यूरा की देखभाल एवं पानी के वितरण की भी गांवों में परंपरा से ही प्रबंध है। इस कार्य में बारी लगाई जाती है। इसे छुरपन के नाम से पुकारते हैं। 3 सितंबर 1995 को सुबह ही मैं कारू पहुंचा। यह सिंधु नदी के पास है। हम सिंधु नदी के किनारे तक उतर गए और उसके बाद भारत और तिब्बत में फैले हुए जलागम के बारे में सोचते रहे। शक्ति नामक स्थान पर चढ़ाई मिली। लगातार बैंडों को पार करते हुए हम दर्रे पर पहुंचे। 17300 फीट पर यह तांगला दर्रा था। शायद मोटर मार्ग में मौजूद दूसरा सबसे ऊंचा दर्रा। बर्फ गिर रही थी। 4 इंच तक बर्फ़ जम गई थी। दर्रे में सैकड़ों पताके लहलहा रहे थे।
पहली सितंबर 1995 की सुबह हम दिल्ली से लेह के जहाज में प्रातः 5:20 बजे बैठे। कुछ धुंधला सा अंधेरा था। थोड़ी देर बाद हम शिवालिक की पहाड़ियों के ऊपर से गुजर रहे थे। नीचे के पहाड़ों से आने वाले रेंड़ों ने मैदानों की ओर अपने विस्तार को दूर-दूर तक फैला दिया था। पहाड़ों पर भूस्खलन ऐसे लग रहे थे मानो किसी जानवर ने नाखून मार दिया हो। दूर सूर्य की लालिमा धीरे-धीरे पहाड़ों को अपने आगोश में समेटती आ रही थी। एकाएक हमारा जहाज महाहिमालय के ऊपर से आ रहा था। सारे पर्वत शिखर चांदी की तरह चमक रहे थे। जिधर देखो उधर बर्फ ही बर्फ से आच्छादित पहाड़ दिखाई दे रहे थे। इनके बीच में हिमानियों एवं हिमनदों का मनोहरी दृश्य दिखाई दे रहा था। जन्सकार की पर्वतमालाओं, जो गंगा एवं सिंधु की जलग्रहण की विभाजक हैं, के परे हम अब लद्दाख के मुख्यालय लेह में थे। हवाई अड्डे पर लेह स्वायत्त परिषद के लोग हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। लेह का बाजार दुल्हन की तरह सजा था। आज सितंबर की पहली तारीख थी। लद्दाख के लिए सितंबर का पहला पखवाड़ा विशेष महत्व का है। हो भी क्यों नहीं? यह पखवाड़ा कई दिनों तक मनाए जाने वाले लद्दाख उत्सव का है। पहली सितंबर को इसका प्रारंभ लेह में एक भव्य समारोह से होता है। वर्ष 1995 के पहले सितंबर को इस समारोह का शुभारंभ जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल जनरल के.बी. कृष्णाराव ने किया। दूर-दराज के गांवों से लोग परंपरागत रंग-बिरंगे पोशाक पहन कर उत्सव में शरीक होने आए थे।ढोल-नगाड़े एवं तुरही के उद्घोष के बीच में अलग-अलग गांवों से टोलियां नृत्य करती हुई आ रही थी। कई टोलियां अपने-अपने ढंग से मुखौटे पहले हुए नृत्य कर रही थीं। ये मुखोटे मुख्य रूप से यहां के स्थानीय पशुओं की शक्ल पर आधारित थे। मुखौटा नृत्य, पौना नृत्य आदि मनमोहक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। अलग-अलग क्षेत्र की अपनी पहचान इसमें होती है। पहली सितंबर के बाद हम जहां भी गए दूर-दराज के इलाके में भी लद्दाख महोत्सव की धूम थी। चाहे स्त्री हों या पुरुष या बच्चे सभी इसमें शरीक होते दिखे। यहां के ठंडे, रेतीले रंग-बिरंगे पहाड़ों के बीच लोग सज-धज के इस उत्सव को मना रहे थे। युवक युवतियां अपने-अपने परिधानों में लोक नृत्य एवं खेलों में मस्त दिखाई देते हैं। देश-विदेश के सैलानियों की संख्या भी बढ़ जाती है। यहां गांव-गांव में लोगों ने मेहमानों के लिए घरों में ही भुगतान के आधार पर रहने एवं खाने का प्रबंध कर रखा है। इस आधार पर स्थानीय ग्रामीणों का आय-वर्द्धन भी हो जाता है। सैलानी ऐसे घरों में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। भोजन में भी ज्यादातर स्थानीय पदार्थ ही परोसा जाता है। लोगों के घर साफ-सुथरे हैं एवं धुंआ रहित चूल्हा चलभग हर घर में मिलेगा। बर्तन साफ एवं भोजनालय में सजावट के साथ रखे रहते हैं।
लद्दाख स्वायत्त परिषद हाल के ही वर्षों में बनी थी। उसके पहले मुख्य कार्यकारी पार्षद श्री थुप्सटन छिवांग सरल एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हैं। लद्दाख के विकास के बारे में उनकी स्पष्ट सोच है। वे प्राकृतिक संसाधनों को केंद्र में रख कर यहां का विकास करना चाहते हैं। परंपरागत ज्ञान एवं आधुनिक तकनीकी एवं विज्ञान के समंवय को आधार बनाकर यहां का विकास करना चाहते हैं। एक ओर यूरा की परंपरा से विकसित प्रणाली हैं तो दूसरी ओर कृत्रिम ग्लेशियर एवं नहरों से इस ठंडे रेगिस्तान में हरियाली लाना चाहते हैं। थुप्सटन जी एवं स्वायत्त परिषद के सदस्यों से हमने चर्चा में पाया कि सभी एकजुट होकर लद्दाख के विकास में जुटे हैं। उनका मानना है कि यह एक अवसर है। अधिकांश सदस्य युवा हैं, साथ ही उत्साही हैं। लेह के पास से सिंधु नदी प्रवाहित होती है। इसके दोनों तटों पर हरियाली दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। 6-7 साल पहले जब मैं यहां आया था के मुकाबले इस बार हरियाली में बढ़ोतरी देखी। साथ ही सिंधु नदी के पार एक विशाल मैदान था। उसे हरा बनाने के लिए एक परियोजना पानी पहुंचाने की है। यह पानी इगों-फै नहर के द्वारा पहुंचाया जायेगा। इस पर तेजी से कार्य चालू है। बताया गया कि अगले तीन वर्षों तक हजारों हैक्टेयर भूमि में सिंचाई आरंभ हो जाएगी। इस ठंडे रेगिस्तान में पानी का योग चमत्कार से कम नहीं हैं।
इस दिन रात्रि को हम क समारोह में सम्मिलित हुए। जिसमें रात्रि भोज का प्रबंध भी था। इस समारोह में एक बड़ी शादी का आयोजन किया गया था। मेहमानों को सम्मानपूर्वक भोजन कराने का प्रबंध भी किया गया था। इस आयोजन से इस क्षेत्र की समृद्ध परंपरा की झलक मिल रही थी। बाद में पता चला कि यह शादी नकली है। केवल परंपरा की जानकारी देने के लिए यह आयोजन किया गया था। 2 सितंबर को लेह से आगे श्ये गांव से मुड़कर सिंधु नदी को पार किया। उसके बाद माठों गांव पहुंचे। माठों गांव से कुछ दूरी पर माठों गोम्पा है। यह गोम्पा 900 साल पुराना बताया जाता है। हमने वहां जाकर लामाओं से मुलाकात की। बताय गया कि गोम्पा की अपनी संपत्ति है। गांव का हर परिवार पूजा करता है। इसे गोम्पा का संचालन होता है। पहले हर परिवार से एक लड़का लामा बनने के लिए दिया जाता था। लेकिन अब किसी-किसी परिवार से हीं लड़का दिया जाता है। यहां पर 32 छोटी-छोटी उम्र के बच्चे लामा है। इनके लिए प्राइमरी स्कूल भी खोला गया है। गोम्पा का अपना जंगल भी है। यह जंगल काफी ऊंचाई पर है। यहां से सिंधु नदी का भव्य दर्शन होता है। सिंधु नदी के आर-पार की हरियाली से सिंधु की शोभा अत्यंत बढ़ गई है।
ऊपर से माठों गांव भी दिखता है। उसके पास से एक सूखा नाला है, जो रेड़ा जैसा लगता है। यह नाला चार पांच किलोमीटर दूर तक है। इसमें हिमानी का पानी बहकर तबाही मचा देता है। गांव में पता चला कि इस नाले को नियंत्रण करने का कार्य पिछले वर्षों में चल रहा है। 3 किलोमीटर तक नियंत्रण कार्य हो चुका है। खड़ंजा एवं सीड़ियां बना कर इस नाले को नियंत्रित किया गया। नाला नियंत्रण कार्य 50 फीट चौड़ाई तक फैला है। पता चला कि इस नाले के कारण गांव वालों को बहुत नुकसान होता था। ग्लेशियर एवं बारिश से नाले में पानी बढ़ जाता है। वह फैल जाता है। इस रेगिस्तान में भूक्षरण क्रिया वैसे भी बहुत अधिक है। इस प्रकार लोगों के खेत और चारागाह भी नष्ट होते थे। माठों गांव के ऊपरी भाग में दो यूरा (गूलें) बनी हैं, जो उत्तराखंड की गूलों की याद दिला रहे थे। यहां पोपुलस और विलो की सघनता देखने को मिली। लद्दाख के अंतरवर्ती गांवों में भी लोगों ने अपने खेतों के चारों ओर विलो और पोपुलस का रोपण किया है। इन पौधों को आठ दस फीट टहनियों की कलम बनाकर पोरा जाता है। जिससे ये जल्दी वृक्ष का रूप धारण कर लें। भेड़-बकरियों तथा पालतू पशुओं से सुरक्षा के लिए टिन के डिब्बों तथा पुराने कपड़ों से तने लपेटे गए हैं। मुख्य रूप से सेना द्वारा उपयोग के बाद फेंके गए डिब्बों का प्रयोग किया जाता है। पेड़ों के बचाव के लिए यह प्रयोग अपने आप में महत्वपूर्ण है, जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। वेस्टेज का इससे अच्छा उपयोग क्या हो सकता है? लेकिन इधर इन डिब्बों को कबाड़ी खरीद कर ले जा रहे हैं।
यूरा की देखभाल एवं पानी के वितरण की भी गांवों में परंपरा से ही प्रबंध है। इस कार्य में बारी लगाई जाती है। इसे छुरपन के नाम से पुकारते हैं। 3 सितंबर 1995 को सुबह ही मैं कारू पहुंचा। यह सिंधु नदी के पास है। हम सिंधु नदी के किनारे तक उतर गए और उसके बाद भारत और तिब्बत में फैले हुए जलागम के बारे में सोचते रहे। शक्ति नामक स्थान पर चढ़ाई मिली। लगातार बैंडों को पार करते हुए हम दर्रे पर पहुंचे। 17300 फीट पर यह तांगला दर्रा था। शायद मोटर मार्ग में मौजूद दूसरा सबसे ऊंचा दर्रा। बर्फ गिर रही थी। 4 इंच तक बर्फ़ जम गई थी। दर्रे में सैकड़ों पताके लहलहा रहे थे। हम बाहर निकले तो ठंड से ठिठुर गए। बर्फ की बूंदें मोतियों की तरफ हमारे बालों में जम रही थी। हम लोग याक चारकों-पालकों के यहां रुके। चाय पी। याक वालों से गपशप की और उनके कठिन जीवन में झांकने का प्रयास किया। उनके टेंट याक के बालों के बने थे। ये सरल, स्वस्थ लोग हैं और समृद्ध भी। टेंट के अंदर चूल्हा, बैठने का स्थान, पूजा के लिए दीपक, बांस का चाय बनाने वाला डिब्बा, बैठने का स्थान भी सजाया हुआ है। याक के दूध का मक्खन एवं मट्ठा भी बनता है। उसे सुखाया भी जाता है।
कुछ समय बाद नीचे उतरते हुए तांगसे पहुंचे। छोटी सी जगह है और फौज का पड़ाव भी यहां पर है। रात तांग से ही रहे। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुआ। यह कार्यक्रम लद्दाख उत्सव के क्रम में दिखाया जा रहा था। लद्दाखियों के नृत्य तथा मुखौटे अत्यंत आकर्षक थे। 4 सितंबर की सुबह तांगसे से चले। यह घाटी चौड़ी है और घास के मैदानों से घिरी है। रास्ते में तीन झीलें मिलीं। पहाड़ों से घिरे मैदान और मैदानों के बीच झीलें। एक अलग ही नजारा था। तीन घंटे के बाद हम पेंगौंग झील के पास पहुँचे। यह नीली गहरी और विस्तृत झील है। आधी हमारे लद्दाख में और आधी तिब्बत में। अंतर्राष्ट्रीय सीमा कहीं इसके बीच से गुजरती है। इस झील के किनारे अनेक गांव हैं। झील में अनेक पक्षी भी नजर आते हैं। याकों के झुंड के झुंड दिखते हैं। कहीं-कहीं अकेले याक भी चरते हुए मिलते हैं। जंगली घोड़ों के समूह भी दिखे और पालतू भेड़ों के भी इस झील के किनारे 35 किमी. की यात्रा की। सैनिकों ने चाय पिलाई और उनके कठिन जीवन में जरा सा झांकने का मौका मिला।
आगे चल कर सियाचिन (नुब्रा) नदी के दर्शन भी हुए। स्योक और सियाचीन नदी का संगम एक बहुत बड़े पाट में फैला है। यह पाट उन पहाड़ियों में होने वाली हलचलों का शिलालेख है। हमारे देश के हिमालयी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी हिमानियां इसी में हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के अनुसार सियाचिन हिमनद 72 किमी., हिसपर 62 किमी. बाइफौं 69 किमी. एवं बतूरा हिमनद 59 किमी. है। ये सभी कराकोरम में हैं। खलसर स्योक नदी के किनारे है। एक और नाला यहां स्योक में मिलता है। गांव और गोम्पा वाले बताते हैं कि पुराने समय में एक बस्ती यहां विकसित हुई थी। स्योक के किनारे-किनारे चल रही कार 20 किमी. बाद दिस्कित पहुंची।
सौर ऊर्जा विभाग ने यहां कार्य किया है। एक ग्रामीण संस्था ने इस हेतु तैयार किया है। हर परिवार 10-10 रुपये देकर इसका प्रबंध करता है। गांव वालों को सौर ऊर्जा की लाइट मिल रही है। पांली हाउस के भीतर राई, मैथी भी लोग उगा रहे हैं। चिशूल के पास ही कुमाऊं राइफल का स्मारक है। चिशूल गांव पहुंचे और फिर स्मारक पर। यह इलाका भी 1962 के युद्ध के कारण जाना जाता है। यहां तब नौवीं कुमाऊं के सैनिक लड़ रहे थे। वीरों को श्रद्धांजलि दी। शहीदों की नामावली यहां पर लगी है। जसवंतगढ़ की तरह यहां भी गौरव का अनुभव होता है और उदासी का भी। आगे फिर याक और कियांग (जंगली घोड़े) दिखे। अकेले और समूहों में। बाद में सिंधु नदी के किनारे आ गए और फिर इसके साथ-सात न्यूमा पहुंचे। गर्म पानी के स्रोत यहां हैं। सिंधु के किनारे रंगीन पर्वत हैं। प्रकृति किस तरह कलाकृतियां भी बना सकती है, इसे देखा। तटीय गांवों में वृक्षारोपण हो रहा है। न्योमा से लेह लौटते हुए सिंधु, जो कि इस घाटी में बड़े धैर्य पूर्वक बहती है, के किनारे लगे पेड़ देखे। पुनः उप्सी तक गए। यहां पस्मीना गोट का फार्म है। यहीं से हैमिस नामक गोम्पा गए। इसे लद्दाख के प्राचीनतम गोम्पाओं में गिना जाता है। यह मुख्य मार्ग तथा सिंधु नदी से कुछ हटकर है। यहां तमाम छतों में किनारे की किनारे की ओर चारे तथा जलावन को सजाकर रखने की परिपाटी कायम है।30 अगस्त 2000 को हम खड़ी चढ़ाई के बाद एक गोम्पा पहुंचे। जौ कि फसल लहलहा रही है। नदी, पेड़, खेत और गांव पीछे छूटते जा रहे हैं। एक जगह कुछ खंडहर से दिखे। पता चला कि जब सिल्क रूट में व्यापार चलता था तो उस समय यह स्थान एक पड़ाव था। समय बदला और स्थान उजड़ा। हम ऊपर चढ़ते चले जा रहे थे। हजारों फीट ऊपर जो चोटी थी, उसका नाम था खरदुंगला। करीब में ही दर्रे का नाम भी यही है। इंजन गर्म हो जाने के कारण कई जगह कार रोकनी पड़ी। बीच में कुछ ग्लेशियरों के दर्शन हुए और बूंदाबांदी से सामना हुआ। कुछ देर बाद बर्फ गिरने लगी। देखते-देखते हम दुनिया में सबसे ऊंचाई पर बने मोटर मार्ग पर खड़े थे। गिरती बर्फ हमारा स्वागत कर रही थी। आस-पास बर्फ जम भी गई थी। 18300 फीट पर स्थित खरदुंगला दर्रे पर पहुंचना एक अनोखा अनुभव था और मौसम के विपरीत होने से उच्च हिमालय की सामान्य कठिनाइयां समझने का मौका भी मिला। बर्फ को झेलते हुए फोटो खींचने का प्रयास किया, हालांकि यहां के दृश्य मन में छप चुके थे। दर्रे पर एक स्मारक भी बना हुआ था। सीमा सड़क संगठन के सड़क निर्माता जवान अभी भी काम में जुटे थे। उनके साहस और कठिन श्रम को नमन करना सहज स्वाभाविक था।
उतरते हुए बर्फ बहुत थी। अब चढ़ते हुए याक नजर आ रहे थे। नार्थ पोल पर भी हम रुके। यहां पड़ताल होती है। इसके बाद खारदुंगला की बस्ती शुरू हो जाती है। जौ के खेतों में हल्का पीलापन आ गया है। रेतीले रंग-बिरंगे पहाड़ों के बीच दृश्य अत्यंत मनोहारी लग रहा था। हम निरंतर उतर रहे थे। उतरना फेफड़ों को कितनी राहत देता है। एक वाहन में भी महसूस होता था। धीरे-धीरे हम स्योक नदी तक उतरते गए। दर्रे (शिखर) से घाटी में उतरना इस अर्थ में अनोखा था कि अन्य हिमलयी नदियों की तरह स्योक सिमटी नहीं थी। उसका बहुत चौड़ा पाट हमारे सामने था। लगता था कभी अवश्य इस नदी में बाढ़ आई होगी। इस तरह का भू-परिदृश्य बड़ी प्राकृतिक हलचल का संकेत देता है। खलसर में बड़े बूढ़ों से पता चला कि 1932 के आस-पास स्योक नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में प्रलयंकारी भूस्खलन से स्योक नदी का प्रवाह रुक गया था। बहुत बड़ी झील बन गई थी। इसके खतरे को देखते हुए सूचना एवं चेतावनी के लिए जहां से झील दिख रही थी वहां से स्योक के सिंधु में समाहित होने, आगे मैदान तक पहुंचने तक आग जलाने के लिए ऊंचे टीलों में लकड़ी के ढेर लगा दिए गए थे। जिस पर आग जलाने की बात सोची गई थी। जिससे देखकर सूचना चेतावनी समझकर सुरक्षित स्थान में चले जाए। आपदा से बचाव के लिए यह अनोखी तरकीब थी। लेकिन बताया जाता है कि झील का पानी धीरे-धीरे रिस गया, जिससे आग जलाकर खतरे का संकेत देने की नौबत नहीं आई।
आगे चल कर सियाचिन (नुब्रा) नदी के दर्शन भी हुए। स्योक और सियाचीन नदी का संगम एक बहुत बड़े पाट में फैला है। यह पाट उन पहाड़ियों में होने वाली हलचलों का शिलालेख है। हमारे देश के हिमालयी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी हिमानियां इसी में हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के अनुसार सियाचिन हिमनद 72 किमी., हिसपर 62 किमी. बाइफौं 69 किमी. एवं बतूरा हिमनद 59 किमी. है। ये सभी कराकोरम में हैं। खलसर स्योक नदी के किनारे है। एक और नाला यहां स्योक में मिलता है। गांव और गोम्पा वाले बताते हैं कि पुराने समय में एक बस्ती यहां विकसित हुई थी। स्योक के किनारे-किनारे चल रही कार 20 किमी. बाद दिस्कित पहुंची। यहां परगनाधिकारी का दफ्तर, अस्पताल तथा स्कूल आदि हैं। यहीं हमें दो कूबड़ वे ऊंटों का दर्शन हुआ। स्त्रियां तथा बच्चें स्वस्थ और खिलखिलाते हुए नजर आ रहे हैं। इस कठिन स्थान में भी उन्होंने संघर्षों से अपने को स्थापित किया है। जाड़ों में अवश्य दिक्कत होती है पर उन्होंने इस कठिनाई को झेलने का मनोविज्ञान विकसित कर लिया है।
दिस्कित तथा दुण्डर के बीच लगातार रेत के टीलों के दृश्य थे। सूर्य की किरणों से यह दृश्य चमचमाता था। स्योक घाटी की हरियाली, मटमैला विस्तार, सफेद हिम शिखर और नीला आसमान ये सब मिलकर गजब का प्रभाव रचते हैं। मनुष्य के कार्यकलाप, बसासतों, गोम्पाओं तथा जलविद्युत तथा सौर ऊर्जा के उपयोग को देखकर न सिर्फ अच्छा लगा, बल्कि इस तरह के इलाकों में इस ऊर्जा का ज्यादा उपयोग किए जाने का तर्क विकसित हुआ। पानी और सौर ऊर्जा दोनों मिलकर हरियाली को जन्म दे रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा उपयोग और प्रबंधन प्रेरक है। 31 अगस्त 2000 को सुबह उठकर चारों ओर का नजारा देखा। स्योक नदी का प्रवाह पूर्ववत जारी था। दिस्कित से 16 किमी. आगे स्योक नदी को पार किया। स्योक की धारा तेज करंट वाली दिख रही थी। नदी का पाट भी बहुत चौड़ा था। बाढ़ के लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। हल्की-सी-बारिश में भी रेंड़े आ जाते हैं, ऐसा लगा। अब हम सियाचिन ग्लेशियर से आने वाली सियाचिन नदी की घाटी में थे। इस घाटी में हरियाली बहुत थी। लोगों के मकान सुंदर थे। खेतों और घरों के आस-पास पोपुलस विलो तथा फलों के पेड़ बहुतायत में थे। आजकल फसल की कटाई चल रही थी। जाड़ों के लिए चारे का भण्डारण किया जा रहा था। मकानों की छतों में किनारे की ओर चारे तथा जलावन को सजाकर रखने की परिपाटी है।
पिचमिक से आगे तीरथ में पर्यटकों के लिए टेंट कालोनी बनी हुई है। बस में बहुत भीड़ दिखी। छतों में भी लोग भरे थे। यह दृश्य हिमालय में अधिकांश इलाकों में दिखता है। समुद्र तथा उससे आगे टाइगर तक गए एक पारंपरिक तालाब भी यहां देखा, जिसे अब पुनर्जीवित किया जा रहा है। समस्तजनी गोम्पा में लामा ने हमारा स्वागत किया। गोम्पा के दर्शन करने का मौका भी मिला। आगे स्योक नदी को फिर पार किया। चारों ओर याक चरते हुए दिखे। मौसम साफ होने से खरदुंगला पास के आसपास के शिखर तथा ग्लेशियर साफ दिखाई दे रहे थे। यहां से नार्थ पोल तथा साउथ पोल के दृश्य भी मनोहारी लग रहे थे। दोपहर ढाई बजे लेह पहुंचा। वहां पर लेह विकास स्वायत परिषद के चीफ कौंसलर का संदेश मिला कि रात्रि भोज में शामिल होऊं।
तदनुसार रात 8 बजे चीफ कौंसलर थुप्स्टन छेवांग द्वारा आयोजित रात्रि भोज मे शामिल हुआ। थुप्स्टन छेवांग लगनशील व्यक्ति हैं। लद्दाख के विकास का उनका एक सपना है। उसे वे धरती पर उतारना चाहते हैं। अपने क्षेत्र में वे लोकप्रिय हैं। उनके बारे में मैंने अशोक सैकिया से बहुत सुना था। वे उनके सहपाठी रहे थे। जो कुछ मैंने सुना था उससे वे कुछ ज्यादा ही थे। इस भौगोलिक दृष्टि से विकट क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी है। रात्रि भोज में उन्होंने लेह के जिला अधिकारी सोनम दावा एवं परिषद के सदस्यों के साथ ही महिला मंगल दल के छह सदस्यों के अलावा लेह की एक सामाजिक कार्यकर्ती श्रीमती दीन को भी बुलाया गया था। भोज के दौरान लद्दाक के विकास के बारे में चर्चा हुई। कई नई बातों की जानकारी मिली।
परिषद यहां के विकास में परंपरागत ज्ञान एवं तकनीकी को प्राथमिकता दे रही है। इस इलाके में परंपरा से पानी के एक बूंद के संरक्षण एवं उपयोग की परंपरा रही है। हिमानियों एवं ताजी बर्फ से रिसे पानी का यूरा (कच्ची गूलों) के द्वारा खेतों एवं गांवों तक पहुंचाने की रही है। इसमें चट्टानी इलाके में लकड़ी के पनाले तक गाड़े गए हैं। एक ओर परंपरागत ज्ञान का लाभ दूसरी ओर आर्टिफिसियल ग्लेशियर के द्वारा खेतों में पानी पहुंचाने की बात भी सामने आई। एक सहायक अभियंता छेवांग नोरफेल जो कि यहीं कि निवासी हैं, ने बताया कि कई गांव ऐसे हैं जहां हिमनद एवं बर्फ मई मध्य तक भी नहीं पिघलती है। इससे उन्हें जौ की बुवाई देर से करनी पड़ती है। इसका प्रभाव यह होता है कि फसल समय पर पक नहीं पाती है। लोगों को नुकसान उठाना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखकर आर्टिफिसियल ग्लेशियर का विचार आया है और सिंचाई के लिए पानी अप्रैल के महीने से ही प्राप्त होने लगा।
कारगिल से हम सुरू नदी के किनारे पहले भिन्जी, सलेशकोट, फसूना, सांकू गए। सांकू से कच्ची सड़क पर टिकत गए। वहां पर भी गांव वालों के साथ मीटिंग हुई। उसके आगे सड़क भिंकर तक जाती है। वहां भी मीटिंग करने के बाद वापस सांकू आए। सांकू से आगे छांगरा, फिर दमसना गांव तक गए। दमसना गांव के लोगों ने बताया कि 1995 में गांव के पास भयंकर भूस्खलन हुआ। उससे उनकी 300 कनाल जमीन नष्ट हुई। गांव के ही सजात हुसैन बताते हैं कि इस भूस्खलन की जानकारी पूरे जिले वालों को है। इस क्षेत्र में हरियाली के साथ-साथ खेतों के ऊपरी भाग में नाला नियंत्रण एवं चैकडेम के साथ दीवारबंदी एवं वृक्षारोपण होना चाहिए।
यहां पर पिछले वर्ष से सब्जी उत्पादन में भी काफी बढ़ोतरी हुई है। बताया जाता है कि लेह इलाके से सेना की आधी से अधिक सब्जी स्थानीय लोगों से प्राप्त होती है। इसी प्रकार सिबकथौर्न के पल्प से भी करोड़ों की आय स्थानीय लोगों को हो जाती है। जो लेह बेरी के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें रक्षा अनुसंधान संस्थान संगठन के लेह और परतापुर में स्थित कृषि प्रयोगशालाओं का योगदान भी माना जाता है। 1 सितंबर 2000 को खालसे के पास ट्रैफिक जाम मिला। डेढ़ घंटे तक रुकना पड़ा। सिंधु नदी के किनारे-किनारे दमखरे, साचे, बचुक और हानू तक गए। रास्ते भर लोग मिलते रहे। हानू में कुछ बहनें भी मिलीं। यह कहा जाता है कि ये लोग शुद्ध आर्य रक्त वाले हैं। यहां के निवासियों के चेहरे अत्यंत आकर्षक हैं और ऐसा लगता है कि इनका रक्त तथा सांस्कृतिक मिश्रण अन्य समूहों से नहीं हुआ। इस गांव में टमाटर/खुबानी, अखरोट और बादाम बहुतायत में होते हैं। शेष क्षेत्र का असर धीरे-धीरे यहां भी होने लगा है। आज की दुनिया में कोई कितने दिन अपने को अकेलेपन में रख सकता है।इस घाटी के लोग अपने पानी का उपयोग कर दो फसलें-गेहूं तथ ओगला (फाफर) प्राप्त करते हैं। साग-सब्जी का उत्पादन होता है। वनीकरण की ओर भी रूझान बढ़ा है। खुमानी का उत्पादन बढ़ाने की कोशिश हो रही है। ग्रामीणों ने अपनी ओर से खुमानी के बीज भेंट किए और कहा कि इन्हें अपने क्षेत्र में ले जाकर लगाए। संजक गांव के पास सिंधु नदी को पार कर, फिर मुलंग टोकलों नाले के साथ 30 किमी. यात्रा के बाद हम लेह-कारगिल हाईवे में पहुंच गए। फिर नामीकला पार कर गुजवेक पहुंचे और अंततः कारगिल। कारगिल में एक गैर सरकारी संस्था, जिसका नाम कारगिल डेवलपमेंट सोसाइटी प्रोजेक्ट है, के लोगों से भी मिला। मुझे उनके कार्यों को देखना और समझना था। जब लद्दाख जाने का कार्यक्रम बन रहा था तो कपार्ट के उप महानिदेशक अशोक ठाकुर ने इस संस्था के बारे में जानकारी दी। इसलिए इस संस्था के माध्यम से इस सीमांत जनपद के गांवों के विकास को समझने का अवसर मिला। मैंने लेह से टेलीफोन पर इस संस्था के पदाधिकारियों एवं कारगिल के डिविजनल डेवलपमेंट कमिश्नर एवं जिला अधिकारी डॉ. एम. दीन को भी अपने कार्यक्रम की जानकारी और आने की सूचना दे दी थी।
कारगिल से 20 किलोमीटर पहले ही मुझे कारगिल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के कार्यकर्ता तथा डॉ. दीन का प्रतिनिधि भी रास्ते में ही इंतजार करते हुए मिल गए थे। कारगिल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के मुखिया फिरोज काच्चों चालीस से कम उम्र के युवा हैं, स्नातक हैं, हिन्दी बहुत अच्छी बोल लेते हैं। उनकी टीम में सभी उनसे कम उम्र के युवा हैं, जिनमें तीन महिलाएं भी हैं। सभी काफी उत्साही दिखे। उनको चिपको आन्दोलन के बारे में पूरी जानकारी थी। इसलिए मेरा कारगिल का प्रवास उन्हें बहुत अच्छा लगा। यह बात उन्होंने मिलते ही बता दी थी। अगले दिन सुरू नदी के जलग्रहण क्षेत्र के अंतरवर्ती गांवों में जाने का कार्यक्रम बनाया गया। डॉ. दीन जिलाधिकारी भी रात को मिलने आए। उनसे कारगिल प्रोजेक्ट के बारे बात हुई, तो उन्होंने अगले दिन चार बजे सारे अधिकारियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की मीटिंग में इस विषय पर चर्चा करने की बात कहीं।
2 सितंबर को प्रातः काल फिरोज काच्चों एवं उनकी टीम के साथ सुरू नदी के तटवर्ती क्षेत्र में 80 किलोमीटर दूर तक आधा दर्जन गांवों में गए। सुरू नदी के लम्बे-चौड़े पाट के अगल-बगल मानवकृत हरियाली देखने को मिली। जन्सकार के सबसे ऊंची नुन-कुन हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन भी हुए। गांवों में लोगों से बातचीत करने पर पाया कि कारगिल में पेड़ों को बढ़ाने एवं हरियाली का कार्य जन कार्यक्रम के रूप में देखा जा सकता है। यहां पर जो हरियाली है वह मानवकृत है। इसी प्रकार जल संरक्षण की भी समृद्ध परंपरा है। यूरा व तालाबों के निर्माण एवं विकास आदि की गांव-गांव के लोगों द्वारा बुजुर्गों की सलाह से होता है। इस क्षेत्र के लोग जलागम विकास के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक हैं। जल एवं भूमि सुधार यहां के लोगों की अनुभूत आवश्यकता है। गांव के लोग संस्था के कार्यों को सम्मान और विश्वास के साथ देखते हैं एवं संस्था के प्रति आदर भी व्यक्त करते हैं।
कारगिल से हम सुरू नदी के किनारे पहले भिन्जी, सलेशकोट, फसूना, सांकू गए। सांकू से कच्ची सड़क पर टिकत गए। वहां पर भी गांव वालों के साथ मीटिंग हुई। उसके आगे सड़क भिंकर तक जाती है। वहां भी मीटिंग करने के बाद वापस सांकू आए। सांकू से आगे छांगरा, फिर दमसना गांव तक गए। दमसना गांव के लोगों ने बताया कि 1995 में गांव के पास भयंकर भूस्खलन हुआ। उससे उनकी 300 कनाल जमीन नष्ट हुई। गांव के ही सजात हुसैन बताते हैं कि इस भूस्खलन की जानकारी पूरे जिले वालों को है। इस क्षेत्र में हरियाली के साथ-साथ खेतों के ऊपरी भाग में नाला नियंत्रण एवं चैकडेम के साथ दीवारबंदी एवं वृक्षारोपण होना चाहिए। लोगों ने बताया कि वे अपने सीमित साधनों एवं श्रम से तो कार्य कर ही रहे हैं, इसमें सरकारी सहयोग की आवश्यकता है।
गांव वालों ने बताया कि उनके हर गांव में यूरा पहले से बनी है। लेकिन भूक्षरण एवं भूस्खलन से हर साल ही यूरा साद से पट जाती है। इसे पूरे गांव के लोग अपने श्रम से साफ करते हैं। इसमें पन्द्रह से बीस दिन लग जाते हैं। यह हर वर्ष ही करना पड़ता है। गांव के बड़े बूढ़ों का कहना हर कोई मानता है। इसलिए कभी-कभी देखभाल के लिए बारी लगाई जाती है। कागज पर नाम उतार दिए जाते हैं। इन गांवों के अलावा कारगिल लेह मार्ग से हटकर दरकित खरगोज गांवों में लोगों से बात करने का अवसर मिला। पानी और पेड़ इन गांवों की मुख्य समस्या है। इन समस्याओं को मिलजुल कर हल करने का प्रयास हो रहा है। यहां यह भी पता चला कि गांवों में अम्मा सौसया (मां का संगठन) बना हुआ है। मकान मिट्टी के बने हुए हैं। छत के नीचे पेड़ों की टहनियां एवं बलियां लगाई गई हैं। उसके ऊपर से मिट्टी बिछाई गई है। बारिश ज्यादा हुई तो समस्या पैदा हो जाती है। प्रायः हर घर में निर्धूम चूल्हा है। इस चूल्हे को इस प्रकार बनाया गया है कि कमरा भी गर्म हो जाता है। पिछले तीन चार दशकों में पेड़ों और चारागाह का कई जगह अच्छा विकास हुआ है।
अगले दिन मुझे द्रास तक जाना था। बताया गया कि द्रास में कारगिल शहीदों का स्मारक है। हमारे इलाके के मेरे परिचितों की स्मृति भी उससे जुड़ी थी। इसलिए हमने द्रास की ओर प्रस्थान किया। मुश्किल से 15 किलोमीटर आगे बढ़े थे कि रास्ता जाम मिला। पता चला कि यह जाम अगले दिन से ही लगा हुआ था। जोजिला के आसपास एक ट्रक उलट गया है। इसलिए दोनों तरफ का ट्रैफिक रूका पड़ा है। इस प्रकार हमारा वाहन भी वापस लेह की ओर मोड़ दिया गया। मैं शहीदों को श्रद्धांजलि देने से वंचित रह गया। अंत में कारगिल से आगे प्रस्थान करते समय कारगिल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के कार्यकर्ताओं को जूले-जूले कहते हुए अलविदा किया।
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