1964 में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना कर स्थानीय संसाधनों, जिसमें मानव संसाधन भी शामिल था, के सदुपयोग की कार्ययोजना पर काम शुरू किया। यही संस्था आगे चलकर सामाजिक सरोकारों के लिए सामाजिक गतिमानता का एक सशक्त केंद्र बनी। बाद के वर्षों में इसके माध्यम से अनेक अभियान और आंदोलनों के साथ-साथ अनेक अध्ययन यात्राएं और व्यावहारिक प्रयोग किए गए। मैग्सेसे व पद्मभूषण से सम्मानित चण्डीप्रसाद भट्ट एक अद्भुत गांधीवादी कार्यकर्ता हैं। पर्यावरण को लेकर वैश्विक जागरूता बढ़ाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनकी रचनात्मकता जीवन के सभी क्षेत्रों एवं समाज के सभी वर्गों में व्याप्त है। शराबबंदी और सामाजिक समानता उनके जीवन के ध्येय रहे हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण वे सहज ही अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार के पात्र बन गए हैं।
चिपको आंदोलन के प्रणेता और उत्तराखंड में गांधीवादी विचारों के आधार पर विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों को आगे बढ़ाने वाले इक्यासी वर्षीय चण्डीप्रसाद भट्ट को इस बार अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। चिपको आंदोलन में आमजन, मुख्य रूप से ग्रामीण महिलाओं को जोड़कर अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, विकास और सम्यक् उपयोग के विचार को गांधीवादी तरीके से सरकार तक पहुंचाकर पूरी वन व्यवस्था पर विश्व का ध्यान आकर्षित करने वाले चण्डीप्रसाद भट्ट कठिन सामाजिक-आर्थिक परिवेश में पले-बढ़े और उन्होंने इसमें व्याप्त विषमता, अन्याय तथा उत्पीड़न को बहुत निकट से देखा और झेला है। इसी से उनके बाल मन में ऐसी बुराइयों के प्रतिकार का विचार पैदा हुआ। इसकी शुरूआत उन्होंने अपने छोटे से गांव गोपेश्वर से की और अपने दलित जाति के हलवाहे तथा मिस्त्रियों, जिन्हें अछूत माना जाता था, के साथ बैठकर भोजन किया और सदियों से चली आ रही छुआछत की प्रथा पर पहला प्रहार किया।
पारिवारिक आर्थिक कठिनाइयों के कारण नियमित पढ़ाई का खर्चा नहीं जुट पाया। इसलिए टुकड़ों में विद्यालयीन शिक्षा पूरी कर एक छोटी नौकरी शुरू कर दी। इससे घर-परिवार के लिए रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो हो गया, लेकिन सामाजिक विषमता के विरुद्ध मन में जो आक्रोश उपजा था, उसकी शांति का आधार नहीं मिला। सन् 1956 में जयप्रकाश नारायण बद्रीनाथ यात्रा पर आने वाले थे। इसी सिलसिले में भट्टजी की सर्वोदयी कार्यकर्ता मानसिंह रावत से भेंट हो गई। सर्वोदय की विचारधारा पर हुई चर्चा से भट्ट जी को मानों वह मंजिल मिल गई, जिसके लिए उनका मन-मस्तिष्क भटक रहा था। इसके बाद जे. पी. और विनोबा भावे की यात्राओं में शामिल होने तथा सर्वोदयी विचारों से अधिकाधिक परिचित होने के बाद उनके विचारों को पूर्णता प्राप्त होती चली गई। अंततः उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे सर्वोदय के माध्यम से ही सामाजिक बदलाव के लिए काम करेंगे। दो-तीन वर्षों तक परिवार की मान-मनौव्वल के बाद नौकरी छोड़ने के लिए उनकी सहमति प्राप्त की और बनारस जाकर सर्वोदयी सिद्धांतों व व्यवहार का अध्ययन व अनुशीलन किया।
वापस लौटकर अपने गांव गोपेश्वर से ही उस ज्ञान को व्यवहार में उतारने का अभियान आरंभ किया। सबसे पहले उन्होंने श्रम की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए श्रम संविदा समिति बनाई। समान श्रम, समान पारिश्रमिक, समान भोजन, समान बिस्तर के सिद्धांत को व्यवहार में उतारकर समतावादी समाज की कल्पना को व्यवहार में लाने की पहल की। महिला सशक्तीकरण की उनकी सोच की प्रखरता तथा व्यवहार में उतारने की प्रतिबद्धता का ही परिणाम था कि नशाबंदी के लिए हजारों महिलाएं घरों से बाहर निकलीं और आंदोलन में कूदीं। कुछ महिलाएं अपने दुधमुहे बच्चों के साथ जेलों में भी ठूंसी गईं। सामान्य घर-गृहस्थी तक सीमित रहने वाली पहाड़ी महिलाएं राष्ट्रपति भवन तक पहुंचीं और अंततः उन्होंने उत्तराखंड में शराबबंदी लागू करवाने में सफलता हासिल की। यही महिलाएं बाद में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के विरुद्ध चिपको आंदोलन की सेनानी और नायिकाएं भी बनीं।
1964 में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ दशोली ग्राम स्वराज्य संघ (अब मंडल) की स्थापना कर स्थानीय संसाधनों, जिसमें मानव संसाधन भी शामिल था, के सदुपयोग की कार्ययोजना पर काम शुरू किया। यही संस्था आगे चलकर सामाजिक सरोकारों के लिए सामाजिक गतिमानता का एक सशक्त केंद्र बनी। बाद के वर्षों में इसके माध्यम से अनेक अभियान और आंदोलनों के साथ-साथ अनेक अध्ययन यात्राएं और व्यावहारिक प्रयोग किए गए। अपने देश व समाजों, प्रकृति और संसाधनों को समझने तथा सामाजिक उद्देश्यों व संबंधों को परस्पर जोड़ने के इन क्रियाकलापों से उत्तराखंड में सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने और दलितों, पिछड़ों का मनोबल ऊपर उठाने में मदद मिली। यह क्रम अभी भी निरंतर चल रहा है।
अपने मिशन में भट्ट जी कहां तक सफल हो पाए हैं? इस प्रश्न पर बिना लागलपेट के वह कहते हैं- ‘इसका मूल्यांकन समय और समाज करेगा’। उनका कहना है- ‘कार्यों और सफलताओं पर नामपट्ट लगाने की जरूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई...। “हम लुप्त हों, समाज और लोगों की हैसियत बढ़े। समाज के ज्ञान व शक्ति का उपयोग उनकी क्षमता और सोच बढ़ाने में हो और सब मिलकर समाज की बेहतरी के लिए काम करें, ये प्रयास लगातार जारी रहने चाहिए।”
वर्तमान उपलब्धियों से वह संतुष्ट नजर नहीं आते और मानते हैं कि समाज को संगठित होकर सतत् संघर्षशील रहना होगा। उनका विश्वास है कि ‘समाज में ही विसंगतियों को मिटाने की ताकत है और उस ताकत का इस्तेमाल समाज हमेशा करता रहता है। एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब ग्राम स्वराज्य और समतावादी समाज की कल्पना साकार होगी’।
चिपको आंदोलन के प्रणेता और उत्तराखंड में गांधीवादी विचारों के आधार पर विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों को आगे बढ़ाने वाले इक्यासी वर्षीय चण्डीप्रसाद भट्ट को इस बार अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। चिपको आंदोलन में आमजन, मुख्य रूप से ग्रामीण महिलाओं को जोड़कर अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, विकास और सम्यक् उपयोग के विचार को गांधीवादी तरीके से सरकार तक पहुंचाकर पूरी वन व्यवस्था पर विश्व का ध्यान आकर्षित करने वाले चण्डीप्रसाद भट्ट कठिन सामाजिक-आर्थिक परिवेश में पले-बढ़े और उन्होंने इसमें व्याप्त विषमता, अन्याय तथा उत्पीड़न को बहुत निकट से देखा और झेला है। इसी से उनके बाल मन में ऐसी बुराइयों के प्रतिकार का विचार पैदा हुआ। इसकी शुरूआत उन्होंने अपने छोटे से गांव गोपेश्वर से की और अपने दलित जाति के हलवाहे तथा मिस्त्रियों, जिन्हें अछूत माना जाता था, के साथ बैठकर भोजन किया और सदियों से चली आ रही छुआछत की प्रथा पर पहला प्रहार किया।
पारिवारिक आर्थिक कठिनाइयों के कारण नियमित पढ़ाई का खर्चा नहीं जुट पाया। इसलिए टुकड़ों में विद्यालयीन शिक्षा पूरी कर एक छोटी नौकरी शुरू कर दी। इससे घर-परिवार के लिए रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो हो गया, लेकिन सामाजिक विषमता के विरुद्ध मन में जो आक्रोश उपजा था, उसकी शांति का आधार नहीं मिला। सन् 1956 में जयप्रकाश नारायण बद्रीनाथ यात्रा पर आने वाले थे। इसी सिलसिले में भट्टजी की सर्वोदयी कार्यकर्ता मानसिंह रावत से भेंट हो गई। सर्वोदय की विचारधारा पर हुई चर्चा से भट्ट जी को मानों वह मंजिल मिल गई, जिसके लिए उनका मन-मस्तिष्क भटक रहा था। इसके बाद जे. पी. और विनोबा भावे की यात्राओं में शामिल होने तथा सर्वोदयी विचारों से अधिकाधिक परिचित होने के बाद उनके विचारों को पूर्णता प्राप्त होती चली गई। अंततः उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे सर्वोदय के माध्यम से ही सामाजिक बदलाव के लिए काम करेंगे। दो-तीन वर्षों तक परिवार की मान-मनौव्वल के बाद नौकरी छोड़ने के लिए उनकी सहमति प्राप्त की और बनारस जाकर सर्वोदयी सिद्धांतों व व्यवहार का अध्ययन व अनुशीलन किया।
वापस लौटकर अपने गांव गोपेश्वर से ही उस ज्ञान को व्यवहार में उतारने का अभियान आरंभ किया। सबसे पहले उन्होंने श्रम की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए श्रम संविदा समिति बनाई। समान श्रम, समान पारिश्रमिक, समान भोजन, समान बिस्तर के सिद्धांत को व्यवहार में उतारकर समतावादी समाज की कल्पना को व्यवहार में लाने की पहल की। महिला सशक्तीकरण की उनकी सोच की प्रखरता तथा व्यवहार में उतारने की प्रतिबद्धता का ही परिणाम था कि नशाबंदी के लिए हजारों महिलाएं घरों से बाहर निकलीं और आंदोलन में कूदीं। कुछ महिलाएं अपने दुधमुहे बच्चों के साथ जेलों में भी ठूंसी गईं। सामान्य घर-गृहस्थी तक सीमित रहने वाली पहाड़ी महिलाएं राष्ट्रपति भवन तक पहुंचीं और अंततः उन्होंने उत्तराखंड में शराबबंदी लागू करवाने में सफलता हासिल की। यही महिलाएं बाद में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के विरुद्ध चिपको आंदोलन की सेनानी और नायिकाएं भी बनीं।
1964 में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ दशोली ग्राम स्वराज्य संघ (अब मंडल) की स्थापना कर स्थानीय संसाधनों, जिसमें मानव संसाधन भी शामिल था, के सदुपयोग की कार्ययोजना पर काम शुरू किया। यही संस्था आगे चलकर सामाजिक सरोकारों के लिए सामाजिक गतिमानता का एक सशक्त केंद्र बनी। बाद के वर्षों में इसके माध्यम से अनेक अभियान और आंदोलनों के साथ-साथ अनेक अध्ययन यात्राएं और व्यावहारिक प्रयोग किए गए। अपने देश व समाजों, प्रकृति और संसाधनों को समझने तथा सामाजिक उद्देश्यों व संबंधों को परस्पर जोड़ने के इन क्रियाकलापों से उत्तराखंड में सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने और दलितों, पिछड़ों का मनोबल ऊपर उठाने में मदद मिली। यह क्रम अभी भी निरंतर चल रहा है।
अपने मिशन में भट्ट जी कहां तक सफल हो पाए हैं? इस प्रश्न पर बिना लागलपेट के वह कहते हैं- ‘इसका मूल्यांकन समय और समाज करेगा’। उनका कहना है- ‘कार्यों और सफलताओं पर नामपट्ट लगाने की जरूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई...। “हम लुप्त हों, समाज और लोगों की हैसियत बढ़े। समाज के ज्ञान व शक्ति का उपयोग उनकी क्षमता और सोच बढ़ाने में हो और सब मिलकर समाज की बेहतरी के लिए काम करें, ये प्रयास लगातार जारी रहने चाहिए।”
वर्तमान उपलब्धियों से वह संतुष्ट नजर नहीं आते और मानते हैं कि समाज को संगठित होकर सतत् संघर्षशील रहना होगा। उनका विश्वास है कि ‘समाज में ही विसंगतियों को मिटाने की ताकत है और उस ताकत का इस्तेमाल समाज हमेशा करता रहता है। एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब ग्राम स्वराज्य और समतावादी समाज की कल्पना साकार होगी’।
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