जिसकी फ़िजा में घुली मुहब्बत और केसर की खुशबू है। जिसके जिस्मों पर बर्फ की चादर लपेटे पहाड़ हैं। जिसकी हसीं वादियों में चश्में, नाग और धाराओँ से कल-कल, छल-छल करता पानी सरगम गाता फिरता है। जहाँ चिनार के विशाल पेड़, घने जंगल जन्नत का मंज़र पेश करते हैं। तभी तो इसे पृथ्वी का स्वर्ग कहते हैं। हम कश्मीर की ही बात कर रहे हैं। जिसके खूबसूरत नजारों को देखते ही अनायास जहाँगीर ने फारसी में कह डाला - ‘गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त’ अर्थात अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं पर है और केवल यहीं पर है और निश्चित रूप से यहाँ पर है ही। भारत का कोहिनूर कश्मीर देखने को किसका मन नहीं ललचाता है।
पिछले दिनों एक कार्यक्रम के बहाने हमें भी इस जीते जागते स्वर्ग को देखने का मौका मिला। मन उत्सुक था कश्मीर के बारे में जानने को। श्रीनगर से सोनमर्ग के रास्ते पर जाते हुए कारचालक हमारे सबसे पहले गुरू बने। श्रीनगर से निकले भी नहीं थे कि उनसे हमारा पहला ही सवाल था ‘क्या आप स्प्रिंग के बारे में बता सकते हैं’? ‘उसे उत्तराखण्ड में धारे, मगरे, पंदेरों के नाम से जाना जाता है’ हमने सवाल को आसान करते हुए कहा।
हमारे सवाल का जवाब बड़े सलीके से मिला। उन्होंने बताया ‘स्प्रिंग को कश्मीरी में नाग और उर्दू में चश्मा कहते हैं।’ नामों की लम्बी फेहरिस्त हाजिर की ‘अनन्तनाग, वेरीनाग, कोकरनाग, नारानाग, कौंसरनाग और चश्मेंशाही श्रीनगर’ ये सब चश्में ही हैं। अनन्तनाग का मतलब है असीमित या असंख्य चश्मा, धारा या नौला।
यह जानते ही आगे का संवाद खूब मुखर हो गया। कारचालक ने हमें हर सवाल का जवाब देने की कोशिश की। उनकी बातों से हम कश्मीर के चश्मे-धारों में खो चुके थे। कश्मीर की किसी भी जगह का नाम सुनते तो उसके अर्थ जानने में लग जाते। कई नामों से पाला पड़ा और उन नामों के अर्थ समझकर खुशी होती। कोकरनाग यानि मुर्गी वाला चश्मा, संस्कृत में मुर्गी ‘कुक्कुट’ कहलाती है और कश्मीरी में ‘कुक्कुट के लिये ‘कोकर’ शब्द है।
गान्दरबल जिले के तुलमुला गाँव के एक चश्में की रक्षा ‘माँ भवानी’ करती हैं, चश्में के पानी से बने जलकुण्ड के बीच बैठीं ‘भवानी’ को दूध अर्घ्य करते हैं, तो भवानी का नाम भी ‘खीर भवानी’ हो जाता है। श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित ‘विचारनाग’ कश्मीरी पण्डितों के पंचांग विमर्श का एक केन्द्र हुआ करता था, अब उपेक्षा का शिकार है। बुडगाम जिले के बीरवाह में स्थित ‘नारननाग यानि नारायननाग’, मन को शान्त करने वाली ‘सुखनाग’, पुश्कर गाँव की ‘पुश्कर नाग’ और दारंग खाईपोरा गाँव की ‘गंधकनाग’ सहित सैंकड़ों चश्में इस इलाके में हैं।
भारत के हिमालयी क्षेत्र सभी एक जैसे ही हैं। पूरे हिमालयी क्षेत्र के इलाकों में चश्मों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, सिक्किम में धारा, तो उत्तराखण्ड में जलस्रोत, तो हिमाचल में नौले, खात्री या छुरुहरा और मेघालय में जलकुण्ड। पहाड़ों की चट्टानों और भूमि में स्थित जल ही चश्मों में फूटता है। चश्मे अक्सर ऐसे क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से होते हैं जहाँ धरती में दरारें और रिसाव हो और जिनमें बारिश का पानी प्रवेश कर जाये। फिर यह पानी जमीन के अन्दर ही प्राकृतिक नालियों और गुफ़ाओं में सफ़र करता हुआ किसी और जगह से ज़मीन से चश्मे के रूप में उभर आता है।
प्रकृति ने कश्मीर घाटी को भरपूर पानी का वरदान दिया है, घाटी में मौजूद साफ पानी, बर्फ और ग्लेशियर, सतही जल और भूजल के रूप में। दक्षिण-पूर्वी कश्मीर की ओर बढ़ें तो वहाँ अनन्तनाग जिले में ताजे पानी के बहुत से सोते या चश्मे मौजूद हैं। पीर पांजाल पर्वतमाला की तलहटी चश्मों का घर है। चश्में अपने ऐतिहासिक महत्त्व के अलावा सदियों से पीने के पानी और खेती के लिये इस्तेमाल किये जाते रहे हैं।
नाग शब्द यहाँ झरनों, चश्मों और छोटे सोते निगिन (झीलों) के लिये भी इस्तेमाल होता है। झेलम या ‘बिहत’, वैदिक काल में 'वितस्ता' नाम से जानी जाती थी तथा यूनानी इतिहासकारों एवं भूगोलवेत्ताओं के ग्रंथों में 'हाईडसपीस' के नाम से दर्ज है। यह नदी वेरिनाग चश्में से निकलकर कश्मीर घाटी से होती हुई बारामुला तक का 75 मील का प्रवाह मार्ग पूरा करती है। इसके तट पर अनन्तनाग, श्रीनगर तथा बारामुला जैसे प्रसिद्ध नगर स्थित हैं। इस नदी से कश्मीर घाटी के एक बड़े हिस्से में पानी मुहैया कराया जाता है। कश्मीर ही नहीं धरती के किसी कोने में किसी भी नदी का उद्गम कोई-न-कोई चश्मा ही होता है।
भारत के हिमालयी क्षेत्र सभी एक जैसे ही हैं। पूरे हिमालयी क्षेत्र के इलाकों में चश्मों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, सिक्किम में धारा, तो उत्तराखण्ड में जलस्रोत, बावली, तो हिमाचल में नौले, खात्री या छुरुहरा और मेघालय में जलकुण्ड। पहाड़ों की चट्टानों और भूमि में स्थित जल ही चश्मों में फूटता है। चश्मे अक्सर ऐसे क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से होते हैं जहाँ धरती में दरारें और रिसाव हो और जिनमें बारिश का पानी प्रवेश कर जाये। फिर यह पानी जमीन के अन्दर ही प्राकृतिक नालियों और गुफ़ाओं में सफ़र करता हुआ किसी और जगह से ज़मीन से चश्मे के रूप में उभर आता है।कश्मीर के गाँवों में अभी भी चश्में ही पानी का मुख्य स्रोत हैं। कश्मीर के गाँवों में रोजी-रोटी का जमीन ही एक बड़ा सहारा है। ज्यादा ऊँचाई वाले इलाकों में खासकर चश्में ही पानी और सिंचाई को स्रोत थे। उपेक्षा और नए ‘विज्ञानियों के नजर में अनुपयोगी’ चश्मों को लोग भूलते गए। यात्रा में एक और मित्र ने जो कहानी सुनाई वो आपको भी सुनाते हैं, ‘कई प्राकृतिक चश्में 20-25 साल पहले बन्द हो गए थे, लोगों ने उनके आस-पास और उनके ऊपर घर बना लिये। लोग भूल गए कि कभी यहाँ कोई चश्मा भी था। पिछले साल जब ज्यादा बारिश हुई तो उनके घर के नीचे से कमरों में पानी आने लगा। तब याद आया कि वे किसी पानी की ‘जगह’ पर बैठे हुए हैं।’
चश्में हालांकि बहुत ज्यादा पानी नहीं देते, पर आज भी कश्मीरी गाँवों में पीने के पानी के सबसे बड़े स्रोत हैं। हाँ! सिंचाई के लिये जरूर चश्मों से थोड़ा आगे बढ़कर 8वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक ललितादित्य ने ऊँचे पठारों तक पानी पहुँचाने के लिये एक नए यंत्र का इस्तेमाल कराना शुरू किया था जिसका नाम था ढेंकी। इसमें किसान को एक बड़े खम्बे का इस्तेमाल करना था। जिसके मुँह पर पानी के लिये बाल्टीनुमा पात्र बँधा होता था। अपने पैरों से सन्तुलन बनाते हुए उसे पानी को कुएँ या किसी जलधारा से खींचना होता था। यह सारा काम मानवीय ऊर्जा से होता था, तब तक सब ठीक ही रहा। भूजल में कोई खास दिक्कत नहीं थी। पर पम्पिंग मशीनों ने दृश्य बदल दिया। भूजल की गिरावट ने चश्मों को सुखाना शुरू कर दिया है। और अब तो कश्मीरी सिंचाई का वर्तमान धीरे-धीरे ‘डीपवेल’ और ‘लिफ्ट इरिगेशन’ की तरफ स्थानान्तरण हो चुका है।
स्थान विशेष की योजना वहाँ की ज़मीनी हकीक़त से ही बनाई जानी चाहिए। हर कीमत पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसमें गहराई में वहाँ की संस्कृति, भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियाँ सभी कुछ शामिल होती हैं। विकासवादी गतिविधियों और गलत निर्णयों के चलते चश्में खत्म होते जा रहे हैं।
पहले इस इलाके में भरपूर जंगल थे जो चश्मों के पुनर्भरण में मददगार होते थे, लेकिन धीरे-धीरे जंगल कम हुए और चश्मों में जलापूर्ति कम होती गई। साथ ही पुनर्भरण क्षेत्रों में बिना समझे-बूझे पक्के निर्माण चश्मों की जल-भण्डारण क्षमता को घटा रहे हैं। कश्मीरी पहाड़ जो खुद ही ‘वाटर टैंक’ थे, उनको सुखा के सरकारों का जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग टैंकों और टैंकरों से पीने का पानी मुहैया करवाने की कोशिश कर रहा है। श्रीनगर और कुछ नगरों के नागरिकों को तो यह सुविधा उपलब्ध हो जाएगी, और होती रहेगी पर गाँवों को कौन पूछेगा। उनको तो अपने प्राकृतिक और टिकाऊ पानी के टैंक ‘चश्मों’ को ही ठीक-ठाक रखना होगा।
सोनमर्ग के घोड़ेवाले एक बुजुर्ग दादा कहते हैं ‘हम अपने घोड़ों और खच्चरों को लेकर जब जंगल जाते हैं तो चश्में से ही पानी पीते हैं, हाँ! जिन चश्मों को हम छोटी उम्र से देख रहे हैं, उनमें से कई तो बन्द हो गए हैं, हमारे लिये दिक्कत बढ़ती जा रही है। हमारा काम तो चश्मों से ही चलेगा।’ सरकारों की सोच के रेगिस्तान में दादा को तो पानी का चश्मा ही चाहिए। कश्मीरी गाँवों में लिफ्ट जलापूर्ति से पहले चश्मों की मरम्मत और पुनर्जीवन की जरूरत है।
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