफलता के बाद यह कदम उठाया है। ग़ौरतलब है कि राज्य में पिछले एक दशक में सिंचाई योजनाओं पर 70,000 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद सिंचाई क्षमता में महज 0.1 फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई। इसका कारण है कि महाराष्ट्र में सैकड़ों सिंचाई परियोजनाएं पिछले 30 वर्षों से 'निर्माणाधीन अवस्था' में हैं। उदाहरण के लिए विदर्भ क्षेत्र में गोसेखुर्द सिंचाई परियोजना करीब 22 साल पहले शुरू की गई थी तब इस परियोजना की लागत 450 करोड़ रुपए आंकी गई थी लेकिन आज भी इसे पूरा नहीं किया जा सका है और अब इसकी लागत 17000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो गई है। इसी तरह कोंकण क्षेत्र में तालंबा बांध परियोजना का काम 1979 में शुरू किया गया था, उस समय इसकी लागत 120 करोड़ रुपए थी। आज भी इसे पूरी तरह से बनाया नहीं जा सका और अब इसे पूरा करने के लिए 4000 करोड़ रुपए की जरूरत है। इसके परिणामस्वरूप जहां ठेकेदार और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं जनता पर सूखे का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी धन की यह लूट कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में प्रति हेक्टेयर 9.81 लाख रुपए सिंचाई मद पर खर्च हो रहे हैं जो देश में सर्वाधिक है। जबकि केंद्रीय जल आयोग ने इस खर्च की सीमा प्रति हेक्टेयर डेढ़ से ढाई लाख रुपए के बीच रखी है।
इसी को देखते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बड़े-बड़े बांध बनाकर नहरें निकालने का मॉडल बंद करके गुजरात की भांति छोटे-छोटे बांध बनाने का वक्त आ गया है। ग़ौरतलब है कि गुजरात में 2001 से 2008 तक 1,13,738 रोक बांध, 55,914 बोरी बांध और 2,40,199 खेत तालाबों का निर्माण किया गया। इससे वर्षा जल के भूजल बनने के रास्ते खुले और राज्य के ज्यादातर हिस्सों में जल स्तर 3 से 5 मीटर बढ़ गया और 8 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त कृषि भूमि की सिंचाई संभव हुई। यह काम स्थानीय लोगों के श्रमदान और राज्य सरकार के आर्थिक सहयोग से किया गया है। इसके अलावा राज्य में सिंचाई के सूक्ष्म तरीकों (माइक्रो इरीगेशन) को अपनाया गया, जिसमें पानी को पौधों की जड़ों में जरूरत भर दिया जाता है जिससे पानी की बर्बादी नहीं होती। गुजरात की भांति मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल के सैकड़ों किसानों ने स्थानीय और छोटे स्तर के उपाय करके पानी की ज़रूरतों को पूरा करने का सफल प्रयास किया है। मध्यप्रदेश के देवास जिले के किसानों ने सरकारी स्तर पर जलापूर्ति का इंतजार करने के बजाय खुद अपने दम पर अपनी ही जमीनों पर कुएं और तालाब खोदने का काम किया। इसका नतीजा यह निकला कि देवास जिले में किसानों ने चार साल में ही अपनी ही जमीनों पर 7000 जल स्रोत बना डाले। जल संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए कई किसानों ने नलकूपों का बड़े धूम-धाम से अंतिम संस्कार भी किया। इसी प्रकार तरुण भारत संघ ने भी बिना अरबों-खरबों के निवेश और तकनीकी सहायता के जल संरक्षण के परंपरागत तरीकों को अपनाकर अलवर क्षेत्र में हरियाली लाई।
बदलते मौसम चक्र, वैश्विक तापवृद्धि, पिघलते ग्लेशियर, सिंचाई व पेयजल के लिए पानी की किल्लत आदि को देखते हुए यह समय की मांग है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी योजनाओं और जल संरक्षण के परंपरागत साधनों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए। बड़ी परियोजनाओं पर लगने वाली हजारों करोड़ की धनराशि जब तालाबों, वाटरशेड विकास, कुंओं, जोहड़ों आदि पर खर्च होगी तो उससे सिंचाई का तेजी से विस्तार होगा। इनसे न तो बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और न ही पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। फिर ये शीघ्रता से पूरे होते हैं और इनकी रखरखाव लागत भी बहुत कम आती है।
ये बांध राज्य सरकार की 60,000 करोड़ रुपए की लागत वाली विकेंद्रीकृत जल संग्रहण प्रणाली के तहत बनाए जा रहे हैं। इसका लक्ष्य छोटे-छोटे बांधों की मदद से तीन साल में राज्य को सूखा-मुक्त बनाना है। राज्य सरकार ने बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की विफलता के बाद यह कदम उठाया है। ग़ौरतलब है कि राज्य में पिछले एक दशक में सिंचाई योजनाओं पर 70,000 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद सिंचाई क्षमता में महज 0.1 फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई। इसका कारण है कि महाराष्ट्र में सैकड़ों सिंचाई परियोजनाएं पिछले 30 वर्षों से 'निर्माणाधीन अवस्था' में हैं। उदाहरण के लिए विदर्भ क्षेत्र में गोसेखुर्द सिंचाई परियोजना करीब 22 साल पहले शुरू की गई थी तब इस परियोजना की लागत 450 करोड़ रुपए आंकी गई थी लेकिन आज भी इसे पूरा नहीं किया जा सका है और अब इसकी लागत 17000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो गई है। इसी तरह कोंकण क्षेत्र में तालंबा बांध परियोजना का काम 1979 में शुरू किया गया था, उस समय इसकी लागत 120 करोड़ रुपए थी। आज भी इसे पूरी तरह से बनाया नहीं जा सका और अब इसे पूरा करने के लिए 4000 करोड़ रुपए की जरूरत है। इसके परिणामस्वरूप जहां ठेकेदार और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं जनता पर सूखे का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी धन की यह लूट कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में प्रति हेक्टेयर 9.81 लाख रुपए सिंचाई मद पर खर्च हो रहे हैं जो देश में सर्वाधिक है। जबकि केंद्रीय जल आयोग ने इस खर्च की सीमा प्रति हेक्टेयर डेढ़ से ढाई लाख रुपए के बीच रखी है।
इसी को देखते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बड़े-बड़े बांध बनाकर नहरें निकालने का मॉडल बंद करके गुजरात की भांति छोटे-छोटे बांध बनाने का वक्त आ गया है। ग़ौरतलब है कि गुजरात में 2001 से 2008 तक 1,13,738 रोक बांध, 55,914 बोरी बांध और 2,40,199 खेत तालाबों का निर्माण किया गया। इससे वर्षा जल के भूजल बनने के रास्ते खुले और राज्य के ज्यादातर हिस्सों में जल स्तर 3 से 5 मीटर बढ़ गया और 8 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त कृषि भूमि की सिंचाई संभव हुई। यह काम स्थानीय लोगों के श्रमदान और राज्य सरकार के आर्थिक सहयोग से किया गया है। इसके अलावा राज्य में सिंचाई के सूक्ष्म तरीकों (माइक्रो इरीगेशन) को अपनाया गया, जिसमें पानी को पौधों की जड़ों में जरूरत भर दिया जाता है जिससे पानी की बर्बादी नहीं होती। गुजरात की भांति मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल के सैकड़ों किसानों ने स्थानीय और छोटे स्तर के उपाय करके पानी की ज़रूरतों को पूरा करने का सफल प्रयास किया है। मध्यप्रदेश के देवास जिले के किसानों ने सरकारी स्तर पर जलापूर्ति का इंतजार करने के बजाय खुद अपने दम पर अपनी ही जमीनों पर कुएं और तालाब खोदने का काम किया। इसका नतीजा यह निकला कि देवास जिले में किसानों ने चार साल में ही अपनी ही जमीनों पर 7000 जल स्रोत बना डाले। जल संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए कई किसानों ने नलकूपों का बड़े धूम-धाम से अंतिम संस्कार भी किया। इसी प्रकार तरुण भारत संघ ने भी बिना अरबों-खरबों के निवेश और तकनीकी सहायता के जल संरक्षण के परंपरागत तरीकों को अपनाकर अलवर क्षेत्र में हरियाली लाई।
बदलते मौसम चक्र, वैश्विक तापवृद्धि, पिघलते ग्लेशियर, सिंचाई व पेयजल के लिए पानी की किल्लत आदि को देखते हुए यह समय की मांग है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी योजनाओं और जल संरक्षण के परंपरागत साधनों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए। बड़ी परियोजनाओं पर लगने वाली हजारों करोड़ की धनराशि जब तालाबों, वाटरशेड विकास, कुंओं, जोहड़ों आदि पर खर्च होगी तो उससे सिंचाई का तेजी से विस्तार होगा। इनसे न तो बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है और न ही पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। फिर ये शीघ्रता से पूरे होते हैं और इनकी रखरखाव लागत भी बहुत कम आती है।
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