पहले सब्जी, फिर फूल और इसी क्रम में फलोत्पादन जैसे तमाम स्वावलम्बन के कामों के बलबूते सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे मंगलानन्द डबराल उत्तराखण्ड में किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने विदेशी फल ‘‘किवी’’ का सफल उत्पादन किया, तो वहीं आड़ू में नये प्रयोग करके आड़ू के उत्पादन को बेमौसमी बना डाला। बिना सरकारी बजट के ऐसे नये प्रयोग उत्तराखण्ड के मसूरी-धनोल्टी-चंबा मोटर मार्ग पर स्थित चोपड़ियाली गाँव में मंगलानन्द डबराल कर रहे हैं। उनका बागान वर्तमान में फल, फूल व फलों के विविध उत्पादन के लिये प्रसिद्ध है। यही नहीं उनके बगीचे में राज्यभर के कृषि वैज्ञानिक शोध के लिये आते हैं।
कृषि में नीत-नये प्रयोग
मंगलानन्द की कहानी के कई मोड़ हैं पर स्वावलम्बन के लिये उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है वह कोई कर्मयोगी ही कर सकता है। उनकी यह कहानी यहीं नहीं थमती। पाँचवीं पास श्री डबराल ने नौकरी के लिये बहुत संघर्ष किया। उनका यह संघर्ष उन्हें विदेश तक ले गया। जहाँ कुवैत में उन्होंने 1968 से 1975 तक एक कंपनी में बतौर वाहन चालक काम किया। लेकिन इसके बाद वे अपने गाँव लौट आए। उन्होंने गाँव में खेती-बाड़ी की शुरुआत करके उसी में रच-बस गये। वे बताते हैं कि उन दिनों गोभी जैसी आम सब्जी भी पहाड़ में शादी-विवाह या किसी खास मौके पर ही देखने को मिलती थी। उन्होंने ठान लिया कि वे अपने गाँव में ही गोभी उत्पादन करके सब्जी उत्पादन की शुरुआत करेंगे। वे बताते हैं कि उन्होंने जब खेत में गोभी उगाई तो दूसरे किसानों को आश्चर्य हुआ। तत्काल उन्होंने जम्मू-कश्मीर से गोभी का बीज मंगवाकर पौध तैयार की थी। उस जमाने में वे एक रुपये में 120 पौधे बेचते थे।
इस तरह से वे एक सीजन में 8 हजार तक की केवल पौध ही बेचा करते थे। इसके अलावा लोगों को घर-घर जाकर इसके लिये क्यारियाँ तैयार करवाना और पौध लगाने के साथ इसकी देखभाल के गुर बताना उन दिनों उनकी दिनचर्या बन चुकी थी। यही नहीं उन्होंने पिछले दिनों एग्जॉटिक वेजिटेबल (विदेशी सब्जियाँ) का भी बड़े पैमाने पर उत्पादन कर जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को चौंका दिया। संस्थान द्वारा इस काम के लिये उन्हें विशेष तौर पर सम्मानित भी किया गया।
उल्लेखनीय यह है कि मंगलानंद डबराल ने खेती-किसानी में नये प्रयोगों के जरिए मिसाल कायम की है। इसके अलावा उन्होंने अपने घर में ही आड़ू की एक ऐसी प्रजाति विकसित की, जो ऑफ सीजन में फल देती है। यह आड़ू आकार में बड़ा होने के साथ बेहद रसीला और मीठा है। आड़ू की प्रजाति को उन्होंने पंतनगर स्थित जीबी पंत कृषि एवं औद्यानिक विश्वविद्यालय के सम्मुख प्रस्तुत किया। लंबे शोध के बाद संस्थान के वैज्ञानिकों ने माना कि ये आड़ू की नई प्रजाति है। जिसे संस्थान के वैज्ञानिक ने ‘अर्ली एम रेड’ आड़ू का नाम दिया है। इसमें ‘एम’ अक्षर मंगलानंद के नाम को प्रदर्शित करता है।
किवी के उत्पादन में पाई सफलता
सब्जी उत्पादन की सफलता के पश्चात मंगलानंद डबराल ने ‘‘किवी बगान’’ के लिये दो पौधों से शुरुआत की थी। आज वे किवी के बड़े बागवान व काश्तकार बन चुके हैं। उन्होंने व्यावसायिक तौर पर इसके उत्पादन के साथ अपने प्रयोगों के जरिए फल के आकार में वृद्धि करने में भी सफलता पाई है। वैज्ञानिक विधि से इस फल की पौध तैयार कर आज वे दूसरे किसानों को भी किवी उत्पादन के लिये प्रेरित कर रहे हैं। खास यह है कि मंगलानंद पाँचवीं पास ऐसे काश्तकार हैं, जिनसे सीखने और सीखाने के लिये किसानों से लेकर कृषि वैज्ञानिक तक आए दिन उनके घर पहुँचते हैं। वे फसलों के लिये खुद तैयार की गई वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा गौमूत्र, राख, अखरोट, नीम इत्यादि से जैविक विधियों को अपनाकर कीटनाशक तैयार करते हैं और दूसरों को भी इसकी विधि बखूबी बताते हैं। आज क्षेत्र के पाँच सौ से भी अधिक किसान उनकी राह पर चलकर जैविक खेती कर रहे हैं।
किवी एक विदेशी फल है, जो चीन के अलावा ब्राजील, न्यूजीलैंड, इटली और चिली जैसे देशों में उगाया जाता है। लेकिन मंगलानंद डबराल ने उत्तराखंड में किवी का सफल उत्पादन कर भविष्य की राह दिखाई है। वे मानते हैं कि आगराखाल से लेकर केदारनाथ तक किवी का उत्पादन किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि किवी की पौध जनवरी में लगाई जाती है। तीन साल बाद यह पौध फल देने लगती है। अप्रैल में फूल आते हैं और अक्तूबर-नवंबर में फसल तैयार हो जाती है। बंदर इस फसल को नुकसान नहीं पहुँचाते तथा ओलावृष्टि में भी ये सुरक्षित रहती है। इसलिये उत्तराखण्ड के लिये यह फसल मुफिद है। किवी के अलावा मंगलानंद एग्जॉटिक वेजिटेबल के क्रम में लैटीयूज, ब्रोकली, आइस बर्ग, जॉरसले, चाइनिज गोभी आदि सब्ज़ियाँ बहुआयात में उगा रहे हैं। वे सब्जियों का उत्पादन बाग-बगीचों के अलावा दो बड़े पॉलीहाउस में करते हैं। इसके अलावा 80 नाली और 30 नाली के दो बड़े बागों में उन्होंने लगभग 15 सौ से अधिक फलदार वृक्ष लगाए हैं।
प्रोसेसिंग के लिये खुद की यूनिट
मंगलानंद के तीन बेटे हैं, रमेश, रोशन और रामकृष्ण डबराल। उनके तीनों बेटों ने पिता की राह पर चलते हुए खेती-किसानी के काम को तबज्जो दी। तीनों बेटे और उनका परिवार सामूहिक रूप से खेती के काम में लगे हैं। वह मिलकर सब्जी उत्पादन के साथ बागवानी और खुद की प्रोसेसिंग यूनिट चलाते हैं। जिससे फलों के अधिक उत्पादन की दिशा में उन्हें प्रोसेस कर जूस, जैम, अचार और दूसरे उत्पादों में बदल दिया जाता है। इसकी मार्केटिंग भी वह खुद करते हैं। उनके उत्पाद गढ़वाल-कुमाऊं के अलावा दिल्ली-मुम्बई और दूसरे बड़े शहरों तक पहुँचते हैं। मंगलानंद के घर के आंगन में घुसते ही चारों तरफ सुंदर फूल और दूसरे पौधों से सजी सुंदर क्यारियाँ आपका स्वागत करती हैं। मंगलानंद बताते हैं, उन्हें शुरू से फूलों से बेहद प्यार था। यही फूल उनके व्यवसाय का प्रमुख हिस्सा बना। गुलदावरी, लिलियम, गेंदा, ग्लेडियस, गुलाब, जरबेरा इत्यादि फूलों का उत्पादन कर वे अच्छी कमाई के साथ अन्य किसानों को भी खुशहाली का संदेश देते हैं।
मंगलानंद डबराल का मानना है कि आज लोग पैसे और प्रॉपर्टी के लिये लड़ रहे हैं, लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब लोग अन्न और पानी के लिये लड़ेंगे। खेती खत्म हो रही है और अनाज की डिमांड लगातार बढ़ रही है। बकौल मंगलानंद, हमारे प्रदेश में पलायन-पलायन तो सब चिल्ला रहे हैं, लेकिन जमीन पर काम करने को कोई तैयार नहीं है। यहाँ की माटी में वह सब कुछ है, जो भरपूर रोजगार दे सकती है। बंजर पड़े खेतों में उग आई खरपतवार के कारण गाँवों में जंगली जानवरों का प्रकोप बढ़ गया है। सरकार को चाहिए कि वे अपनी नीति में किसानों को प्राथमिकता में रखे। प्रदेश में चकबंदी लागू की जाए। इसके अलावा जो लोग अपनी खेती बंजर छोड़ गए हैं, उसकी खेती को पट्टे पर गाँव में खेती कर रहे दूसरे किसानों को दिया जाए। ताकि खेत आबाद रहे और अनाज की पैदावार होती रहे।
सफलता के मंत्र
बकौल मंगलानन्द डबराल- यदि स्वरोजगार का जरिया किवी फल को बनाया जायेगा तो कोई गलत नहीं। हालाँकि स्वदेशी फल किसी किवी से कम नहीं है। हमने ऐसा प्रयोग भी करके दिखाया। पर किवी के लिये उपयुक्त जलवायु उत्तराखण्ड में भी है। इस राज्य में प्रकृति ने जैसे विविध रंग भरे हैं उसी तरह यहाँ नगदी फसल और फलोत्पादन के लिये उपयुक्त जलवायु है। मेरे पास ना तो कोई कृषि वैज्ञानिक जैसी डिग्री है और ना ही कृषि विषय में परास्नातक। परन्तु कृषि वैज्ञानिक मेरे बगीचे में सीखने व सीखाने के लिये जरूर आते हैं।
चोपड़ियाली गाँव को मिली एक और पहचान
पहले मसूरी-धनोल्टी-चंबा मोटर मार्ग अपनी बेमिसाल प्राकृतिक सुंदरता और पर्यटन के लिये जाना जाता था अब नगदी फसलों और फलदार पट्टी के रूप में क्षेत्र ने नई पहचान बनाई है। इस पहचान को बनाने में कोई सरकारी बजट और कोई योजना नहीं आई। यहाँ कर्मयोगी मंगलानन्द डबराल हैं जो खेती-किसानी में नित-नए प्रयोगों को करके न कि सिर्फ आम लोगों, बल्कि कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान भी इस ओर आकर्षित कर रहे हैं। खेती में विभिन्न फसलों के सफल उत्पादन के बाद आज वे उत्तराखंड के पहले ऐसे किसान के रूप में पहचान बना चुके हैं, जो विदेशी फल ‘‘किवी’’ का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर रहे हैं।
पंतनगर यूनिवर्सिटी ने आड़ू को दिया मंगलानंद का नाम। ‘अर्ली एम रेड आड़ू’ इसमें ‘एम’ अक्षर मंगलानंद के नाम को प्रदर्शित करता है।
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