चीख पड़ते जो जंगलों के जबान होती

कई जंगली जानवरों की प्रजातियाँ तो लुप्त होने के कगार पर आ गई हैं। पिछले दिनों मांढण क्षेत्र में खेत-खलिहानों के फीरवालों द्वारा नीलगायों को मारने की घटना से इनको अपना अस्तित्व बचाने के लिए दर-दर भटकने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसी तरह पर्वतों के गोद में बसे बासल क्षेत्र में पत्थरों का उत्खनन से वहां के लोगों का जन-जीवन अस्तव्यस्त हो गया है।

एक दशक पहले तक पहाड़ों को गर्मी से बचने की पनाहगाह समझा जाता था पर आज उनका स्‍वरूप बदल रहा है। गर्मी की मार अब इन ऊंचाई पर स्थित हिमालयी राज्‍यों तक पहुंचने लगी है। जो पहले जाड़ों के आगमन के साथ ही बर्फ की सफेद चादर ओढ़ लिया करते थे वह अब बदले हालात में बिना चादर के दिखते हैं। पेड़ों में फल न हों, पौधों में फूल न हों, चारों और हरियाली न हो, नदी में पानी न हो, पहाड़ बर्फ से न ढँके हों, वातावरण में चिड़ियों की गूँज न हों, बादल व बरसात का मेल न हो तो फिर पहाड़ों की सार्थकता ही क्या है? दरअसल जंगलों के कम होने का असर जलवायु परिर्वतन के गंभीर प्रभाव हिमालय के वातावरण, तापमान, भूमि, जैव विविधता, आजीविका और संस्कृति आदि पर भी दिखने लगे हैं। पर्यावरणविदों की मानें तो जंगलों से ढके पहाड़ ही मैदानी गर्म हवा को ऊपर पहुंचने से रोकते थे। इनके कट जान के कारण अब मैदानी लू पहाड़ों तक पहुंचने लगी है। इसके चलते जहां सन् 60 के दशक में सर्दियों के मौसम में एक दिन में कम से कम चार फुट बर्फ गिरती थी, वह रफ्तार अब थम चुकी है। गंगोत्री ग्लेशियर में अब सालाना बर्फबारी 6 इंच रिकार्ड की जा रही है, जो पहले के मुकाबले बेहद कम है। खाती गाँव पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा मार्ग का अन्तिम गाँव है। इस गाँव में लगभग 15 वर्ष पहले तक 6 फीट बर्फ गिरती थी, अब मात्र 6 इंच गिरती है। इसके चलते अब ठंड भी सामान्य से बहुत कम हो रही है।

दरअसल मौजूदा सदी में विकास के नाम पर जंगल तेजी से भेंट चढ़ रहे हैं। कभी लकड़ी के लिए तो कभी घर बनाने के लिए कभी सड़क तो कभी पुल और कभी खनन। पेड़ों के हटने का असर जल जंगल जमीन तीनों पर ही दिखाई दे रहा है। जो पहाड़ पहले हरियाली से आच्‍छादित थे वह अब नंगे दिखायी देने लगे हैं और पेड़ों के न रहने पर मैदानी गर्म हवा अब ऊपर पहाड़ों तक पहुंच रही है। नतीजतन हिमनदों का पीछे हटना, नदियों का जल स्तर घटना, भू-क्षरण, भूस्खलन आदि अब जलवायु परिवर्तन की स्थितियों साफ जाहिर करते हैं। भारत दुनिया के 12 सबसे धनी जैव विविधता वाले (मेगाडाइवर्स) देशों में से एक है। भारत का वनाच्छादित क्षेत्र करीब 690.9 लाख हेक्टेयर है जो 2005 के आंकडों के मुताबिक देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.6 फीसदी है। इन जंगलों में अनूठा वन्य जीवन और पेड-पौधे समाहित होते हैं। वन पारिस्थितिकी तंत्र देश की ज्यादातर नदियों और नालों के भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं। भरोसेमंद कृषि उत्पादन के लिए उपयुक्त और स्थाई माहौल तैयार करने के लिए भी जंगल बेहद जरूरी हैं। सन 1950-1991 के मध्य चालू हुई सभी विकास योजनाओं पर नजर डॉ.लने से पता चला कि खनन लोगों के विस्थापन का दूसरा सबसे बड़ा कारण बना। करीब 25.5 लाख लोग इससे प्रभावित हुए। सबसे खास बात यह है कि उन विस्थापितों में से 25 फीसदी भी फिर से बसाये नहीं जा सके। इन लोगों में करीब 52 फीसदी संख्या तो आदिवासियों की शामिल है। हमारे देश के 20 करोड़ से अधिक लोगों का जीविकोपार्जन इन्‍हीं जंगलों पर निर्भर है ऐसे में जंगलों के तेजी से कटने का सीधा असर उनकी रोटी रोजी पर पड़ना वाजिब है।

पर्यावरण के मुद्दे पर सख्त रवैये के कारण आलोचनाएं झेल रहे वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश हाल ही में अपनी विवादास्पद नो-गो नीति के लिए कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे, इस्पात मंत्री बीपी वर्मा और सड़क परिवहन मंत्री सीपी जोशी की आलोचनाओं का निशाना बने। पिछले कुछ दिनों से घने अक्षुण्ण वनक्षेंत्रों (नो गो जोन) में कोयला खनन के लिए विभिन्‍न हलकों द्वारा दबाव बनाये जाने का घटनाक्रम काफी चौंका देने वाला है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इस दबाव के आगे झुकते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्‍तक्षेप के बाद पर्यावरण नियमों को ताक पर रखते हुए लगभग 15 लाख हेक्‍टेयर पहले से परिभाषित घने (नो गो जोन) वन क्षेत्रों को कोयला खनन के लिए खोल दिया। पर्यावरण प्रेमियों का दावा है कि प्राकृतिक वनों का विनाश करके उसकी भरपाई वनरोपण के प्रयासों से नहीं की जा सकती। एक जंगल को बनने में हजारों साल लगते हैं। वन क्षेत्रों में कोयला खनन रोकने के समर्थन में इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, 27 प्रमुख स्‍वयं सेवी संगठनों जिनमें डब्‍लू डब्‍लू एफ, ग्रीनपीस, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्‍ड लाइफ, वाइल्ड लाइफ र्पोटेक्‍शन सोसायटी आफ इंडिया, कन्‍जरवेशन एक्‍शन ट्रस्‍ट आदि शामिल हैं ने दिसंबर 2010 में ने प्रधानमंत्री और कबीना को एक खुला पत्र लिखकर अपना विरोध जताया। पर इन सबका कोई नतीजा नहीं निकला। दरअसल एक तरफ सरकार पर्यावरण संरक्षण की बात करती है तो दूसरी ओर खुद ही पर्यावरण संरक्षण की नीतियों की धज्जियाँ उड़ाती है।
 

राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार सन 2005 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में 60 से अधिक बाघ थे। अब यहां कोयला खनन की गतिविधियाँ और बढ़ाने की योजना बनाई जा रही है। सरकारी कथनी और करनी का यह विरोधाभास ही जंगल को लील रहा है जिसका असर हमारे पहाड़, नदी, यानि पूरे पर्यावरण को लील रहा है।

ज्यादातर खदानें वन क्षेत्रों में हैं। इसका अनिवार्य परिणाम यह है कि वहां के जंगल कटते हैं और भूक्षरण होता है। सुरंग वाली खानों के लिए भी काफी मात्रा में जंगल कटते हैं, क्योंकि सुरंगों की छतों को लट्ठों से सहारा दिया जाता है। गोवा में खानों के लिए पट्टे पर दी गई जमीन कुल जंगल का 43 प्रतिशत है। खान के लिए जमीन देते समय पट्टे में कोई शर्त नहीं होती कि खान के मालिकों को भूक्षरण रोकने या मिट्टी बचाने का जिम्मा भी उठाना होगा या खुदाई पूरी हो जाने के बाद उन खड्ढों को भरना होगा इसलिए छोड़ी हुई खानों का हाल काफी बुरा है। मध्य-पूर्वी क्षेत्र के जिन हिस्सों में घनी मात्रा में खान-खुदाई हुई है वह सारा इलाका पर्यावरण की दृष्टि से बहुत नाजुक हो गया है। इस क्षेत्र में छोटा नागपुर पठार और मेकल पर्वत श्रृंखला से पांच प्रमुख नदियों को पानी मिलता है। वे हैं -नर्मदा, सोन, रिहंद, महानदी और दामोदर। मेकल पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी अमरकंटक, नर्मदा का उद्गम स्थल है। यहीं पर भारत एल्यूमीनियम कंपनी (बाल्को) और हिंदुस्तान एल्यूमीनियम कंपनी (हिंडालको) की खदानें हैं। वहां एक ओर खान के इलाके में एकदम उजाड़ नंगे पहाड़ हैं। ‘बाल्को’ ने नया जंगल लगाने का, नगण्य-सा ही क्यों न हो, कुछ प्रयास तो किया है पर ‘हिंडालको’ का पर्यावरण के मामले पर ध्यान दिया ही नहीं है।

ऐसी ही समस्या हिमालय की खनिज वाली तलहटियों की भी है, जैसे ब्रह्मपुत्र नदी का जलग्रहण क्षेत्र। चूना पत्थर से भरी मध्य हिमालयी तलहटी, जहां गंगा और यमुना का जलागम क्षेत्र है, खनन की खरोचों से भरा पड़ा है। खनन से अब तो देश का कोई कोना अछूता नहीं दिखता। राठ क्षेत्र में हरियाणा सीमा से लगती अरावली पहाड़ियों के आसपास खाली जंगलों में बड़ी संख्या में स्वच्छन्द घूमते जंगली जानवर गीदड़, लोमड़ी, खरगोश, झाऊ चुहा, जंगली सूअर, तीतर, बटेर, बारह सींगा बहुतायत में थे। नीलगायों को झुंडों को तो आसपास की बस्तियों में भी घूमते हुए देखा जा सकता था, लेकिन धीरे-धीरे पहाड़ियों में विस्फोटक पदार्थों से अवैध खनन कार्य होने तथा अतिक्रमण की समस्या से जंगल की परिधि सिमटती जा रही है और इसके साथ ही जंगली जानवरों की संख्या भी कम हो गई है। कई जंगली जानवरों की प्रजातियाँ तो लुप्त होने के कगार पर आ गई हैं। पिछले दिनों मांढण क्षेत्र में खेत-खलिहानों के फीरवालों द्वारा नीलगायों को मारने की घटना से इनको अपना अस्तित्व बचाने के लिए दर-दर भटकने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसी तरह पर्वतों के गोद में बसे बासल क्षेत्र में पत्थरों का उत्खनन से वहां के लोगों का जन-जीवन अस्तव्यस्त हो गया है।

बस्तर में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम डोलमोइट की खान खोदने के लिए कांगर आरक्षित वन की 800 हेक्टेयर से भी ज्यादा जमीन पट्टे पर लेने में लगा है। यहां खनन के पास कांगर अभ्यारण्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। 30 साल से यहां पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से सभी तरह की व्यापारिक गतिविधियों पर प्रतिबंधित जंगलों को साफ करने पर तुले हुए हैं। स्थानीय लोगों की चेष्टा की क्या कहें, इससे तो गोवा का वह पर्यटन उद्योग भी प्रभावित हो चला है, जिस पर वहां की सरकार आस लगाए बैठी रहती है। हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास पहाड़ों में स्लेट पत्थर की खुदाई के कारण भूरे रंग के बड़े-बड़े खड्ढे बन गए हैं। कई हरे-भरे घने जंगल आज भी भूरे पत्थरों के ढेर भर रह गए हैं। मुट्ठी भर चूना पत्थर के खान मालिकों ने मसूरी के पहाड़ों की बेजोड़ खूबसूरती को उजाड़ कर रख दिया है। सूखे और अधसूखे क्षेत्रों में, जहां हरियाली बहुत मुश्किल से पनपती है, वहां खुदाई से रेगिस्तान के फैलाव को एक और मौका मिल जाता है।

हाल ही में मध्य व पूर्वी भारत में जो जंगल कोयला खनन विस्तार के लिए दिये गये वह वन क्षेत्र बाघ, तेंदुआ और हाथी के वास स्थल हैं। हाथियों को चहलकदमी के लिए विशाल घने जंगल की जरूरत होती है। उनके कॉरिडोर नष्ट हो जाने के कारण इंसानों से उनके खूनी संघर्ष की घटनाएँ बढ़ गयी है। भोजन की तलाश में हाथी गांवों और खेतों में घुस जाते हैं। झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में खनन से पहले ही हाथियों के कॉरिडोर व आशियाने उजड़ चुके हैं। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार उड़ीसा में कोयला खनन के लिए आवंटित तीन जिलों संबलपुर, सुंदरगढ और ढेनकनाल में हाथियों की संख्या 400 से अधिक है। एक ओर हम बाघ संरक्षण का कानून बनाये हैं और दूसरी ओर उसके वास स्‍थल खुद ही मिटा रहे हैं। बाघ, खासतौर से वयस्क नर लंबे इलाके में घूमता है और उसके जीन प्रवाह को बनाये रखने के लिए ये बेहद जरूरी है। चूंकि बाघों की आबादी को आपस में जोड़ने वाले कॉरिडोर नष्ट हो रहे हैं, इसलिए उनकी आबादी एक-दूसरे से दूर होकर अलग-थलग पड़ती जा रही है। महाराष्ट्र में तडोबा अंधेरी टाइगर रिजर्व के इर्द-गिर्द कोयला खनन से खतरा उत्पन्न हो गया है। मध्य प्रदेश में कोयला खनन के कारण पेंच और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को आपस में जोड़ने वाला कॉरिडोर और संजय ढुबरी टाइगर रिजर्व के चारों ओर का जंगल खतरे में पड़ गया है। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार सन 2005 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में 60 से अधिक बाघ थे। अब यहां कोयला खनन की गतिविधियाँ और बढ़ाने की योजना बनाई जा रही है। सरकारी कथनी और करनी का यह विरोधाभास ही जंगल को लील रहा है जिसका असर हमारे पहाड़, नदी, यानि पूरे पर्यावरण को लील रहा है।
 

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