गोवा।भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में उन कारकों का पता चला है जो त्वचा सम्बन्धी कालाजार को खत्म करने में बाधा बने हुए हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार, स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह रवैया, रोग के बारे में अज्ञानता, त्वचा रोग के कारण शरीर पर पड़ने वाले धब्बों को कथित कलंक माना जाना, इलाज में देरी और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से दूरी जैसे कारणों की वजह से कालाजार उन्मूलन कार्यक्रम प्रभावित हो रहा है।
बिहार के हाजीपुर में स्थित राष्ट्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसन्धान संस्थान और पटना के राजेन्द्र स्मारक चिकित्सा विज्ञान अनुसन्धान संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किये गए सर्वेक्षण में ये बातें उभरकर आयी हैं।
कालाजार के बाद होने वाले त्वचा सम्बन्धी लीश्मेनियेसिस रोग के शिकार 18-70 साल के 120 लोगों को इस अध्ययन में शामिल किया गया है। इसमें 63.3 प्रतिशत पुरुष और 36.7 प्रतिशत महिलाएँ शामिल थीं। प्रतिभागियों में अधिकतर मजदूर वर्ग के निरक्षर और कुछ प्राइमरी स्कूल तक पढ़े लोग शामिल थे।
कालाजार के बाद त्वचा सम्बन्धी लीश्मेनियेसिस रोग होने की सम्भावना रहती है। इसे चमड़ी का कालाजार भी कहा जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है जब लीशमैनिया डोनोवानी नामक परजीवी त्वचा कोशिकाओं पर आक्रमण कर उन्हें संक्रमित कर देता है और वहीं रहते हुए विकसित होकर त्वचा पर घाव के रूप में उभरने लगता है। इस स्थिति में कालाजार से ग्रसित कुछ रोगियों में इस बीमारी के ठीक होने के बाद त्वचा पर सफेद धब्बे या छोटी-छोटी गाँठें बन जाती हैं।
त्वचा सम्बन्धी लीश्मेनियेसिस रोग एक संक्रामक बीमारी है, जो मादा फ्लेबोटोमिन सैंडफ्लाइज प्रजाति की बालू मक्खी के काटने से फैलती है। बालू मक्खी कम रोशनी और नमी वाले स्थानों जैसे मिट्टी की दीवारों की दरारों, चूहे के बिलों तथा नम मिट्टी में रहती है।
इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ. बिप्लव पॉल ने इंडिया साइंस वायर को बताया, “कालाजार के बाद मरीज में त्वचा सम्बन्धी लीश्मेनियेसिस रोग के लक्षण उभरने में 15 दिन से 15 साल तक लग सकते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में इस रोग के प्रति जागरुकता अधिक पायी गई है। ज्यादातर महिलाएँ बीमारी के लक्षण उभरने पर इलाज के लिये स्वयं अथवा परिजनों की मदद से स्वास्थ्य केन्द्र पहुँच जाती हैं। इसके विपरीत पुरुष इलाज के लिये देर से पहुँचते हैं।”
इस अध्ययन में पाया गया है कि 72.5 प्रतिशत लोगों को कालाजार की जानकारी तो है, पर इस बीमारी के बाद होने वाले त्वचा के लीश्मेनियेसिस रोग के बारे में जानकारी कम लोगों को ही है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, सिर्फ 31.7 प्रतिशत लोग इस रोग के बारे में जानते हैं। बीमारी के लक्षणों के प्रति भी 62.5 प्रतिशत लोग जागरूक नहीं हैं। इसी तरह 42.5 प्रतिशत लोगों को इस रोग के प्रसार के लिये जिम्मेदार बालू मक्खी के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
डॉ. पॉल के अनुसार, “गन्दगी वाली बस्तियों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वाले लोग इस रोग के शिकार अधिक होते हैं। इनमें से 75 प्रतिशत लोगों को यह तक मालूम नहीं होता कि उनको कोई मक्खी भी काट रही है।”
चमड़ी का कालाजार होने पर 8.4 प्रतिशत लोग घरेलू उपचार और 25.8 प्रतिशत लोग आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक उपचार कराते हैं। इससे जाहिर होता है कि इस रोग को गम्भीरता से लेने वाले लोगों की संख्या कम है। लगभग 15.8 प्रतिशत लोग सामाजिक उपेक्षा के डर से इस बीमारी को छिपाते हैं। इस रोग से पीड़ित कम उम्र के मरीजों, अविवाहित रोगियों और त्वचा पर अधिक घावों से ग्रस्त लोगों में हीन भावना भी देखी गई है। इस कारण कई बार लोग संकोच के चलते भी इलाज के लिये देर से पहुँचते हैं।
इस अध्ययन से जुड़े दो वरिष्ठ वैज्ञानिकों डॉ. नियामत अली सिद्दिकी और डॉ. कृष्णामूर्ति के अनुसार, “चमड़ी के कालाजार के प्रति लोगों को जागरूक करना जरूरी है। मरीजों के इलाज के लिये देर से पहुँचना कम करने के लिये सार्वजनिक-निजी सहयोग आधारित प्रणाली विकसित करने से फायदा हो सकता है। कालाजार के मरीजों अथवा उनके परिजनों को त्वचा सम्बन्धी लीश्मेनियेसिस रोग के बारे में समझाना भी आवश्यक है। इसके अलावा, कालाजार और चमड़ी के कालाजार के निदान और उपचार के लिये मुफ्त सेवाओं को बढ़ावा देना चाहिए।”
शोधकर्ताओं की टीम में डॉ. बिप्लव पॉल, डॉ. नियामत अली सिद्दिकी और डॉ. कृष्णामूर्ति के अलावा पवन गणपति, संजीवा बिमल, प्रदीप दास और कृष्णा पाण्डेय शामिल थे। यह शोध हाल ही में प्लॉस वन शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
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