चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पादकता में वृद्धि


वायु श्वासी मछलियों के मुख्य रूप से मागुर, सिंघी तथा केवई का पिंजरों में उत्पादन किया जा सकता है। पिंजरों में वायु श्वासी मछलियों का पालन बारहमासी चौर एवं मौसमी चौर दोनों में सम्भव है। परन्तु ऐसे चौर जिसमें जल की मात्रा कम होती है तथा अन्य मछलियों का पालन सम्भव नहीं हो पाता है, में करने से बेकार पड़े जल क्षेत्र का भी उपयोग हो जाता है, वायु श्वासी मछलियाँ तल में रहती हैं, अतः बाहर से पानी डालने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। वायुश्वासी मछलियाँ अपने स्वाद पोषक तत्वों तथा उपचारात्मक गुणों के लिये जानी जाती हैं। इसलिये इनकी माँग ने केवल देश में बल्कि विदेशों में भी है तथा इनका विक्रय मूल्य दूसरी मछलियों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। कुछ राज्यों में इनका मूल्य 400 रु. प्रति कि.ग्रा. से भी अधिक है। इनका विकास, वृद्धि तथा उत्तरजीविता भी दूसरी मछलियों की तुलना में अधिक होती है।

इन मछलियों का प्रबन्धन दूसरी मछलियों से कम होने के कारण इनका पालन भी आसान होता है। साथ ही इनकी सहनीय क्षमता भी अधिक होती है। इन्हीं दृष्टिकोणों से आर्थिक बचत से भी लाभदायक होता है। वायु श्वासी मछलियों को कम जल तथा कम गुणवत्ता वाले जल में भी पालन किया जा सकता है। इनका संग्रहण घनत्व अन्य मछलियों से ज्यादा होने के कारण जल क्षेत्र का पूर्ण उपयोग सम्भव है। परन्तु अभी भी इनकी उपलब्धता इनकी माँग की अपेक्षा काफी कम है, जिसका मुख्य कारण है इसके बीज एवं पालन सम्बन्धी उद्योगों का सीमित मात्रा में होना। फलस्वरूप इनके उत्पादन की अपार सम्भावनाएँ हैं।

वायु श्वासी मछलियों के मुख्य रूप से मागुर, सिंघी तथा केवई का पिंजरों में उत्पादन किया जा सकता है। पिंजरों में वायु श्वासी मछलियों का पालन बारहमासी चौर एवं मौसमी चौर दोनों में सम्भव है। परन्तु ऐसे चौर जिसमें जल की मात्रा कम होती है तथा अन्य मछलियों का पालन सम्भव नहीं हो पाता है, में करने से बेकार पड़े जल क्षेत्र का भी उपयोग हो जाता है, वायु श्वासी मछलियाँ तल में रहती हैं, अतः बाहर से पानी डालने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। इसके अलावा पिंजरे में पालन करने से इनका प्रबन्धन, प्रग्रहण आसान हो जाता है। चूँकि वायु श्वासी मछलियाँ पानी की सतह पर आकर श्वास लेती है, फलस्वरूप वायु श्वासी मछलियों का पिंजरा पानी की सतह से 1-2 मी. ऊँचाई तक होना चाहिए, ताकि इन्हें सतह पर आॅक्सीजन लेने में आसानी हो सके।

मागुर पालन


मागुर सभी उष्णकटीबन्धीय एवं उपउष्णकटिबन्धीय जलवायु में व्यापक रूप से पाई जाती है। आम तौर पर 150-200 ग्राम. वजन एवं दो वर्ष की मागुर पूरी तरह से परिपक्व हो जाती है। 12-14 दिन का मागुर का पोना (10-20 एम.एम.) माप का संचयन के लिये उपयुक्त समझा जाता है। मागुर के पोना का संचयन, केज में मिट्टी के तालाब में तथा सीमेंट के हौज में किया जा सकता है।

तेजी से वृद्धि तथा अधिक उत्तरजीविता के लिये उपयुक्त घनत्व, जल की अच्छी गुणवत्ता एवं उपयुक्त आहार का होना अति आवश्यक होता है। साधारणतः अच्छी उत्तरजीविता एवं वृद्धि के लिये 200-300 पोना प्रति घनमीटर की दर से संचयन उपयुक्त होता है। छोटे आकार का सीमेंट हौज (10-20 वर्ग मी.) अच्छी उत्तरजीविता तथा प्रबन्धन के लिये उपयुक्त होता है। सीमेंट हौज के नीचले सतह पर 5-8 से.मी. मिट्टी की परत दी जाती है इसके अलावा 25-30 से.मी. तक जल का होना आवश्यक होता है। इसके अलावा 3×3×3 मी. का केज मागुर के लिये उपयुक्त होता है।

संचयन तालाब अथवा हौज में पिंजरे के स्थान में खाद के रूप में गाय का गोबर का इस्तेमाल किया जा सकता है। संचयन तालाब अथवा हौज तथा पिंजरे की तैयारी के 6-7 दिन बाद जब इसमें प्लवक दिखाई पड़ने पर पोनों का संचयन किया जाता है। संचयन के पश्चात तालाब में कुछ प्लवमान जलीय पौधा जैसे जलकुम्भी इत्यादि डाल देते हैं ताकि उन्हें शरण स्थान अथवा आश्रय मिल सके।

पोना को 30-35 प्रतिशत वाला आहार एक महीने तक दिया जाना चाहिए। खाने योग्य मागुर मछली उत्पादन के लिये लगभग 1 ग्रा. वजन का 45-50 दिनों का उन्नत पोनों का संचयन 50,000-70,000 प्रति हेक्टेयर की दर से किया जाता है। 3-5 प्रतिशत शारीरिक भार की दर से भोजन कम मात्रा में तालाब की विभिन्न जगहों पर टोकरी में रखकर दिया जाता है। चूँकि मागुर वायु श्वासी मछली है, इसलिये यह साँस लेने के लिये पानी की सतह पर आकर वातावरण से ऑक्सीजन लेती है जिससे चिड़ियों द्वारा शिकार का खतरा बना रहता है। इसलिये तालाब के ऊपर बड़े फंदे वाला जाल बिछा दिया जाता है।

7-8 महीने के संचयन के बाद पोना मछली खाने योग्य हो जाती है। इस समय इनका वजन 100 ग्रा. तक हो जाता है। मागुर के प्रग्रहण के लिये तालाब से पानी बाहर निकाल कर उन्हें पकड़ लिया जाता है। इसके अलावा पिंजरे से प्रग्रहण के लिये पिंजरे को समेट कर पानी से निकालकर आसानी से प्रग्रहण कर लेते हैं। इस तरह के पालन से 3-4 टन तक की उपज प्राप्त की जा सकती है।

सिंघी पालन


सिंघी मछली को डंस मारने वाली मछली भी कहा जाता है। इनका जलकृषि में एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है, जो अपने सहायक श्वास अंग के कारण छिछला तथा कम ऑक्सीजन वाले जल क्षेत्र में जीवनयापन करने में सक्षम है। देश के अन्तर्स्थलीय मत्स्य अवतरण की 15 प्रतिशत भागीदारी सिंघी मछली की है। यह पोखर, तालाब, नदी, मान एवं चौर में पाई जाती है। सिंघी मछली को मागुर की तरह मिट्टी के तालाब, सीमेंट का हौज एवं केज में पाला जा सकता है।

सिंघी का सहायक श्वास अंग 10-12 दिन में विकसित हो जाता है। 12-15 एम.एम. माप का 14-15 दिनों का सिंघी का पोना संचयन के लिये उपयुक्त होता है। सिंघी को एकल पद्धति तथा मिश्रित पद्धति से पाला जा सकता है। बेहतर वृद्धि तथा उत्तरजीविता के लिये 300-500 पोना प्रति घन मी की दर से संचयन करना चाहिए। सिंघी प्राकृतिक रूप से सर्वहारी होती है। इसे पूरक आहार के रूप में मछली का छोटा टुकड़ा या घोंघा का छोटा टुकड़ा को चावल के छिलके के साथ बराबर मात्रा में देते हैं।

इसके अलावा सूखी मछली का चूर्ण (20 प्रतिशत) मूँगफली खल्ली (30 प्रतिशत), सोयाबीन चूर्ण (10 प्रतिशत), गेहूँ की भूसी या चोकर (20 प्रतिशत), चावल का छिलका (20 प्रतिशत) को अच्छी तरह मिलाकर पकाते हैं। फिर ठण्डा होने पर विटामिन एवं मिनरल (10 प्रतिशत) मिलाकर गोल-गोल बाल या गोला बनाकर केज अथवा तालाब के कई कोनों में टोकरी में रखकर दिया जा सकता है। संचयन अवधि के बाद 5 टन/हे. तक उत्पादन लिया जा सकता है।

 

चौर क्षेत्र में मात्स्यिकी द्वारा जीविकोत्थान के अवसर - जनवरी, 2014


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आजीविका उन्नति के लिये मत्स्य-पालन प्रौद्योगिकी

2

चौर में मत्स्य प्रबन्धन

3

पेन में मत्स्य-पालन द्वारा उत्पादकता में वृद्धि

4

बरैला चौर में सफलतापूर्वक पेन कल्चर बिहार में एक अनुभव

5

चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पातकता में वृद्धि

6

एकीकृत समन्वित मछली पालन

7

बिहार में टिकाऊ और स्थाई चौर मात्स्यिकी के लिये समूह दृष्टिकोण

8

विपरीत परिस्थितीयों में चौर क्षेत्र के पानी का समुचित उपयोग

 

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