उत्तराखण्ड सरकार चीड़ की आड़ में तमाम बहुमूल्य व दुर्लभ वन प्रजातियों को कटवाना चाहती है। चीड़ की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु सरकार द्वारा इसकी कटाई पर बार-बार प्रतिबंध लगाना व हटाना शंका पैदा करता हैै।
विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन को सन 1983 में भारत सरकार के पत्र सं. 8-128/813/एफ.आर.आई. के द्वारा सूचना दी गई थी कि हिमालय की गम्भीर पारिस्थितिकीय स्थिति तथा बिना किसी ऊँचाई या ढाल का ध्यान रखते हुये, शिवालिक पहाड़ियों के बाद प्रदेश तक वनों के व्यावसायिक कटान पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। लेकिन इसके 10 साल बाद वर्ष 1994 में इस आदेश को चीड़ के सूखे पेड़ों के कटान के लिये हटा दिया गया था।उस समय यह सूचना हिमालय सेवा संघ के माध्यम से पूरे देश में पहुँचायी गयी थी और उत्तराखण्ड में लोग चौकन्ना हो गये थे। इसके पीछे आशंका थी कि चीड़ के वनों के नाम पर कहीं दुर्लभ वन प्रजातियों का व्यावसायिक दोहन न हो। बाद में यह डर तब सच साबित हुआ, जब उत्तराखण्ड के नौजवानों के एक पर्यावरण दल ने गंगा नदी के उद्गम क्षेत्र में स्थित सर्वाधिक ऊँचाई वाले पर्वतों में जाकर वन निगम के मजदूरों के द्वारा हरे पेड़ों की कटाई के प्रमाण लोगों के सामने पेश किये। जबकि सरकार की ओर से कहा गया था कि वे चीड़ के सूखे, सिर टूटे, उखड़े पेड़ों की कटाई के लिये ही प्रतिबन्ध हटा रहे हैं। लेकिन पर्यावरण दल ने जब रयाला (9 हजार फीट), हर्षिल, धराली, मुखवा (9 हजार फीट), चौरंगी खाल (7 हजार फीट) आदि कई वन क्षेत्रों के बारे में खोज की, तो वहाँ पर राई, कैल, मुरेंड़ा, खर्सू, मौरू एवं देवदार जैसी अमूल्य प्रजातियों के हरे पेड़ों की कटान की गई थी। कई स्थानों पर इन प्रजातियों के पेड़ों के स्लीपर जंगल में पड़े मिले थे। तब लोगों ने इसके खिलाफ पेड़ों पर राखी बाँधकर रक्षासूत्र आन्दोलन की शुरुआत की थी। यह आन्दोलन सन 2000 तक चला।
रक्षासूत्र आन्दोलन ने सफलतापूर्वक टिहरी, उत्तरकाशी के लाखों हरे पेड़ों के कटान को रोका। साथ ही वन और पर्यावरण मन्त्रालय के एक जाँच दल के द्वारा 121 वनकर्मियों को भी दोषी ठहराया गया था। इस आन्दोलन के बाद आज भी उत्तराखण्ड में कई स्थानों पर लोग पेड़ों पर राखी बाँधकर भाईयों जैसा प्यार देते हैं।
चिन्ता की बात यह है कि केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर के माध्यम से उत्तराखण्ड सरकार अब पुनः चीड़ के वनों को काटने के लिये केन्द्र की स्वीकृति की इन्तजार में दिखाई दे रही है। इसके पीछे का मुख्य कारण राजस्व कमाने का लक्ष्य है, लेकिन कहा यह जा रहा है, कि चीड़ को कम करके इसके स्थान पर चौड़ी पत्ती के वनों का रोेपण किया जायेगा। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि चीड़ के वन कुल वन क्षेत्र के 17 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैले हुये हैं। अब यह मिश्रित वनों के बीच में भी अपना स्थान बना रहे हैं। चीड़ की पत्तियाँ और फल ग्रीष्म काल में वनों में आग फैलाने का कारण भी बन रहे हैं। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर वर्ष असफल वृक्षारोपण के संकेतों को भी वनों में आग लगाकर नष्ट किया जाता है।
इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि वन विभाग ने भी चीड़ की नर्सरी और चीड़ के पेड़ों का रोपण करके हिमालय क्षेत्र में इनको फैलाया है। इसके कारण उत्तराखण्ड समेत हिमालय क्षेत्र के सभी जंगल चीड़ बाहुल्य बन गये हैं। यहाँ के गाँव की जलावन की आपूर्ति इसी से होती है व पशुओं के नीचे इसकी पत्तियों को बिछाकर गोबर भी बनाया जाता है। चीड़ से लीसा निकालकर उत्तराखण्ड की सरकार को प्रतिवर्ष 57 करोड़ का राजस्व मिलता है। आँकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में ही प्रतिवर्ष 23.66 लाख टन चीड़ की पत्तियाँ जमीन पर गिरती हैं। पंतनगर विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में किये गये एक प्रयोग से पता चला कि कैल्शियमयुक्त पानी को चीड़ की सूखी पत्तियों (पिरूल) से गुजारने के बाद यह कैल्शियम मुक्त हो जाता है। इसका मतलब हुआ कि यह नदियों को साफ-सुथरा भी रख सकता हैै। दूसरा, इसका इस्तेमाल चैकडैम के साथ भूस्खलन रोकने में भी हो सकता है। चीड़ बहुत से व्यावसायिक लाभ भी देता है, इसी के कारण इस पर बार-बार प्रतिबन्ध लगता और हटता है। इसी आड़ में बहुमूल्य चौड़ी पत्ती वाली बाँझ, कैल, मौरू, राई आदि दुर्लभ वन प्रजातियों का व्यावसायिक दोहन आसान हो जाता है।
सन 1994 में हटे प्रतिबन्ध के विरोध में रक्षासूत्र आन्दोलन की पहल पर तत्कालीन प्रमुख वन संरक्षक विद्याभूषण गौड़ और भागीरथी वृत के वन संरक्षक आनंद सिंह नेगी ने अपनी रिपोर्ट में चीड़ के अतिरिक्त अन्य दुर्लभ प्रजातियों के बड़े पैमाने पर हुये व्यावसायिक दोहन का खुलासा भी किया था। इसके लिये उन्होंने वन निगम को सर्वाधिक दोषी बताया था। इस प्रकार लाभ-हानि दोनों के बीच तौलकर देखा जाय तो चीड़ को कुल्हाड़ी लेकर एकदम काट देने से पहाड़ों की हरियाली ही गायब हो जायेगी। इसके अतिरिक्त भूस्खलन के साथ बाढ़ एवं भूमि कटाव की समस्या भी पैदा हो जायेगी। चौड़ी पत्ती के वनों की मात्रा इतनी नहीं है कि वह पहाड़ों में भूस्खलन रोक सकें। इसके बावजूद राज्य सरकार केन्द्र की स्वीकृति के बाद अपनी कैबिनेट के द्वारा प्रस्ताव पारित करके वनों की व्यावसायिक कटाई का रास्ता खोलने वाली हैं।
सर्वविदित है कि राज्यों में वनों के विदोहन के लिये वन निगम जैसी व्यवस्था बनी हुई है। इसने सन 1973-74 में अपनी स्थापना से लेकर आज तक केवल वनों को काटकर मुनाफा कमाया है। अतः उन्हें जब पुनः कटान की स्वीकृति मिलेगी तो वह सबसे पहले अपनी कमाई के लिये अंधाधुंध कटान को महत्त्व देगा। जबकि उच्चतम न्यायालय के 12 दिसम्बर 1996 के आदेश के अनुपालन में बनायी गई विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में वन निगम की कार्यशैली में आमूलचूल परिवर्तन की सिफारिश की गयी थी जिस पर राज्यों ने अभी तक ध्यान नहीं दिया है। सन 1988 की वन नीति में वनों को गाँव के अधिकार और नियन्त्रण से बाहर रखा गया है। कहीं भी लोगों को पूछकर सूखे पेड़ों का निस्तारण आज तक नहीं हुआ है। जब कि स्थानीय लोगों का जीवन वनों पर निर्भर है। विषैली कार्बन को सोखने और जलस्रोतों व नदियों को प्राण देने वाले वनों की सेवा पर्यावरण संरक्षण के लिये सर्वाधिक महत्त्व रखती है।
उत्तराखण्ड की सरकार चीड़ के नाम पर लाखों पेड़ों को काटने के लिये जितनी उत्सुक दिखती है, उतनी उत्सुक वृहद स्तर पर चौड़ी पत्ती के वनों के रोपण के लिये नहीं है। यदि चीड़ के पेड़ों की कटाई पर फिर से प्रतिबन्ध हटाया तो इसके विरोध में वे तमाम चिरपरिचित हस्तियाँ अभी मौजूद हैं, जिन्हें सरकार ने तमाम पुरस्कारों से नवाजा है। ऐसे किसी भी आदेश के जारी होते ही वनों को सीधे वनवासियों को सौंपने की माँग जोर पकड़ लेगी।
श्री सुरेश भाई उत्तराखण्ड के वरिष्ठ गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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