चीन में बढ़ती आबादी के चलते इस समय 886 शहरों में से 110 शहर पानी के गम्भीर संकट से जूझ रहे हैं। उद्योगों और कृषि सम्बन्धी जरूरतों के लिये भी चीन को बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत है। चीन ब्रह्मपुत्र के पानी का अनूठा इस्तेमाल करते हुए अपने शिनजियांग, जांझु और मंगोलिया इलाकों में फैले व विस्तृत हो रहे रेगिस्तान को भी नियंत्रित करना चाहता है। चीन की यह नियति रही है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये पड़ोसी देशों की कभी परवाह नहीं करता है। आखिरकार उरी हमले के बाद कूटनीतिक चाल चलते हुए पाकिस्तान ने चीन को अपने हितों के लिये ढाल बना ही लिया। चीन ने हताशा से घिरे और दुनिया से अलग-थलग पड़ गए मित्र को संजीवनी देते हुए भारत में जलापूर्ति करने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहायक नदी जियाबुकु का पानी रोक दिया। इस नदी पर चीन 74 करोड़ डॉलर ( करीब 5 हजार करोड़ रुपए) की लागत से जल विद्युत परियोजना के निर्माण में लगा है।
जून 2014 में शुरू हुई यह परियोजना 2019 में पूरी होगी। दरअसल भारत पर दबाव बनाने की पाक पर इस रणनीतिक हरकत की आशंका इसलिये है, क्योंकि पाक ने हाल ही में कहा है कि अगर भारत ने सिंधु नदी का पानी रोका तो वह चीन के जरिए ब्रह्मपुत्र का पानी रुकवा देगा। पानी रोके जाने के बाद उक्त आशंका हकीकत में तब्दील हो गई है।
ब्रह्मपुत्र का पानी रुक जाने से हमारे पूर्वोत्तर के राज्य असम, सिक्किम और अरुणाचल में पानी का संकट उत्पन्न होना तय है। तिब्बत से निकलने वाली इस नदी को यहाँ यारलुंग झांगबो के नाम से जाना जाता है। इसी की सहायक नदी जियाबुकु है। जिस पर चीन हाइड्रो प्रोजेक्ट बना रहा है। दुनिया की सबसे लम्बी नदियों में 29वाँ स्थान रखने वाली ब्रह्मपुत्र 1625 किमी क्षेत्र में तिब्बत में ही बहती है। इसके बाद 918 किमी भारत और 363 किमी की लम्बाई में बांग्लादेश में बहती है।
तिब्बत के जाइगस में यह परियोजना निर्माणाधीन है। यह स्थल सिक्किम के एकदम निकट है। जाइगस के आगे से ही यह नदी अरुणाचल में प्रवेश करती है। असम में ब्रह्मपुत्र का पाट 10 किमी चौड़ा है। जब यह बाँध पूरा बन जाएगा, तब इसकी जल ग्रहण क्षमता 29 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी रोकने की होगी।
ऐसे में चीन यदि बाँध के द्वार बन्द रखता है तो भारत के साथ बांग्लादेश को जल की कमी का संकट झेलना होगा और बरसात में एक साथ द्वार खोल देता है तो इन दोनों देशों की एक बड़ी आबादी को बाढ़ का सामना करना होगा। ये हालात इसलिये उत्पन्न होंगे, क्योंकि जिस ऊँचाई पर बाँध बँध रहा है, वह चीन के कब्जे वाले तिब्बत में है, जबकि भारत और बांग्लादेश बाँध के निचले स्तर पर हैं। ब्रह्मपुत्र पर बनने वाली यह तिब्बत की सबसे बड़ी परियोजना है। भारत ने इस पर चिन्ता जताई थी, लेकिन चीन ने कतई गौर नहीं किया।
समुद्री तट से 3300 मीटर की ऊँचाई पर तिब्बती क्षेत्र में बहने वाली इस नदी पर चीन ने 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत तीन पनबिजली परियोजनाएँ निर्माण के प्रस्ताव स्वीकृत किये हैं। चीन इन बाँधों का निर्माण अपनी आबादी के लिये व्यापारिक, सिंचाई, बिजली और पेयजल समस्याओं के निदान के उद्देश्य से कर रहा है, लेकिन उसका इन बाँधों के निर्माण की पृष्ठभूमि में छिपा एजेंडा, खासतौर से भारत के खिलाफ रणनीतिक इस्तेमाल भी है।
दरअसल चीन में बढ़ती आबादी के चलते इस समय 886 शहरों में से 110 शहर पानी के गम्भीर संकट से जूझ रहे हैं। उद्योगों और कृषि सम्बन्धी जरूरतों के लिये भी चीन को बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत है। चीन ब्रह्मपुत्र के पानी का अनूठा इस्तेमाल करते हुए अपने शिनजियांग, जांझु और मंगोलिया इलाकों में फैले व विस्तृत हो रहे रेगिस्तान को भी नियंत्रित करना चाहता है। चीन की यह नियति रही है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये पड़ोसी देशों की कभी परवाह नहीं करता है।
चीन ब्रह्मपुत्र के पानी का मनचाहे उद्देश्यों के लिये उपयोग करता है तो तय है। अरुणाचल में जो 17 पनबिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित व निर्माणाधीन हैं, वे सब अटक जाएँगी। ये परियोजनाएँ पूरी हो जाती हैं और ब्रह्मपुत्र से इन्हें पानी मिलता रहता है तो इनसे 37,827 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। इस बिजली से पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में बिजली की आपूर्ति तो होगी ही, पश्चिम बंगाल और ओड़िशा को भी अरुणाचल बिजली बेचने लग जाएगा।
चीन अरुणाचल पर जो ढेढ़ी निगाह बनाए रखता है, उसका एक बड़ा कारण अरुणाचल में ब्रह्मपुत्र की जलधारा ऐसे पहाड़ व पठारों से गुजरती है, जहाँ भारत को मध्यम व लघु बाँध बनाना आसान है। ये सभी बाँध भविष्य में अस्तित्व में आ जाते हैं और पानी का प्रवाह बना रहता है तो पूर्वोत्तर के सातों राज्यों की बिजली, सिंचाई और पेयजल जैसे बुनियादी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
चीन के साथ सुविधा यह है कि वह अपनी नदियों के जल को अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानकर चलता है। पानी को एक उपभोक्ता वस्तु मानकर वह उनका अपने हितों के लिये अधिकतम दोहन में लगा है। बौद्ध धर्मावलम्बी चीन परम्परा और आधुनिकता के बीच मध्यमार्गी सांमजस्य बनाकर चलता है।
जो नीतियाँ एक बार मंजूर हो जाती हैं, उनके अमल में चीन कड़ा रुख और भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाता है। इसलिये वहाँ परियोजना के निर्माण में धर्म और पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ रोड़ा नहीं बनती। नतीजतन एक बार कोई परियोजना कागज पर आकार ले लेती है तो वह आरम्भ होने के बाद निर्धारित समयवाधि से पहले ही पूरी हो जाती है।
इस लिहाज से ब्रह्मपुत्र पर जो 2.5 अरब किलोवाट बिजली पैदा करने वाली परियोजना निर्माणाधीन है, उसके 2019 से पहले ही पूरी होने की उम्मीद है। इसके उलट भारत में धर्म और पर्यावरणीय संकट परियोजनाओं को पूरा होने में लम्बी बाधाएँ उत्पन्न करते रहते हैं। देश की सर्वोच्च न्यायालयों में भी इस प्रकृति के मामले वर्षों लटके रहते हैं। पर्यावरण सम्बन्धी कागजी खानापूर्ति की जरूरत चीन में नहीं पड़ती है।
2015 में जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन यात्रा पर गए थे, तब असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने उनसे आग्रह किया था कि ब्रह्मपुत्र नदी के जल बँटवारे के मुद्दे का समाधान निकालें। लेकिन इस मुद्दे पर द्विपक्षीय वार्ता में कोई प्रगति हुई हो, ऐसा देखने में नहीं आया। जबकि चीन और भारत के बीच इस मुद्दे पर विवाद और टकराव बढ़ रहा है।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पानी के उपयोग को लेकर कई संधियाँ हुई हैं। इनमें संयुक्त राष्ट्र की पानी के उपभोग को लेकर 1997 में हुई संधि के प्रस्ताव पर अमल किया जाता है। इस संधि के पारूप में प्रावधान है कि जब कोई नदी दो या इससे ज्यादा देशों में बहती है तो जिन देशों में इसका प्रवाह है, वहाँ उसके पानी पर उस देश का समान अधिकार होगा।
इस लिहाज से चीन को सोची-समझी रणनीति के तहत पानी रोकने का अधिकार है ही नहीं। इस संधि में जल प्रवाह के आँकड़े साझा करने की शर्त भी शामिल है। लेकिन चीन संयुक्त राष्ट्र की इस संधि की शर्तों को मानने के लिये इसलिये बाध्यकारी नहीं है, क्योंकि इस संधि पर अब तक चीन और भारत ने हस्ताक्षर ही नहीं किये हैं।
2013 में एक अन्तरमंत्रालय विशेष समूह गठित किया गया था। इसमें भारत के साथ चीन का यह समझौता हुआ था कि चीन पारदर्शिता अपनाते हुए पानी के प्रवाह से सम्बन्धित आँकड़ों को साझा करेगा। लेकिन चीन ने इस समझौते का पालन नहीं किया। वह जब चाहे तब ब्रह्मपुत्र का पानी रोक देता है, अथवा इकट्ठा छोड़ देता है।
पिछले वर्षों में अरुणाचल और हिमाचल प्रदेशों में जो बाढ़ें आई हैं, उनकी पृष्ठभूमि में चीन द्वारा बिना किसी सूचना के पानी छोड़ा जाना रहा है। नदियों का पानी साझा करने के लिये अब भारत को चाहिए कि वह चीन को वार्ता के लिये तैयार करे। इस वार्ता में बांग्लादेश को भी शामिल किया जाये। क्योंकि ब्रह्मपुत्र पर बनने वाले बाँधों से भारत के साथ-साथ बांग्लादेश भी बुरी तरह प्रभावित होगा। इसके आलावा लाओस, थाईलैंड व वियतनाम भी प्रभवित होंगे। लेकिन ये देश पाकिस्तान की तरह चीन के प्रभाव में हैं, इसलिये चीन इनके साथ उदारता बनाए रखेगा।
भारत और बांग्लादेश के साथ यही उदारता दिखने में आये, यह मुश्किल है। इसलिये संयुक्त राष्ट्र संधि की शर्तों को चीन भी स्वीकार करे, इस हेतु भारत और बांग्लादेश इस मसले को संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंच पर उठाएँ, यह जरूरी हो गया है। इस मंच से यदि चीन की निन्दा होगी तो उसे संधि की शर्तों को दरकिनार करना आसान नहीं होगा।
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