उत्तराखंड हिमालय, गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराओं के कारण पूरे विश्व में जलभंडार के रूप में प्रसिद्ध है। मगर तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दंभ से ग्रस्त राज्य सरकारें गंगा और उसकी धाराओं के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही हैं। इनसे इन नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इसके चलते राज्य की वर्षापोषित और हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट छा गया है। जहां वर्षापोषित कोसी, रामगंगा, जलकुर आदि नदियों का पानी निरंतर सूख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली, मंदाकिनी आदि हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है। उत्तराखंड समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है। ढालदार पहाड़ियों पर बसे गाँवों के नीचे बांधों की सुरंग बनाई जा रही है। जहां-जहां ऐसे बांध बन रहे हैं, लोग सवाल उठा रहे हैं। इन बांधों के निर्माण के लिए निजी कंपनियों के अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है। राज्य सरकार ऊर्जा प्रदेश का सपना भी इन्हीं के सहारे देख रही है। ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पारंपरिक जल संस्कृति और संरक्षण जैसी बातों को बिल्कुल भुला दिया गया है। निजी क्षेत्र के हितों को ध्यान में रख कर नीति बनाई जा रही है। निजी क्षेत्र के प्रति सरकारी लगाव के पीछे दुनिया की वैश्विक ताक़तों का दबाव है। इसे विकास का मुख्य आधार मान कर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग कुचली जा रही है। बांध बनाने वाली व्यवस्था ने इस दिशा में संवादहीनता पैदा कर दी है। वह लोगों की उपेक्षा कर रही है। उत्तराखंड में जहां-जहां सुरंगी बांध बन रहे हैं, वहां लोगों की दुविधा यह भी है कि टिहरी जैसा विशालकाय बांध तो नहीं बन रहा है, जिसके कारण उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़ सकती है। इसलिए कुछ लोग पुनर्वास की मांग करते भी दिखाई दे रहे हैं। जबकि सरकार का कहना है कि ऐसे बांधों से विस्थापन नहीं होगा। पर सवाल है कि सुरंगों के निकास और प्रवेश पर बसे सैकड़ों गाँवों की सुरक्षा कैसी होगी?
1991 के भूकंप के समय उत्तरकाशी में मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण की सुरंग के ऊपर के गांव और उसकी कृषि भूमि भूकंप से जमींदोज और कृषि भूमि की नमी लगभग खत्म हो गई है। इसके अलावा, जहां सुरंग बांध बन रहे हैं वहां के गाँवों के धारे और जलस्रोत सूख रहे हैं। इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आकलन की रिपोर्ट कुछ बोलने को तैयार नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बना कर राज्य का विकास कर देंगी। जबकि गांव की पारंपरिक व्यवस्था को अक्षम समझना बड़ी भूल है। इसी के चलते पूरी व्यवस्था स्थानीयता और कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। सत्तापक्ष और विपक्ष के जनप्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोकलुभावन परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त कर सकते हैं। मगर कुछ वर्षों बाद ही लोगों को यह छलावा समझ में आ जाता है। यह तब होता है, जब लोगों के आशियाने और आजीविका नष्ट होने लगते हैं। टिहरी बांध निर्माण के दौरान यही देखने को मिला। बाद में जब बांध की झील बनने लगी तो यही लोग कहने लगे कि जनता के साथ अन्याय हुआ है। यानी जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कंपनी की पैरवी की, वही बाद में उसके विरोधी हो गए।
यही समझौता पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घणसाली में फलेंडा, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बूढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए लोगों को पैसे और रोज़गार का झूठा आश्वासन देकर किया गया है। इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान लोगों के बीच ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एकतरफ़ा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को मिलता है। परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण बाद में समझ आती है। इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर परियोजना की पर्यावरण रिपोर्ट की खामियां अस्सी प्रतिशत निर्माण के बाद याद आईं।
उत्तराखंड हिमालय, गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराओं के कारण पूरे विश्व में जलभंडार के रूप में प्रसिद्ध है। मगर तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दंभ से ग्रस्त राज्य सरकारें गंगा और उसकी धाराओं के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही हैं। इनसे इन नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इसके चलते राज्य की वर्षापोषित और हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट छा गया है। जहां वर्षापोषित कोसी, रामगंगा, जलकुर आदि नदियों का पानी निरंतर सूख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली, मंदाकिनी आदि हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है। इन नदियों पर पांच सौ अट्ठावन बांध बना कर सरकार उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है।
मगर विशिष्ट भू-भाग, जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक संकेत दे रहा है। सुरंग के ऊपर आए गाँवों- लोहारी नागपाला, पाला मनेरी, सिंगोल-भटवाड़ी, फाटा ब्यूंग, विष्णुगाड़ पीपलकोटी, भिलंग-घुतू, श्रीनगर आदि अनेक परियोजनाएं हैं, जहां लोग शुरू से सुरंग बांधों का विरोध कर रहे हैं। विरोध का कारण था कि सुरंगों के निर्माण में इस्तेमाल भारी विस्फोटकों से लोगों के घरों में दरारें आई हैं, पेयजल स्रोत सूखे हैं, श्मशान घाटों को डंपिंग यार्ड बना दिया गया है। सिंचाई नहरों और घराटों का पानी बंद हुआ है। चरागाह, जंगल और गांव तक पहुंचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए हैं। इसके साथ ही लघु और सीमांत किसानों की खेतीबाड़ी अधिगृहित हुई है। वे भूमिहीन हो गए हैं।
नदी बचाओ अभियान ने सन 2008 को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिल कर समाधान करेगी। लेकिन दुख की बात है कि प्रदेश के निवासियों की बात अनसुनी चली गई। हालांकि अब प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंच चुकी है। पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके चलते सुरंग बांधों से पर्यावरण और नदी के आरपार रहने वाले लोगों की आजीविका बचाने के उद्देश्य से तीन परियोजनाएं रोकी गई थीं। अगर नदी बचाओ अभियान की बात 2006 में ही सुन ली जाती तो बंद पड़ी परियोजनाओं पर इतना खर्च न जाया जाता।उत्तराखंड में बहुत सारी नहरें, घराट और बची जलराशि है, छोटी टरबाइनें लगा कर हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की इसमें क्षमता है। इसे ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती हैं। यह काम अगर लोगों के निर्णय पर किया जाए तो उत्तराखंड की बेरोज़गारी समाप्त होगी। इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए। इसमें प्राथमिकता जल संरक्षण करके लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करने की होनी चाहिए और फिर खेती-किसानी के लिए नहरों और गूलों में पानी की अविरलता बनाने और इन्हीं से छोटी पनबिजली बनाने की कोशिश होनी चाहिए। उत्तराखंड में इसके कई उदाहरण हैं। यहां कई संगठनों ने इसके लिए राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है, जिसमें लिखा गया है कि ऐसी परियोजनाएं बनें, जिनमें विस्थापन न हो।
जलनीति में जलधाराओं, जल संरचनाओं, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेशियरों को बचाने और हर व्यक्ति को मुफ्त जल मिलना चाहिए। यह इसलिए कि उत्तराखंड भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता है। नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व देने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूट जाएगा। वे निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में चली जाएगी। पानी और जंगल का रिश्ता बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिंदु होना चाहिए। गाड़-गदेरों और नदियों से पानी को मोड़ कर सिंचाई नहरों में आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिए।
नहरों से घराट या टरबाईन चला कर बिजली बनाने के प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं, जिनका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। हमारे प्रदेश में वर्षा जल का दो प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसका इस्तेमाल जल संरचनाएं बना कर किया जाना चाहिए। मनरेगा के तहत जिस तरह जल संरचनाओं पर सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उत्तराखंड के जलस्रोत सूख जाएंगे। जलनीति में पारंपरिक चालों को बढ़ावा देना चाहिए। अगर विश्व बैंक और निजी कंपनियों के पैसों का इस्तेमाल हुआ तो पहाड़ का पानी भी नहीं बचेगा। इसलिए जलनीति बनाने का ईमानदार प्रयास होना चाहिए।
1991 के भूकंप के समय उत्तरकाशी में मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण की सुरंग के ऊपर के गांव और उसकी कृषि भूमि भूकंप से जमींदोज और कृषि भूमि की नमी लगभग खत्म हो गई है। इसके अलावा, जहां सुरंग बांध बन रहे हैं वहां के गाँवों के धारे और जलस्रोत सूख रहे हैं। इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आकलन की रिपोर्ट कुछ बोलने को तैयार नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बना कर राज्य का विकास कर देंगी। जबकि गांव की पारंपरिक व्यवस्था को अक्षम समझना बड़ी भूल है। इसी के चलते पूरी व्यवस्था स्थानीयता और कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। सत्तापक्ष और विपक्ष के जनप्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोकलुभावन परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त कर सकते हैं। मगर कुछ वर्षों बाद ही लोगों को यह छलावा समझ में आ जाता है। यह तब होता है, जब लोगों के आशियाने और आजीविका नष्ट होने लगते हैं। टिहरी बांध निर्माण के दौरान यही देखने को मिला। बाद में जब बांध की झील बनने लगी तो यही लोग कहने लगे कि जनता के साथ अन्याय हुआ है। यानी जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कंपनी की पैरवी की, वही बाद में उसके विरोधी हो गए।
यही समझौता पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घणसाली में फलेंडा, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बूढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए लोगों को पैसे और रोज़गार का झूठा आश्वासन देकर किया गया है। इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान लोगों के बीच ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एकतरफ़ा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को मिलता है। परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण बाद में समझ आती है। इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर परियोजना की पर्यावरण रिपोर्ट की खामियां अस्सी प्रतिशत निर्माण के बाद याद आईं।
उत्तराखंड हिमालय, गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराओं के कारण पूरे विश्व में जलभंडार के रूप में प्रसिद्ध है। मगर तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दंभ से ग्रस्त राज्य सरकारें गंगा और उसकी धाराओं के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही हैं। इनसे इन नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इसके चलते राज्य की वर्षापोषित और हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट छा गया है। जहां वर्षापोषित कोसी, रामगंगा, जलकुर आदि नदियों का पानी निरंतर सूख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली, मंदाकिनी आदि हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है। इन नदियों पर पांच सौ अट्ठावन बांध बना कर सरकार उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है।
मगर विशिष्ट भू-भाग, जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक संकेत दे रहा है। सुरंग के ऊपर आए गाँवों- लोहारी नागपाला, पाला मनेरी, सिंगोल-भटवाड़ी, फाटा ब्यूंग, विष्णुगाड़ पीपलकोटी, भिलंग-घुतू, श्रीनगर आदि अनेक परियोजनाएं हैं, जहां लोग शुरू से सुरंग बांधों का विरोध कर रहे हैं। विरोध का कारण था कि सुरंगों के निर्माण में इस्तेमाल भारी विस्फोटकों से लोगों के घरों में दरारें आई हैं, पेयजल स्रोत सूखे हैं, श्मशान घाटों को डंपिंग यार्ड बना दिया गया है। सिंचाई नहरों और घराटों का पानी बंद हुआ है। चरागाह, जंगल और गांव तक पहुंचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए हैं। इसके साथ ही लघु और सीमांत किसानों की खेतीबाड़ी अधिगृहित हुई है। वे भूमिहीन हो गए हैं।
नदी बचाओ अभियान ने सन 2008 को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिल कर समाधान करेगी। लेकिन दुख की बात है कि प्रदेश के निवासियों की बात अनसुनी चली गई। हालांकि अब प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंच चुकी है। पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके चलते सुरंग बांधों से पर्यावरण और नदी के आरपार रहने वाले लोगों की आजीविका बचाने के उद्देश्य से तीन परियोजनाएं रोकी गई थीं। अगर नदी बचाओ अभियान की बात 2006 में ही सुन ली जाती तो बंद पड़ी परियोजनाओं पर इतना खर्च न जाया जाता।उत्तराखंड में बहुत सारी नहरें, घराट और बची जलराशि है, छोटी टरबाइनें लगा कर हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की इसमें क्षमता है। इसे ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती हैं। यह काम अगर लोगों के निर्णय पर किया जाए तो उत्तराखंड की बेरोज़गारी समाप्त होगी। इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए। इसमें प्राथमिकता जल संरक्षण करके लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करने की होनी चाहिए और फिर खेती-किसानी के लिए नहरों और गूलों में पानी की अविरलता बनाने और इन्हीं से छोटी पनबिजली बनाने की कोशिश होनी चाहिए। उत्तराखंड में इसके कई उदाहरण हैं। यहां कई संगठनों ने इसके लिए राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है, जिसमें लिखा गया है कि ऐसी परियोजनाएं बनें, जिनमें विस्थापन न हो।
जलनीति में जलधाराओं, जल संरचनाओं, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेशियरों को बचाने और हर व्यक्ति को मुफ्त जल मिलना चाहिए। यह इसलिए कि उत्तराखंड भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता है। नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व देने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूट जाएगा। वे निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में चली जाएगी। पानी और जंगल का रिश्ता बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिंदु होना चाहिए। गाड़-गदेरों और नदियों से पानी को मोड़ कर सिंचाई नहरों में आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिए।
नहरों से घराट या टरबाईन चला कर बिजली बनाने के प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं, जिनका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। हमारे प्रदेश में वर्षा जल का दो प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसका इस्तेमाल जल संरचनाएं बना कर किया जाना चाहिए। मनरेगा के तहत जिस तरह जल संरचनाओं पर सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उत्तराखंड के जलस्रोत सूख जाएंगे। जलनीति में पारंपरिक चालों को बढ़ावा देना चाहिए। अगर विश्व बैंक और निजी कंपनियों के पैसों का इस्तेमाल हुआ तो पहाड़ का पानी भी नहीं बचेगा। इसलिए जलनीति बनाने का ईमानदार प्रयास होना चाहिए।
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