विश्व की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री झील चिल्का लेक के पुनरुद्धार के लिये जो मॉडल अख्तियार किया गया था, उसने रंग लाना शुरू कर दिया है। चिल्का लेक की सूरत पूरी तरह बदल गई है। दूसरी आर्द्रभूमि के पुनरुद्धार में यह मॉडल कारगर साबित हो सकता है।
लेकिन, इसका एक बुरा असर उक्त झील पर निर्भर मछुआरों पर दिखने लगा है। इस बुरे असर के बारे में हम बाद में चर्चा करेंगे। पहले हम चिल्का लेक के सँवरने की कहानी से रूबरू होते हैं।
चिल्का झील ओड़िशा के तीन जिलों पुरी, खुरदा और गंजम तक 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली हुई है। यह भारत की पहली झील है जिसे रामसर कन्वेंशन में अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमि का तमगा मिला था।
पिछले कुछ सालों से इस झील की सेहत बिगड़ती जा रही थी। झील में गाद जम गया था, जल क्षेत्र सिकुड़ने लगा था और इंटेल चैनल भी जाम हो गया था। इसके अलावा भी कई तरह की समस्याओं से यह झील दो-चार हो रही थी।
इन समस्याओं के मद्देनजर सन 2001 में इसके जीर्णोद्धार का काम शुरू किया गया था। इसका परिणाम अब दिखने लगा है।
चिल्का के पारिस्थितिकी तंत्र को लेकर वर्ष 2016 में जारी रिपोर्ट कार्ड में कहा गया है कि वर्ष 2016 में चिल्का से होकर 14067 टन माल की आवाजाही हुई जो वर्ष 2014 की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक है। वहीं, वर्ष 2001 से पहले के आँकड़ों से तुलना की जाये तो इसमें 10 गुना बढ़ोत्तरी आई है। आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 से पहले हर साल औसतन 1600 टन माल की आवाजाही चिल्का के रास्ते होती थी।
माल की ढुलाई में इजाफा होने से आसपास के मछुआरों की आय में भी इजाफा हुआ है। ओड़िशा सरकार की चिल्का डेवलपमेंट अथॉरिटी के अनुसार, वर्ष 2009 में मछुआरों की वार्षिक आय 23000 रुपए थी जो वर्ष 2016 में बढ़कर 56000 रुपए हो गई।
जैवविविधता के लिहाज से भी चिल्का लेक में अच्छे परिणाम देखे गए। इंडो-जर्मन बायोडायवर्सिटी प्रोग्राम और पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन संयुक्त शोध में ये तथ्य सामने आये थे।
सरकारी सूत्रों के मुताबिक सन 1991 से 2000 तक ओड़िशा सरकार ने 1.6 बिलियन रुपए इस झील के जीर्णोद्धार में बहा दिये।
इधर, चिल्का लेक की सेहत में सुधार आया, तो वैकल्पिक आय के स्रोत में भी बेतहाशा इजाफा दर्ज होने लगा। पर्यटन से ही सालाना 3.38 बिलियन रुपए का फायदा हो रहा है जबकि जलीय पौधों 34 मिलियन रुपए आ रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि सालाना 58 हजार टन जलीय पेड़ पौधों से स्थानीय समुदाय चटाई, घर की छत, पैकिंग के सामान आदि बना रहे हैं।
इसके अलावा इससे जैवविविधता को भी बहुत फायदा पहुँचा है और इससे जो लाभ मिलेगा, इसका आकलन पैसे में नहीं किया जा सकता है।
मिसाल के तौर पर हम इससे जलीय पौधों में इजाफा और प्रवासी पक्षियों की आमद में बढ़ोत्तरी को देख सकते हैं। इससे पर्यावरण को बहुत फायदा पहुँचेगा। एक अनुमान के मुताबिक इस आर्द्रभूमि में रूस, पश्चिमी एशिया, उत्तर पूर्व साइबेरिया और मंगोलिया से हर साल सर्दी के मौसम में 70-95 हजार प्रवासी पक्षी आते हैं क्योंकि यह झील जैवविविधता के लिहाज से महत्त्वपूर्ण और आकार में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा वेटलैंड है।
वाइल्ड ओड़िशा एनजीओ के फील्ड रिसर्चर कहते हैं, ‘भारी संख्या में प्रवासी पक्षियों के इस झील में आने से झील में पोषक तत्वों की बढ़ोत्तरी होने लगी है क्योंकि ये पक्षी इसमें बड़ी भूमिका निभाते हैं। बतख 33.8 टन नाइट्रोजन और 10.5 टन फास्फोरस लेक में छोड़ते हैं, जो झील की मछलियों के लिये भोजन बनाने में मददगार साबित होते हैं। इससे मछलियों के लिये प्राकृतिक तौर पर भोजन उपलब्ध हो जाता है।’
जितने भी तरह के वेटलैंड्स दुनिया भर में हैं, उनमें से समुद्र तटीय वेटलैंड्स अपनी जैवविविधता के लिये मशहूर हैं, क्योंकि ये समुद्र और भूखण्ड के बीच स्थित होते हैं। जैवविविधता के साथ ही ये वेटलैंड्स बाढ़ की विभीषिका को कम करने में मदद करते हैं। इसके अलावा भी कई फायदे हैं। लेकिन, ये कभी-कभार चुनौतियों का सबब भी बनते हैं।
यहाँ भी बता दें कि पूर्व में कभी भी वैज्ञानिक तरीके से इस झील का रख-रखाव नहीं किया गया था। इसका परिणाम यह निकला कि रामसर कन्वेंशन द्वारा 1981 में अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमि में शामिल किये जाने के बावजूद एक दशक में ही यह संकटग्रस्त आर्द्रभूमि की सूची में शामिल हो गई। यह घटना पर्यावरण के लिहाज से हैरान करने वाली थी, इसलिये कई स्तर पर इस आर्द्रभूमि की सेहत सुधारने का काम शुरू किया गया और इसका परिणाम एक दशक में ही नजर आने लगा। सन 2002 में इसे संकटग्रस्त आर्द्रभूमि की सूची से भी बाहर कर दिया गया।
बताया जाता है कि देखभाल में कोताही के कारण 1991 से हर साल नदी की तलहटी में 13 मिलियन टन गाद जम रही थी। इसके अलावा आर्द्रभूमि में क्षार की आमद भी कम हो गई थी क्योंकि समुद्र को झील से मिलाने वाला इंटेल चैनल जाम हो गया था। इंटेल चैनल जाम हो जाने से समुद्री मछलियाँ भी झील में नहीं आ पाती थीं। इन सब वजहों से चिल्का झील मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई थी।
इन हालातों से तो झील को बाहर निकाल लिया गया, मगर एक समस्या अब भी बरकरार है- आर्द्रभूमि के बीचोंबीच घेरी का निर्माण। प्राउन मछली पकड़ने के लिये यह बाँस और जाल को घेरकर बनाया जाता है। चिल्का झील के उत्तरी छोर पर स्थित मंगलाजोड़ी गाँव के रहने वाले पुरुषोत्तम बेहरा कहते हैं, ‘घेरी के कारण झील में गाद की समस्या हो रही है। जलीय जंगल इस जाल के कारण बाहर नहीं निकल पाते हैं। जाल इतना सघन है कि समुद्र का नमकीन पानी भी झील में प्रवेश नहीं कर पा रहा है।’
ऐसा नहीं है कि इसकी खबर प्रशासन को नहीं है। प्रशासन इससे बाखबर है और उसने इसे अवैध भी घोषित कर दिया है, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका असर नहीं दिख रहा है। पुरुषोत्तम बेहरा बताते हैं, ‘प्राउन माफिया ने इंटेल चैनल के पास ये ढाँचा लगा रखा है, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा मछलियाँ पकड़ सकें।’ उन्होंने आगे बताया कि ये माफिया कुछ सरकारी अधिकारियों को घूस देकर 5 साल के लिये झील के हिस्से को लीज पर ले लेते हैं और 4 से 5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में जाल फैलाकर घेरी बना लेते हैं।
स्थानीय लोगों के अनुसार घेरी लगाने वाले ये लोग बाहरी होते हैं। पुरुषोत्तम बेहरा बताते हैं, ‘घेरी लगाने वाले ज्यादातर लोग बाहरी हैं या मछुआरा समुदाय से उनका कोई ताल्लुक नहीं है। हमने जब इन लोगों का विरोध किया, तो वे मौके की ताक में लग गए। जब हमारे परिवार का एक सदस्य गैर इंजन चालित डोंगी लेकर पानी में उतरते तो वे उसे अगवा कर बड़ी नाव में छिपा लेते। फिर वे या तो 25 हजार रुपए का जाल अपने पास रख लेते या फिर हमारे परिवार के सदस्य को आजाद करने के लिये 10 हजार रुपए की माँग करते।’ उन्होंने बताया कि दो वर्ष पहले ऐसी ही घटना उनके भाई के साथ और गाँव के अन्य लोगों के साथ घट चुकी है।
बेहरा ने बताया कि प्राउन माफिया के कारण उन्हें मछली पकड़ने के लिये झील का पूरा हिस्सा नहीं मिल पा रहा है लेकिन माफिया के साथ टकराव के बाद कुछ ग्रामीणों ने हथियार रखना शुरू कर दिया। तब से वे शान्त हैं। वह कहते हैं, ‘उनके पास पैसा, पावर और पहुँच है। हम उनके साथ लड़ नहीं सकते।’
आपने ऊपर जो पढ़ा वह चिल्का लेक की सफलता की दास्तां थी। अब आपको बताते हैं, दलित मछुआरा समुदाय बेहरा की दर्द भरी कहानी। इनका जीवन चिल्का की सफलता जितना चमकीला नहीं है। इनकी कहानी में गरीबी, भुखमरी और जिन्दा रहने की जद्दोजहद है।
40 साल पहले जब सूर्जा देई की शादी मंगलजोड़ी गाँव के रहने वाले एक मछुआरे से हुई थी, तो उसके पति के पास महज एक नाव थी। लेकिन, दो जून के भोजन के लिये कभी उसे सोचना नहीं पड़ा। मछली और चावल यहाँ का प्रमुख भोजन रहा। उन्होंने अपनी सास से नमक के साथ सूखी मछली की प्रोसेसिंग करने का गुर सीखा, लेकिन अब सूखी मछली तो सपना हो गया है। वह कहती हैं, ‘अब मछली बचती ही कहाँ कि नमक मिलाकर उसे सुखा सकूँ।’
अभी एक नाव में चार मछुआरे झील में निकलते हैं। काफी मेहनत करने पर भी अगर 16 किलोग्राम मछली पकड़ में आ जाती है, तो यह उनकी खुशनसीबी है। चार मछुआरे 4-4 किलो मछली आपस में बाँट लेते हैं। सुर्जा देई कहती हैं, ‘पहले वे बहुत मछलियाँ लाते थे। बेचने के बाद भी अगर वे बच जातीं तो हम लोग उन्हें सुखाकर बेचते थे। जब मैं शादी कर नई-नई आई थी, तब जितनी सूखी मछलियाँ यहाँ तैयार होती थीं, अभी उसका एक चौथाई भी नहीं होता है।’
वह अभी गाँव से करीब 60 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर के थोक मछली बाजार से मछलियाँ खरीदती हैं और सड़क किनारे खुदरा दुकान लगाकर सप्ताह में चार दिन बेचती है। मछली बेचकर उन्होंने 1 लाख का लोन चुकाया। यह लोन उन्होंने सर्जरी कराने के लिये लिया था।
सुर्जा देई के 38 वर्षीय पुत्र ने अपने घर की बालकनी में फ्राइड स्नैक्स की दुकान खोल ली है। इसमें उसकी पत्नी उसका हाथ बँटाती है। सुर्जा देई जब मछली नहीं बेचती हैं, तो वह भी दुकान चलाने में मदद करती हैं।
दो बच्चों की माँ वंदिता बेहरा की भी यही कहानी है। वह भी कर्ज में डूबी हुई हैं। उन्होंने अपने बेटे को मेकैनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कराने के लिये 3 लाख रुपए कर्ज लिया था। इसका ब्याज बढ़ रहा है, लेकिन वह लोन चुकाने में असमर्थ हैं। उनके पति सर्दियों में यहाँ आने वाले सैलानियों के लिये गाइड बनकर पक्षी दिखाते हैं और मानसून के सीजन में मछलियाँ पकड़ते हैं। इन दोनों कामों से उन्हें बमुश्किल 1 लाख रुपए की कमाई हो पाती है। वह कहती हैं, ‘यहाँ रहने वाले परिवारों के लिये अपने दो बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा पाना भी मुश्किल है।’
मछलियों की आमद में गिरावट ने पलायन में इजाफा कर दिया है। लोग अब दक्षिण भारतीय शहरों व ओड़िशा के ही शहर भुवनेश्वर की तरफ रुख करने लगे हैं। महिलाएँ भी अब शर्म-ओ-हया की चादर उतारकर शहर जाने लगी हैं।
पुरुषोत्तम बेहरा कहते हैं, ‘करीब 50 फीसदी आबादी चेन्नई व भुवनेश्वर पलायन कर गई है। महिलाएँ पलायन नहीं करती थीं, लेकिन अब वे भी जाने लगी हैं।’ पुरुषोत्तम बेहरा खुद भी 2005 में यह गाँव छोड़ गए थे। दस साल बाहर रहने के बाद वह लौट आये हैं। वह बताते हैं, ‘मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ। कंस्ट्रक्शन मेटेरियल रोज-रोज उठाया नहीं जाता।’
चिल्का झील के पश्चिम की तरफ के अलापुर गाँव में सूरज डूबने को है और माधव दास पूरा जोर लगा रहे हैं कि शाम ढल जाने से पहले वह जेटी तक पहुँच जाएँ। वह बाँस के सहारे नाव के साथ जेटी तक पहुँचने की कोशिश में लगे हुए हैं। उनसे बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तो उन्होंने कहा कि एक दशक पहले तक वह मछली पकड़ने के लिये जितना दूर जाते थे, अब उससे 10 किलोमीटर और दूर जाना पड़ता है।
कई बार तो दास व उनके साथ तीन और लोग 3 से 5 दिनों के लिये चले जाते हैं। मछली के व्यापारी पानी में उतरकर उनके पास जाते हैं और दिन भर पकड़ी गई मछलियाँ खरीद लेते हैं। ये व्यापारी उनके लिये भोजन व पानी भी ले जाते हैं। दास कहते हैं, ‘असल में मछलियाँ तो हम पकड़ते हैं, लेकिन मछलियों से फायदा व्यापारियों को मिलता है। हमें पता नहीं चल पाता कि वे कितने दाम पर मछलियाँ बेचते हैं। हाँ, यह जरूर है कि जरूरत पड़ने पर ये व्यापारी हमें लोन दे देते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारे पास खाने को चावल नहीं होता। ऐसी सूरत में वे मददगार बनते हैं।’
झील में मछलियाँ कम हो गई हैं, लेकिन नावों की संख्या में इजाफा हुआ है। दास बताते हैं, ‘नावों की संख्या में 10 गुना बढ़ोत्तरी हो गई है। जिनके परिवार में पाँच भाइयों के लिये पाँच नाव हैं, वे ही खुशहाल हैं। मछुआरा समुदाय से नहीं आने वाले लोग भी अब मछलियाँ ही पकड़ना चाह रहे हैं।’ वर्ष 2007 में सरकार के सर्वे में पता चला था कि 5600 नाव थीं, इनमें काफी इजाफा हुआ है।
पूर्व के शोध में प्रतीप कुमार नायक ने चिल्का की जैवविविधता के स्थायित्व पर असर की दो वजहों की शिनाख्त की थी। उनके अनुसार पहली वजह घेरी में बढ़ोत्तरी है। इससे आर्द्रभूमि पर गहरा असर हो रहा है। दूसरी वजह वह सन 2001 में समुद्र को खोल देने को मान रहे हैं। समुद्र को खोल देने से मछुआरों की आजीविका प्रभावित हुई है।
सरकार सूत्रों के अनुसार चिल्का के आसपास के गाँवों की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी मछली व मछली से जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है।
17वीं शताब्दी से चिल्का के मछुआरों ने संसाधनों के बँटवारे व सामुदायिक शासन का एक अनोखा मगर गूढ़ व्यवस्था स्थापित की थी। यह आर्द्रभूमि की जैवविविधता की समझ पर आधारित थी। चिल्का में प्रवेश के लिये तयशुदा निशान थे। जलवायु का भी इसमें अहम किरदार था। लेकिन, यह व्यवस्था अब बर्बाद हो चुकी है और चिल्का की अर्थव्यवस्था में छोटे मछुआरे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं।
नायक ने पिछले साल एक शोध किया था। शोध के अनुसार मछलियों की आमद में कमी के कारण मछुआरे हर महीने 10 दिन के लिये लोन लेते हैं ताकि अपने परिवार का पेट पाल सकें।
करीब 97 प्रतिशत मछुआरे कर्ज में डूबे हुए हैं।
अनुवाद – उमेश कुमार राय
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Post By: RuralWater