चिपको आंदोलन और चंडी प्रसाद भट्ट


चंडी प्रसाद भट्ट पहाड़ में जन्मे ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने पहाड़ पर ही रहना और वहाँ के लोगों की सेवा करना पसंद किया। उनके लिये गढ़वाल और गढ़वाली वैसे संसाधन नहीं थे, जिनका वह अपने करियर के लिये इस्तेमाल करते। उनका जीवन-कर्म पहाड़ के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये समर्पित रहा है - आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक रूप से आत्मनिर्भर। लेकिन उनके काम की प्रासंगिकता केवल हिमालय तक ही सीमित नहीं थी।

चंडी प्रसाद भट्टजून, 1981 के पहले सप्ताह में मैंने अलकनंदा की गहरी घाटियों में एक धर्मनिरपेक्ष तीर्थयात्रा शुरू की। मेरा गंतव्य गोपेश्वर था, जो हिंदू तीर्थस्थल बदरीनाथ मंदिर वाली पहाड़ी से सटा हुआ है। मैं यहाँ जिस समकालीन देवता के सम्मान में कुछ बातें बताना चाहता हूँ, वह चिपको आंदोलन के संस्थापक चंडी प्रसाद भट्ट हैं। उन दिनों देहरादून के अपने घर से अल्लसुबह मैंने ऋषिकेश के लिये एक बस पकड़ी और फिर वहाँ से गोपेश्वर के लिये दूसरी बस। यह मार्ग इतिहास, पुराण और विविधतापूर्ण परिदृश्य से आच्छादित था-किसी एक पहाड़ी पर देवदार के जंगल दिखते, तो दूसरी पर वे छतों से ऊपर दिखते, तो तीसरी पहाड़ी पर नंगी भूमि दिखती थी। देवप्रयाग से पहले बस गंगा के बाएँ किनारे की तरफ रुकी, उसके बाद हम विभाजित नदी को पार कर अलकनंदा का अनुसरण करने लगे। दोपहर के करीब हम श्रीनगर पहुँचे, जो कभी गढ़वाल की प्राचीन राजधानी थी।

निचली घाटी में स्थित श्रीनगर में गर्मी और धूल ज्यादा थी और कुल मिलाकर यह नीरस लगा। पहले यहाँ कुछ भव्य इमारतें थीं, जो 1894 की बाढ़ में गायब हो गईं। मैंने बाजार के मक्खियों से घिरे एक ढाबे में दोपहर का खाना खाया और फिर बस में लौट आया। लेकिन पता लगा कि यह स्टार्ट नहीं होगी। हम एक बार फिर बाहर निकल आए। एक संक्षिप्त मुआयने के बाद ड्राइवर ने अपना फैसला सुना दिया, रेडिएटर फट गया है और बेहतर होगा कि सवारी अपने लिये कोई और व्यवस्था कर लें।

फिर तीन-चार अन्य लोगों के साथ मैं एक सफेद टैक्सी में बैठ गया। हम अलकनंदा के साथ विभिन्न छोटी-छोटी नदियों के संगम स्थल पर बसे टोलों से होकर गुजर रहे थे। ऐसे ही एक संगम-सोनप्रयाग में हम एक किनारे की तरफ मुड़े और देखा कि एक चरवाहा लड़का भेड़ों के अपने झुंड को हाँकते हुए हमारी तरफ चला आ रहा था। उसने बटन वाला तंग अंगरखा पहन रखा था और उसके सिर पर एक टोपी थी। उसके दायें हाथ में एक छड़ी थी, जिससे वह भेड़ों को नियंत्रित करता था। जैसे ही उसके पास से हम गुजरे, उसने टैक्सी पर अपना बायाँ हाथ (जो पहले से ही खाली था) मारा और चिल्लाया, एच.एन. बहुगुणा!

जब में यह लिख रहा हूँ, वह लड़का और उसकी जीवंत भंगिमा अब भी मेरे जेहन में कौंध रही है। लेकिन इतने लम्बे अंतराल बाद मुझे शायद इसकी व्याख्या करना चाहिए। उस गर्मी में दशकों तक आत्मनिर्वासित रहने के बाद दिग्गज राजनेता हेमवती नंदन बहुगुणा कांग्रेस के उम्मीदवार के खिलाफ एक उप-चुनाव लड़ने के लिये अपने पैतृक शहर गढ़वाल लौटे थे। इससे पहले बहुगुणा एक बार उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री और देश की सबसे बड़ी व तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव भी रह चुके थे।

लेकिन अब उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी और अब कह रहे थे कि वह मैदानी इलाके के स्वार्थी और घाघ राजनेताओं के खिलाफ अपने पीड़ित लोक के हित के लिये लड़ने पहाड़ पर लौट आए हैं। कोई यकीन नहीं कर सकता था कि वह अपने बारे में बात कर रहे हैं, क्योंकि बहुगुणा घोर अवसरवादी थे जिन्होंने मैदान में रहकर अपना राजनीतिक करियर बनाया, लेकिन वह निश्चित रूप से अपने मतदाताओं के बारे में बात कर रहे थे, जैसे कि वह छोटा चरवाहा लड़का।

1980 के दशक में प्राइवेट टैक्सी की सवारी करने वाले को समृद्ध उपभोक्ता वर्ग का प्रतिनिधि माना जाता था। यदि कोई टैक्सी की सवारी कर रहा है, तो यह तय माना जाता था कि वह मैदानी इलाकों से आया होगा। अगर वह बस खराब नहीं होती और हमारी बगल से भेड़ों का झुंड और उसका चरवाहा नहीं गुजरता, तो शायद हम लोगों पर आरोप लगाने के लिये कोई हाथ नहीं उठता और न फिर से उस बागी नेता के नाम का आवाहन होता। उम्मीद है कि उस चरवाहे लड़के ने चंडी प्रसाद भट्ट का भी नाम सुना होगा। पहाड़ पर जन्मे वह ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने पहाड़ पर ही रहना और वहाँ के लोगों की सेवा करना पसंद किया। उनके लिये गढ़वाल और गढ़वाली वैसे संसाधन नहीं थे, जिनका अपना राजनीतिक करियर ढलान पर देख दोहन किया जाए। भट्ट का जीवन-कर्म उनके अपने लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये समर्पित रहा है- आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक रूप से आत्मनिर्भर। लेकिन उनके काम की प्रासंगिकता केवल हिमालय तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने जो आंदोलन चलाया और उससे जो विचार जन्मा, वह भारत के मैदानी इलाकों के लोगों के लिये भी सशक्त अपील थी, वास्तव में वह कहीं के भी ग्रामीण लोगों के लिये प्रासंगिक था।

चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म एक पुरोहित परिवार में 23 जून, 1934 को हुआ था, जो जंगल में 13,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित रुद्रनाथ मंदिर से जुड़ा था। रुद्रनाथ ‘पंच केदार’ का एक हिस्सा है। पंच केदार हिमालय स्थित शिव के पाँच मंदिरों को कहा जाता है, जिसमें सबसे पूजनीय केदारनाथ है। बचपन में चंडी प्रसाद भट्ट अक्सर अपने परिवार के लोगों के साथ मंदिर में जाते थे, उन यात्राओं ने भी लोक पारिस्थितिकी की स्थानीय परम्पराओं के प्रति उन्हें जागरूक किया। जब वह बुग्याल या ऊँचे पहाड़ पर स्थित चारागाह से होकर गुजरते, तो अपने जूते उतार लेते थे, ताकि फूलों को नुकसान न पहुँचे। अमृत गंगा के ऊपर चार किलोमीटर के दायरे में थूकने, खांसने और कुछ भी फेंकने पर प्रतिबंध था- वास्तव में हर वैसे काम पर प्रतिबंध था, जिससे नीचे बहने वाली नदी में प्रदूषण हो सकता था। सितम्बर में होने वाले नंदअष्टमी के त्यौहार से पहले वहाँ पौधों को तोड़ने की मनाही थी, उसके बाद यह प्रतिबंध हटा लिया जाता, ताकि पके फूलों को तोड़कर उनसे बीज निकाल लिया जाए।

एक बार रुद्रनाथ जाते हुए चंडी प्रसाद भट्ट एक चरवाहे से मिले, जो पवित्र और खूबसूरत ब्रह्मकमल के फूल जला रहा था। वह नंदअष्टमी का सप्ताह था, उन्होंने चरवाहे से पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है, तो चरवाहे ने जवाब दिया कि अगर उसका पेट बुरी तरह दर्द नहीं करता, तो अमूमन वह ऐसा नहीं करता। वह जानता है कि फूल का सत्व उसके पेट दर्द को ठीक कर देगा। लेकिन उसने तेजी से कहा, मैंने फूल को भेड़ की तरह अपने मुँह से तोड़ा है, ताकि देवता समझें कि यह प्रकृति द्वारा स्वाभाविक तौर पर हुआ है, बजाय किसी मनुष्य के हाथ के।

ज्यादा से ज्यादा स्वयंसेवकों को आंदोलन से जुड़ने के आह्वान पर 1960 में भट्ट ने अपनी नौकरी छोड़ दी और सर्वोदय आंदोलन में शामिल हो गए। यह एक बड़ा त्याग था, क्योंकि अब उनकी शादी हो चुकी थी और एक बच्चा भी था।

पारिस्थितिकी के तत्वों के बारे में चंडी प्रसाद भट्ट ने अनौपचारिक जानकारी स्थानीय परिदृश्य और वहाँ रहने वाले किसानों व चरवाहों से हासिल की। इस बीच उन्होंने रुद्रप्रयाग और पौड़ी जैसे छोटे पहाड़ी शहरों में स्कूली शिक्षा प्राप्त की, लेकिन विश्वविद्यालय की डिग्री लेने के बाद उन्होंने पढ़ाई बंद कर दी। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया था, इसलिये अपनी माँ को सहयोग देने के लिये उन्होंने स्थानीय परिवहन कम्पनी गढ़वाल मोटर ओनर यूनियन (जीएमओयू) में बुकिंग क्लर्क की नौकरी की। इससे एक वर्ष पहले बच्चों को कला की शिक्षा देते थे। जीएमओयू में काम करते हुए उनका अलकनंदा और अपने नाम की तरह प्यारे पीपलकोटि और कर्णप्रयाग जैसे गाँवों में आना-जाना लगा रहता था। उन्होंने बताया था कि वर्षों बुकिंग क्लर्क के रूप में काम करते हुए उन्हें भारत की सामाजिक विविधता को जानने का मौका मिला, क्योंकि उनके बहुत से ग्राहक तीर्थयात्री होते थे, जो देश के विभिन्न हिस्सों, रोजगारों और पेशों से जुड़े थे।

एक अज्ञात ट्रांसपोर्ट क्लर्क एक प्रभावी सामाजिक कार्यकर्ता कैसे बना? भट्ट की कहानी में मोड़ तब आया, जब उन्होंने 1956 में बद्रीनाथ में एक जनसभा में हिस्सा लिया। वहाँ मुख्य वक्ता थे जयप्रकाश नारायण, जो स्वतंत्रता संघर्ष के एक नायक थे और आजादी के बाद राजनीति छोड़कर गांधीवादी आध्यात्मिक नेता विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के तहत सामाजिक सेवा करने लगे थे। दूसरे वक्ता थे स्थानीय सर्वोदयी नेता मानसिंह रावत। मानसिंह तब युवा थे और विनोबा एवं जेपी से गहरे प्रभावित थे। वह जेपी, विनोबा भावे और उनके सर्वोदय आंदोलन की खबरें जानने के लिये उत्सुक रहते थे।

जब वार्षिक छुट्टी लेने का समय आया, तो भट्ट ने वह समय मानसिंह रावत के साथ उत्तराखंड के अंदरूनी गाँवों में बिताया। मानसिंह के सगे भाई की तीन बसें जीएमओयू के तहत चल रही थीं। चंडी प्रसाद ने सोचा, अगर यह धनी आदमी (स्थानीय पैमाने के मुताबिक) सर्वोदय के लिये अपनी विरासत छोड़ सकता है, तो वह क्यों नहीं?

वर्ष 1956 से 1960 के बीच चंडी प्रसाद ने अपनी छुट्टियाँ मानसिंह और उनकी पत्नी शशि बहन से सर्वोदय के बारे में जानकारी प्राप्त करने में खर्च कीं। शशि बहन ने कौसानी के लक्ष्मी आश्रम में प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता सरला बहन से प्रशिक्षण लिया था। मीरा बहन की तरह सरला बहन भी अंग्रेज महिला थीं, जिनका मूलनाम कैथरीन मैरी हेलमैन था। मीरा बहन की ही तरह वह भी गांधी जी के साथ जेल गई थीं और फिर उन्हीं की प्रेरणा से ग्रामीण कार्य करना शुरू किया था। 1930 के दशक में उन्होंने कुमाऊं के ग्रामीण इलाके में एक आश्रम खोला, जो मुख्य रूप से महिलाओं की शिक्षा एवं रोजगार पर केंद्रित था। उन्होंने कई गांधीवादी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया था, जिनमें मानसिंह रावत और शशि बहन भी शामिल थीं।

सर्वोदय कार्यकर्ता के रूप में प्रशिक्षण के दौरान चंडी प्रसाद भट्ट ने रावत और एक बार 1959 में विनोबा भावे के साथ शिक्षाप्रद यात्रा भी की थीं। उस समय चीन सीमा पर खतरनाक चालें चल रहा था। जैसा कि जेपी ने कहा, एक अन्य एशियाई देश की यह चुनौती न सिर्फ सामरिक थी, बल्कि वैचारिक भी। ज्यादा से ज्यादा स्वयंसेवकों को आंदोलन से जुड़ने के आह्वान पर 1960 में भट्ट ने अपनी नौकरी छोड़ दी और सर्वोदय आंदोलन में शामिल हो गए। यह एक बड़ा त्याग था, क्योंकि अब उनकी शादी हो चुकी थी और एक बच्चा भी था।

अपने कुछ दोस्तों के साथ भट्ट ने सबसे पहले एक सहकारी मजदूर संगठन चलाया, जिसका काम घरों की मरम्मत करना और सड़कें बनाना था। संगठन के सदस्यों में काम और मजदूरी का बराबर बँटवारा होता था। फिर 1964 में उन्होंने दशौली स्वराज्य सेवा संघ (डीजीएसएस) की स्थापना की, जिसे उचित ही ‘चिपको आंदोलन’ का मातृ संगठन कहा जाता है। वह आंदोलन, जाहिर है, भविष्य के पूरे एक दशक तक छाया रहा। गौरतलब है कि डीजीएसएस का शिलान्यास एक महिला-सुचेता कृपलानी (उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री) ने किया था, और उसके लिये जमीन भी एक अन्य महिला श्यामा देवी ने दान की थी।

भट्ट के प्रारम्भिक जीवन और सर्वोदय में दीक्षा सम्बन्धी जानकारियाँ मैंने उस विस्तृत इंटरव्यू से जुटाई, जो उन्होंने मुझे सितम्बर, 2001 में दिया था: ‘मुझे लगता है कि मितभाषी और शर्मीला-सा वह शख्स पहली बार किसी बाहरी व्यक्ति से इन चीजों के बारे में बात कर रहा था।’

हालांकि डीजीएसएस की स्थापना के साथ ही हम उस सार्वजनिक व्यक्ति के क्षेत्र में पहुँचे, जिसे ‘चंडी प्रसाद’ के बजाय ‘भट्ट’ के नाम से जाना जाता है। डीजीएसएस का जोर वनोपज का सतत प्रयोग करते हुए बुनाई, मधुमक्खीपालन, जड़ी-बूटी संग्रह और कुटीर उद्योगों के जरिये स्थानीय रोजगार पैदा करना था। 1968 में जयप्रकाश नारायण पत्नी प्रभावती के साथ भट्ट एवं उनके साथियों के काम को देखने गोपेश्वर आए थे। उन्होंने कहा था कि उन्हें उस त्यागमयी वीरता की याद आ गई, जो गांधी के अपने आंदोलन की पहचान थी।

डीजीएसएस की गतिविधियों के कारण सरकार के साथ अक्सर उसका विवाद होता रहता था। ये झगड़े आमतौर पर छोटे होते थे और सुलझा लिये जाते थे, लेकिन 1973 में वन विभाग ने हॉर्नबीम के कुछ पेड़ काटने की अनुमति नहीं दी, जिनसे कृषि के औजार बनते थे। निराशा की बात यह थी कि वही पेड़ इलाहाबाद स्थित एक खेल उपकरण बनाने वाली कम्पनी को नीलाम कर दिए गए। डीजीएसएस की इस भावना को मंडल गाँव के निवासियों ने पूरे जोर-शोर से उठाया। मंडल गाँव विवादित जंगल से सटा हुआ है। भट्ट के सुझाव पर ग्रामीणों ने पेड़ों को काटकर ढोने की अनुमति देने के बजाय उसे गले लगाने की धमकी दी। जैसा कि चिपको आंदोलन के पहले इतिहासकार अनुपम मिश्र लिखते हैं, भट्ट ने गढ़वाली के जिस शब्द का प्रयोग किया था, वह ‘आंग्लवाल्था’ यानी आलिंगन करना था, जो हिंदी के ‘चिपको’ शब्द के मुकाबले स्थानीय भावना के काफी करीब है।

गांधी जी का मानना था कि विज्ञान के रहस्यों, सुखों और उससे मिलने वाली प्रसन्नता को समझना एक लड़के के लिये तब तक असंभव है, जब तक कि वह अपनी आस्तीन चढ़ाकर हाथों का उपयोग करके आम मजदूरों की तरह सड़कों पर मजदूरी करने के लिये तैयार नहीं होता।

मंडल गाँव के विरोध प्रदर्शन के बाद अलकनंदा की घाटी के विभिन्न गाँवों में व्यावसायिक वानिकी के खिलाफ कई प्रदर्शन हुए। ऐसा ही एक प्रदर्शन रैणी गाँव में 1974 के वसंत में हुआ, जो गौरा देवी के नेतृत्व में पूरी तरह से महिलाओं का ही विरोध प्रदर्शन था। इसी बीच गढ़वाल के एक अन्य महान गांधीवादी नेता सुंदरलाल बहुगुणा अपनी यात्रा खत्म कर उत्तराखंड पहुँचे और विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। उन्होंने जो देखा, उसे देहरादून से प्रकाशित होने वाले एक प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी साप्ताहिक ‘युगवाणी’ में लिखा। बहुगुणा ने चंडी प्रसाद भट्ट को ‘चिपको आंदोलन’ का ‘मुख्य संचालक’ बताया। आगे उन्होंने लिखा कि यह एक आर्थिक आंदोलन नहीं है, जो माँगे पूरी हो जाने पर शांत हो जाएगा, बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के दिलों में पेड़ों के प्रति प्रेम को बढ़ावा देना है। बहुगुणा ने देखा कि चिपको आंदोलन पहाड़ी जंगलों की रक्षा तो कर ही रहा है, मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्धों को बदलने की दिशा में भी यह पहला कदम है। प्रारम्भिक चिपको आंदोलन के कारण लकड़ी ठेकेदार चंडी प्रसाद भट्ट के स्थाई दुश्मन बन गए। दशकों से वे हिमालयी जंगलों पर स्वतंत्र कब्जा जमाए हुए थे। इसमें राज्य की नीति उनकी मदद करती थी, जिसके तहत उन्हें बाजार से कम मूल्य पर ठेके पर जंगल दे दिए जाते थे। व्यापारियों ने इससे काफी पैसा बनाया, लेकिन व्यावहारिक तौर पर उनमें एक भी पहाड़ी आदमी नहीं था, वे उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों के शहरों से थे। चिपको आंदोलन का विरोध दबंग स्थानीय अधिकारियों ने भी किया, जो इसे अपने अधिकार पर खतरे के रूप में देख रहे थे। वे चिपको आंदोलन के नेता को बदनाम करने के लिये ठेकेदारों के साथ मिल गए; जैसा कि एक पत्रकार ने लिखा, “हताश व्यवसायी और मजिस्ट्रेट यह अफवाह फैला रहे हैं कि भट्ट चीन के एजेंट हैं।”

चिपको आंदोलन का जन्म अलकनंदा की घाटी में हुआ, जिसे भट्ट एवं उनके डीजीएसएस के सहयोगियों ने आगे बढ़ाया। बाद में यह पूरब की तरफ कुमाऊं और पश्चिम की तरफ भागीरथी घाटी में भी फैला। कुमाऊं में जहाँ व्यावसायिक वाणिकी के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन वामपंथी छात्र संगठन उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने किया, वहीं भागीरथी घाटी में इस आंदोलन का नेतृत्व सुंदरलाल बहुगुणा एवं उनके सहयोगियों ने किया। अपने मूल स्थान में ही जब यह आंदोलन दूसरे चरण में पहुँचा, तो इसे पुनर्गठित किया गया। भट्ट के नेतृत्व में डीजीएसएस ने दर्जनों वृक्षारोपण एवं संरक्षण कार्यक्रम आयोजित किए, खासकर महिलाओं को इस बात के लिये प्रेरित किया गया कि वे अपने आस-पास की बंजर पहाड़ी को फिर से हरा-भरा बनाएँ। एक दशक के भीतर इसने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के एसएन प्रसाद ने 1984 में एक अध्ययन किया, जो बताता है कि डीजीएसएस ने वृक्षारोपण का जो काम किया था, उनमें से 70 फीसदी पेड़ बचे रहे, जबकि वन विभाग के वृक्षारोपण अभियान में से 20 से 50 फीसदी पेड़ ही बचे।

बीती सदी के अस्सी के दशक की शुरुआत में दशौली स्वराज्य सेवा संघ (डीजीएसएस) दशौली स्वराज्य सेवा मंडल (डीजीएसएम) बन गया। लेकिन नाम चाहे कुछ भी हो, यह अनुकरणीय संगठन बना रहा। इसके काम के बारे में पत्रकार रमेश पहाड़ी ने अपनी पुस्तिका में बहुत प्यार से लिखा है, जिसे देहरादून के पीपुल साइंस इंस्टीट्यूट ने प्रकाशित किया है। पहाड़ी ने, जो भट्ट को तीन दशकों से जानते हैं, न सिर्फ उनकी सादगी और विनम्रता के बारे में लिखा है, बल्कि उनके विचारों और निर्णयों की मजबूती पर भी कलम चलाई है। उन्होंने डीजीएसएम के एक निम्न जाति के सदस्य मुरारी लाल के हवाले से लिखा है कि “भट्ट जी ने पर्यावरण संरक्षण की तुलना में सामाजिक विषमता दूर करने के लिये बड़ी लड़ाई लड़ी।” वह मुरारी लाल का ही गाँव था, जहाँ सबसे पहले वृक्षारोपण अभियान शुरू किया गया। कभी निर्माण मजदूर रह चुके मुरारी लाल 35 वर्षों तक भट्ट के अटूट सहयोगी बने रहे। यह रिश्ता आपसी सम्मान पर आधारित था, दोनों के बीच बस एक ही गांधीवादी आपत्ति थी मुरारी लाल के तम्बाकू प्रेम को लेकर।

चंडी प्रसाद भट्ट को लिखने के लिये बहुत कम समय मिल पाता है, लेकिन जब भी वह लिखते हैं, तो उनके शब्द उनकी समझदारी और ज्ञान को प्रदर्शित करते हैं। बीस वर्ष पहले ‘पहाड़’ पत्रिका में उन्होंने बड़े बाँधों की आलोचना में एक गम्भीर लेख लिखा था, जो बाद में ‘हिमालय’ में अंग्रेजी में “द फ्यूचर ऑफ लार्ज प्रोजेक्ट्स (बड़ी परियोजनाओं का भविष्य)” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उन्होंने वनों के संरक्षण पर भी जानकारीपूर्ण लेख लिखे हैं, जिसमें ‘किसानों के व्यावहारिक ज्ञान’ और राज्य की ‘नवीनतम वैज्ञानिक जानकारियों’ के रचनात्मक संयोग पर बल दिया है।

हमारे समय में कुछ भारतीय पर्यावरणविद हर तरह की हिंसा और शोषण के बुनियादी स्रोत के रूप में आधुनिक विज्ञान की आलोचना करते हैं। चंडी प्रसाद भट्ट उनसे काफी अलग हैं, जो आधुनिक ज्ञान के प्रमुख रूपों पर बेहद सूक्ष्म नजरिया रखने का दुस्साहस करते हैं। वह शक्ति को केंद्रीकृत करने के विज्ञान के तरीकों की व्याख्या करने के साथ पर्यावरण क्षति बढ़ाने में उसकी भूमिका की आलोचना भी कर सकते हैं। असल में वह राज्य की एक ही तरह की वानिकी और बड़े बाँध बनाने की योजना का, जिसके विज्ञानसम्मत होने का दावा किया जाता है, विरोध करने वालों में अग्रणी रहे हैं। फिर भी भट्ट मानते हैं कि पारिस्थितिकी संवेदनशीलता और सामाजिक वंचना की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिये तकनीकी ज्ञान का मानवीय उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने बहुत पहले योजना बनाने के लिये विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाने का आह्वान किया था और खुद बायोगैस संयंत्र एवं सूक्ष्म पनबिजली परियोजनाओं जैसी उचित ग्रामीण तकनीक के प्रसार का बीड़ा उठाया था।

लोगों को सुनने और उनसे सीखने को उत्सुक रहने के बावजूद वह लोक ज्ञान के प्रति बहुत भावुक नहीं हैं। वह सिर्फ विज्ञान में ही सुधार का तर्क नहीं देते, बल्कि बदली हुई पारिस्थितिकी और जनसांख्यिकीय संदर्भ में अप्रासंगिक हो चुकी स्थानीय प्रथाओं को भी बदलने की बात करते हैं। इसलिये उन्होंने कहा कि पहाड़ों में खड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत और सीमाहीन चारागाह अब न तो समाज के लिये और न ही प्रकृति के लिये व्यावहारिक हैं। विज्ञान के उत्तर आधुनिक आलोचक स्वयं को महात्मा गांधी का पक्षधर बताते हैं। इस तरह वे गांधी का स्मरण अवसरवादिता के कारण नहीं, बल्कि गलती से करते हैं। लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, आधुनिक विज्ञान की सम्भावनाओं और सीमाओं को लेकर भट्ट की समझ गाँधी की अपनी स्थिति के बिल्कुल करीब है। महात्मा गांधी ने मार्च, 1925 में त्रिवेंद्रम में कॉलेज छात्रों के समूह के बीच अपने भाषण में अपनी यह सोच स्पष्ट की थी। गांधी ने कहा था-
भारत में यह आम अंधविश्वास है और भारत के बाहर उससे भी ज्यादा, (क्योंकि यूरोप और अमेरिका से मुझे मिलने वाले पत्रों से यही स्पष्ट होता है) कि मैं विज्ञान का विरोधी एवं शत्रु हूँ।

इस तरह के आरोप सच से बिल्कुल दूर हैं। हालांकि यह सच है कि मैं विज्ञान का प्रशंसक नहीं हूँ, लेकिन मैं जो आपसे कह रहा हूँ, उसके साथ इसे मत मिलाइए। मैं मानता हूँ कि अगर हम विज्ञान का सही इस्तेमाल करते हैं, तो इसके बिना नहीं जी सकते। लेकिन दुनिया भर की यात्राओं के दौरान मैंने विज्ञान के दुरुपयोग के बारे में इतना कुछ जाना है कि अक्सर मेरी टिप्पणियों ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं सचमुच विज्ञान का विरोधी हूँ। मेरी विनम्र राय है कि वैज्ञानिक खोजों की भी सीमाएँ होती हैं और जब इन सीमाओं को मैं वैज्ञानिक खोज की जगह रखता हूँ, तो वे सीमाएँ मानवता हम पर थोपती हैं।

गांधी कहना चाह रहे थे कि वह उन अपीलों की सराहना करते हैं, जो वैज्ञानिकों से ‘विज्ञान की खातिर विज्ञान’ के लिये बुनियादी शोध का आह्वान करते हैं। लेकिन वह इस बात से दुखी थे कि भारत में वैज्ञानिक एवं विज्ञान के छात्र ज्यादातर मध्य वर्ग (और ऊँची जातियों) से आते हैं, जो केवल अपने दिमाग का उपयोग करना जानते हैं, न कि हाथ का।

उनका मानना था कि विज्ञान के रहस्यों, सुखों और उससे मिलने वाली प्रसन्नता को समझना एक लड़के के लिये तब तक बिल्कुल असम्भव है, जब तक कि वह अपनी आस्तीन चढ़ाकर हाथों का उपयोग करके आम मजदूरों की तरह सड़कों पर मजदूरी करने के लिये तैयार नहीं होता। हालांकि अगर कोई किसी बौद्धिक व्यक्ति से हाथ मिलाता है, तो वह मानवता की सेवा में विज्ञान का उपयोग कर सकता है। जैसा कि गांधी ने इसे त्रिवेंद्रम में छात्रों को इस तरह समझाया- “दुर्भाग्य से हम कॉलेज में पढ़ने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि भारत गाँवों में बसता है, न कि शहरों में। भारत में सात लाख गाँव हैं और आप से, जो उदार शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, अपेक्षा है कि उस शिक्षा और उसके फायदों को गाँवों तक ले जाएँ। आप अपने वैज्ञानिक ज्ञान को ग्रामीणों के बीच कैसे पहुँचाएंगे? तो क्या आप गाँवों की भाषा में विज्ञान सीख रहे हैं और क्या कॉलेज में प्राप्त ज्ञान इतना आसान और व्यावहारिक होगा कि ग्रामीण लोगों तक उसका फायदा पहुँचाने में आप उसका उपयोग करने में सक्षम होंगे?”

मैं समझता हूँ कि चंडी प्रसाद भट्ट ने शायद ही इस भाषण को पढ़ा होगा। फिर भी दुनिया की अपनी घुमक्कड़ी और स्व विकसित गहरी नैतिक भावना से उन्हें आधुनिक विज्ञान की इतनी ऊँची समझ हो गई, जो गांधी के समकक्ष है। यही नहीं, अपने विनम्र तरीके से भट्ट ने वैज्ञानिक शोध एवं उसके प्रयोग की दिशा को भी प्रभावित किया। उन्होंने भारत के कुछ बड़े प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के साथ काम किया, जिसमें पारिस्थितिक वैज्ञानिक माधव गाडगिल और कृषि वैज्ञानिक एमएस. स्वामीनाथन शामिल हैं। उन्होंने युवा वैज्ञानिकों को ग्रामीण भारत की सेवा में अपने ज्ञान का उपयोग करने के लिये प्रेरित किया।

अपने शुरुआती प्रयास में उन्होंने एक युवा वैज्ञानिक को स्वदेसी पन-चक्की (घराट) के उन्नयन के लिये प्रेरित किया था। परम्परागत रूप से यह उपकरण अनाज पीसने के काम आता था, लेकिन उपयुक्त ढंग से परिष्कृत करने के बाद अब वह स्थानीय जरूरतों के लिये पर्याप्त बिजली पैदा करने में सक्षम हो गया। इस प्रयोग की सूचना देते हुए भट्ट लिखते हैं, “पहाड़ को बिल्कुल इसी तरह की तकनीक की आवश्यकता है। लेकिन इसे बनाने के लिये इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों को पहले गंवई बनना होगा और खुद को हिमालय के प्रति समर्पित करना होगा, ताकि वे समझ सकें कि पहाड़ के लोग वास्तव में चाहते क्या हैं।”

चंडी प्रसाद भट्ट एक महान अग्रणी पर्यावरणविद, कार्यकर्ता और विस्तृत सोच और उपलब्धियों वाले चिंतक हैं, जो अपनी सहजता और अंग्रेजी पर मजबूत पकड़ न होने के कारण बहुत कम जाने गए और उन्हें काफी कम सम्मान मिला। न तो वह अपने काम का ढोल पीटते हैं और न ही उनके काम का ढोल पीटने वाला कोई है। किसी को उनके काम का वास्तविक आकलन करने के लिये गढ़वाल जाना होगा या उनके सहयोगियों से सम्पर्क करना होगा। मुझे रमेश पहाड़ी के ये शब्द बिल्कुल सटीक लगते हैं-दुनिया में आज जितने प्रकार के मुद्दों की चर्चा हो रही है-महिलाओं एवं दलितों का उत्थान और नीति-निर्माण में उनकी भागीदारी, पारिस्थितिकी, पर्यावरण, लोगों के पारम्परिक अधिकार, लोगों का देसी ज्ञान, सफल प्रयोगों पर आधारित विकास प्रक्रिया और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था-इन सब पर तीस वर्ष पहले ही डीजीएसएम ने काम किया और वह भी बिना किसी धूम-धड़ाके के। मुझे लगता है कि इसके अंतिम पद ‘बिना किसी धूम-धड़ाके के’ को दोहराया जा सकता है।

एक बार फिर मैं बीस वर्ष पहले की उस टैक्सी यात्रा वाले प्रसंग पर लौटता हूँ, जहाँ हमारी मुलाकात एक चरवाहे लड़के से हुई थी, जिसने एचएन बहुगुणा के बारे में हमसे बात की थी। बाद में उसी दिन देर शाम मैं गोपेश्वर पहुँचा। सरकारी गेस्ट हाउस में अपना बैग रखने के बाद मैं दशौली ग्राम स्वराज मंडल के कार्यालय निकल पड़ा। मैंने हिमालयी जंगलों के सामाजिक इतिहास पर काम करना शुरू किया, यह एक ऐसा प्रोजेक्ट था, जिसमें भट्ट का काम स्वाभाविक रूप से उपयोगी हो सकता था। मैं अगले कुछ दिनों में उनसे चिपको आंदोलन के बारे में कुछ दिनों में उनसे चिपको आंदोलन के बारे में एक लम्बा इंटरव्यू करने और सौभाग्य से डीजीएसएम की फाइलों को बारीकी से देखने की उम्मीद कर रहा था।

हालांकि उस शाम मुझसे पहले ही कोई वहाँ पहुँच चुका था। वह रुड़की विश्वविद्यालय का डॉक्टरेट का छात्र था, जो अपने प्रोजेक्ट के बारे में भट्ट से परामर्श करने आया था। वह अध्ययन के लिये बीस गाँवों का चयन करना चाह रहा था, जिनमें से दस गाँवों का एक समूह ऐसी जगह हो, जहाँ से सड़क मार्ग से मोटर वाहन से पहुँचा जा सके और दस गाँवों का दूसरा समूह मुख्य सड़क से पाँच किलोमीटर दूर हो। इन गाँवों के लोगों से वह विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता पर सवाल पूछकर सर्वे करता, ताकि इस धारणा की परीक्षा कर सके कि ग्रामीण इलाकों के उत्थान में सड़कें काफी अहम भूमिका निभाती हैं।

रुड़की का वह अर्थशास्त्री बीस गाँवों का सर्वे करना चाहता था, लेकिन वे बीस गाँव कौन-से होंगे, यह उसे पता नहीं था। इससे पहले वह गढ़वाल नहीं आया था और न ही गाँवों और सड़कों के अध्ययन के लिये कोई विश्वसनीय नक्शा उपलब्ध था। इस तरह उसके सर्वे का सैम्पल चंडी प्रसाद भट्ट ने तैयार किया। भट्ट ने शुद्ध हिंदी में बात की और उसमें कहीं-कहीं उनकी मातृभाषा की छौंक थी। (जैसे- ‘पशुपालन’ के लिये ‘पसुपालन’ और ‘कहते हैं’ के लिये ‘कोहते हैं’) अपनी याद्दाश्त के खजाने से उन्होंने बीस गाँवों के नाम ढूँढ़ निकाले-दस सड़क के सामने और दस उनसे दूर। लेकिन वही काफी नहीं था, उन्होंने उसे दिशाएँ भी बताईं और कुछ उपयोगी लोगों का पता-ठिकाना भी दिया। मसलन, वह कहते- “चोपटा के लिये बस पकड़ो, हनुमानगढ़ी उतर जाना, एक किलोमीटर पैदल चलो, ओक के जंगलों को पार करो और फिर पहाड़ी के बाईं ओर की सड़क पकड़ लो। यह तुम्हें बेमरू गाँव ले जाएगा, जो निश्चित रूप से मुख्य सड़क से पाँच किलोमीटर से ज्यादा दूर है। वहाँ प्राणनाथ नाम के स्कूल मास्टर के बारे में पता करो। उन्हें बताना कि मैंने तुम्हें भेजा है, वह तुम्हारी मदद करेंगे।”

कुमाऊं शहर के काफी बड़े सम्मेलन कक्ष के भीतर चिपको का यह अग्रणी नेता भीड़ के सामने सहज नहीं था। उन्होंने माइक्रोफोन को दोनों हाथों से कसके पकड़ रखा था, जबकि एक अभ्यस्त वक्ता माइक को इस तरह नहीं पकड़ता।

यह निर्देश का प्रदर्शन था, जो एक घंटे से ज्यादा चला और जिसके दो दर्शक थे। मुझे लगता है कि इस आदमी ने ऊपरी गढ़वाल की हर पहाड़ी और हर घाटी का पैदल सफर किया है और हरेक पुरुष, स्त्री और बच्चों से भी आत्मीय बातचीत की है। उस रात जब मैं अपने कमरे पर लौट रहा था, तो मुझे महाभारत का एक प्रकरण याद आ रहा था। मुझे लगा कि भट्ट कृष्ण थे और मैं तथा रुड़की वाला वह लड़का क्रमशः अर्जुन और दुर्योधन थे, जो उनके ज्ञान की बूँदों को पाने के लिये वहाँ आए थे। मैं उनसे जो चाहता था (जंगलों में उनके काम और चिपको आंदोलन के बारे में जानकारी) उसके लिये मुझे अगले दिन तक इंतजार करना होगा। मुझे भरोसा था कि मैं उसका काफी रचनात्मक उपयोग करूँगा, क्योंकि मैंने देखा था कि मेरे प्रतिद्वंद्वी का प्रोजेक्ट भट्ट के गढ़वाल के भूगोल के अनूठे ज्ञान की तुलना में तुच्छ लग रहा था। उस अर्थशास्त्री के अपने गाँव चले जाने के बाद मैंने भट्ट से लम्बी बातचीत की और उनके दस्तावेजों को देखा। फिर मैंने इंटरव्यू करने के साथ उनके दस्तावेजों को भी पढ़ा।

चिपको नेता चंडी प्रसाद भट्ट से मैंने जो कुछ भी सीखा, उसका जिक्र मैंने अपनी पुस्तक ‘द अनक्विट वुड्स’ में किया है। लेकिन यहाँ मैं चंडी प्रसाद भट्ट के बारे में ही बात करूँगा। वह बहुत ही आकर्षक व्यक्ति हैं- मध्यम कद के सीधे और खूबसूरत व्यक्ति, जिनका अंडाकार (लंबोतरा) चेहरा साफ दाढ़ी में ढका था और उनकी काली-चमकीली आँखें सीधे सामने वाले पर गड़ी होती थीं। अपने पैतृक इलाके में वह बिल्कुल आत्मविश्वासी और गरिमामय दिखाई दे रहे थे, हालांकि ऐसा बाहर हमेशा नहीं दिखता था। ऐसा मैंने उन्हें अक्टूबर, 1983 में पिथौरागढ़ के कुमाऊँ शहर में हिमालय पर प्रकाशित शोध वार्षिकी के पहले संस्करण के विमोचन के मौके पर देखा था। काफी बड़े सम्मेलन कक्ष के भीतर चिपको का यह अग्रणी नेता भीड़ के सामने सहज नहीं था। उन्होंने माइक्रोफोन को दोनों हाथों से कसके पकड़ रखा था, जबकि एक अभ्यस्त वक्ता माइक को इस तरह नहीं पकड़ता। हालांकि अगले दिन खुले में वह काफी सहज होकर बोले।

यह चांडक-सिखराना गाँव था, जहाँ उस समय मैग्नेसाइट खनन से काफी नुकसान हुआ था। सितम्बर, 2001 में मैंने चंडी प्रसाद भट्ट को मसूरी में पी. श्रीनिवास के सम्मान में बोलते हुए सुना। पी. श्रीनिवास एक बहादुर वन अधिकारी थे, जो नामी दस्यु और हाथी के शिकारी वीरप्पन की तलाश के दौरान मारे गए। भट्ट अब भी एक संकोचपूर्ण ईमानदारी के साथ धीरे-धीरे बोलते हैं, लेकिन आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपकरणों-माइक, स्लाइड एवं स्लाइड प्रोजेक्टर आदि के प्रति अब वह सहज हो गए हैं। इन उपकरणों की सहायता से उन्होंने सिविल सेवा के अभ्यर्थियों को हिमालय की पारिस्थितिकी के इतिहास-ग्लेशियरों, नदियों, जंगलों और मैदानी आदि के बारे में समझाया। वे स्लाइड उनकी यात्राओं से सम्बन्धित थे और व्याख्या के लिये उन्होंने जिस भाषा का प्रयोग किया था, वह बिल्कुल स्पष्ट था-मानो शीशे जैसा चमकता हुआ जल। उन्होंने मनुष्य की वजह से हिमालय की पारिस्थितिकी में आई गिरावट का तो उल्लेख किया ही, लेकिन मनुष्य की सुधारक कार्रवाई की क्षमताओं का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि जिम्मेदार पर्यावरणविद को पी. श्रीनिवासन की तरह होना चाहिए या चिपको आंदोलनकर्ताओं की तरह। ऐसे लोग ईमानदार अधिकारियों में से हो सकते हैं या चिंतित नागरिकों में से। बेहतर होगा कि इन दोनों वर्गों के लोग मिलकर काम करें।

दर्शकों की तरफ से जो पहला सवाल आया, वह हिमालय से सम्बन्धित नहीं था, बल्कि नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) से सम्बन्धित था। प्रश्न पूछने वाले का दावा था कि एनबीए विदेशी एजेंटों से प्रभावित था, जो भारत के विकास को रोकना चाहते थे। भट्ट ने धीरे से उन्हें भारत के विस्थापित लोगों के ऐतिहासिक अनुभव की याद दिलाई। जैसा कि उन्होंने कहा, ‘डूब क्षेत्र के लोगों को चींटी से भी बदतर समझा जाता है।’ खास बात है कि उन्होंने बड़े बाँधों के निर्माण की आलोचना की। एक अनुमान के मुताबिक, सरदार सरोवर बाँध 47,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हो रही थी। इनमें से दस फीसदी परियोजना के विस्थापितों को क्यों नहीं आवंटित किया जाना चाहिए? यह उन्होंने तब कहा, जब वह जनवरी, 2001 में भूकम्प के बाद गुजरात की यात्रा पर गए थे और उनका यह भी मानना था कि यह एक ऐसा समाधान है, जिसे एनबीए लाभकारी तरीके से आगे बढ़ा सकता है।

यह मामला चंडी प्रसाद भट्ट को गरीबों का पहला पर्यावरणविद बना सकता है, जिनका चिपको आंदोलन से सम्बन्धित काम ब्राजील के चिको मेंडिस और केन्या के वंगारी मथाई के संघर्ष की तरह है। फिर भी इस वैश्विक कोटि के पर्यावरणविद को भारत में बहुत लोग नहीं जानते। जो लोग चंडी प्रसाद भट्ट और उनके काम को लम्बे समय से जानते हैं (किसी तरह से अँग्रेजी भाषा के दबाव के कारण), वे मानते हैं कि उन्हें उनका वास्तविक प्रतिदान नहीं मिला। जहाँ तक चिपको आंदोलन की बात है, उसे जब उन्होंने और उनके साथियों ने शुरू किया, तो वह पर्यावरणवाद के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था। इससे पहले माना जाता था कि पर्यावरण की बात करना गरीबों को और गरीब बनाना है। लेकिन चिपको आंदोलन के बाद, वास्तव में इसके जरिये ही यह साबित हुआ कि प्रकृति के जिम्मेदार प्रबंधन में शहरी लोगों की सौंदर्यपरक मानसिकता की तुलना में किसानों और आदिवासियों की महत्त्वपूर्ण भागीदारी है। फिर यह भट्ट ही हैं, जिन्होंने भारतीय पर्यावरणविदों को सिखाया कि विभिन्न तरह के विनाश का न्यायपूर्ण प्रतिरोध ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उन्हें पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी तय करनी चाहिए। गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के लिये भट्ट ने हमेशा आधुनिक विज्ञान को खारिज करने के बजाय उसे मानवीय बनाने और नौकरशाही को लांछित करने के बजाय उसे लोकतांत्रिक बनाने पर बल दिया। भट्ट ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मीडिया उन्हें तवज्जो देता है या नहीं, बल्कि उन्होंने इस बात को ज्यादा महत्त्व दिया कि गढ़वाल की ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर उनके काम का कितना असर पड़ता है। अपने उदाहरण से उन्होंने भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं पर व्यापक प्रभाव डाला। जब मैं भट्ट के बारे में लिख रहा था, उस समय मुझे आंध्र प्रदेश के आदिवासी जिले में काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता का यह पत्र मिला। यह पत्र भट्ट के मानस और उनके काम की शैली की गुणवत्ता, दोनों का सुबूत है-

प्रिय रामचंद्र गुहा,

मैंने ‘द हिंदू’ में श्री चंडीप्रसाद भट्ट पर आपका आलेख पढ़ा। भट्ट गोदावरी नदी के 1986 में आई भीषण बाढ़ के कारणों का पता लगाने के लिये वर्ष 1987 में आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के आदिवासी क्षेत्र रामपचोदवरम के हमारे इलाके में आए थे। मैंने इस क्षेत्र के आदिवासी ज्ञान प्रणाली पर पीएच.डी करने के बाद 1985 में शक्ति नाम का स्वयंसेवी संगठन शुरू किया। हमारे एक साझे मित्र ने मुझे भट्ट से मिलवाया। उन्होंने सात दिनों तक दौरा किया और उनकी रिपोर्ट हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक था-गोदावरी की गोद में अब टूटकर गिरेंगे पहाड़। उनकी इस यात्रा ने मुझे वनों की कटाई की जाँच करने और मुकदमा करने के लिये अलग तरह से कार्रवाई के लिये प्रेरित किया। इस क्षेत्र में नक्सलियों की पकड़ मजबूत है और वे भी उस गठजोड़ का हिस्सा हैं। हमने एक प्लाइवुड फैक्ट्री को बंद करने को मजबूर कर राज्य प्रायोजित वनों की कटाई रुकवाई। इस फैक्ट्री के लिये आम के पेड़ गिराए जा रहे थे। वहीं घने जंगलों की कटाई और गैरआदिवासियों द्वारा किए जा रहे खनन को रुकवाया। मेरे आग्रह पर भट्ट 1990 में एक बार फिर हमारे इलाके में आए थे, जब विशाखा जिले के आदिवासी इलाके चक्रवात से तबाह हो गए थे।

1992 में प्रतिष्ठित पर्यावरणविद (अब दिवंगत) अनिल अग्रवाल भी हैदराबाद आए थे। हम उनके साथ भट्ट के बारे में चर्चा कर रहे थे। अनिल ने मुझे बताया कि भट्ट ने लोगों को संगठित किया और वन विभाग की अनुमति की परवाह किए बिना संरक्षित वन क्षेत्रों में वनरोपण का काम किया। इस सूचना ने मुझे भी आदिवासियों को वनरोपण के लिये संगठित करने के प्रति प्रेरित किया।

मैं अब तक भट्ट के यहाँ नहीं जा सका हूँ। हालांकि उनके साथ मेरा सम्पर्क बहुत संक्षिप्त रहा है, लेकिन जो अंतर्दृष्टि और उत्साह मुझे उनसे मिला, वह स्थाई है और उसने आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया है। मुझे उम्मीद है कि आप अन्य क्षेत्रों में भट्ट की पहुँच और उनके रचनात्मक कार्यों के अन्य पहलुओं पर भी लिखेंगे।

सादर
पी. शिवरामकृष्ण (शक्ति)


मेरे पास चंडी प्रसाद भट्ट से अपनी आत्मीय बातचीत की बहुत-सी यादें हैं, लेकिन मैं यह संस्मरण उनके सड़क पर गुजरने की एक घटना के साथ समाप्त करना चाहूँगा। एक शाम मैं अपनी गाड़ी से दिल्ली की उस सड़क से गुजर रहा था जहाँ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड, द फोर्ड फाउंडेशन, वर्ल्ड बैंक और यूनाइटेड नेशन्स डवलपमेंट प्रोग्राम जैसी नामी-गिरामी संस्थाओं के दफ्तर हैं। सत्ता और विशेषाधिकार को प्रतिबिम्बित करने वाली उस सड़क पर गाड़ी चलाते हुए मेरी नजर उन दो मध्य वय लोगों पर पड़ी, जोकि खादी के कपड़े पहने हुए थे और आपस में बात कर रहे थे। मैंने बगल की लेन पर गाड़ी मोड़कर किनारे खड़ी की और थोड़ी देर तक उन्हें देखता रहा।

वे भट्ट और अनुपम मिश्र थे। अनुपम मिश्र पर्यावरण प्रेमी गांधीवादी और भट्ट की ईमानदारी और उपलब्धियों के साथी हैं। वह चिपको के शुरुआती इतिहासकार रहे हैं और उन्होंने राजस्थान में ‘जल प्रबंधन सम्बन्धी’ सर्वेक्षण पर अच्छी किताब लिखी है। जब तक उनकी बस नहीं आई, वे लगातार बातचीत करते रहे और फिर बस आते ही वे उसमें चढ़ गए। तब से लेकर अब तक मैं यही अनुमान लगा रहा हूँ कि वे दोनों कहाँ से आ रहे थे। शायद वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की मीटिंग से? अगर वे वहीं से आ रहे थे, तो उनके साथ और भी लोग होने चाहिए थे। या हो सकता है, उनमें से कुछ लोग पीने के लिये आईसीसी चले गए हों और कुछ लोग वर्ल्ड बैंक के स्वीमिंग पूल में तैरने के लिये। अगर उनके पास उन दोनों जगहों की अनिवार्य सदस्यता होती, तब भी मैं यह नहीं सोच सकता कि चंडी प्रसाद भट्ट या अनुपम मिश्र उन विकल्पों का उपयोग करते। उनमें शांतिपूर्वक सेवा करने की एक भावना है, जो कभी भारतीय राजनीति और सामाजिक कार्यकर्ताओं में स्वतंत्र रूप से विद्यमान थी। इस तरह की भावना को राजनीति से पूरी तरह से अलग कर दिया गया है और समाज सेवा के क्षेत्र में भी उस पर गम्भीर खतरा है।

रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

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