चीन्हे-अनचीन्हे : दुश्मन कणों से लड़ाई

जागरुक और विज्ञानी लोग हमें यह जानकारी देकर डराते रहते हैं कि विश्व के ये भाग, ये देश, ये पहाड़ ये शहर कुछ सालों में डूब जाएंगे, पर इन बातों को हम गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष अनुभव हम नहीं कर पा रहे हैं। क्या ध्रुवीय प्रदेशों के आर्कटिक और अंटार्कटिक के बर्फ को पिघलते हमने देखा है और क्या हम इस घटना को देखने की स्थिति में हैं। अज्ञानता किसी सच को झुठला नहीं सकती।

ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो इंसान ही उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति थी। उसके लिए उसने मनोरम प्रकृति, वातावरण, वायुमंडल और नीले आकाश से पृथ्वी को सजाया। मनुष्य प्रकृति की गोद में स्वच्छ श्वास लेता हुआ जीवन के सपने को साकार करता रहा। धीरे-धीरे मनुष्यों की संख्या के साथ उनकी आवश्यकताएं भी बढ़ने लगीं। आज इंसान अपनी आवश्यकताओं एवं आकाक्षाओं की पूर्ति के लिए किस सीमा तक औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों के विराट कृत्रिम आवरण में बंध चुका है, यह कल्पना से परे है। आज से 50 वर्ष पूर्व मृत व्यक्ति को यदि चिकित्सीय चमत्कार से पुनर्जीवित किया जा सके तो आज की दुनिया के स्वरूप को देखकर वह चमत्कृत हो जाएगा कि यह कौन-सी महानगरी है। बटन दबाते ही विश्व में कहीं भी संदेश भेजना या प्राप्त करना मोबाइल), विश्व के किसी भी स्थान के समाचार चित्र सहित, चलती-फिरती घटनाएं (टेलिविजन) घर बैठे कोई भी कार्यालयीन कार्य के लिए परस्पर संपर्क कर मीटिंग आयोजित करना (टेली-कांफ्रेंसिंग) कठिन – से कठिन बीमारियों का उच्चतम् तकनीक वाले सर्जिकल एवं डिजिटल उपकरणों से त्वरित चिकित्सीय उपचार आदि अकल्पनीय उपलब्धियां हैं। इंटरनेट और लैपटॉप ने तो सारे विश्व का ज्ञान समाया हुआ है। अमेरिका आदि देशों में धनाढ्य धन-कुबेरों ने ‘द्रव नाइट्रोजन’ में अपने मृत शरीर को सुरक्षित रखवाया है कि जब विज्ञान इतनी उन्नति कर सकेगा कि मृत शरीर में प्राण डाल सके तो वे भी पुनः जिंदा हो जाएंगे परंतु आज के युग की झलक पाकर उनकी क्या दशा होगी, भगवान ही जाने।

इस प्रकार भगवान् ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति के लिए स्वस्थ वातावरण का भी निर्माण किया, पर हम इंसान स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाडी मार रहे हैं। हमने अपने चतुर्दिक वायुमंडल को, अपनी उन्नत एवं वैज्ञानिक जीवन पद्धति के आडंबर में, इतना दूषित कर दिया है कि अब हमें सांस लेना भी दूभर होता जा रहा है। आइए, हम कुछ वायुमंडलीय प्रदूषण में विद्यमान दुश्मन कणों को पहचानने की कोशिश करें।

आज के वायुमंडलीय वातावरण में हमारी सांस के साथ अनेक विषैले तत्व शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। यही तत्व असाध्य रोगों एवं कैंसर के कारण बनते हैं। सांस लेने के लिए हमें शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) मिल ही नहीं पाती। हमने अपनी आवश्यकता एवं सुविधा के लिए ऐसे बहुत से कल-कारखानों, उद्योगों एवं वाहनों का निर्माण किया है, जो हमें संपन्नता, सुविधा ऐशो आराम तो प्रदान करते हैं, बदले में इतनी अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड एवं मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है और सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है, जो विषैली गैसें हमारे फेफड़ों के अंदर जाती हैं, वे निश्चित ही बहुविध व्याधियों का कारण बनती हैं। प्रतिदिन मनुष्य द्वारा ग्रहण की गई वस्तुओं में 80 प्रतिशत मात्रा वायु की होती है, जो शुद्ध नहीं होती। हम एक दिन में लगभग 22 हजार बार सांस लेते हैं।

21वीं सदी में हम रासायनिक क्रांति ला रहे हैं। इसी का प्रतिफल है कि हमें खाद्य पदार्थों में मिलावट मिल रही है। हवा से लेकर खाने की चीजें मूल रूप में मिलनी मुश्किल हैं। सब्जियां, फल, दूध मिष्ठान सभी वस्तुएं ‘सिंथेटिक’ मिल रही हैं।

परिवहन के साधनों को इंसान ने अपने आराम एवं सुविधा के लिए आधुनिक रूप दिया है, पर इन वाहनों की बढ़ती संख्या और इनसे निकलने वाली जहरीली गैसें मानव-जीवन पर जो बुरा प्रभाव डाल रही हैं, उसकी सीमा नहीं है।

हमारे वायुमंडल में पृथ्वी के ऊपर जो ओजोन गैस की सुरक्षात्मक कवच है, वह हमें आकाशीय प्रदूषणों एवं घातक पराबैंगनी किरणों से बचाती है। यह प्रकृति-प्रदत्त वरदान है, पर हम मनुष्यगण अपने कर्मों से इसे अभिशाप के रूप में बदल रहे हैं।

कल-कारखानों एवं वाहनों से उत्पन्न अधिक गर्मी एवं विषैली गैसें इस ओजोन कवच को जीर्ण-शीर्ण कर विदीर्ण कर रही हैं। इसके कारण इन ओजोन परत के छिद्रों से आने वाली पराबैंगनी किरणें हमारी त्वचा को नुकसान पहुंचाती हैं और बीमारियां बढ़ाती हैं।

विश्व की प्रगतिशीलता के लिए विद्युत अत्यंत आवश्यक साधन है। कुछ देर भी यदि बिजली न रहे तो हमारे जीवन का चक्र थम जाता है, पर इन्हीं विद्युत उत्पादन गृहों से उत्सर्जित भीषण एवं विकिरण वातावरण के ताप में वृद्धि करते हैं और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण बनते हैं। हजार मेगावॉट वाला तापविद्युत गृह प्रति मिनट 15 से 20 टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। कोयले के जलने से भी अत्यधिक मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। चिमनी से निकलने वालों विषैली गैसों के साथ महीन कण भी हमारे फेफड़ों में जाते हैं। इसी तरह परमाणु बिजलीघरों द्वारा भी आणविक-विखंडन से रेडियोधर्मिता के फलस्वरूप घातक विकिरण किरणें वायुमंडल में फैलती हैं। ये दिखाई नहीं देती, पर मानव-स्वास्थ्य एवं वातावरण को प्रदूषित करती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों में अमेरिका द्वारा बरसाए बमों से निःसृत विकिरण आज भी वहां की जनता को अपंग और पंगु बना रहा है।

‘प्लास्टिक युग’ के नाम से जाना जाने वाले प्राकृतिक जैव पदार्थों एवं धातुओं का स्थान आधुनिक युग में प्लास्टिक ने ले लिया है। ये सुविधाजनक, किफायती और बहु-उपयोगी जरूर होते हैं, पर खराब होने पर इनका शीघ्र क्षरण नहीं होता। लंबी अवधि तक ये अपना अस्तित्व बनाए रखकर वातावरण को प्रदूषित करते हैं। यदि प्लास्टिक के अपशिष्ट को जलाया भी जाए, तो धुएं के रूप में रासायनिक गैसें उत्सर्जित होती हैं। इसके दुष्प्रभाव से चर्मरोग, श्वसन-तंत्र फेफड़े एवं आंखों अनेक व्याधियां जीव को घेर लेती हैं।

इस प्रकार विकसित होती सभ्यता ने हमारे जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन एवं विकास तो किया है, पर बढ़ते उद्योग, अधुनातम होते वाहन, संचार-प्रणाली एवं एशोआराम के साधनों ने हमारे वातावरण को भी किस प्रकार दूषित एवं हानिप्रद किया है, यह अत्यंत विचारणी समस्या है।

दुश्मन कणों के साथ लड़ाई में हमने ध्वनि एवं प्रकाश प्रदूषण पर अभी तक चर्चा नहीं की है। इन पर भी हमें ध्यान देना आवश्यक है।

वातावरण को ये दोनों तत्व यानी ध्वनि एवं प्रकाश इस तरह प्रभावित करते हैं कि कुछ खास अवसरों को छोड़कर बाकी समय में हम या कुछ लोग ही इनके प्रभावों को महसूस कर पाते हैं। हमारे कर्ण एवं मस्तिष्क को सभी आवाजें अच्छी लगती हैं, ऐसा नहीं है। ध्वनि को ग्रहण करने के बाद उसके प्रभाव से या तो हम Relax होते हैं या Tension में आ जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है संगीत की किसी ताल, लय, स्वर या शब्दों से हमें सुखद अनुभूति होती है। और परेशानी की स्थिति में भी हम शांतिपूर्वक सो जाते हैं। कभी-कभी किसी संगीत की ध्वनि या गीत के शब्द ऐसे होते हैं, जो हमें शांति प्रदान करने के बदले गुस्सा दिलाकर उत्तेजित करते हैं, जी करता है कि ध्वनि उत्पादक यंत्र को पटक कर तोड़ दें। कभी हमने सोचा है, ऐसे क्यों होता है। भिन्न-भिन्न मानसिक स्थितियों में ध्वनि के कण हमारे ऊपर कभी शांत, कभी उद्विग्न प्रभाव डालते हैं।

ध्वनि के कण जिस तीव्रता से हमारे कण-प्रदेश में प्रवेश करते हैं। उसे हम जिस मापक से नापते हैं, उसे ‘डेसिबल’ कहते हैं। साधारण बोल-चाल की भाषा की तीव्रता तीस-चालीस डेसिबल होती है। इससे कुछ अधिक तीव्रता भी किन्हीं खास परिस्थितियों में कर्णप्रिय हो सकती है। जैसे आजकल के लड़के-लड़कियां डिस्को-क्लब में जिस तेज ध्वनि से संगीत का आनंद लेकर घंटों थिरकते हैं, समान्यजन के लिए कष्टदायक होता है। मोटरसाइकिल कि आवाज की तीव्रता 70-75 डेसिबल के आस-पास होती है। पटाखों की आवाज को दिपावली या अन्य अवसरों पर हम कुछ सैकेंड ही बर्दाश्त कर पाते हैं, क्योंकि इनकी तीव्रता 95-100 डेसिबल होती है, एटमबम के विस्फोट की तीव्रता की चर्चा करें तो हमारे कान के पर्दे हमारा साथ नहीं देंगे। आवाज के तीव्र एवं विध्वंसक कणों के भुक्तभोगी आज भी हिरोशिमा और नागासाकी में मौजुद हैं।

मैंने तीव्र प्रकाश कणों को भी दुश्मन कण आरोपित किया है। कुछ लोग को लग सकता है कि प्रकाश कैसे हमारा दुश्मन हो गया। प्रकाश हमारा दुश्मन नहीं; बहुत बड़ा दोस्त है। कुछ मिनटों के लिए भी बिजली चली जाती है। तो हम तेल के दिए, मोमबत्ती या अन्य कोई साधन उजाला करने के लिए ढूंढते हैं। सोते समय पूर्ण अंधेरा या मद्धिम रोशनी ही पसंद करते हैं। कुछ विशेष समारोहों में हम प्रकाश की तीव्र रंगीनियों का उपयोग करते हैं, पर गाड़ी चलते समय जब सामने से आंखों में पड़ने वाले हेडलाइट के तीव्र प्रकाश से हम लगभग दृष्टिहिन हो जाते हैं, तब वे तीव्र प्रकाश कण हमें दुश्मन नजर आते हैं। जब बिजली चमकती है तो हमारी आंखें चौंधियां जाती है। पढ़ने के लिए भी हमें निश्चित तीव्रता का प्रकाश चाहिए, अन्यथा हमारी आंखें खराब हो जाती हैं। प्रकाश की तीव्रता को ‘Lumen’ (ल्यूमेन) मापक से नापा जाता है। प्रकाश मापने की एक इकाई और हैं जिसे ‘लक्स’ (Lux) कहा जाता है। यह सौंदर्य और सौंदर्य प्रसाधनों की चमक या निखार को नापने के लिए प्रयुक्त होता है। हम यहां पर एक ऐसे प्रदूषण की चर्चा करना चाहेंगे जिसे ‘प्रकाश प्रदूषण’ या ‘Night Pollution’ कहा जाता है। आधुनिक होते जीवन में नव-सभ्यता में पलती आज की पीढ़ी इसी प्रकाश प्रदूषण को अपना रही है। डिस्को में तीव्र प्रकाश इसका तीव्र गति से जलना – बुझना, अत्यधिक सुरमय संगीत, युवा पीढ़ी का बेझिझक आपस में लिपट कर थिरकना, ध्वनि और प्रकाश प्रदूषण का सम्मिलित नजारा है, जिसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता। आजकल शादी, जन्मदिन या अन्य उत्सवों में भी तीव्र प्रकाश मरकरी, हेलोजन,, सोडियम लैपों का बेझिझक उपयोग किया जाता है। इस प्रकाश के तीव्र कणों से सिर भारी हो जाता है, चिंतन विकृत होता है और मनुष्य बेचैन हो उठता है। प्रकाश प्रदूषण के बारे में अभी सजगत और चर्चा कम है।

जागरुक और विज्ञानी लोग हमें यह जानकारी देकर डराते रहते हैं कि विश्व के ये भाग, ये देश, ये पहाड़ ये शहर कुछ सालों में डूब जाएंगे, पर इन बातों को हम गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष अनुभव हम नहीं कर पा रहे हैं। क्या ध्रुवीय प्रदेशों के आर्कटिक और अंटार्कटिक के बर्फ को पिघलते हमने देखा है और क्या हम इस घटना को देखने की स्थिति में हैं। अज्ञानता किसी सच को झुठला नहीं सकती। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ शब्द बहु प्रचलित है। वाहनों, कल-कारखानों, रासायनों, प्लास्टिक वेस्ट से उत्सर्जित हुई गैसों के कारण वातावरण एवं पृथ्वी-आकाश के बीच का वायुमंडल गर्म होता जा रहा है, जिसके कारण तापक्रम में वृद्धि हो रही है। यही गर्म गैसें हमारी रक्षा-कवच ओजोन परत में भी छेद कर रही हैं, जिससे सूर्य की पराबैंगनी किरणें हमें नुकसान पहुंचा रही हैं। इन गैसों को ग्रीनहाउस गैसें भी कहते हैं, जिसके कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, ऋतु-चक्र में भी परिवर्तन हो रहा है। हमारी पृथ्वी पर ठंड और वर्षा की अवधि कम हो गई है। गर्मी का समय अधिक लंबा हो रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण ध्रुवों की बर्फ पिछल रही है और समुद्र का जल-स्तर बढ़ता जा रहा है। इसके कारण समुद्री जीव-जंतुओं, मछलियों एवं ध्रुवीय भालुओं की संख्या पर भी असर पड़ रहा है। शोधकर्ताओं की अंतरराष्ट्रीय टीम के प्रमुख स्टीवन एम्सट्रय ने बताया कि ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव के कारण विश्व में ध्रुवीय भालुओं की संख्या एक-तिहाई ही बच जाएगी। ध्रुवीय भालुओं का आवास और भोजन इन्हीं ध्रुवीय प्रदेशों में मिलता है।

वैश्विक जलवायु प्रदूषण तो अपनी जगह है ही। यदि हम स्थानीय स्तर पर भी वायवीय, जलीय, ध्वनि एवं प्रकाश प्रदूषण के बारे में जनसाधारण, बुद्धिजीवियों एवं उद्योगपतियों को जागरुक कर सकें तो विश्व कल्याण में हमारा महान योगदान होगा।

यदि हमें उपर्युक्त प्रदूषकों एवं चीन्हें-अनचीन्हें कणों के प्रहार से अपने को बचाना है तो हमें फिर से प्राकृति का सहारा लेना पड़ेगा। अधिक-से-अधिक प्रकृति आधारित वस्तुओं का अपने जीवन में हम उपयोग करें। हरित-क्रांति अत्यंत आवश्यक है। वृक्षों से अन्य उपयोगी चीजों के अतिरिक्त शुद्ध ऑक्सीजन भी मिलता है। एक पेड़ हमें इतनी जीवनदायिनी वायु देता है, जिसको कृत्रिम रूप से प्राप्त करने के लिए हजारों लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। हमें अधिक से अधिक वृक्ष लगाने चाहिए। प्रदूषण उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का न्यूनतम उपयोग करना चाहिए। आधुनिक बनने और आधुनिकता की दौड़ में शामिल होने के चक्कर में पृथ्वी में प्रदूषण के भार में वृद्धि करने के लिए हमें ईश्वर एवं प्रकृति कभी क्षमा नहीं करेंगे।

बी-17, नेहरुनगर, बिलासपुर

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