चौगान में चम्बा

रावी के किनारे एक ओर शहर और दूसरी ओर ऊंची पर्वत श्रेणियां हैं। घने जंगल हैं। असल में पूरा चम्बा शहर रावी नदी के दो किनारों पर बसा है। अत: यहां की रातें ठंडी हो जाती हैं। चम्बा सब ओर से पर्वत श्रेणियों से घिरा है। रावी तथा बुढल, तुंदाह, साहो, सियूल नदियां इसके चारों और बह रही हैं। ये रावी की सहायक नदियां हैं। पूरा प्रदेश वनों से घिरा है। वर्षा खूब होती है और आवश्यक सभी फसलें यहां स्थानीय लोगों की जरूरतें पूरी करती हैं।सामने पहाड़ के पीछे सूर्य अपनी सुनहरी आभा बिखेरने लगा है। मैं पूरी पलकें खोलकर नीचे बहती सरिता, उसके साथ खड़े पहाड़, जंगल और सांध्य सूर्य की लाल गुलाबी किरणों को आंखों में भर रही हूं। हमारे पर्यटक दल के साथी हैं मित्र मदनगोपाल गुप्ता, उनकी पत्नी निर्मल और मेरे पति। इस क्षण ये सब मौन हैं। इस घड़ी प्रकृति के बिखरे सौंदर्य को आंखों में भर लेने को जैसे आतुर हैं। प्रशंसा में हमारे चेहरे भी गुलाबी हो गये हैं। प्रकृति का यह रूप कुछ क्षण का पहुना है। सिंदूरी संध्या पर हौले-हौले उतरने लगी है, कुछ धुंध और रात की काली चादर। गर्मियों की संध्या लंबी होती है। फुर्सत के क्षणों में हम इसका रूपरस पान करते हैं। मेरे पति डा. जैन कह उठते है- यही सब कुछ तो है जिसे देखने हम अनेक कष्ट सहकर पहाड़ों पर दौड़े चले आते हैं।

चम्बा आने का कार्यक्रम हम कई बार बना चुके थे। हर बार कोई न कोई अड़चन खड़ी हो जाती थी। पिछली बार जब डलहौजी खजियार से ही लौट जाना पड़ा तब तो प्रतिज्ञा-सी ही कर डाली थी कि अगले साल चम्बा जाएंगे, चाहे कुछ हो जाये। असल में हमारी यात्रा ऐसे पर्यटकों के साथ नहीं निभती जो एक दिन में साढ़े छह स्थान देखकर लौट जाते हैं। इस बार मदनगोपाल पत्नी सहित कुछ ऐसे मित्र मिले जो फुर्सत के क्षणों को भरपूर जीना चाहते थे। राह के एक-एक पत्थर, पेड़, फूल, बहती नदी, गिरते झरने, दूर दिखती बर्फ की चोटी, ऊंचे शिखर पर उतरते बादल, राह में मिलते बच्चे, उनके पशु-भेड़, बकरी, गाएं, भैंस सबसे आत्मीयता बनाते गंतव्य तक पहुंचते। और कहीं राह में सांझ हो गई तो फिर 'जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात।’ कार से यात्रा करने में यह सुविधा रहती है। छोटी जगह के रेस्ट हाउसों में सरकारी अफसर जमे नहीं मिलते। अत: ऐसे स्थान पर हम जम जाते हैं। कागड़ा से धर्मशाला के लिए चले तो छोटी पहाड़ी नदी किनारे के एक घास मैदान में बैठ चाय पीने लगे। पीछे मुड़कर देखा पी डब्ल्यू डी का रेस्ट हाउस है। संध्या होने में तो देर थी, पर शांत स्थान ने हमें बांध लिया। हम वहीं पसर गये। इस तरह हमारी यात्रा मस्ती में चल रही थी। जब गीत, गजल, चुटकुले और लंबी बहसें चलतीं तब पता ही नहीं चलता, कब डेढ़ सौ किलोमीटर पार कर आये हैं।

जब हम चम्बा पहुंचे तब दिन-दोपहर का समय हो गया था। कुछ दौड़-धूप के बाद रावी के किनारे का एक होटल ठहरने को मिला। रास्ता तो बड़ा कुड़ब्बा था, किन्तु होटल के छज्जे में पहुंचे तो लौटने का मन नहीं किया। कल दूसरा होटल देखेंगे। किंतु इस होटल को चला रही थी एक विधवा स्त्री। अपने घर की दो मंजिलें उसने होटल में परिवर्तित कर दी थीं। यात्रियों को भोजन और चाय स्वयं बनाकर देती। उसके मृदु व्यवहार और कठिन परिश्रम से हम सब खूब प्रभावित हुए। जितना सुन्दर बाहर का दृश्य उतना ही शांत वातावरण होटल का था। बहुत-सी कमियों को झेलकर भी हमने चम्बा प्रवास का पूरा समय यहीं बिताया। इसी ‘रिवर व्यू होटल' में।

चम्बा पठानकोट से 118 किलोमीटर और डलहौजी से 53 किलोमीटर है। जबसे कश्मीर आतंकवाद से ग्रस्त-त्रस्त हुआ है तभी से यात्रियों की भीड़ डलहौजी, चम्बा और धर्मशाला की ओर मुड़ी है। यहां पहाड़ों में पठानकोट से छोटी रेल लाइन जोगेन्दर नगर तक बनी है और गग्गल में एक हवाई पट्टी भी बन गई है। ये दोनों स्थान डलहौजी चम्बा धर्मशाला से नजदीक है। हमारी तरह पहाड़ी रास्तों का आनन्द लेते हुए जाना चाहें तो सिखों के प्रसिद्ध तीर्थ कीरतपुर आनंदपुर साहब होते हुए भाखड़ा नंगल, ऊना ज्वालाजी, कांगड़ा, दलाई लामा का निवास धर्मशाला की ठंडक लेते हुए चन्दा पहुंचें।

जब हम धर्मशाला से चम्बा के लिए चले तो रास्ते में चुवाड़ी और जोत की इतनी सुंदर जगहें मिली कि चुवाड़ी के रेस्ट हाउस में हम ठहर ही गये। जोत जो आठ हजार फुट की ऊंचाई पर था वहां पर दिन के बारह बजे भी हम ठंड से सिकुड़ने लगे। दो चाय की दुकाने यहां का बाजार थी। सामने बर्फीली चोटियों का सुंदर दृश्य था। हमने चाहा एक दिन यहां भी रुका जाये, किंतु मात्र पचास-साठ व्यक्तियों की जनसंख्या वाले उस सुंदर स्थान में ठहरने की जगह नहीं थी। तेज हवा में हमारी कार का खुला बोनट उड़ने लगा था। चाय पीकर जोत की सुंदर दृश्यावली को निहारते हम आगे बढ़ गये। पूरी यात्रा में हम जोत की ठंडक को नहीं भुला सके। क्योकिं छह हजार फुट ऊंची धर्मशाला में यात्रियों की भीड़ ठंडक पी गई है और चम्बा की तो ऊंचाई मात्र 966 मीटर (3200 फुट) है। दिन-दोपहर में तो यहां पंखे के नीचे बैठे बिना चैन नहीं आता। यहां घरों और होटलों में फ्रिज रखे हैं। दिन-रात पंखे घूम रहे हैं। हां, थोड़ी-सी फुहार गिरने पर तथा सुबह-शाम बड़ा सुखद मौसम वहां का लगता है। चम्बा रावी नदी के तट पर बसा है। रावी के किनारे एक ओर शहर और दूसरी ओर ऊंची पर्वत श्रेणियां हैं। घने जंगल हैं।असल में पूरा चम्बा शहर रावी नदी के दो किनारों पर बसा है। अत: यहां की रातें ठंडी हो जाती हैं। चम्बा सब ओर से पर्वत श्रेणियों से घिरा है। रावी तथा बुढल, तुंदाह, साहो, सियूल नदियां इसके चारों और बह रही हैं। ये रावी की सहायक नदियां हैं। पूरा प्रदेश वनों से घिरा है। वर्षा खूब होती है और आवश्यक सभी फसलें यहां स्थानीय लोगों की जरूरतें पूरी करती हैं।

चम्बा नगर का मुख्य आकर्षण यहां शहर के बीच बना चौगान है। यह खूब लंबा-चौड़ा लोहे की छोटी बाड़ से घिरा सुंदर मैदान है। एक ओर हरे-भरे पहाड़ों और रावी का दृश्य है, बीच में एक शांत-सुनसान पथ है। इस पर यात्रियों-पथिकों के बैठने के लिए आश्रय बने हैं। एक मंदिर भी है। आगे चलकर चम्बा का प्रसिद्ध भूरि सिंह संग्रहालय है। महाराज भूरि सिंह चम्बा के अंतिम राजाओं में से थे। आधुनिक चम्बा के विकास में इनका बहुत सहयोग रहा है। इन्हीं के नाम पर चम्बा का संग्रहालय बना है। चम्बा क्षेत्र की कई सुंदर कलाकृतियां इसमें दर्शायी गई हैं। जैसे सुंदर खुदाई वाली पनघट शिलाएं, काष्ठकला, रामायण-महाभारत की पेंटिंग, चम्बा रूमाल, कांस्य और पत्थर मूर्तियां आदि सब दर्शनीय हैं, किंतु यहां गाइड नहीं है और न ही कोई साहित्य। दिन भर यात्री आते हैं और संग्रहालय का चक्कर लगाकर चले जाते हैं। बस वहां लिखकर लगाई पर्चियों से वे जो समझना चाहे समझ लेते हैं।

नगर में प्रवेश करते ही पहाड़ी नगर में इतना खुला मैदान देख हम खिल उठते हैं। इसकी एक ओर शांत पेड़ों से घिरी सड़क है तो दूसरी ओर भीड़ भरा बाजार। मुख्य कार्यालय, बैंक, बाजार सभी इस चौगान के आस-पास हैं। चम्बा के मेले-ठेले-उत्सव सब इसी चौगान में होते हैं। धन्य हैं यहां के लोग और शासक, जिन्होंने इस चौगान को अवैध कब्जों से भरने नहीं दिया है। इसका घेरा भी इतना मजबूत-पक्का है कि लोग छलांग तो लगा लेते हैं किंतु तोड़ नहीं सकते। साइकल जैसा हलका वाहन या बच्चों की गाड़ियां भी इस चौगान के अंदर नहीं दिखतीं। न ही लोगों के फेंके कूड़े से भरा है यह चौगाना असल में, यह चौगान चम्बा नगर का हृदय है। इतिहास, किवदंतियां, कथाएं, लोकगीत सबका साक्षी है यह चौगान। लोहड़ी, दशहरा मेला, पेयजल के लिए अपना बलिदान देने वाली रानी सुई का मेला, वर्षा ऋतु का प्रसिद्ध मिंजर मेला, मणिमहेश की यात्रा - सब के आयोजन इसी चौगान में होते हैं। चन्दा की प्रेमगाथा कुंजू और चंचलों के विरह गीत, उत्सवों के उत्साही नृत्य सब इसी चौगान में गूंजते हैं। चम्बा की सम्पूर्ण संस्कृति का दर्शन इस चौगान में हो जाता है। संध्या समय स्थानीय और पर्यटक सभी लोगों की भीड़ चौगान में दिखाई देती है, जो हमें जीवंत बनाती है।

आज का चम्बा हिमाचल का एक जिला है। इसकी सीमाएं जम्मू-कश्मीर, कांगड़ा और पंजाब को छूती हैं। क्षेत्रफल 6528 वर्गमीटर है। यहां की भाषा चम्बियाली बोली है। इस बोली के लोकगीत बड़े मधुर है। यहां महिलाओं का पहनावा पंजाब की तरह सलवार-कुर्ता है। कोई-कोई महिला साड़ी भी पहन लेती है। पुरुषों का पहनावा भी आधुनिक पैंट-शर्ट, कुर्ता-पायजामा और बुजुर्गों का धोती-कुर्ता मिलता है। कहते हैं, चम्बा में कभी चम्पा वृक्ष के जंगल भरे पड़े थे, इसीलिए इसका नाम चम्बा पड़ा।पहाड़ी रियासतों में चम्बा का इतिहास बहुत प्राचीन है। छठी शताब्दी से चम्बा का नाम जाना जाता है किंतु आज के चम्बा का इतिहास और विकास राजा साहिल वर्मा (920-940 ई.) माना जाता है। इसके वंशजों ने दस शताब्दी तक चम्बा में राज किया। स्वयं साहिल वर्मा धार्मिक और कला प्रेमी था। इसने चम्बा में कई सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया। पेयजल के संकट को दूर किया। किंवदंती के अनुसार, साहिल वर्मा की ही रानी ने पानी के लिए अपना बलिदान दिया। नगर के मध्य बना रानी सुई का मंदिर आज भी उसकी कहानी कहता है। अब यह मंदिर बहुत अच्छी दशा में देखने को नहीं मिलता जबकि इसकी देख-रेख पुरातत्व विभाग के पास है।

आज का चम्बा हिमाचल का एक जिला है। इसकी सीमाएं जम्मू-कश्मीर, कांगड़ा और पंजाब को छूती हैं। क्षेत्रफल 6528 वर्गमीटर है। यहां की भाषा चम्बियाली बोली है। इस बोली के लोकगीत बड़े मधुर है। यहां महिलाओं का पहनावा पंजाब की तरह सलवार-कुर्ता है। कोई-कोई महिला साड़ी भी पहन लेती है। पुरुषों का पहनावा भी आधुनिक पैंट-शर्ट, कुर्ता-पायजामा और बुजुर्गों का धोती-कुर्ता मिलता है। कहते हैं, चम्बा में कभी चम्पा वृक्ष के जंगल भरे पड़े थे, इसीलिए इसका नाम चम्बा पड़ा। दूसरी कहानी यह भी चलती है कि राजा साहिल वर्मा की पुत्री का नाम चम्पावती था, उसी केनाम पर इस नगर का नाम ‘चम्बा’ रखा गया। नगर के मध्य चम्पावती देवी का मंदिर भी बना है, वह दुर्गा देवी का अवतार और चम्बा नगर की रक्षक देवी मानी जाती हैं।

चम्बा चौगान से लगा हुआ बाजार है। इसकी एक चौड़ी सड़क बड़े बाजार की है। यहां अन्य वस्तुओं की दुकानों के साथ चप्पलों की दुकानें भी सजी हुई मिलती हैं। आधुनिक चम्बा का मुख्य उद्योग चम्बा चप्पलें हैं। ये सुंदर, आरामदायक और कढ़ाई की हुई होती हैं। यहां से एक थैला भर चप्पलें हमने भी खरीद ली हैं।

चम्बा की कला में चम्बा रूमाल का स्थान विशेष है। हम चप्पल के बाद चम्बा रूमाल की दुकाने ढूंढ़ रहे हैं जो कहीं नहीं मिली। एक कोऑपरेटिव स्टोर में छोटे-छोटे रूमाल मिले, जो चम्बा की विशेषता से कोसो दूर लगे। फिर हमारे होटल में ही वहां की मालकिन ने लाकर चम्बा रूमाल दिखाये। रेशम से सुंदर फूलों की बेल कढ़ा एक डेढ़ गज कपड़े का रूमाल पसंद आता है किंतु कीमत सुनकर हम वहीं चित्र बन जाते हैं। कीमत है, केवल पंद्रह हजार रुपये। चम्बा कशीदाकारी की विशेषता यह है कि वह कपड़े की दोनों ओर एक-सी होती है। रंग अधिक नहीं होते पर सुंदर होते हैं। राधा-कृष्ण, रासलीला, फूलों की बेलें आदि इन पर चमकीले रेशम धागे सें काढ़ी जाती हैं। एक-एक रूमाल बनाने में एक से तीन वर्ष तक लग जाते हैं। हम चम्बा रूमाल अपने घर में सजा लेने के सपने लिए लौट आते हैं। अब यह कला संग्रहालयों, आर्ट गैलरियों और कुछ पारखी रईसों की शोभा रह गई है।

हम चौगान के एक छोर से मुड़कर सब्जीमंडी पहुंच जाते हैं। सब्जीमंडी में मैदानी और पहाड़ी दोनो ही फसलें दिख रही हैं। यहां आम-केला भी है और अलूचा-प्लम-अखरोट भी बिक रहा है। घीया, तोरई, करैला, फूलगोभी, बैंगन के साथ पत्तागोभी, मटर, फली, खीरा, आलू, प्याज सब बिक रहे हैं। सहजन फली की तरह का कोई एक और साग स्थानीय और गांव के लोग फुटपाथ पर बैठ बेच रहे हैं। मैं पूछती हूं कि यह कहां पैदा होता है?

- यह पानी के पास सीलन भरी जगह में उगता है।

हमारी होटल मालकिन से शाम के भोजन में हम उसी सब्जी की फरमाइश करते हैं जो खाने में बहुत स्वादिष्ट नहीं लगती। वह बताती हैं कि सभी सब्जियां, फल आदि यहां पैदा होते हैं और सब खेतों में उगते हैं। यह सब्जी अपने-आप जंगलों में पानी के किनारे उग जाती है।

यहां के बाजारों में शोर-शराबा नहीं है। व्यापारी शांति से मृदु व्यवहार करते हैं। पर लोकल और बाहरी यात्री की इन्हें अच्छी पहचान है। चप्पल-जूतों के व्यापारी यात्रियों से दुगने दाम भी ले लेते हैं। इस पहाड़ी क्षेत्र में भी बाजार की सड़के खूब चौड़ी और साफ हैं।

बाजार से लौटकर हम बाएं ओर एक सड़क की ऊंचाई चढ़ने लगते हैं। यह कुछ तीखी चढ़ाई वाली सड़क है जो यहां के प्रसिद्ध लक्ष्मीनारायण मंदिर को जाती है। इस पर एक ओर मंदिर और दूसरी ओर राजभवन है। मंदिर के कपाट अभी बंद हैं। दोपहर का समय जो है। हमारे स्थानीय साथी इस बीच हमें राजभवन दिखाने ले जाते हैं। संजीवन और गौरी शंकर दोनों इसी राजमहल कॉलेज में पढ़ते हैं। अब राजमहल कॉलेज को एक बड़ी विशाल लाइब्रेरी में परिवर्तित कर दिया गया है। यहां की इस लाइब्रेरी की प्रशंसा संजीवन कई बार कर चुके थे।

मित्र कमलेश हमें इसे अवश्य दिखाना चाहते थे। लाइब्रेरी की विशालता और पुस्तकों का भंडार देख हम अभिभूत हो उठे। उत्तम रख-रखाव के बीच अनेक विषयों और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू भाषा की पुस्तकों का विशाल भंडार है चम्बा राजमहल शासकीय महाविद्यालय की लाइब्रेरी। इसके वाचनालय में कई दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र रखे थे जिन्हें लोग पढ़ रहे थे। हम बहुत देर घूम-घामकर लाइब्रेरी की आलमारियों को देख रहे थे। समय खिसक रहा था और व्हीलचेयर (पहियाकुर्सी) पर चलने वाले मेरे पति के लिए खोले गये भव्य द्वार को बंद करने का समय आ गया था। हम कुछ पुस्तकों के नाम आंखों में लिख लौट आये हैं। अब हम दूसरी ओर लक्ष्मीनारायण मंदिर में पहुंचते हैं। मंदिर के विशाल द्वार के सामने एक ऊंचा स्तंभ सड़क पर खड़ा है जिस पर बाज की मूर्ति बैठाई गई है। मंदिर एक विशाल परकोटे से घिरा है। द्वार से अंदर प्रवेश करते ही भगवान विष्णु का मंदिर सामने पड़ता है। लंबे-चौड़े इस मंदिर परिसर में यह विष्णु मंदिर सबसे 65 फुट है। शिखर शैली में बने इस मंदिर की कला दर्शनीय है। एक बड़े कक्ष में प्रवेश के बाद गर्भगृह आता है जिसमें भगवान विष्णु की संगमरमर प्रतिमा कपड़ों और गहनों से सजी हुई विराजित है। इस मूर्ति को दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मा ने विंध्याचल पर्वत के संगमरमर से निर्मित कराया था। यह चतुर्भुज प्रतिमा है और भारत भर की विष्णु प्रतिमाओं में अपना विशिष्ट स्थान रखती है।

लक्ष्मी-नारायण मंदिर के इसी परिसर में छह और शिखर शैली के मंदिर हैं। ये राधाकृष्ण, त्र्यम्बकेश्वर, लक्ष्मीदामोदर, गौरीशंकर, चन्द्रगुप्त महादेव और हनुमानजी के हैं। इसके अतिरिक्त इसी परिसर में कुछ छोटे-छोटे मंदिर अन्य देवी-देवताओं के बने हैं। त्र्यम्बकेश्वर महादेव के सामने एक विशाल नंदी मूर्ति बनी है। इस पर ढलवां छत का मंदिर है।

चम्बा के राजा और जनता धार्मिक प्रकृति के रहे थे और उन्होंने इस शहर और रियासत में अनेक मंदिरों का निर्माण किया था। यहां के अधिकांश मंदिर छठी शताब्दी में निर्मित हैं। येपहाड़ी, शिखर और नागर शैली में बने हैं। लकड़ी और पत्थर से निर्मित इन मंदिरों की कला सराहनीय है।

लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह के अतिरिक्त चम्बा नगर में अन्य कई मंदिर बने हैं। नगर के बीच चम्पावती देवी का मंदिर है और कुछ दूर सुई मंदिर है। यहां की लोककथाओं में इनका विशेष महत्व है।

चम्बा जिले के अन्य दर्शनीय स्थल हैं- भरमौर (ब्रह्मपुर)। यहां के चौरासी मंदिर अपनी स्थापत्य कला के कारण प्रसिद्ध हैं। इसी भरमौर से कैलाश के चरणों में स्थित मणिमहेश की प्रसिद्ध यात्रा भादो-मास में चलती है। यहां विशेष पूजा का आयोजन होता है। प्राचीनकाल में यही ब्रह्मपुर चम्बा की राजधानी था। मणिमहेश झील की यात्रा यहां से पैदल चलकर ये 3950 मीटर ऊंचाई पर झील तक पहुंचती थी। आज भी अगस्त-सितंबर में यह यात्रा विधिवत चलती है। चम्बा से जमुहार जाते हुए बीच में चामुंडा मंदिर पड़ता है। यह शहर से 1 किलोमीटर दूर करीब चार सौ सीढ़ियां चढ़कर आता है। मंदिर की छत और खंबों पर लकड़ी का सुन्दर काम है। यहां के ऊंचे आंगन से पूरे चम्बा का मोहक दृश्य नजर आता है। यह दुर्गा भवानी रूप देवी का प्राचीन मंदिर है।

अन्य मंदिरों में बंसी गोपाल, हरिहरराय, योगी चरपटनाथ, ब्रजेश्वरी आदि के मंदिर हैं।

चामुंडा मंदिर से आगे हम जमुहार की ऊंचाई चढ़ने लगे। कुछ दूर चलने के बाद कच्ची सड़क और घना जंगल शुरू हो जाता है। गोल रोड़ी वाली सड़क पर गाड़ी चढ़ने में मुश्किल आ रही थी। हम लौट चलने का मन बनाने लगे, पर मित्र मदन गोपाल ने साहस दिया, अब आठ किलोमीटर चलकर आ ही गये हैं तो इस 'जमद्वार' (जमुहार) को भी देख लें। और कुछ डर, कुछ ठहाकों के बीच हम जमुहार पहुंच ही गये। यहां दूर से ही आवाजें आ रही थी। पास जाकर देखा तो इतनी ऊंचाई पर देवदारों के बीच फैले घास के मैदान में बीएसएफ की ट्रेनिंग चल रहीं थी। इसमें जवानों के अतिरिक्त बीस के करीब लड़कियां भी थीं। यहां पहुंचने वाले हम एकमात्र यात्री थे जो इस समय इस वर्जित क्षेत्र में पहुंच गये थे। इस ट्रेनिंग के ऑफिसर मि. नेगी को हमने अपना परिचय दिया। उन्होंने हमारा स्वागत किया और बैठने के लिए कुर्सियां मंगवाई। हम देर तक चांदमारी देखते रहे। लड़कियों को गोली चलाते देखने का तो हमारा यह पहला ही अवसर था। हम यहां इसी चांदमारी के चलने के कारण घूम नहीं सके। पर जितना सौंदर्य भी आंखों में भर सके वह मेरे पति डा. महराज कृष्णा जैन के शब्दों में- ‘मदनगोपाल जी, आप तो इसे 'जमद्वार' कहते थे, पर यह तो स्वर्ग से होड़ ले रहा है। अपने शब्द वापस लो।’ बर्फीली चोटियां, देवदार के गगन छूते वृक्षों के झुंड, लंबा-चौड़ा घास का मैदान जैसे अभी किसी सुघड़ माली ने घास तराशी हो। दूर एक मंदिर और छोटा-सा ताल, छत के समान फैला शुभ्र आकाश, ठंडी सुखद वायु, प्राणवायु। यहां छोटी-सी बस्ती है। गांव के सीधे-साधे लोग हैं। फेफड़ों में ढेर-सी प्राणवायु भर हम चम्बा की ओर लौट चले हैं।

जमुहार के बाद हम चम्बा डलहौजी मार्ग पर खजियार देखने लगे। खजियार की सुंदरता के लिए इतना ही कहना काफी है कि इसे भारत का स्वीट्जरलैंड कहा गया है। नर्म घास के बिछावन के चारों ओर खड़े विशाल देवदार एक घास मैदान की सीमा बनाकर खंभों की तरह सजे लग रहे हैं। यहां खज्जीनाग का मंदिर भी है। यह मंदिर प्राचीन है और स्थानीय लोगों की श्रद्धा का केन्द्र है। लकड़ी से बने इस मंदिर का अब नवीनीकरण कर दिया गया है। मंदिर का बड़ा कक्ष पक्का बन गया है। मंदिर के आसपास बाजार बढ़ता जा रहा है।

चम्बा जिले के अन्य दर्शनीय स्थल हैं- भरमौर (ब्रह्मपुर)। यहां के चौरासी मंदिर अपनी स्थापत्य कला के कारण प्रसिद्ध हैं। इसी भरमौर से कैलाश के चरणों में स्थित मणिमहेश की प्रसिद्ध यात्रा भादो-मास में चलती है। यहां विशेष पूजा का आयोजन होता है। प्राचीनकाल में यही ब्रह्मपुर चम्बा की राजधानी था। मणिमहेश झील की यात्रा यहां से पैदल चलकर ये 3950 मीटर ऊंचाई पर झील तक पहुंचती थी। आज भी अगस्त-सितंबर में यह यात्रा विधिवत चलती है।

डलहौजी छावनी अंग्रेजों ने बसाई थी। आज यह चम्बा जिले का प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बन गया है। दिल्ली से बारह-तेरह घंटों में लोग डलहौजी पहुंच जाते हैं। चम्बा जाने के लिए कुछ नीचे बनी खेत से रास्ता मुड़ जाता है।

हम चम्बा से प्रात:काल चल पड़े थे। राह में खजियार के घास के कालीनों पर दोपहर में बच्चों की तरह लोटते रहे। देवदारों की छाया में सिर्फ बैठे ही नहीं बल्कि उनसे लिपट-लिपटकर मिलते रहे। फिर कालाटोप के जंगल से होते डलहौजी पंहुचे। वहां से हमारी उतराई शुरू हुई। पहाड़ों, तुम्हें प्रणाम! अगले बरस फिर आएंगे। फिर देखेंगे-सुनेंगे नदी की हलचल-कलकल, पर्वत चोटियों की बर्फीली चमक। देवदारों की बातें, हरे मैदानों की गोद, गोल-मटोल लुढ़कते पत्थरों की ध्वनि, चट्टानों का साहस सौंदर्य, नदी किनारे पहाड़ के पीछे लुकते सूर्य का गुलाबी सुनहरा उजाला।

रात होते-होते हम पठानकोट के यात्री विश्राम गृह में भयंकर गर्मी से जूझ रहे थे। याद आ रही थी जोत की ठंडक, जहां दोपहर में भी हम कांप उठे थे। धन्य है मेरे देश की जलवायु। इसे दूषित होने से कैसे बचाए? पहाड़ों पर लाखों यात्री जा रहे हैं। उनकी सुविधा के लिए धड़ाधड़ होटल, बाजार और सड़कें बन रही हैं। अब यात्री एक दिन में चार स्थान देखता है। पर्यटन स्थलों के सुंदर प्राकृतिक दृश्य के स्थान सूने पड़े होते हैं और बाजारों में भीड़ भरी होती है। बर्फीली चोटियां इसलिए कैमरे में कैद हो रही हैं कि उसके आगे हम खड़े हैं। चांदनी रात में उत्तरी किरणों को नदी की लहरों पर इठलाते देखने की फुर्सत हमें कहां अब? अब तो यह समय आधुनिकता, सिर्फ आधुनिकता को समर्पित रहता है। देवदार के जंगलों के बीच बैठकर पंछी के गीत सुनने का अब समय कहां? गाती रहीं कूंजडी चिड़िया–कूटूं थी पीसूं थी... और हम उसके करुण गान को अनसुना कर चल पड़ते हैं, चाय पीने, चाट खाने।

मैं नीचे उतर रहीं हूं पर मेरे चारों ओंर पहाड़ ने घेरा डाल रखा है, देवदार की बांहों ने मुझे कस लिया है जैसे।

Path Alias

/articles/caaugaana-maen-camabaa

Post By: Hindi
×