बाढ़ ने दो हफ्ते तक चेन्नई को दहशत में बनाए रखा। इस आपदा में 200 से ज्यादा लोगों की मौत और आठ से दस हजार करोड़ के नुकसान के कारण राजनेताओं और सम्बन्धित सरकारी विभागों की चिन्ता स्वाभाविक थी। उनकी चिन्ता के प्रकार और उनकी चिन्ता की तीव्रता की जानकारी मीडिया लगातार देता रहा। यहाँ उसे दोहराने की जरूरत नहीं है।
ज्यादातर पर्यावरण कार्यकर्ताओं को जो पिछले एक डेढ़ साल से कुछ चुप से थे उन्हें भी अपनी ज़िम्मेदारी के कारण मुखर होना पड़ा। पूरी गम्भीरता से इतना सब कुछ होने के बाद भी इस हादसे या कुदरती आफ़त के तर्कपूर्ण कारणों या आगे से बचाव या रोकथाम के उपायों पर सुझाव निकलकर अभी भी आ नहीं पाये।
हो सकता है कि ऐसा इसलिये हुआ हो क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अकादमिक और व्यावहारिक विद्वानों को आगे बैठाकर उनसे बात करने का चलन अभी शुरू नहीं हो पाया है।
अपने देश में हम आधिकारिक जल विज्ञानियों की सूची तक नहीं बना पाये हैं ताकि मौके पर उनसे कुछ जान सकें। हालांकि हमारे पास पर्यावरण के क्षेत्र में रुचि रखने वाले पत्रकार और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले पर्यावरणविद उपलब्ध हैं।
ऐसे संकटों के समय वे हमें शिक्षित और जागरूक करते रहते हैं और इस बार भी उन्होंने यह ज़िम्मेदारी निभाई।
बेशक ऐसे चिन्ताशील लेखकों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चेन्नई हादसों के कारणों पर अपनी राय देकर हमें जागरूक किया है। उनके राय मशविरे को अगर एक दो पंक्तियों में कहें तो चेन्नई में नगर नियोजन की ख़ामियों और विकास की वासना में अंधाधुंध निर्माण करने से यह आपदा मौत की हद तक पहुँच गई।
लेकिन बिल्कुल सामने दिखता है कि जो गलतियाँ सार्वभौमिक रूप से कबूल करते हुए आर्थिक विकास के लिये अपरिहार्य बुराई मान ही ली गई हों तो चेन्नई में हुए अंधाधुंध विकास के खिलाफ हम किस मुँह से कुछ कह पाएँगे।
खैर आइए फिलहाल हम नगर नियोजन की ख़ामियों और कथित विकास के विकल्प पर विशेषज्ञों और जल विज्ञान के आधिकारिक विद्वानों को भी थोड़ा सुन लें।
आईआईटी रुड़की में वैकल्पिक जल विज्ञान विभाग में प्रोफेसर रहे और उसके पहले उप्र में सिंचाई विभाग के प्रमुख अभियन्ता रह चुके और आज जलविज्ञान विषयों के आधिकारिक विद्वान डॉ. बीएन अस्थाना का कहना है कि निर्माण की बड़ी परियोजनाएँ जलविज्ञान के पहलू को सामने रखे बिना बन ही नहीं सकतीं।
सिर्फ आधुनिक काल के वैज्ञानिक ही नहीं मध्ययुगीन और प्राचीनकाल के नगर नियोजक तक जल विज्ञान के नुक्तों से वाक़िफ़ थे। प्रोफेसर अस्थाना ने बताया कि आधुनिक जल विज्ञानी मद्रास में प्राचीन एरी प्रणाली और बुन्देलखण्ड में नौवीं सदी से 13वीं सदी के बीच चंदेल शासकों के बनवाए तालाबों की इंजीनियरी से आज भी अभिभूत होते हैं।
डॉ. अस्थाना के मुताबिक इन प्राचीन जल निकायों की इंजीनियरी में कोई नुक्ताचीनी नहीं निकाल पाता बल्कि उसे देखकर हम आज भी अपने शोध करते हैं। आज के जल विज्ञानियों के लिये दोनों प्रणालियों में समानता बहुत ही कौतूहल का विषय है।
प्रोफेसर अस्थाना के मुताबिक आज का चेन्नई वही प्राचीन नगर है जिसके पास एरी प्रणाली का जल विज्ञान धरोहर के रूप में मौजूद है। लेकिन हम तब क्या करें जब तेजी से फायदे के लालच में इन वैज्ञानिक तथ्यों को अनदेखा करना शुरू कर दिया गया हो और हर काम को हम सबसे पहले आर्थिक लाभ लागत अनुपात के लिहाज से देखने लगे हों।
प्रोफेसर अस्थाना का कहना है कि किसी परियोजना के लिये वित्त का प्रबन्धन इंजीनियर के काम के दायरे में नहीं आता। वह सिर्फ यह देखता है कि उससे जिस परियोजना का खाका बनवाया जा रहा है उस परियोजना पर जो ख़र्चा बैठेगा उससे ज्यादा फायदा होगा या नहीं। वैसे ये प्रौद्योगिकविद मुख्य रूप से तकनीकी व्यावहार्यता को देखने तक सीमित है।
उन्होंने अपने अनुमान को दावे की हद तक जाकर कहा कि उनके अभियन्ता बन्धुओं ने हर बार आगाह किया होगा कि चेन्नई में नदी का फ्लड प्लेन या पुराने तालाबों का सबमर्जेंस यानी डूब क्षेत्र को किसी भी सूरत में निर्माण के लिये छुआ भी नहीं जा सकता।
प्रोफेसर ने कहा 98 साल पहले इसी जगह बादल फटने की इससे बड़ी आपदा इतिहास में दर्ज है। लेकिन तब आज जैसी विभीषिका का जिक्र नहीं मिलता।
उन्होंने कहा कि अगर वाकई हम चेन्नई त्रासदी को गम्भीरता से ले रहे हैं और इस आपदा से सबक लेना चाहें तोे पूरे देश में फ्लड प्लेन और जल निकायों के डूब क्षेत्र को वर्गीकृत और संरक्षित श्रेणी में रख देना चाहिए।
एक बार पूरे यकीन के साथ एलान करना होगा कि कितना भी जरूरी हो या कितना भी फायदा दिखता हो, हम ये संवेदनशील क्षेत्र विकास के लिये छुएँगे भी नहीं। उन्होंने इसके लिये बाक़ायदा रेगुलेटरी बनाने का सुझाव दिया।
हो सकता है कि किसी को प्रोफेसर अस्थाना की बात में ज्यादा नयापन न लगे फिर भी उन्होंने चेन्नई से सबक लेकर आगे के बचाव के लिये कानूनी उपाय का सुझाव नए तेवर में दिया है।
अब अगर इस सुझाव पर अमल के लिये सोचने बैठें तो पिछली यूपीए सरकार 2 के दौरान पर्यावरण मंत्रालय को घेरे जाने का हवाला दिया जा सकता है। उस सरकार की नीतियों को लकवा मारने के आरोप में जो सबूत दिये जाते थे वे पर्यावरण मंत्रालय में फाइलें फँसी होने वाले ही ज्यादा थे।
औद्योगिक विकास की बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी नहीं मिल रही थी। वैसे हर कोई मानेगा कि कुछ समस्याओं के समाधान के लिये आज तेजी से आर्थिक विकास की जरूरत है पर सोचना पड़ेगा कि किस कीमत पर?
अब तक बात सिर्फ यह हुई है आगे से नए नगरों के नियोजन के लिये क्या सावधानी बरती जाये और वह सावधानी किस कानूनी उपाय से हो सकती है। लेकिन यह गुत्थी फिर भी बाकी रह जाती है कि चेन्नई और चेन्नई जैसे दसियों महानगर जो हाल की आपदा जैसे अन्देशे के घेरे में हैं, वहाँ क्या किया जाये।
इस बारे में आईआईटी कानपुर से 1970 में खासतौर पर मिट्टी और पानी के सम्बन्धों पर लघु शोध करने वाले और उप्र की कई जल परियोजनाओं का अधीक्षण कर चुके जल विज्ञानी केके जैन से भी बात हुई। उन्होंने बताया कि चेन्नई जैसी बाढ़ प्रवण स्थितियाँ देश में कमोबेश सभी क्षेत्रों में बन गई हैं।
अलग-अलग जगहों पर कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सामान्य अनुभव हैै कि जल ग्रहण क्षेत्रों में बेजा दखल दिये जाने से वहाँ के पनढाल बदलते जा रहे हैं। जहाँ सड़कें बनी तो पुलिया नहीं बनीं।
एक्सप्रेसवे जैसी परियोजनाओं में हम इसे अनदेखा कर रहे है। यानी जहाँ से होकर पानी बहता था वह इन सड़कों के कारण अपने निश्चित रास्ते जाने से जाने से रुकने लगा। बारिश के दिनों में पानी की निकासी के लिये जो बरसाती नाले थे उनके दोनों तरफ की ज़मीन भी दूसरे कामों में इस्तेमाल की जाने लगी।
नदियों के दोनों तटों की ज़मीन पर विकास की योजनाएँ बनने लगी हैं। इसका ख़ामियाज़ा फौरन तो नहीं दिखता लेकिन थोड़ी भी ज्यादा बारिश के दौरान यह पानी तबाही मचाता हुआ निकलता है। इसका कारण हम अपने लालच की बजाय प्राकृतिक आपदा बताने लगते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ जैन के मुताबिक जल ग्रहण क्षेत्र में अराजक रूप से निर्माण होने से बाढ़ की समस्या तो आती ही है लेकिन उतनी ही बड़ी समस्या सूखे की भी बनने लगी है। बारिश के पानी को जिस बाँध या तालाब में लाने का प्रबन्ध किया गया था वह उन जल निकायों में न पहुँच कर यहाँ-वहाँ से बहकर निकलने लगता है।
और बीसियों साल की मेहनत से हमने गैर मानसून महीनों के लिये बारिश के पानी को जमा करने का जो प्रबन्ध किया था वह ध्वस्त हो रहा है। इसीलिये देश के ज्यादातर तालाबों और बाँधों में पानी की आमद घटने का अंदेशा हमारे सामने बाढ़ जितनी ही बड़ी चुनौती है।
इसके समाधान के लिये जल विज्ञान की तकनीकी भाषा में जो नाम है उसे कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट कहते हैं। यह उपाय तकनीकी और प्रौद्योगिकीय कौशल के लिहाज से प्रबन्धन योग्य है।
लेकिन प्रशासनिक तौर पर क्रियान्वयन के लिहाज से बहुत ही चुनौती भरा है क्योंकि इसे करने के लिये बड़ी-बड़ी रिहायशी आबादियों और औद्योगिक केन्द्रों को इधर-से-उधर करना बहुत ही खर्चीला काम होगा।
ऊर्जा क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कम्पनी सिनेर्जिक्स में सीनियर कंसलटेंट जैन ने बताया कि जल प्रबन्धन का काम बिजली से ज्यादा सिंचाई पर केन्द्रित होना चाहिए। लेकिन हमारा ध्यान उर्जा पर ज्यादा लगता जा रहा है।
उन्होंने कहा कि निकट भविष्य में जिस तरह के जल संकट का अंदेशा है उससे बचने के लिये बारिश के पानी को छोटे जलग्रहण क्षेत्र में ही रोककर रखने के अलावा और कोई व्यावहारिक विकल्प सोचा नहीं जा पा रहा है। इससे जरूरत पर पानी का इन्तजाम भी होगा और ज्यादा बारिश के समय बाढ़ की विभीषिका से बचनेे की स्थिति बनेगी।
ज्यादातर पर्यावरण कार्यकर्ताओं को जो पिछले एक डेढ़ साल से कुछ चुप से थे उन्हें भी अपनी ज़िम्मेदारी के कारण मुखर होना पड़ा। पूरी गम्भीरता से इतना सब कुछ होने के बाद भी इस हादसे या कुदरती आफ़त के तर्कपूर्ण कारणों या आगे से बचाव या रोकथाम के उपायों पर सुझाव निकलकर अभी भी आ नहीं पाये।
हो सकता है कि ऐसा इसलिये हुआ हो क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अकादमिक और व्यावहारिक विद्वानों को आगे बैठाकर उनसे बात करने का चलन अभी शुरू नहीं हो पाया है।
अपने देश में हम आधिकारिक जल विज्ञानियों की सूची तक नहीं बना पाये हैं ताकि मौके पर उनसे कुछ जान सकें। हालांकि हमारे पास पर्यावरण के क्षेत्र में रुचि रखने वाले पत्रकार और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले पर्यावरणविद उपलब्ध हैं।
ऐसे संकटों के समय वे हमें शिक्षित और जागरूक करते रहते हैं और इस बार भी उन्होंने यह ज़िम्मेदारी निभाई।
बेशक ऐसे चिन्ताशील लेखकों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चेन्नई हादसों के कारणों पर अपनी राय देकर हमें जागरूक किया है। उनके राय मशविरे को अगर एक दो पंक्तियों में कहें तो चेन्नई में नगर नियोजन की ख़ामियों और विकास की वासना में अंधाधुंध निर्माण करने से यह आपदा मौत की हद तक पहुँच गई।
लेकिन बिल्कुल सामने दिखता है कि जो गलतियाँ सार्वभौमिक रूप से कबूल करते हुए आर्थिक विकास के लिये अपरिहार्य बुराई मान ही ली गई हों तो चेन्नई में हुए अंधाधुंध विकास के खिलाफ हम किस मुँह से कुछ कह पाएँगे।
खैर आइए फिलहाल हम नगर नियोजन की ख़ामियों और कथित विकास के विकल्प पर विशेषज्ञों और जल विज्ञान के आधिकारिक विद्वानों को भी थोड़ा सुन लें।
आईआईटी रुड़की में वैकल्पिक जल विज्ञान विभाग में प्रोफेसर रहे और उसके पहले उप्र में सिंचाई विभाग के प्रमुख अभियन्ता रह चुके और आज जलविज्ञान विषयों के आधिकारिक विद्वान डॉ. बीएन अस्थाना का कहना है कि निर्माण की बड़ी परियोजनाएँ जलविज्ञान के पहलू को सामने रखे बिना बन ही नहीं सकतीं।
सिर्फ आधुनिक काल के वैज्ञानिक ही नहीं मध्ययुगीन और प्राचीनकाल के नगर नियोजक तक जल विज्ञान के नुक्तों से वाक़िफ़ थे। प्रोफेसर अस्थाना ने बताया कि आधुनिक जल विज्ञानी मद्रास में प्राचीन एरी प्रणाली और बुन्देलखण्ड में नौवीं सदी से 13वीं सदी के बीच चंदेल शासकों के बनवाए तालाबों की इंजीनियरी से आज भी अभिभूत होते हैं।
डॉ. अस्थाना के मुताबिक इन प्राचीन जल निकायों की इंजीनियरी में कोई नुक्ताचीनी नहीं निकाल पाता बल्कि उसे देखकर हम आज भी अपने शोध करते हैं। आज के जल विज्ञानियों के लिये दोनों प्रणालियों में समानता बहुत ही कौतूहल का विषय है।
प्रोफेसर अस्थाना के मुताबिक आज का चेन्नई वही प्राचीन नगर है जिसके पास एरी प्रणाली का जल विज्ञान धरोहर के रूप में मौजूद है। लेकिन हम तब क्या करें जब तेजी से फायदे के लालच में इन वैज्ञानिक तथ्यों को अनदेखा करना शुरू कर दिया गया हो और हर काम को हम सबसे पहले आर्थिक लाभ लागत अनुपात के लिहाज से देखने लगे हों।
प्रोफेसर अस्थाना का कहना है कि किसी परियोजना के लिये वित्त का प्रबन्धन इंजीनियर के काम के दायरे में नहीं आता। वह सिर्फ यह देखता है कि उससे जिस परियोजना का खाका बनवाया जा रहा है उस परियोजना पर जो ख़र्चा बैठेगा उससे ज्यादा फायदा होगा या नहीं। वैसे ये प्रौद्योगिकविद मुख्य रूप से तकनीकी व्यावहार्यता को देखने तक सीमित है।
उन्होंने अपने अनुमान को दावे की हद तक जाकर कहा कि उनके अभियन्ता बन्धुओं ने हर बार आगाह किया होगा कि चेन्नई में नदी का फ्लड प्लेन या पुराने तालाबों का सबमर्जेंस यानी डूब क्षेत्र को किसी भी सूरत में निर्माण के लिये छुआ भी नहीं जा सकता।
प्रोफेसर ने कहा 98 साल पहले इसी जगह बादल फटने की इससे बड़ी आपदा इतिहास में दर्ज है। लेकिन तब आज जैसी विभीषिका का जिक्र नहीं मिलता।
उन्होंने कहा कि अगर वाकई हम चेन्नई त्रासदी को गम्भीरता से ले रहे हैं और इस आपदा से सबक लेना चाहें तोे पूरे देश में फ्लड प्लेन और जल निकायों के डूब क्षेत्र को वर्गीकृत और संरक्षित श्रेणी में रख देना चाहिए।
एक बार पूरे यकीन के साथ एलान करना होगा कि कितना भी जरूरी हो या कितना भी फायदा दिखता हो, हम ये संवेदनशील क्षेत्र विकास के लिये छुएँगे भी नहीं। उन्होंने इसके लिये बाक़ायदा रेगुलेटरी बनाने का सुझाव दिया।
हो सकता है कि किसी को प्रोफेसर अस्थाना की बात में ज्यादा नयापन न लगे फिर भी उन्होंने चेन्नई से सबक लेकर आगे के बचाव के लिये कानूनी उपाय का सुझाव नए तेवर में दिया है।
अब अगर इस सुझाव पर अमल के लिये सोचने बैठें तो पिछली यूपीए सरकार 2 के दौरान पर्यावरण मंत्रालय को घेरे जाने का हवाला दिया जा सकता है। उस सरकार की नीतियों को लकवा मारने के आरोप में जो सबूत दिये जाते थे वे पर्यावरण मंत्रालय में फाइलें फँसी होने वाले ही ज्यादा थे।
औद्योगिक विकास की बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी नहीं मिल रही थी। वैसे हर कोई मानेगा कि कुछ समस्याओं के समाधान के लिये आज तेजी से आर्थिक विकास की जरूरत है पर सोचना पड़ेगा कि किस कीमत पर?
अब तक बात सिर्फ यह हुई है आगे से नए नगरों के नियोजन के लिये क्या सावधानी बरती जाये और वह सावधानी किस कानूनी उपाय से हो सकती है। लेकिन यह गुत्थी फिर भी बाकी रह जाती है कि चेन्नई और चेन्नई जैसे दसियों महानगर जो हाल की आपदा जैसे अन्देशे के घेरे में हैं, वहाँ क्या किया जाये।
इस बारे में आईआईटी कानपुर से 1970 में खासतौर पर मिट्टी और पानी के सम्बन्धों पर लघु शोध करने वाले और उप्र की कई जल परियोजनाओं का अधीक्षण कर चुके जल विज्ञानी केके जैन से भी बात हुई। उन्होंने बताया कि चेन्नई जैसी बाढ़ प्रवण स्थितियाँ देश में कमोबेश सभी क्षेत्रों में बन गई हैं।
अलग-अलग जगहों पर कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सामान्य अनुभव हैै कि जल ग्रहण क्षेत्रों में बेजा दखल दिये जाने से वहाँ के पनढाल बदलते जा रहे हैं। जहाँ सड़कें बनी तो पुलिया नहीं बनीं।
एक्सप्रेसवे जैसी परियोजनाओं में हम इसे अनदेखा कर रहे है। यानी जहाँ से होकर पानी बहता था वह इन सड़कों के कारण अपने निश्चित रास्ते जाने से जाने से रुकने लगा। बारिश के दिनों में पानी की निकासी के लिये जो बरसाती नाले थे उनके दोनों तरफ की ज़मीन भी दूसरे कामों में इस्तेमाल की जाने लगी।
नदियों के दोनों तटों की ज़मीन पर विकास की योजनाएँ बनने लगी हैं। इसका ख़ामियाज़ा फौरन तो नहीं दिखता लेकिन थोड़ी भी ज्यादा बारिश के दौरान यह पानी तबाही मचाता हुआ निकलता है। इसका कारण हम अपने लालच की बजाय प्राकृतिक आपदा बताने लगते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ जैन के मुताबिक जल ग्रहण क्षेत्र में अराजक रूप से निर्माण होने से बाढ़ की समस्या तो आती ही है लेकिन उतनी ही बड़ी समस्या सूखे की भी बनने लगी है। बारिश के पानी को जिस बाँध या तालाब में लाने का प्रबन्ध किया गया था वह उन जल निकायों में न पहुँच कर यहाँ-वहाँ से बहकर निकलने लगता है।
और बीसियों साल की मेहनत से हमने गैर मानसून महीनों के लिये बारिश के पानी को जमा करने का जो प्रबन्ध किया था वह ध्वस्त हो रहा है। इसीलिये देश के ज्यादातर तालाबों और बाँधों में पानी की आमद घटने का अंदेशा हमारे सामने बाढ़ जितनी ही बड़ी चुनौती है।
इसके समाधान के लिये जल विज्ञान की तकनीकी भाषा में जो नाम है उसे कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट कहते हैं। यह उपाय तकनीकी और प्रौद्योगिकीय कौशल के लिहाज से प्रबन्धन योग्य है।
लेकिन प्रशासनिक तौर पर क्रियान्वयन के लिहाज से बहुत ही चुनौती भरा है क्योंकि इसे करने के लिये बड़ी-बड़ी रिहायशी आबादियों और औद्योगिक केन्द्रों को इधर-से-उधर करना बहुत ही खर्चीला काम होगा।
ऊर्जा क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कम्पनी सिनेर्जिक्स में सीनियर कंसलटेंट जैन ने बताया कि जल प्रबन्धन का काम बिजली से ज्यादा सिंचाई पर केन्द्रित होना चाहिए। लेकिन हमारा ध्यान उर्जा पर ज्यादा लगता जा रहा है।
उन्होंने कहा कि निकट भविष्य में जिस तरह के जल संकट का अंदेशा है उससे बचने के लिये बारिश के पानी को छोटे जलग्रहण क्षेत्र में ही रोककर रखने के अलावा और कोई व्यावहारिक विकल्प सोचा नहीं जा पा रहा है। इससे जरूरत पर पानी का इन्तजाम भी होगा और ज्यादा बारिश के समय बाढ़ की विभीषिका से बचनेे की स्थिति बनेगी।
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