मदन जैड़ा
जलवायु परिवर्तन के खतरों की रोकथाम को लेकर भारत समेत विकासशील देशों में अभी जो कुछ भी काम हो रहा है, वह नीति निर्माण तक ही सीमित है। जबकि विकसित देश इस दिशा में काफी पहल कर चुके हैं। भारत जैसे देशों के समक्ष गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी तथा बुनियादी ढांचे के विकास संबंधी गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं, जबकि विकसित देशों में ये समस्याएं या तो हैं ही नहीं या वे भारत जैसी विकराल नहीं हैं।
बहरहाल, ब्रिटेन में जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर समाज और राजनीति में समान रूप से जागरूकता बढ़ी है। एक तरफ पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर वहां के प्रमुख संगठन क्लाइमेट ग्रुप के साथ मिलकर राजनीतिक मोरचे पर कार्य कर रहे हैं, तो वहीं इस सिलसिले में प्रिंस एंड्रयू ने पिछले दिनों मुंबई में चुनींदा कंपनियों के प्रमुखों के साथ बैठक की। मकसद था उन्नत प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के जरिये कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना।
दरअसल, ब्रिटेन में आम लोग भी इस चुनौती से निपटने के उपायों में सहयोग दे रहे हैं। एक तरफ जहां हमारे देश में कार क्रांति हो रही है, वहीं ब्रिटिश सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वहां निजी कारें घट रही हैं। मार्च में पेश हुए आम बजट में वहां प्रदूषण फैलाने वाली कारों की खरीद पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है, जबकि प्रदूषण मुक्त उन्नत प्रौद्योगिकी वाली कारें खरीदने वालों को रियायत दिए जाने की पहल की गई है। ब्रिटेन में वाहनों की संख्या में कमी की एक प्रमुख वजह यह भी है कि सरकार ने सार्वजनिक परिवहन को सुगम बनाया है। लोगों को मेट्रो, ट्राम, बस और टैक्सी सेवा के विकल्प प्रदान किए हैं। लंदन मेयर कार्यालय के अनुसार, हालांकि सार्वजनिक परिवहन वहां भी सरकार के लिए घाटे का सौदा है, लेकिन वाहनों की संख्या को बढ़ने से रोकने के लिए सरकार यह घाटा उठा रही है। ब्रिटेन के उद्योग भी आगे आए हैं। कार्बन ट्रेडिंग में उनकी दिलचस्पी बढ़ी है। काबर्न ट्रस्ट के जरिये हजारों बड़ी कंपनियों द्वारा काबर्न ट्रेडिंग की जा रही है।
ऊर्जा की खपत कम करने के लिए ब्रिटिश सरकार एक साथ कई पहलुओं पर कार्य कर रही है। ग्रीन बिल्डिंग के निर्माण पर काफी कार्य हो रहा है। आम लोगों को सरकार ग्रीन बिल्डिंग के लिए तकनीक और प्रोत्साहन उपलब्ध करा रही है। खुद सरकार भी इन तकनीकों को अपनाने में पीछे नहीं है। हाल ही में वेल्स प्रांत की नई एसेंबली बिल्डिंग बनाई गई है, जिसमें बिना बिजली के सदन की कार्यवाही को अंजाम दिया जा सकता है। भवन में प्राकृतिक रोशनी के ऐसे इंतजाम किए गए हैं कि भूतल पर भी दिन में उजाला रहता है। वहां सिर्फ रात को बिजली की जरूरत पड़ती है।
इसी प्रकार ब्रिटेन में नए भवनों में ऊर्जा खपत कम करने वाले उपायों को अनिवार्य बनाया जा रहा है। इससे जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं कि ग्रीन बिल्डिंग गरम या सर्द इलाकों में ही संभव है। भारत जैसी मिçश्रत जलवायु वाले देशों में ग्रीन बिल्डिंग का कंसेप्ट ज्यादा सफल नहीं हो सकता। अलबत्ता कुछ गरम या सर्द इलाकों के लिए ऐसे भवन लाभदायक साबित हो सकते हैं। ब्रिटेन के डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी के एक अध्ययन के अनुसार, क्लाइमेट चेंज के खतरे जितना अनुमान किए जा रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा हैं। भविष्य में सुरक्षा के लिए भी इससे चुनौती पैदा हो सकती है।
ऑस्ट्रेलिया के खुफिया महकमे की सूचनाओं का जिक्र करते हुए विभाग का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए वहां सुरक्षा महकमों में वैज्ञानिकों, कृषि वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, पर्यावरणविदों आदि की तेजी से भर्ती शुरू की गई है, ताकि इससे पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने के उपाय तलाशे जा सकें।
जलवायु परिवर्तन को लेकर लाखों अध्ययन हो चुके हैं। इनमें सबसे खतरनाक बात यह है कि इसके निशाने पर सर्वाधिक गरीब लोग ही होंगे। अब खाद्य सुरक्षा का ही मामला लें, तो जैसे ही खाद्यान्न उत्पादन में कमी आएगी, मूल्यों में इजाफा होगा और गरीब के लिए पेट भरना दूभर हो जाएगा। यह खतरा दूसरे रूप में भी है। विकासशील और गरीब देश यदि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए प्रयास करते हैं, तो उन्हें इसके लिए अपने आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा। इससे उनके बुनियादी ढांचे के विकास और अन्य विकास कार्यक्रम प्रभावित होंगे। अध्ययन के अनुसार, 46 देशों के 2.7 अरब लोगों के लिए जलवायु परिवर्तन का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसलिए विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने हेतु गरीब और विकासशील देशों की मदद के लिए आगे होगा। इसके लिए आर्थिक मदद के साथ-साथ उन्हें निशुल्क प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध करानी पड़ेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
साभार – अमर उजाला
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