चौर में मत्स्य प्रबन्धन


बिहार में अगस्त से सितम्बर महीने तक बाढ़ की सम्भावना रहती है इसलिये जुलाई, अगस्त और सितम्बर महीनों में पेन द्वारा चौर के भीतर मत्स्य बीज उत्पादन करना चाहिए। बाढ़ के खत्म होने पर सितम्बर अन्त या अक्टूबर शुरू में पेन में उत्पादित मछलियों को चौर में छोड़ देना चाहिए। बिहार के चौर क्षेत्र उथले (कम गहराई वाले) तथा पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इन्हीं पोषक तत्वों के कारण चौर क्षेत्र में जलीय पौधों की वृद्धि अधिक होती है। जलीय पौधों की अनियंत्रित वृद्धि मत्स्य उत्पादन में मुख्य बाधा है। अतः इन पौधों का उन्मूलन आवश्यक है। बाढ़ के समय चौर, पानी और परभक्षी जीवों (मछली, साँप) से भर जाते हैं। बाढ़ के बाद चौर क्षेत्र बड़ी झील की तरह प्रतीत होते हैं।

जैसे ही पानी कम होता है तो चौर बड़े जलाशयों का रूप ले लेते हैं, जिसमें बाढ़ के साथ आई मछलियाँ तथा संचयित मछलियाँ बाहर नहीं जा पातीं। गरई, सोरा, बुआरी, वामी, पोठी और कवई आदि मछलियाँ चौर क्षेत्र में पाई जाती है। बिहार के चौर क्षेत्रों में मत्स्य उत्पादन क्षमता के विपरीत बहुत ही कम (40-50 किलो/हेक्टयर/प्रतिवर्ष) है। वैज्ञानिक तरीके से मात्स्यिकी प्रबन्धन द्वारा मत्स्य उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है जिससे मछुआरों की आजीविका में भी वृद्धि होगी।

मात्स्यिकी प्रबन्धन


चौर में बड़े आकार की अंगुलिकाओं (50-100 ग्रा.) का संचयन करना चाहिए क्योंकि चौर में मत्स्यभक्षी मछलियाँ, साँप और पक्षी होते हैं। इसके अतिरिक्त चौर में पानी साल भर नहीं रहता तथा पानी सूखने का भी डर रहता है। बेहतर होगा कि पिछले साल की ‘स्टडड’ अंगुलिकाएँ हों। ये अंगुलिकाएँ चौर में तेजी से बढ़ती हैं और 4-5 महीनों में बाजार में बेचने योग्य हो जाती हैं।

मत्स्य प्रजातियों का चयन


विश्लेषण में यह देखा गया है कि चौर मृत जैव पदार्थों, जलीय पौधों तथा प्लवकों से परिपूर्ण हैं। जलमग्न पौधे (जैसे-हाइड्रिला, वेलिसनेरिया, ओटेलिया) नरम होते हैं तथा कई मछलियाँ इनसे अपना आहार प्राप्त करती हैं, जैसे कि ग्रास कार्प। जलीय पौधों पर पाये जाने वाले शैवाल तथा सूक्ष्म जीव रोहू मछली द्वारा खाए जाते हैं। कतला जन्तु प्लवक खाती है और कॉमन कार्प तथा नयनी मृत जैव पदार्थों को खाती है। अतः चौर क्षेत्रों में ग्रास कार्प, कॉमन कार्प, कतला, रोहू और नयनी का संचयन उपयुक्त है।

संचयन तथा प्रग्रहण


प्रयोग और सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार के चौर क्षेत्रों में 1.0 से 1.5 टन/हे. उपज प्राप्त की जा सकती है। 1.0 से 1.5 टन/हे. उत्पादन के लिये 2500 से 3500 अंगुलिकाएँ/हे का संचयन करना चाहिए। संचयन तथा प्रग्रहण दो चरणों में किया जाना चाहिए।

(1) फरवरी के महीने में जब तापमान, जलीय उत्पादकता तथा जैव पदार्थों की अपघटन दर बढ़ रही होती है तब उन्नत अंगुलिकाओं का संचयन करना चाहिए। इन मछलियों का प्रग्रहण जून के महीने में बाढ़ आने से पहले कर लेना चाहिए।

(2) बिहार में अगस्त से सितम्बर महीने तक बाढ़ की सम्भावना रहती है इसलिये जुलाई, अगस्त और सितम्बर महीनों में पेन द्वारा चौर के भीतर मत्स्य बीज उत्पादन करना चाहिए। बाढ़ के खत्म होने पर सितम्बर अन्त या अक्टूबर शुरू में पेन में उत्पादित मछलियों को चौर में छोड़ देना चाहिए। नवम्बर महीने के बाद तापमान कम होने लगता है और देशी कार्प मछलियों बहुत कम खाती हैं और उनकी वृद्धि तथा विकास में कमी आ जाती है। इस समय ग्रास कार्प और कॉमन कार्प तीव्र वृद्धि से अच्छा उत्पादन दे सकती हैं। इसलिये ग्रास कार्प और काॅमन कार्प मछलियों का अधिक-से-अधिक संचयन करना चाहिए। इन मछलियों को जनवरी से फरवरी महीने में चौर से निकाल कर बेचा जा सकता है।

 

चौर क्षेत्र में मात्स्यिकी द्वारा जीविकोत्थान के अवसर - जनवरी, 2014


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आजीविका उन्नति के लिये मत्स्य-पालन प्रौद्योगिकी

2

चौर में मत्स्य प्रबन्धन

3

पेन में मत्स्य-पालन द्वारा उत्पादकता में वृद्धि

4

बरैला चौर में सफलतापूर्वक पेन कल्चर बिहार में एक अनुभव

5

चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पातकता में वृद्धि

6

एकीकृत समन्वित मछली पालन

7

बिहार में टिकाऊ और स्थाई चौर मात्स्यिकी के लिये समूह दृष्टिकोण

8

विपरीत परिस्थितीयों में चौर क्षेत्र के पानी का समुचित उपयोग

 

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