रीवा राज्य में और भी कई बड़े तालाब हैं, लेकिन सभी की स्थिति एक-सी है। विकास की दौड़ में कई तालाब तो अब गुम ही हो चुके हैं। आवश्यकता है- तालाब रूपी इन जल खजानों को बचाये जाने की...!
.....पानी के मामले में समृद्ध रीवा रियासत के वैभव का ठीक-ठीक अंदाज लगाना है तो हमें तलाशने होंगे वो 6 हजार कुदरती खजाने, जिनमें ‘जल मोतियों’ को सहेजकर रखा जाता था.....!.....काम कठिन जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं। पहली मुश्किल तो यही है कि इन 6 हजार खजानों को खोज लेना, क्योंकि पिछले 100 सालों में इनकी संख्या घटकर 2 हजार भी नहीं रह गई है। लेकिन जो भी, जिस भी हालत में मौजूद है- उनसे यह तो जाना ही जा सकता है कि कहाँ बनाये जाते थे ये खजाने.... कैसा होता था इनका शिल्प..... समाज का क्या योगदान रहा- जैसी ढेरों बातें। साथ ही, पिछले वर्षों में हमने क्या खोया-क्या पाया, यह विश्लेषण भी सम्भव है....। तो आइये, अब हम चलते हैं रीवा रियासत की ओर....!रीवा क्षेत्र में बरसात के मौसम में बरसने वाले जलमोतियों को थामने के लिए तालाब निर्माण काफी पुरानी परम्परा है। रीवा के पर्यावरण को लेकर एक अरसे से काम में जुटे डाॅ. मुकेश येंगले हमें बताते हैं कि यहाँ करीब-करीब 100 साल जब रीवा की आबादी 4 लाख थी, तब तालाबों की संख्या 6 हजार के लगभग थी। आज जब आबादी 20 लाख है तो हमारे तालाबों की संख्या घटकर 2 हजार भी नहीं बची है।
रीवा रियासत के साथ तालाबों के इतिहास की कहानी शुरू होती है आज से 800 साल पहले से। डाडोरी गाँव का तालाब शिल्प और वहाँ पाये गये पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर चंदेलकालीन नजर आता है। बस, यहाँ से तालाब निर्माण का जो सिलसिला, रीवा में शुरू हुआ तो फिर थमा नहीं....!
इन तालाबों का अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि तत्कालीन समाज में तालाब निर्माण की तकनीक काफी उन्नत थी। जगह का चुनाव इस तरह से किया जाता था कि इन तालाबों में ज्यादा से ज्यादा पानी एकत्रित होता था और वर्षभर ये तालाब लबालब भरे रहते थे। प्राकृतिक रूप से बने आगोर के नीचे पाल बनाकर बरसात के बहने वाले पानी को रोक दिया जाता था। अतिरिक्त पानी को तालाब से निकालने के लिए वेस्टवियर भी बनाये जाते थे, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘उछाल’ कहा जाता था।
तालाब निर्माण को लेकर रीवा में कई लोककथाएँ भी मौजूद हैं। जैसे, रीवा से मात्र 30 किमी. पूर्व में स्थित मनगवाँ गाँव में बनाये गये मलकपुर या मलकावती तालाब के निर्माण को लेकर एक रोचक कथा ग्रामीणों ने हमें सुनाई। वो कथा हम भी आपको सुना रहे हैं....!
.....बहुत पहले की बात है। एक राजा ऐसा रोगग्रस्त हुआ कि उसके जीवन की आस ही खत्म हो गई। जीवन से निराश राजा को रानी प्रयागराज ले जा रही थीं। रास्ते में मनगवां गाँव के करीब एक बरगद के नीचे रात्रि विश्राम के लिये राजा और रानी रुके। अपने पति की बीमारी से चिन्तित रानी की आँखों में नींद नहीं थी। थोड़ी ही दूर पर एक साँप की बांबी थी, जिसमें से एक सर्प निकला और बोला कि ऐसा कोई नहीं है जो राजा को बता दे कि राई पीसकर मट्ठा के साथ काला नमक मिलाकर एक सप्ताह पिला दें तो उसके पेट का कछुआ मर जाए और राजा का रोग दूर हो जाए। सर्प की बात सुनकर पेट का कछुआ बोला कि ऐसा कोई नहीं है, जो एक कड़ाही तेल गर्म करके इस बांबी में छोड़ दे तो सर्प मर जाए और उसकी बांबी में छुपा खजाना प्राप्त कर ले। रानी ने साँप और कछुए दोनों की बात सुनी और सवेरे होते ही सर्प की बताई बात के अनुसार राजा का उपचार किया और राजा के स्वस्थ हो जाने के बाद साॅंप की बांबी से खजाना प्राप्त किया। छुपे खजाने को देखकर राजा ने सोचा कि उसे पुण्य के कार्य में ही लगाना चाहिए। खजाना तो चार दिन के ऐशो-आराम में खत्म हो जाएगा, लेकिन ‘पुण्य की जड़ पाताल में’ और राजा-रानी ने इस खजाने से पुण्य रोपा- मलकपुर तालाब के रूप में....!
यह कथा कितनी सच्ची है और कितनी गलत- यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस प्रचलित मिथ से यह तो स्पष्ट है कि पुराने समय में पानी रोकना पुण्य का काम था और राजा-प्रजा सभी कोई भी तालाब बनाने की पुण्याई बटोरने में पीछे नहीं रहा।
हालात बदले। हम पुण्याई को सहेज नहीं पाये। आज मलकपुर तालाब दुर्व्यवस्था का शिकार है। इस तालाब के आगोर क्षेत्र में दूरभाष का वर्कशॉप बन गया है। इसके बगल में आई.टी.आई. बन गया है, यानि विकास के नाम पर सीमेंट कांक्रीट की बिल्डिंगे तो तन गईं और हमारे हाथ शेष रहा हथेलियों के बीच का शून्य, यानि मलकपुर तालाब के अवशेष मात्र। यहाँ यह बताना भी उचित होगा कि कभी मलकपुर तालाब गोविन्दगढ़ के बाद रीवा राज्य का दूसरा बड़ा तालाब हुआ करता था।
.....करीब 75 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला रानी तालाब अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रहा है। यह तालाब तीन सौ साल पहले रीवा नरेश भावसिंह की महारानी ने किले से एक कि.मी. दूर तलहटी में ईशान कोण पर खुदवाया था। इस तालाब को लेकर इतिहासविद एक मत नहीं हैं। ‘रीवा राज्य दर्पण’ के लेखक जीवनसिंह इसे मैनपुर की चौहान वंशज किसी रीवा महारानी का बनवाया हुआ बताते हैं तो गुरुराम प्यारे अग्निहोत्री इसे महाराज भावसिंह की महारानी अजय कुंवरी का बनवाया हुआ मानते हैं। लोक में एक मान्यता यह भी है कि रीवा का रानी तालाब किसी रानी ने हीं, बल्कि किसी सेठ महाजन ने बनवाया था और उत्सव में रानी को भेंट कर दिया था। तब से यह रानी तालाब कहलाने लगा।
चलो, लोक की मान्यता को ही सही मान लें तो जल संग्रहण संरचनाओं को लेकर उस समाज की मान्यता स्पष्ट परिलक्षित होती है। हीरे-जवाहरात-मोती महाराजाओं को भेंट करने के तो अनेक किस्से हैं, लेकिन किसी महारानी को तालाब भेंट में देना, अपने आप में एक अनोखी कहानी है। शायद उस सेठ की पारखी निगाह ने इस तालाब में संचित जल बूँदों को जल मोतियों के रूप में परखा होगा और उसे रानी को नजर करने के लिए जल मोतियों से भरे इस कटोरे से अच्छा कोई उपहार नजर नहीं आया होगा।
कभी महारानी को भेंट करने लायक यह खूबसूरत उपहार अब मानवीय उपेक्षा का शिकार है। ‘विंध्य दर्शन’ के लेखक रामसागर शास्त्री का कहना है कि कभी यह तालाब कमल के फूलों से आच्छादित था। इसका तब का सौन्दर्य अवर्णनीय है, लेकिन आज इस तालाब का जल प्रदूषित है। यहाँ का पानी अब पीने, नहाने और हाथ धोने लायक भी नहीं रह गया है। शायद जल संकट की चरम अवस्था में वर्तमान समाज को इस तालाब की अहमियत समझ में आये....!
......रीवा-सीधी मार्ग पर रीवा से लगभग 15 कि.मी. दूर है गोविन्दगढ़। रीवा जिले की इस रियासत की पहचान है यहाँ का तालाब..... यहाँ का इतिहास है.... गोविन्दगढ़ तालाब। रियासतें मिटी। राजे-रजवाड़े गुम हुए, लेकिन अक्षुण्ण और चिरस्थायी है तो 100 एकड़ क्षेत्र को अपने में समेटे यह विशाल तालाब। विश्वास नहीं होता कि किसी गाँव या कस्बे की पहचान वहाँ की जल संरचना हो सकती है।! लेकिन, गोविन्दगढ़ पहुँचकर इस बात पर विश्वास करना ही पड़ता है। यहाँ के बाशिंदों को भी गर्व है उछाल मारते पानी से लबालब भरे इस तालाब पर। रीवा में जल संकट के दौर में यही गोविन्दगढ़ का तालाब रीवा की जीवन रेखा बन बहने लगता है- गोविन्दगढ़ से रीवा तक।
इस तालाब का इतिहास शुरू होता है- रघुराजसिंह जूदेव महाराज से। उनकी ही आज्ञानुसार 1913 में इस तालाब का निर्माण प्रारम्भ करवाया गया था। तब इसका क्षेत्र था 220 बीघा। संवत 1927 में तालाब का क्षेत्रफल बढ़ाकर 340 बीघा किया गया। इसके पूर्व और उत्तर का खामा स्वर्गवासी लेफ्टीनेंट कर्नल श्रीमान महाराजाधिराज वैंकटरमणसिंह जूदेव ने संवत 1954 में बनवाया। पुनः इस तालाब का प्रसार करने की आज्ञा हुई। संवत 1959 में कार्य प्रारम्भ हुआ और संवत 1973 में यह तालाब अपने पूरे आकार में निर्मित हो गया। तालाब का आकार 340 बीघा से 1859 बीघा यानि 559 एकड़ हो गया।
यह इतिहास यहाँ के रहवासियों की जुबान पर तो है ही, लेकिन यदि आपका किसी से कुछ पूछने का मन नही हो तो भी यहाँ गड़े शिलालेख से भी आप यह इतिहास जान सकते हैं। यह शिलालेख कितने और वर्षों तक इस तालाब की कहानी यहाँ पहुँचने वालों को सुनाता रहेगा- यह कहना कठिन है, क्योंकि तालाब की तरह ही यह शिलालेख भी अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुँच चुका है।
तकनीक और शिल्प की दृष्टि से यह तालाब काफी उन्नत है। इसका वेस्टवियर पक्का बनाया गया है। इस तालाब से नहरें निकालकर संचित जल के प्रबंधन की भी समुचित व्यवस्था की गई है। किनारे रहने वाले लोगों के लिये यह तालाब वरदान साबित हुआ है। गन्ने जैसी फसल नहर द्वारा सिंचाई कर प्राप्त की जा रही है।
तालाब के अंदर एक टीला है, जिसे गोपालबाग के नाम से जाना जाता है। इसे मत्स्य विभाग द्वारा सुंदर स्थान के रूप में विकसित किया गया था, लेकिन वर्तमान में रख-रखाव के अभाव में यहाँ निर्मित हट में जगह-जगह दरार, सीलिंग की टूट-फूट स्पष्ट देखी जा सकती है। कमोबेश, यही स्थिति इस गोविन्दगढ़ तालाब की है। इसके पूर्वी और उत्तरी खामा में जलकुंभी बहुतायत से फैली है। पानी के बजाय इन खामा में जलकुंभी की हरी चादर बिछी दिखाई पड़ती है। बेशरम भी तालाब के किनारे बहुतायत से दिखाई पड़ती है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।
रीवा राज्य में और भी कई बड़े तालाब हैं, लेकिन सभी की स्थिति एक-सी है। विकास की दौड़ में कई तालाब तो अब गुम ही हो चुके हैं। आवश्यकता है- तालाब रूपी इन जल खजानों को बचाये जाने की....!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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